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३६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र पर्याप्ति : जीवनी शक्ति
जब स्थूल शरीर निर्मित होता है, उस समय छह जीवनी शक्तियां निर्मित होती हैं । उनकी अभिधा है- आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति । ये पर्याप्तियां यानी छह जीवनी शक्तियां हमारे शरीर में विद्यमान है।
आहार पर्याप्ति का केन्द्र है कंठ-थायराइड का भाग । यहां चयापचय की क्रिया होती है । यह बहुत महत्वपूर्ण भाग है । शरीर पर्याप्ति का केन्द्र है नाभि । यह शरीर की रचना का मूल आधार केन्द्र है । महर्षि पतंजलि ने एक बहुत सुन्दर बात कही थी—'नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञान'-नाभि-चक्र से पूरे शरीर की रचना का ज्ञान होता है | पूरे शरीर की संरचना का ज्ञान नाभि पर ध्यान करने से होता है । नाभि का महत्व योग में भी रहा है और शरीरशास्त्र की दृष्टि से भी रहा है । मध्यवर्ती केन्द्र है नाभि । शरीर के लिए जो निरंतर पोषण चाहिए, वह पोषण नाभि के द्वारा प्राप्त होता है | नाभि के द्वारा बाहर के पुद्गलों का निरन्तर ग्रहण होता है । ग्रहण की यह क्रिया सतत चालू रहती है।
आहार पर्याप्ति और शरीर पर्याप्ति- दोनों में गहरा सम्बन्ध है । एक है कंठ का स्थान और दूसरा है नाभि का स्थान । योग का एक प्रयोग थायराइड
और एड्रीनल के संतुलन के लिए बहुत उपयोगी है । प्रयोग की विधि बतलाई गई लेट जाओ, लेट कर गर्दन को ऊपर उठाओ और नाभि को देखो। यह बहुत महत्वपूर्ण क्रिया मानी गई है-लेटे-लेटे नाभि-दर्शन | इस क्रिया से एड्रीनल
और थायराइड का संतुलन स्थापित हो जाता है | योग में कंठ का बड़ा महत्व है क्योंकि जहां वृत्तियां प्रकट होती हैं, संवेदनाएं प्रकट होती हैं, उस स्थान पर नियंत्रण थायराइड के द्वारा होता है । ब्रह्मचर्य के लिए भी इस प्रयोग का विधान है । सामान्य स्वास्थ्य के लिए भी इसका विधान है । लेटे-लेटे गर्दन को ऊपर उठाकर नाभि का दर्शन करें। इससे दोनों ग्रंथियों में संतुलन स्थापित होता है । नाभि का और भी ज्यादा महत्व है क्योंकि यह तैजस शक्ति का केन्द्र और अग्नि तत्व का स्थान है । पांच तत्व माने गए- पृथ्वी तत्व, अग्नि तत्व, जल तत्व, वायु तत्व और आकाश तत्व । नाभि अग्नि तत्व का स्थान है । पांच प्राण में वह समान प्राण का स्थान है | समान प्राण सारी क्रिया करने वाला है ।
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