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१६ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र
तीसरा-चित्त सम्यग् दर्शन चित्त । यह सम्यग् दृष्टिकोण का निर्माण करता है । तत्व को तत्व के रूप में स्वीकृत करता है, यथार्थ को यथार्थ की दृष्टि से देखता है । इसी के सहारे विधायक भाव और विधायक चिन्तन की प्रक्रिया चलती है ।
चौथा है वीतराग चित्त । कोई भी व्यक्ति सर्वथा चरित्र - शून्य नहीं है । चरित्र का किंचित् मात्रा में हर व्यक्ति में विकास होता है । वह विकास वीतराग चित्त के द्वारा निष्पन्न होता है ।
संदर्भ स्वास्थ्य का
हम स्वास्थ्य की दृष्टि से चिन्तन करें । आवरण चित्त का सीधा सम्बन्ध स्वास्थ्य के साथ नहीं है । उसका सम्बन्ध ज्ञान के साथ है । स्वास्थ्य के साथ भी हो सकता है पर प्रत्यक्षतः सीधा सम्बन्ध नहीं है । किन्तु अन्तराय चित्त, मिथ्यात्व चित्त और सबसे ज्यादा मोह चित्त का सम्बन्ध हमारे स्वास्थ्य के साथ जुड़ता है । हम चित्त को दो भागों में बांट दें-- शुद्ध चित्त और अशुद्ध चित्त । एक शुद्ध चित्त है और एक अशुद्ध चित्त है । चित्त की शुद्धि, और भावों की शुद्धि से जुड़ी है मन की शुद्धि । वास्तव में मन शुद्ध अथवा अशुद्ध नहीं बनता । यह मन का काम ही नहीं है । मन का काम है स्मृति करना, कल्पना करना, चिन्तन करना । वह शुद्ध और अशुद्ध नहीं होता । वह शुद्ध अथवा अशुद्ध बनता है चित्त के प्रवाह से । चित्त का प्रवाह भाव में बदलता है तो वह शुद्ध - अथवा अशुद्ध बन जाता है । जब भाव मन पर उतरता है तब हम कह देते हैं कि मन शुद्ध है या अशुद्ध है, शुभ है या अशुभ है ।
वास्तव में शुद्ध अथवा अशुद्ध कुछ भी नहीं है मन में । हवा चल रही है । हवा गर्म है या ठण्डी ? यदि गर्मी तेज है तो हवा गर्म हो जायेगी । यदि शीतलहर चल रही है तो हवा ठण्डी हो जायेगी। हवा ठण्डी है या गर्म, यह निरपेक्ष दृष्टि से नहीं कहा जा सकता । सापेक्ष प्रतिपादन ही किया जा सकता है । हिमपात हुआ है, वर्षा हुई है तो हवा ठण्डी है । जेठ का अथवा आषाढ़ का महीना है और गहरी धूप पड़ रही है तो हवा गर्म हो जाएगी । मन का भी यही काम है क्योंकि मन की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है । चित्त
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