________________
रुग्ण कौन ? ४९ है, कर्मशरीर कैसा है ? भाव कैसा हैं ? मन का बल कैसा है ? इन सबको मिलाकर निर्णय करें तो हमारा निर्णय समीचीन होगा । अन्यथा सही निर्णय नहीं हो सकता । ऐसे बहुत लोग हैं । जो कहते हैं-अनेक प्रकार से निदान करा लिया, पर बीमारी का पता नहीं चला । पता क्यों नहीं चलता ? यह बड़ी समस्या है । इसका कारण एकान्तवादी दृष्टिकोण ही प्रतीत होता है । यदि अनेकान्तवादी दृष्टिकोण हो तो बीमारी का पता चल सकता है । ओर्गेन (अवयव) पर कोई बीमारी है तो यंत्र बता देगा । बीमारी के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है । इससे आगे भी देखना होगा कि भाव और मनोबल कैसा है? जिस व्यक्ति में यह प्रबल भावना बन जाती है—मेरे रोम-रोम में आनंद प्रवाहित है, वह फिर दुःख और निराशा का अनुभव नहीं करता। चाहे वह रोग किसी भी कारण से बना हो, रोग टिक नहीं पाएगा । उसकी रोग प्रतिरोधक शक्ति इतनी प्रबल बन जाती है कि वहां रोग वाली स्थिति नहीं रह पाती।
अरोगी के रोग नहीं होता
___ हम इस प्रसंग में रोग को रोकने पर विचार करें । एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में जर्स, वायरस आदि-आदि रोग के आगन्तुक तत्व माने जाते हैं । दुर्घटना की बात छोड़ दें तो शरीर में होने वाले रोगों के ये मुख्य हेतु माने जाते हैं । हाम्योपैथी इसका अलग कारण मानती है । प्राकृतिक चिकित्सा वाले बीमारी का एक ही कारण मानते हैं हमारे उदर में जो विजातीय तत्व हैं या शरीर में जो विजातीय तत्व हैं, उन विजातीय तत्वों का इकट्ठा होना बीमारी है और विजातीय तत्वों का अलग होना आरोग्य है । अलग-अलग दृष्टिकोण हैं । हम महावीर को सामने रख कर रोग के हेतुओं पर विचार करें तो सबसे पहले इस लक्ष्य पर जाना होगा- दुःखी दुःख का अनुभव करता है । यह मान लेना होगा- यह रोगी है । अरोगी के रोग नहीं हो सकता । रोगी के रोग होता है | अरोगी के कभी रोग नहीं होता । एक रोग वह है जो व्यक्त हो रहा है । एक रोग वह है जो भीतर में है, पर व्यक्त नहीं हो रहा है । उस रोग का मूल हेतु है भाव जगत् । क्रोध, अहंकार कपट, दुःख, भय, घृणा, यह जो सारा भाव जगत् है, वह व्यक्ति को रोगी बनाए हुए है। भाव जगत् व्यक्ति को निरंतर रोगी बनाए रखता है । जो व्यक्ति रोगी है, उसकी जीवनी शक्ति भी कमजोर रहेगी ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org