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चित्त, मन और स्वास्थ्य १७
की स्वतंत्र सत्ता है किन्तु मन की स्वतंत्र सत्ता नहीं है । अगर मन ही सब कुछ है, मन की स्वतंत्र सत्ता है तो अपने मन को वश में करो, यह निर्देश कौन देता है ? यह निर्देश किसकी क्रिया है ? वह है चित्त की सत्ता । यह चित्त का काम है कि चाहे वह मन का निग्रह करें और चाहे तो उसे खुला छोड़ दे । यदि चित्त पवित्र है और चित्त में यह बात बैठ गई है कि मुझे मन का निग्रह करना है तो फिर वह ध्यान की साधना करेगा, मन को एकाग्र करेगा, मन को अपने नियंत्रण में रखेगा । मन का मालिक है वह । ध्यान में एक स्थिति आती है निर्विकल्प ध्यान की । यदि मन की स्वतंत्र सत्ता है तो फिर निर्विकल्प और निर्विचार ध्यान का मतलब क्या होगा? क्या चेतना समाप्त होगी ? चेतना कभी समाप्त नहीं होती । विचार नहीं है फिर भी अपने अस्तित्व की अनुभूति बराबर हो रही है । __आचार्य रामचन्द्र ने एक सुन्दर बात कही— जैन लोग शून्य को ध्यान नहीं मानते । चेतना की शून्यता ध्यान नहीं, मूर्छा है । जहां मूर्छा है, वहां चेतना का ध्यान नहीं है, वहां मन की सत्ता नहीं है, मन का विकल्प नहीं है, मन का विचार नहीं है । जहां चेतना की अनुभूति का सातत्य है, निरन्तर चेतना की अनुभूति का अनुभव हो रहा है, चित्त की जागरूकता है वहां ध्यान है । अन्यथा मूर्छा और ध्यान में कोई अन्तर नहीं रहेगा । वह ध्यान की अवस्था है, जहां अपने अस्तित्व का, अपने चैतन्य का बराबर ध्यान बना रहता है । निर्विचार और निर्विकल्प अवस्था में मन तो नहीं है किन्तु ध्यान है और इसलिए है कि उसमें अस्तित्व अथवा चैतन्य का बोध प्रखर बना रहता है।
स्थायी है चित्त
एक महत्वपूर्ण शब्द है अमन । मन की अनेक स्थितियां बनती हैं किन्तु एक ऐसी स्थिति भी है जहां मन ही नहीं रहता, समाप्त हो जाता है । यह अमन की स्थिति है । यह अंतर स्पष्ट होना चाहिए— चित्त है स्थायी और मन है उत्पाद । हम मन को पैदा करें तो वह है । यदि न करें तो मन है ही कहां? मन, वचन, काया-तीन तत्व हैं । इनमें मन और वचन की स्थिति समान है । काया की स्थिति इन दोनों से भिन्न है । जब तक आदमी जीवित है, शरीर बना रहेगा । वाणी और मन की स्थिति यह है कि जब चाहे इन
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