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२६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र
आज भी सम्मत है—क्रोध की प्रबलता आएगी तो पित्त तीव्र हो जाएगा । काम, शोक और भय से वायु उत्पन्न होती है । यह बहुत पुराना सिद्धान्त है । मनोविज्ञान में यह सम्मत है-जब ये संवेग प्रबल होते हैं तब शारीरिक परिवर्तन होते हैं । मेडिकल साइंस की दृष्टि से विचार करें-जब-जब संवेग प्रबल होगा, एड्रीनल ग्लेण्ड काफी एक्टिव बन जाएगा | आज दोनों सिद्धान्तों को हम मिलाएं तो पित्त का अर्थ करना चाहिए एड्रीनेलीन । मेडिकल साइंस की भाषा में एड्रीनल ग्लेण्ड से एड्रीनेलीन का स्राव होता है । वह आयुर्वेद की भाषा में पित्त है । जैसे ही क्रोध का संवेग तीव्र होगा, एड्रीनल ग्लेण्ड तत्काल सक्रिय हो जाएगा । एड्रीनल ग्लेण्ड को सारी शक्ति उसमें लगानी पड़ती है, एड्रीनेलीन का अतिरिक्त स्राव करना ड़ता है । यह अतिरिक्त स्राव बीमारी का कारण बनता है ।
हमारे स्वास्थ्य का सम्बन्ध भावों के साथ जुड़ा हुआ है । यदि हम शरीर तक जाएं, उससे आगे मन तक जाएं तो समस्या का समाधान नहीं होगा। बहुत सारी बीमारियां हैं, जो न शरीर से उत्पन्न होने वाली हैं और न मन से उत्पन्न होने वाली हैं किन्तु भाव से उत्पन्न होने वाली हैं । मन और भाव का जो अलगाव है, वह महावीर ने बहुत सूक्ष्मता से बतलाया । प्रश्न है भाव क्या है ? और मन क्या है ? स्पष्ट है-मन हमारा स्वरूप नहीं है, जीव का स्वरूप नहीं है किन्तु भाव जीव का स्वरूप है । मन पैदा होता है किन्तु भाव का स्रोत भीतर है । मन का कोई स्रोत भीतर में नहीं है । वह हमारे चित्त के द्वारा उत्पन्न किया हुआ तंत्र है । भाव जब मन के साथ जुड़ता है वह मनोभाव बन जाता है । मूलतः मन भाव-जगत् से अलग है ।
व्याधि, आधि और उपाधि
प्रेक्षाध्यान में तीन शब्दों का प्रयोग होता है—व्याधि— शरीर की बीमारी, आधि-मन की बीमारी और उपाधि-भावनात्मक बीमारी । यदि हम उपाधि को छोड़कर आधि और व्याधि के साथ स्वास्थ्य की विचारणा करेंगे तो समस्या का समाधान नहीं होगा । एक भाई ने कहा- महाराज ! सब जगह टेस्ट करा लिये, सूक्ष्म उपकरणों से निदान करा लिया । डॉक्टर कह रहे हैं कोई बीमारी नहीं है, स्वास्थ्य उत्तम है । सचाई यह है- मैं बीमारी भोग रहा हूं |
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