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३२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र
से विचार किया-निश्चय नय और दूसरी व्यवहार नय । व्यवहार में जो घटना घटित होती है, वह हमारे सामने देर से आती है। निश्चय में कोई नियम नहीं है, कोई व्यवहार नहीं है । वह घटना भाव जगत् में छह महीना पहले, एक वर्ष पहले, पांच वर्ष पहले घटित हो जाती है । वह भाव जगत् में पलती रहती है । शरीर में भी ऐसा होता है । अनेक लोगों के कैंसर की बीमारी हो जाती है । डॉक्टर कहता है. कैंसर एक वर्ष से है पर पता नहीं चला। मन की बीमारी का पता उससे भी दुर्लभ है | भाव जगत् की बीमारी का पता और ज्यादा दुर्लभ हो जाता है ।
हम भाव के प्रशस्त और अप्रशस्त स्वरूप पर विचार करें । मनोविज्ञान का एक शब्द बन गया-नकारात्मक भाव अथवा दृष्टिकोण और सकारात्मक भाव अथवा दृष्टिकोण । इससे आगे है भाव की विशुद्धि । जो व्यक्ति भाव विशुद्धि के प्रति सचेत है, जिसका भाव पवित्र रहता है, वह स्वास्थ्य का मंत्र पा लेता है । जिसमें कोई मलिनता है वह यह साधना करे कि मैं अपने भावों को अधिक से अधिक पवित्र रखू । जिसने यह संकल्प किया, वह स्वास्थ्य के प्रति सचेत हो गया । भाव विशुद्धि से जुड़ा है स्वास्थ्य का प्रश्न । जो अपने भावों की प्रति लापरवाह है, उदासीन है, वह अपने स्वास्थ्य के प्रति उदासीन है । स्वास्थ्य का भावतंत्र के साथ गहरा संबंध है इसलिए ‘भावतंत्र और स्वास्थ्य', विषय पर विचार करना केवल दार्शनिक दृष्टि से ही नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है ।
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