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कर्मवाद और स्वास्थ्य ५७
• लाठी आदि का प्रहार न करना ।। • शारीरिक परिताप न देना । साता वेदनीय शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय ।
असात वेदनीय कर्म बंध के हेतु हैं- प्राण, भूत, जीव और सत्व की अनुकंपा न करना, उन्हें दु:िखत करना, दीन बनाना, शरीर का अपचय करने वाला शोक पैदा करना, अश्रुपात कराने वाला शोक पैदा करना, लाठी आदि का प्रहार करना, शारीरिक परिताप देना और असाता वेदनीय शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय ।
एक श्रृंखला बनती है— रोग, असात वेदनीय कर्म का बंध तथा असात वेदनीय कर्म के विपाक की स्थितियां | किसी रोग के रोगी को देखकर केवल व्याधि का निदान करना, औषधि के द्वारा उसकी चिकित्सा करना, रोग-उपशमन का उपाय करना- यह सब स्थूल घटना है । ऐसा होता है तो असात वेदनीय का विपाक प्रबल नहीं होता, बीमारी मिट जाती है । यह उसी स्थिति में होता है जब कर्म बंध मंद है । यदि असात वेदनीय कर्म-बंध तीव्र है तो हजार दवा देने पर भी रोग शांत नहीं होता । आज डॉक्टर, वैद्य तथा रोगी स्वयं यह मानता है कि वर्षों तक औषधि लेने पर भी रोग से छुटकारा नहीं मिला । यह कर्मज रोग की स्थिति है । कोई गाढ़ कर्म किया हुआ है, क्रूरता की प्रवृत्ति की हुई है तो उससे उपार्जित असात वेदनीय कर्म के पुद्गल इतने प्रबल हो जाते हैं कि बीमारी असाध्य बन जाती है । उपचार करने पर भी वे पुद्गल इतना प्रभाव डालते हैं कि रोगी अर्थहीन और शक्तिहीन हो जाता है । वह सभी चिकित्सा पद्धतियों को व्यर्थ कर डालता है ।
आध्यात्मिक रोग : बाह्य रोग
रोग दो प्रकार के हैं- बाह्य उपाय-साध्य और आभ्यन्तर उपाय-साध्य । जैन आगमों के आधार पर रोग दो भागों में विभक्त हैं— आध्यात्मिक रोग और बाह्य रोग । कर्म से होने वाले रोग आध्यात्मिक रोग हैं । ये भीतर से उत्पन्न होते हैं, बाहर का कोई निमित्त नहीं मिलता । बाह्य रोग बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होते हैं । ये बाह्य उपाय-साध्य होते हैं । इनकी बाह्य साधनों द्वारा चिकित्सा की जा सकती है । आध्यात्मिक रोगों की चिकित्सा बाह्य साधनों
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