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कर्मवाद और स्वास्थ्य ६१
भुलाया जा सकता ।
कर्मशास्त्रीय भाषा में सुख-दुःख का सम्बन्ध वेदनीय कर्म से जुड़ता है और आचारशास्त्रीय भाषा में उसका संबंध आचार से जुड़ता है ।
सुख-दुःख के संवेदन में तीन कर्मों की त्रिपुटी बनती है— वेदनीय कर्म, नाम कर्म और मोहनीय कर्म । इन तीनों में मुख्य है वेदनीय कर्म । इनके आधार पर शरीर सुख-दुःख का संवेदन करता है ।
आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति
निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि चिकित्सा पद्धतियों में बाह्य कारणों पर अधिक ध्यान दिया जाता है । रोग का निदान करते समय भी बाह्य कारणों को देखा जाता है । जब तक आन्तरिक कारणों - कर्मों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक निदान पद्धति और चिकित्सा पद्धति अधूरी रहेगी । आज चिकित्सा की प्रचलित पद्धतियों के अतिरिक्त अन्यान्य पद्धतियों का विकास आवश्यक है ।
भावना से भी चिकित्सा की जाती | औषध प्रयोग के साथ-साथ भावना का प्रयोग भी कार्यकारी होता है । यदि औषध के साथ मैत्री की भावना, अनुकंपा की भावना का प्रयोग किया जाए तो औषध की शक्ति वृद्धिंगत होती है । यदि बीमारी क्रूरता के कारण उत्पन्न हुई है तो क्रूरता की वृत्ति का परिष्कार कर सबके साथ मैत्री की भावना को पुष्ट किया जाता है, बीमारी नष्ट हो जाती है ।
यदि बाह्य उपचार से रोग नष्ट नहीं होता है तो आभ्यन्तर उपाय करना चाहिए। एक नई विधि का प्रसार होगा और सही चिकित्सा होगी । यदि रोगी में मैत्री, प्रमोद और करुणा की भावना पैदा की जा सके, उसके मन की प्रसन्नता और निर्मलता को बढ़ाया जा सके, क्रोध, मान, लोभ, माया, घृणा, ईर्ष्या आदि भावनाओं का परिष्कार किया जा सके तो एक आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति का उन्नयन हो पाएगा और उस पद्धति का आधार होगा- कर्मवाद |
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