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________________ चित्त, मन और स्वास्थ्य १५ होने देता, यथार्थ का ग्रहण नही होने देता । यह दृष्टिकोण को बदल देता है । यथार्थ कुछ होता है किन्तु अनुभव या प्रतीति अन्यथा होने लग जाती है । विपर्यय होता है ज्ञान का । जिसे दार्शनिक जगत् में विमोहात्मक ख्याति, अनात्मक-ख्याति अथवा ज्ञान का विपर्यय कहा गया, उसके पीछे मिथ्यात्व चित्त अथवा मिथ्या दृष्टिकोण छिपा होता है । मोह चित्त चौथा है मोह चित्त । यह अच्छा चरित्र नहीं होने देता | संयम की भावना, व्रत की भावना उत्पन्न नहीं होने देता, आध्यात्मिक उन्नयन नहीं होने देता। हमेशा राग-द्वेष पैदा करता रहता है | आदमी का आकर्षण रागात्मक और द्वेषात्मक प्रवृत्ति में ही होता रहता है । दूसरा पक्ष यदि ये चित्त ही हमारे जीवन से जुड़े होते तो हम कभी सफल नहीं हो सकते । इसका दूसरा पक्ष भी है। वह भी सूक्ष्म-शरीर के विशुद्ध प्रकंपनों के द्वारा बनता है । वह पक्ष है अनावरण चित्त । कोरा आवरण नहीं है, अनावरण भी है इसीलिए हम ज्ञान का विकास कर पाते हैं । हमारी चेतना सर्वथा आवृत नहीं होती। कहा गया- चेतना का अनंतवां भाग सदा उद्घाटित रहता है, कभी आवृत नहीं होता । अगर चेतना पूर्ण आवृत हो जाए तो फिर जीव अजीव बन जाए । इस स्थिति में जीव और अजीव में अन्तर ही नहीं रहता । अनावरण चित्त भी सदा सक्रिय रहता है, अपना काम करता रहता है और चैतन्य को सर्वथा आवृत नहीं होने देता । । दूसरा है निर्विघ्न चित्त । चारों ओर बाधा ही बाधा हो, रुकावट ही रुकावट हो तो मनुष्य कैसे कार्य कर पाएगा ? यह बाधा को चीरता है । बाधा को पार करने का प्रतिनिधि चित्त है निर्विघ्न चित्त । यह सक्रिय होता रहता है इसलिए मनुष्य बहुत सारे कार्य कर लेता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003146
Book TitleMahavira ka Swasthyashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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