________________
६८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र
संस्कार था । उसे अनुप्रेक्षा का प्रयोग कराया गया । उसमें यह भावना पुष्ट हो गई कि जहां संयोग है,वहां वियोग अवश्यंभावी है । संयोग में सुखी और वियोग में दुःखी होना एक संस्कार मात्र है । यथार्थ यह है कि संयोग और वियोग में पूर्ण समभाव रखें । दुःखी व्यक्ति ने भावना के इस मर्म को पकड़ा और उसका दुःख का संवेदन कम हो गया । वह प्रसन्न रहने लगा । क्रोध आता है तो क्षमा की भावना का अभ्यास करो । अहंकार है तो नम्रता की भावना का अभ्यास करो । लोभ की मात्रा बढ़ी हुयी है तो संतोष की भावना को वृद्धिंगत करो । प्रतिपक्षी भावना से सफलता मिल सकती है । प्रतिपक्ष की भावना स्वास्थ्य की कुंजी है । एक बीमार व्यक्ति यदि प्रतिदिन कहता जाएगा कि मैं बीमार हूं, मैं बीमार हूं तो वह बीमार ही बना रहेगा, दुःख का संवेदन ही करेगा । ज्ञानी कहते हैं- हमारे भीतर आरोग्य अधिक है । तुम उसका चिन्तन करो । अपने स्वर को बदलो-- मैं रोगी नहीं हूं, स्वस्थ हूं, स्वस्थ हूं । इन प्रतिपक्षी स्वरों से आश्चर्य घटित होगा।
प्रतिपक्षी भावना का सूत्र मस्तिष्कीय नियंत्रण का सूत्र है । इसी प्रकार श्वास भी नियंत्रण का एक सूत्र है । जब बांयां नथुना सक्रिय होता है तो दायें मस्तिष्क पर नियंत्रण होता है और जब दायां नथुना सक्रिय होता है तो बांयें मस्तिष्क पर नियंत्रण होता है । मस्तिष्क का बांयां पटल शरीर के दाएं भाग का संचालन करता है और दायां पटल शरीर के बांयें भाग का संचालन करता है। यदि श्वास की प्रणाली सम्यक हो जाती है तो नियंत्रण का क्रम सम्यक् बन जाता है ।
इस प्रकार मस्तिष्क का नियंत्रण हमारे स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण आधार बनता है।
इन्द्रिय-संयम और स्वास्थ्य
रोग का एक कारण है—इंदियत्थ विकोवणयाए—इसका अर्थ है काम विकार | इसका व्यापक अर्थ होगा इन्द्रियों के विषयों का विकोपन मत करो, उन्हें उत्तेजित मत करो । शब्द,रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-इनका विकोपन मत करो । इन इन्द्रिय विषयों का अतिभोग-विकोपन रोगों का हेतु बनता है । इसलिए इन्द्रियसंयम अपेक्षित है । इन्द्रिय संयम स्वास्थ्य का मूल मंत्र है ।
उन्हे उत्तजित मत करो । शब्द, स्पा, रस, गन्ध और स्पर्श
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org