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भाव और स्वास्थ्य २३ वास्तव में ये दोनों बिल्कुल भिन्न हैं। इन्हें एक मानकर बहुत सारी समस्याएं भी हमने पैदा कर ली हैं। भाव और मन के पृथक्त्व को समझने के लिए भाव के स्वरूप को समझना जरूरी है । उमास्वाति ने कहा- भावो जीवस्य सतत्त्वं-भाव जीव का स्वरूप है | आत्मा अज्ञेय है, अमूर्त है, अगम्य और अदृश्य है। भाव जीव का एक स्वरूप बनता है । मनुष्य है । मनुष्य का शरीर है । इन्द्रियां हैं । इन्द्रियों के साथ और भी बहुत कुछ जुड़ा हुआ है। यह स्वरूप क्यों बना? कैसे बना? इसका आधार है भाव । इसीलिए उमास्वाति ने कहा- जीव का स्वरूप है भाव । एक वह भाव है जो औदयिक भाव कहलाता है, कर्म के उदय से, विपाक से होने वाला भाव है । एक वह भाव है, जो कर्म के शोधन से, कर्म के विलय से होने वाला भाव है | एक वह भाव है, जो स्वभावतः ही चलता रहता है । जिसकी संज्ञा है पारिणामिक भाव । भाव को इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है ।
भाव का स्रोत
भाव को समझने के लिए भाव की परिभाषा तक जाना और परिभाषा तक पहुंचने के लिए मूल स्रोत तक पहुंचना आवश्यक है ।
हमारे शरीर के भीतर बहुत सारे सूक्ष्म संस्थान हैं । मूल है आत्मा । आत्मा का एक वलय है-कषाय । कषाय आत्मा से स्पंदन आते हैं । वे कषाय के स्पंदन अध्यवसाय को प्रभावित करते हैं । अध्यवसाय के स्पदन लेश्या को प्रभावित करते हैं । लेश्या के स्पंदन स्थूल शरीर में आकर भाव का निर्माण करते हैं । यह भाव के निर्माण की इतनी लम्बी श्रृंखला है, प्रक्रिया है। आत्मा, आत्मा का एक वलय, जिसका नाम है- कषाय | कषाय वलय के पश्चात् एक संस्थान है-चैतन्य का संस्थान | जिसका नाम है अध्यवसाय, सूक्ष्म चेतना । मनोविज्ञान में अनकशियस की बात कही गई, उससे भी अधिक सूक्ष्म है अध्यवसाय का जगत् । प्रत्येक अध्यवसाय के असंख्य भाग हैं, उनमें इतना तारतम्य है | वे अध्यवसाय स्पंदित होते हैं, उनका स्पंदन एक नयी सृष्टि करता है लेश्या की । जब वे लेश्या के स्पंदन सूक्ष्म जगत् में आते हैं, चित्त के साथ उनका संयोग होता है तब भाव-तंत्र का निर्माण होता है ।
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