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________________ हृदयरोग : कारण और निवारण बहुत प्राचीन काल से रोग और आरोग्य पर विचार होता रहा है । जैसे रोग के कारण शरीर के भीतर भी हैं और बाहर भी हैं, वैसे ही आरोग्य के हेतु शरीर के भीतर भी हैं और बाहर भी हैं । यदि हम भीतर के कारणों को ठीक प्रकार से समझ लें, उनके लिए एक विशेष प्रकार के दृष्टिकोण का निर्माण करें तो समस्या का काफी समाधान होता है | जहां मनुष्य के शरीर में जीवनी-शक्ति है, वहां उसके व्यवहार में रोग प्रतिरोधक शक्ति भी जीवन का मूल आधार है प्राणशक्ति । उसके द्वारा जीवन का संचालन होता है । जब तक प्राण-शक्ति है, तब तक प्राणी जीता है । जब प्राणशक्ति समाप्त होती है, तब कारण मिलने पर भी प्राणी मरता है और कारण न मिलने पर भी मरता है । मृत्यु सहेतुक और अहेतुक दोनों प्रकार की हो सकती है | हमारे दो मुख्य प्राण हैं- प्राण-प्राण और अपान प्राण । इनकी विकृति रोग पैदा करती है और इनकी स्वस्थता आरोग्य । स्वास्थ्य के लिए प्राण इतना महत्वपूर्ण है, फिर भी उसे किसी यंत्र के द्वारा पकड़ा नहीं गया और पकड़ा भी नहीं जा सकता । प्राण सूक्ष्म है | पकड़ा जा रहा है अवयव का रोग | किसी अवयव में कोई विकृति आती है, उसको मनुष्य पकड़ सकता है । इसलिए वर्तमान में जो आवयविक रोग हैं, उन पर विचार होता है, उनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003146
Book TitleMahavira ka Swasthyashastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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