________________
८४ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र
प्राण ऊर्जा का व्यय रोकें
तपस्या के प्रारंभिक चार प्रकार के साधन हैं । इनका उचित प्रयोग करने पर दूसरे चिकित्सक की जरूरत नहीं होती, व्यक्ति स्वयं अपना चिकित्सक बन जाता है । ऐसी बात तो नहीं है कि अल्पाहारी अथवा हिताहारी बीमार होता ही नहीं, सदा स्वस्थ ही रहता है। बीमारी के और भी अनेक कारण
T
हैं । बाहरी वातावरण, ऋतु अथवा जीवाणु, वायरस आदि अनेक कारण हैं, जो रोग पैदा करते हैं । रोग निरोधक शक्ति की कमी से भी रोग उभरता है । रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाने के लिए उपवास, ऊनोदरी आदि अचूक उपाय हैं । अधिक भोजन से ऊर्जा का व्यय अधिक होता है । ऊर्जा को बचाना अपनी शक्ति को बचाना है ।
जैन परंपरा में नवकारसी, पौरुषी, पुरिमड्ढ, एकासन, उपवास, दस प्रत्याख्यान आदि अनेक प्रकार के तप प्रचलित हैं । ये सारे ऊर्जा के अधिक व्यय को रोकने अथवा ऊर्जा को बचाने के प्रयोग हैं । आयुर्वेद के अनुसार माना जाता है कि प्रातः दस बजे तक कफ का प्रभाव रहता है और तदनन्तर पित्त का प्रभाव बढ़ता है । कफ के प्रभाव काल में गृहीत भोजन, नाश्ता आदि का पाचन ठीक नहीं होता है । पित्त का प्रारंभ दस बजे होता है और पूर्णता १२ बजे होती है । इसलिए जैन आगमों में जो "एगभत्तं च भोयणं" कहा गया, वह वैज्ञानिक तथ्य है ।
आज भोजनशास्त्री कहते हैं कि नाश्ता लो ही मत । यदि लेना हो तो अल्प मात्रा में केवल तरल पदार्थ - दूध आदि ले लो । अन्य भारी पदार्थ मत लो, मिठाई मत लो ।
आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में लिखा- अस्तंगते दिवानाथे— सूर्य के अस्त होने पर पाचन-तंत्र निष्क्रिय हो जाता है । ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है— सूर्य । उसकी विद्यमानता में प्राणतंत्र, ऊर्जातंत्र, पाचनतंत्र सभी सक्रिय रहते हैं । सूर्य के अस्त होते ही ये सारे तंत्र निष्क्रिय होने लग जाते हैं । इसलिए यह समय भोजन के लिए उपयुक्त नहीं है । खाए हुए भोजन का रस नहीं बनता । वह अस्वास्थ्यप्रद होता है ।
प्रातःराश अथवा नाश्ते के लिए प्राकृत भाषा का शब्द है— पढमालिया । आपवादिक स्थिति में नाश्ते का विधान है । सामान्य स्थिति में मुनि के लिए केवल दिन में एक बार के भोजन का विधान है । कम बार भोजन करने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org