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५६ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र
स्थिति है । यह स्थिति असात वेदनीय को खींचकर उदय में ले आती है और मनुष्य कष्ट का अनुभव करने लगता है । उस समय अकुशल स्थिति होने पर व्यक्ति असात वेदनीय का अनुभव करने लग जाता है । ऐसी भी स्थिति बनती है कि कोई आदमी सात वेदनीय का अनुभव कर रहा है और अचानक वह असात का अनुभव करने लग जाता है । हम चाहें आगन्तुक रोग मानें या समस्या मानें । इस पर आयुर्वेद के आचार्यों ने विचार करते हुए कहाआगन्तुक बीमारी भी हमारे वात, पित्त और कफ को प्रभावित करती है और हमें रोग का अनुभव होने लगता है । यह है असात वेदनीय कर्म की उदीरणा । एक स्थिति यह है कि कर्म अपनी प्रक्रिया से उदय में आता है, विपाक में आता है । जब असात वेदनीय कर्म विपाक में आता है तब वह अपने आप अकुशल परिस्थिति का निर्माण करता है, व्यक्ति को असाता का अनुभव कराता है । असात का अनुभव होने पर रोग से संबंध जुड़ जाता है । शरीर को कष्ट का अनुभव होता है, दुःख का संवेदन होता है और कोई न कोई रोग प्रगट हो जाता है । यह जान पाना कि कौन से कर्म के विपाक से कौन सी बीमारी होती है, बहुत ही कठिन है । यह सूक्ष्म तथ्य है । सूक्ष्मता में जाने पर यह जाना जा सकता है कि कौन सा कर्म विपाक कौन से रोग के लिए जिम्मेवार है ? स्थूल दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि संवेदन होता है और वह संवेदन किसी न किसी रोग के कारण होता है ।
रोग और कर्म
रोग और कर्म का संबंध आचार - शास्त्र से जुड़ा हुआ है । असात वेदनीय तथा सात वेदनीय कर्म का बंध कैसे होता है ? इस विषय की चर्चा अनेक आगमों में प्राप्त है । सात वेदनीय कर्म-बंध के हेतु ये हैं
प्राण, भूत जीव और सत्व की अनुकंपा,
प्राण, भूत, जीव और सत्व को दुःखित न करना, दीन न बनाना,
शरीर का अपचय करने वाला शोक पैदा न करना, अश्रुपात कराने वाला शोक पैदा न करना ।
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