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५० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र
अध्यवसान और स्वास्थ्य
यह नियम बनाया जा सकता है कषाय चक्र जितना उपशान्त, उतना कम रोगी । कषाय चक्र जितना प्रबल, उतना ही अधिक रोगी । ऐसी घटनाएं हमने देखी और सुनी हैं कि कषाय की प्रबलता व्यक्ति के विनाश का कारण बन जाती है । एक युवा शरीर में बहुत भयंकर क्रोध आया । चालीस वर्ष का वह युवक दो घंटे में चल बसा । ऐसा क्यों हुआ ? इस संदर्भ में महावीर का एक शब्द स्मृति में रखें– अध्यवसान । रोग का एक हेतु बनता है अध्यवसान | व्यक्ति की सूक्ष्म चेतना कैसी है? मस्तिष्कीय चेतना नहीं, भीतर की सूक्ष्म चेतना कैसी है ? अध्यवसान प्रशस्त है तो स्वास्थ्य प्रशस्त होगा। अध्यवसान अप्रशस्त है तो स्वास्थ्य अप्रशस्त होगा । अप्रशस्त अध्यवसान भीतर में रहेगा तो बीमारी को बढ़ने का मौका मिल जाएगा । अप्रशस्त अध्यवसान में व्यक्ति बीमारी से जल्दी आक्रान्त हो जाता है । यदि प्रशस्त अध्यवसान हो तो चाहे सर्दी का मौसम आए, गर्मी या बरसात का मौसम आए, कीटाणु अथवा जीवाणु कुछ भी आएं, शरीर पर प्रबल आक्रमण नहीं हो पाएगा ।
संदर्भ कर्म का
इस विषय में कर्म सिद्धान्त की एक व्यवस्था को समझना जरूरी है। कर्म का सिद्धान्त सर्वात्मना सर्व-सव्वेणं सव्वे का सिद्धान्त है । एक व्यक्ति घृणा करता है, उससे मोहनीय कर्म का बन्ध होता है । क्योंकि वह मोह के कारण ही घृणा करता है | बन्ध होगा मोहनीय कर्म का, किन्तु उसके साथ सात या आठ कर्म का बन्ध होगा । अगर आयुष्य का बन्ध न हो तो सात कर्म का बन्ध होगा । उसमें रोग भी है, सात वेदनीय भी है, असात वेदनीय भी है । इतना अवश्य है कि यदि वह घृणा करता है, ईर्ष्या करता है तो मोहनीय कर्म को उसका भाग ज्यादा मिल जायेगा । जो डायरेक्टर है, उसका ज्यादा हिस्सा हो जाएगा । अन्य सब सहायक कर्मों को कम हिस्सा मिलेगा। इसका तात्पर्य है- कर रहा है घृणा, बन्ध होगा मोहनीय कर्म का, साथ में ज्ञान के आवरण का भी बन्ध होगा, दर्शनावरणीय और वेदनीय का भी बन्ध होगा । सबका बन्ध होगा । सबका हिस्सा अपना-अपना हो जाएगा और मुख्य हिस्सा मोहनीय कर्म का हो जाएगा । जैसे कर्म की व्यवस्था है, वैसे ही रोग
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