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४८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र
पर नियंत्रण है चित्त का । इसी आधार पर एक शब्द बन गयासाइकासोमेटिक—मनोकायिक बीमारी । वास्तव में मनोकायिक बीमारी नहीं, चैत्तिक-कायिक रोग है । हमारे इस शरीर में सबसे ज्यादा नियामक, संचालक है—साइक, चित्त । चित्त मस्तिष्क पर नियंत्रण करता है और मस्तिष्क मन पर, भाव पर, शरीर पर और शरीर की हर क्रिया पर नियंत्रण करता है ।
रोगी को देखें
इस संदर्भ में यह सिद्धान्त महत्वपूर्ण है—रोगी को देखो, रोग को मत देखो । रोगी की चिकित्सा करो, रोग की चिकित्सा मत करो । अवयवी की चिकित्सा करो, अवयव की चिकित्सा मत करो । हम समग्रता की दृष्टि से विचार करते हैं, मन और भावना पर विचार करते हैं तो अनेक रोगों की गहराई तक पहुंचने का अवसर मिलता है । एक व्यक्ति हृदय रोग से पीड़ित है । एक व्यक्ति के आमाशय में कैंसर है । एक व्यक्ति मधुमेह की बीमारी से पीड़ित है | ये भयंकर बीमारियां हैं । यदि हम इनकी केवल शरीर के आधार पर ही चिकित्सा करना चाहेंगे तो बड़ी त्रुटि होगी। हमें भावना तक जाना होगा । रोगी किस भावना वाला है, इस दृष्टि से रोग पर विचार करेंगे तो शायद बहुत जल्दी चिकित्सा होगी और रोगी बहुत जल्दी ठीक हो जाएगा । गणाधिपति तुलसी बीदासर में प्रवासित थे । श्वास का प्रकोप हो गया । जयुर से डाक्टर मेहता आए । उन्होंने निदान किया। निदान के बाद उन्होंने कहा'अब आप एक कि. मी. से अधिक पदयात्रा नहीं कर सकते ।' उसके बाद पूज्य गुरुदेव ने हजारों किलोमीटर की पद-यात्रा कर ली ।
यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है—किस प्रकार के रोगी को किस प्रकार का रोग है । जिसका मनोबल प्रबल है, जिसमें आत्मा की पवित्रता है, वह रोग पर दस दिन में विजय पा लेता है । जिसका मनोबल गिरा हुआ है, भावना मलिन है, आत्मबल नहीं है, उसके दस दिन में मिटने वाला रोग दस महीनों में भी नहीं मिटेगा, दस वर्ष में भी नहीं मिटेगा । यह निर्णय करना जरूरी है कि किस प्रकार के रोगी को किस प्रकार का रोग है । केवल रोग के आधार पर चिकित्सा नहीं हो सकती । दोनों को एक साथ समग्रता की दृष्टि से देखना होता है । रोगी का शरीर कैसा है, प्राणशक्ति कैसी है, आध्यात्मिक बल कैसा
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