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शिशु एवं वृद्ध स्वास्थ्य १४७ सूत्रों का सम्यक् प्रयोग करे, चर्या संयमित रहे, हित और परिमित आहार करे, चिन्ता, भय आदि से बचे, भावनाएं पवित्र रहें तो शिशु का स्वास्थ्य बहुत उत्तम रह सकता है ।
पोषक आहार
"जन्म लेने के बाद भी एक शिशु में यह विवेक नहीं होता कि वह स्वास्थ्य के लिए क्या करे और क्या न करे ? क्या खाए और क्या न खाए ? इस अवस्था में भी माता को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि शिशु को क्या खिलाना चाहिए? क्या पिलाना चाहिए ? मोहवश यह न हो जाए कि जिस समय जो नहीं खिलानी चाहिए, उस समय वही वस्तु खिला दे । अपोषण और कुपोषण, दोनों से बचना जरूरी है । समस्या यह है— पोषण कैसे मिले ? पोषक आहार मिले, यह सबके वश की बात नहीं है । गरीबी की समस्या है, अभाव की समस्या है । इस स्थिति में यह कैसे संभव है कि सबको पोषक आहार मिले । इस अवस्था में पूरा पोषण नहीं होता, अपोषण भी होता है और कुपोषण भी होता है । वे चीजें भी शिशु को खिलाई जाती हैं, जो पोषण के प्रतिकूल होती हैं । सामाजिक, आर्थिक आदि अनेक स्थितियों के कारण ऐसा होता है, किन्तु यह विवेक जागृत हो कि एक शिशु के प्रति माँ का क्या दायित्व है तो शिशु स्वास्थ्य के प्रति सहज जागरूकता बढ़ जाए ।
अभय का वातावरण
शिशु स्वास्थ्य के लिए यह भी जरूरी है कि भय का वातावरण पैदा किया जाए । भगवान् महावीर ने सबसे ज्यादा बल अभय पर दिया । यदि अभय नहीं है तो अहिंसा नहीं है और अहिंसा नहीं है तो स्वास्थ्य भी नहीं है । स्वास्थ्य नहीं है तो धर्म का विकास भी नहीं है और शरीर का पर्याप्त विकास भी नहीं है । यह जो डराने-धमकाने की मनोवृत्ति है, उसे कुछ माताएं स्वार्थवश अपना लेती हैं । बच्चा से रहा है, कार्य में बाधा डाल रहा है । माँ तत्काल कह देती है कि 'हाऊ' आ जाएगा । बच्चा भयभीत हो कर मौन हो जाता है । जब-जब माँ 'हाऊ' का डर दिखाती है, तब-तब बच्चा भयग्रन्थि से आक्रान्त हो जाता है । उसके भीतर ऐसा डर समा जाता है कि
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