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२४ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र
भावना और संवेग
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मनोविज्ञान में दो शब्द प्रचलित हैं- भावना और संवेग । भावना और संवेग इन दोनों का इतना संश्लेषण है कि इन्हें विभक्त करना सरल बात नहीं है । मूल है भाव । भाव व्यक्त नहीं होता, भीतर रहता है । जब भाव तीव्र बन जाता है, तब संवेग की स्थिति बनती है । संवेग ही मनुष्य को सुख और दुःख की स्थिति में ले जाते हैं, भाव पीछे रह जाते हैं । मनोविज्ञान की भाषा में भाव संतोष और असंतोष उत्पन्न करता है । जब संतोष और असंतोष उग्र बन जाते हैं तब वे संवेग समस्या पैदा करते हैं, फिर पानी का वेग आता है, बाढ़ बन जाती है । जब भाव संवेग बनता है तब अनेक प्रकार की समस्या पैदा करता है । महावीर की सिद्धान्त प्रणाली में दो शब्द मिलते हैं, राग और द्वेष । दूसरा शब्द समूह है- काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, घृणा और वासना । मूल है राग और द्वेष | राग और द्वेष अपना आशय बनाए हुए हैं । एक रागाशय है और दूसरा है द्वेषाशय । ये दो आशय हमारे सूक्ष्मशरीर में बने हुए हैं । जब जब द्वेषाशय की उत्तेजना होती है तबतब क्रोध प्रकट होता है । क्रोध एक भाव भी है और संवेग भी है । इस प्रकार अहंकार, कपट, लोभ आदि-आदि संवेग बन जाते हैं ।
भाव और संवेग को सर्वथा पृथक् करना आवश्यक नहीं है । किन्तु जब दोनों के स्वरूप पर विचार करें तो कहा जा सकता है-भाव का जगत् अव्यक्त और सूक्ष्म है । संवेग का जगत् हमारे सामने आता है, प्रगट होता है । प्रगट क्रोध होता है, उसके पीछे छिपा हुआ आशय कभी प्रगट नहीं होता । क्रोध निरन्तर नहीं रहता, वह समय-समय पर व्यक्त होता है, प्रगट होता है । द्वेष का जो आशय है, वह क्रोध को उत्पन्न करता है और वह आशय निरन्तर सोते-जागते चौबीस घण्टा प्राणी के साथ रहता है । जब वह आशय क्रोध के रूप में प्रकट होता है तब संवेग बनता है । लोभ का मूल स्रोत हैराग । लोभ निरन्तर नहीं रहता । मनुष्य जब-जब सोचता है और जब- जब मानसिक स्तर पर आता है तब-तब लोभ का संवेग बनता है । चौबीस घण्टा लालसा तीव्र नहीं रहती । लालसा का स्रोत है राग, वह चौबीस घण्टा बना रहता है ।
हमारे दो विभाग बन गए - एक राग और द्वेष का दूसरा क्रोध, मान, माया और लोभ का । तीसरा विभाग बनता है क्रोध से उत्पन्न होने वाले
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