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५८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र से नहीं की जा सकती क्योंकि इन रागा क परमाणु इतन प्रबल होते हैं कि वे बाह्य औषधियों को स्वीकार नहीं करते, उनको नकार देते हैं। उनकी चिकित्सा आभ्यन्तर उपाय साध्य होती है । हम इसे एक आगमिक घटना से समझें ।
कुमार अनाथी धनाढ्य सेठ का पुत्र था । एक बार उसकी आँखों में भयंकर वेदना हो गई । वेदना असह्य थी,असीम थी । बहुत उपचार किये । पिता ने उपचार कराने में धन का प्रचुर व्यय किया । दूर-दूर से प्राणाचार्यों को बुलाया गया । अनेक तांत्रिक और मांत्रिक भी आए । सभी ने अपनेअपने ढंग से चिकित्सा की । वेदना कम नहीं हुई । उसकी तीव्रता वैसी ही बनी रही । कुमार अनाथी ने आभ्यंतर चिकित्सा का सहारा लिया । वे जान गये कि यह कर्मज बीमारी है । उन्होंने मन ही मन संकल्प किया । कर्मों पर संकल्प का प्रहार हुआ और कुमार अनाथी की अक्षि-वेदना शांत हो गई।
जहां कोई चिकित्सा पद्धति कारगर नहीं हुई, वहां संकल्प से की जाने वाली चिकित्सा पद्धति सफल हो गई । कर्मज बीमारी के लिए यह पद्धति ही सफल हो सकती है । विश्वास के द्वारा चिकित्सा की जा सकती है । संकल्प और भाव शुद्धि के द्वारा चिकित्सा की जा सकती है | भाव-शुद्धि और मानसिक शुद्धि भी रोग निवारण में सहायक बनती है । हम रोग के कारण को समझें और यह जानें कि रोग बाह्य निमित्तों से पैदा हुआ है या आन्तरिक निमित्तों से ? यदि आन्तरिक कारणों से उत्पन्न हुआ है तो वहां आभ्यंतरिक चिकित्सा सफल होगी, बाह्य चिकित्सा नहीं। सारी चिकित्सा पद्धतियां सर्वत्र सफल नहीं होती । लोग यह जानते हैं कि ध्यान, आसन, प्राणायाम आदि के द्वारा रोग की चिकित्सा होती है। परन्तु यह कथन सापेक्ष है, सर्वथा निरपेक्ष नहीं है । कर्मवाद का दर्शन यह स्पष्ट करता है कि यदि रोग आभ्यन्तरिक कारणों से उत्पन्न है तो आध्यात्मिक चिकित्सा बहुत सफल होगी। वहां ध्यान आसन, प्राणायाम आदि से रोग-मुक्त हुआ जा सकेगा । यदि बाह्यों कारणों से रोग उत्पन्न है तो ये साधन आरोग्य प्राप्ति में कुछ सहायक बन सकते हैं, परन्तु निरपेक्ष रूप से सहायक नहीं होते । सारे रोग अध्यात्म से मिट जाएंगे—यह ऐकान्तिक विचार भी संगत नहीं है और सारे रोग बाह्य संसाधनों से दूर हो जाएंगे—यह ऐकान्तिक विचार भी संगत नहीं है । रोग की उत्पत्ति की कारण-मीमांसा के अनुसार चिकित्सा करने पर ही रोग का निवारण हो सकता है ।
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