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१३२ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र
विटामिन्स वे हैं, जो फलों में, साग सब्जियों में नैसर्गिक रूप से होते हैं । बीमारियों के संदर्भ में रंगीन वस्तुओं का निषेध और विधान किया गया है । एक मुनिजी के शरीर में श्वेत चकत्ते हो गए । चिकित्सक ने कहा- 'आप श्वेत रंग का कोई पदार्थ न खाएं । यदि वह खाना आवश्यक ही है तो उसमें दूसरा ऐसा पदार्थ मिलाएं, जिससे उसका रंग बदल जाए। जैसे दही खाना है तो उसमें सेका हुआ जीरा मिला लें, दही श्वेत नहीं रहेगा ।' यदि अमुक प्रकार की बीमारी है तो हरे रंग की वस्तुएं ज्यादा खानी चाहिए । अमुक बीमारी है तो लाल अथवा श्वेत रंग की वस्तुएं ज्यादा खानी चाहिए । शरीर में किसी रंग विशेष की अल्पता भी बीमारी का एक हेतु बन जाती है । रंग का संतुलन होते ही स्वास्थ्य उपलब्ध हो जाता है । मंत्र साधक के लिए यह विधान है कि अमुक प्रकार की साधना करनी है तो वस्त्र लाल होना चाहिए, माला भी लाल होनी चाहिए । कषाय- शमन अथवा वीरागता की साधना करनी है तो श्वेत वस्त्र और माला का प्रयोग उत्तम है ।
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लेश्या चिकित्सा : चार विधियां
स्वास्थ्य, मंत्र विद्या, साधना आदि के साथ लेश्या का प्रश्न जुड़ा हुआ है । इसलिए जब हम स्वास्थ्य पर विचार करें तब लेश्या के सिद्धांत को अवश्य सामने रखें । जब लेश्या को छोड़कर केवल दूसरी बातों पर ध्यान देते हैं तब लाभ तो होता है किन्तु पूरा लाभ नहीं होता । पूर्णता और समानता के लिए लेश्या के इन चारों पक्षों- वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पर विचार करना चाहिए। इन चारों सिद्धांतों के आधार पर चिकित्सा की चार पद्धतियां विकसित की जा सकती हैं-रंग-चिकित्सा, गंध - चिकित्सा, रस- चिकित्सा और स्पर्शचिकित्सा। गंध चिकित्सा पद्धति भी विकसित रही है । आयुर्वेद के एक आचार्य ने ग्रंथ लिखा- पुष्प आयुर्वेद । कहा जाता है कि उसमें सोलह हजार पुष्पों के द्वारा चिकित्सा का विधान किया गया है । कोई दवा की जरूरत नहीं, केवल फूल को सुंघा दो, बीमारी समाप्त हो जाएगी । सुगंध के आधार पर सब प्रकार की बीमारियों के चिकित्सा -सूत्र खोजे गए । इसी प्रकार रस - चिकित्सा
जाती है । अमुक बीमारी में अमुक रस का सेवन करो, बीमारी मिट जाएगी । स्पर्श - चिकित्सा का विकास भी प्राचीन काल में रहा है। जैन परिभाषा में कहा
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