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१४६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र
वह प्रत्येक क्रिया और चर्या में संयमित रहती, जिससे गर्भस्थ शिशु को कोई क्षति न हो, पीड़ा न हो ।
गर्भस्थ शिशु स्वस्थ कैसे रहे, इसका पहला सूत्र है—गर्भावस्था में माता अपनी सारी क्रियाएं संयमपूर्वक संपादित करे ।
आहार-विवेक
धारिणी का आहार-विवेक प्रबुद्ध था । मां का आहार गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है । जो मां का आहार होता है, वही पुत्र का आहार होता है, इसलिए माता को आहार का विवेक रखना चाहिए । कहा गया- माता परमित आहार करे । न अति तिक्त भोजन करे, न अति कटु
और न अति कसैला भोजन करे । न अति अम्ल और न अति मधुर भोजन करे । वह ऐसा आहार करे, जो शिशु के लिए हितकर हो । वह सदा यह ध्यान देती रहे कि मेरे भोजन का शिशु के शरीर पर क्या प्रभाव होगा ? यह आहार का विवेक गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है।
कषाय विवेक
तीसरी बात है- गर्भावस्था में माता अति चिन्ता न करे । भय, शोक, मोह आदि भावात्मक आवेगों से दूर रहे । न भय करे, न शोक और घृणा करे, न मोह करे । कषाय उपशान्त रहे । भावधारा निर्मल और पवित्र रहे। हम देखते हैं- बहुत सारे शिशु विकृत अवस्था में जन्म लेते हैं । कुछ शिशु तो जीकर भी माता-पिता के लिए मृततुल्य होते हैं । उनके जीने और मरने में कोई अंतर प्रतीत नहीं होता । एक मांस के लोथड़े के समान उनकी अवस्था रहती है । ऐसा क्यों होता है ? इसका एक कारण माता-पिता स्वयं हैं । जब माँ गर्भधारण करती है और जब तक शिशु का जन्म नहीं हो जाता तब तक माता-पिता का बहुत बड़ा दायित्व और भूमिका होती है | यदि मातापिता जागरूक हैं तो शिशु ऐसा नहीं होगा । यदि माता-पिता असावधान हैं, प्रमत्त हैं तो उसका परिणाम शिशु को जीवन भर भुगतना पड़ता है ।
ये तीन सूत्र गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं— चर्याविवेक, आहार-विवेक तथा कषाय-विवेक । यदि गर्भावस्था में माता इन तीनों
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