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२० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र जिम्मेवार नहीं है। उसके लिए मन को उत्तरदायी माना गया । यदि चित्त पवित्र है तो मन अशुद्ध नहीं हो सकता। मनोकायिक बीमारियां चित्त की अशुद्धि के कारण ही उपजती हैं | महावीर का यह सूत्र-शुद्ध चित्त, शुद्ध भाव और शुद्ध मन-स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण सूत्र है । अशुद्ध चित्त, अशुद्ध भाव और अशुद्ध मन—इसका अर्थ है बीमारी के लिए खुला निमंत्रण ।
स्वास्थ्य और चित्त की निर्मलता
स्वास्थ्य के संदर्भ में चित्त और मन की चर्चा बहुत आवश्यक है । यह कोई दार्शनिक चर्चा नहीं है । जहां दार्शनिक चर्चा करें वहां मन के स्वरूप का प्रतिपादन करें । हम चित्त और मन के स्वरूप को स्वास्थ्य के सन्दर्भ में भी देखें । जो व्यक्ति स्वस्थ रहना चाहता है, वह सोचे-बहुत अच्छा भोजन करूंगा, विटामिन्स, लवण, प्रोटीन सारे मिल जाएंगे । स्वादिष्ट भोजन करूंगा तो मैं स्वस्थ रहूंगा, यह सोचना नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है । उसे साथ में यह भी सोचना पड़ेगा कि मेरा चित्त कितना निरवद्य है, निर्मल और पवित्र है | चेतना में पाप के प्रवाह नहीं आ रहे हैं, मलिन विचार नहीं आ रहे हैं तो स्वास्थ्य अच्छा रहेगा । आदमी बुरी कल्पना, बुरे विचार, बुरी भावना करता रहे और यह सोचता रहे कि मैं स्वस्थ रहूंगा तो इससे बड़ी कोई आत्म भ्रान्ति नहीं हो सकती । चित्त की निर्मलता स्वास्थ्य के लिए वरदान बनती है ।
हम महावीर वाणी के दो शब्दों पर ध्यान दें सावध और निरवद्य । इनका स्वास्थ्य के साथ गहरा संबंध है | यदि तुम्हारा चित्त, भाव, आचरण
और चिन्तन निरवद्य है, निर्मल है तो स्वास्थ्य को खतरा नहीं है, तुम्हारी शक्ति कम नहीं होगी, तुम्हारी रोग-प्रतिरोधात्मक शक्ति मजबूत रहेगी, तुम समस्याओं को सहन कर सकोगे, झेल सकोगे । यदि यह भीतर की शुद्धि नहीं है, भाव, चित्त और मन की शुद्धि नहीं है तो कितना ही प्रयत्न करो, तुम्हारा शरीर खोखला होता चला जाएगा, इम्युनिटी सिस्टम कमजोर होता जाएगा, रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होती जाएगी। कितनी ही दवाइयां लेते जाओ, न डॉक्टर बचा पाएगा, न दवाइयां बचा पाएगी । इस मूल सूत्र को पकड़कर चित्त और मन पर विचार करना चाहिए । उन्हें पवित्र, विशुद्ध और निर्मल बनाने का अभ्यास करना चाहिए । जिस दिन चित्त की निर्मलता उपलब्ध होगी, भाव
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