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शिशु एवं वृद्ध स्वास्थ्य १४५ भी विकसित नहीं होती । शक्ति के दो प्रकार हैं- लब्धि वीर्य और करण वीर्य । एक शिशु को लब्धि की शक्ति तो प्राप्त रहती है, किन्तु उसमें करणवीर्यक्रियात्मक शक्ति का पूरा विकास नहीं होता । जैन आगम का प्रसंग है । आत्मा और शरीर के विषय में केशी कुमार-श्रमण और राजा प्रदेशी के मध्य संवाद चल रहा था | राजा प्रदेशी ने कहा- यदि सबमें आत्मा समान होती तो युवक और शिशु की कार्य-क्षमता में अंतर नहीं होता । एक युवक हाथ में धनुष बाण लेता है और वह प्रत्यंचा खींच कर निशाने पर तीर चला देता है । एक शिशु बाण नहीं चला सकता । इससे स्पष्ट होता है कि एक शिशु और एक युवक की आत्मा समान नहीं है | केशी कुमार-श्रमण ने राजा प्रदेशी के इस तर्क को समाहित करते हुए कहा- 'एक बालक में बाण चलाने की लब्धि है, उसमें बाण चलाने की क्षमता है किन्तु उसकी क्रियात्मक शक्ति का पूरा विकास नहीं हुआ इसलिए वह बाण नहीं चला सकता । एक युवक में क्रियात्मक शक्ति का विकास हो गया है इसलिए वह बाण चला सकता है।'
स्वास्थ्य के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण शब्द है करण वीर्य- क्रियात्मक शक्ति का विकास । जिसमें क्रियात्मक शक्ति पूर्ण विकसित हो जाती है, वह स्वास्थ्य के प्रति जागरूक भी रह सकता है और अजागरूक भी हो सकता है । एक शिशु में लब्धि वीर्य-क्षमतात्मक शक्ति का विकास होता है, किन्तु करण वीर्य-क्रियात्मक शक्ति का पूर्ण विकास नहीं होता । एक शिशु भी करण वीर्य का प्रयोग करता है । यह नहीं कहा जा सकता है कि उसमें करणवीर्य नहीं है । किन्तु इतना अवश्य है कि उसमें करणवीर्य का पूरा विकास नहीं है। इसीलिए गर्भावस्था से लेकर शैशवावस्था तक उसके स्वास्थ्य के प्रति विशेष विमर्श जरूरी है ।
संयत-चर्या
ज्ञाताधर्मकथा का प्रंसग है । सम्राट् श्रेणिक की धर्मपत्नी गर्भवती थी। राजकुमार मेघ गर्भ में था । इस प्रंसग में वहां गर्भ अवस्था की जो क्रियाएं बतलाई गई हैं, उनमें स्वास्थ्य के महत्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं । कहा गया- जब मेघकुमार गर्भ में था, तब धारिणी संयमपूर्वक खड़ी होती, संयमपूर्वक बैठती, संयमपूर्वक सोती । उसका सोना, बैठना, बोलना- सब कुछ संयमपूर्वक होता।
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