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१४८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र
वह कभी अभय बन ही नहीं सकता | इस भय का परिणाम उसे जीवन भर भुगतना पड़ता है । माँ अपने स्वार्थ के लिए शिशु में भय की जटिल वृत्ति का बीज बो देती है । भय दिखाना ही हो तो यह भय दिखाना चाहिए कि तुम यह खाओगे तो बीमार पड़ जाओगे । यह नहीं खाओगे तो शरीर कमजोर हो जाएगा । स्वास्थ्य के लिए, आहार-विवेक के लिए कभी-कभी भय आवश्यक हो सकता है | किन्तु अपने स्वार्थ के लिए शिशु के मस्तिष्क में जो भंयग्रन्थि विकसित की जाती है, वह उसके स्वास्थ्य के लिए समस्या बन जाती है ।
न डराएं न धमकाएं
स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण कारक सूत्र है वातावरण । बहुत प्रसिद्ध कथा है । शेर के पिंजड़े के सामने बकरी को बांध दिया । बकरी को बहुत खिलाया, खुब पोषण दिया, पर वह उसे पुष्ट नहीं बना सका । जब जब शेर दहाड़ता, वह खाया-पीया सारा बाहर आ जाता ।
भय के वातावरण में पोषण नहीं मिलता । माता-पिता अपने शिशु के स्वास्थ्य की चिन्ता करते हैं । वे इस बात पर अवश्य ध्यान दें- बच्चे के सामने भय की स्थिति पैदा न करें, उसे डराएं-धमकाएं नहीं । वर्तमान शिशुविज्ञान यही कहता है कि बच्चे को पवित्र और भय-मुक्त वातावरण दिया जाए तो वह विकास की छलांग लगा सकता है । दस वर्ष की जो शिशु अवस्था है, उसमें भी प्रारंभिक पांच वर्ष में विशेष जागरूकता से शिशु पर ध्यान देना चाहिए । प्रथम पांच वर्ष संस्कार-निर्माण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं । यह संस्कार-निर्माण की पहली अवस्था है । पांच वर्ष के बाद संस्कार-निर्माण की दूसरी आवृत्ति शुरू हो जाती है | पांच वर्ष तक यदि पूर्ण जागरूकता रहे तो शिशु का स्वास्थ्य बहुत अच्छा रह सकता है । शिशु स्वास्थ्य का परिणाम यह होता है कि माता-पिता को बहुत चिन्ता नहीं करनी पड़ती । यदि शिशु बीमार होता है तो अनेक समस्याएं पैदा हो जाती हैं।
वही दें, जो हितकर है
शिशु को कुछ बीमारियां असावधानी से भी होती हैं । हमने देखा-एक वर्ष के बच्चे को बाईपास सर्जरी करानी पड़ी । पांच-दस वर्ष के बच्चे की
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