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३० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र से बाहर की अशुद्धि या दोष उत्पन्न होता है ।
अन्तर्विशुद्धितो जन्तो, शुद्धिः संपद्यते बहिः ।
बाह्यं हि कुरुते दोषं, सर्वमन्तरदोषतः ॥ हम बाहर पर बहुत ध्यान देते हैं, वायरस और जर्स पर ध्यान देते हैं, उन्हें बीमारी का मूल मानते हैं । हम मन को भी गौण कर देते हैं और मन से आगे जाएं तो भाव को भी गौण कर देते हैं । हमारा जो इम्युनिटी सिस्टम है, जो रेजिस्टेंस पावर है, जो रोग प्रतिरोधक क्षमता है, वह इन बाहर के तत्वों पर निर्भर नहीं है। इसका स्रोत है मन की पवित्रता, उससे भी आगे का स्रोत है भावों की पवित्रता, लेश्या की पवित्रता । इससे भी आगे जाएं तो उसका स्रोत है अध्यवसाय की पवित्रता । इससे भी आगे एक स्रोत है कषाय की उपशान्ति ।
इन सब पर विचार करें तो भाव की शुद्धि और स्वास्थ्य का संबंध स्पष्ट हो जाएगा । भाव की विकृति रोग को जन्म देती है । भय पैदा हुआ और बीमारी पैदा हो जाएगी । भय के साथ अनेक बीमारियां जुड़ी हुई हैं । उत्कंठा पैदा हुई, बीमारी उभर आएगी । एक चीज के प्रति उत्सुकता और अति लालसा भयंकर बीमारी उत्पन्न करती है। यह उत्कंठा या उत्सुकता थायराईड को प्रभावित करती है। जिससे थाइरोक्सिन की क्रिया बदल जाती है, चयापचय की क्रिया बदल जाती है | उदासी, स्वभाव का चिड़चिड़ापन, अवसाद, डिप्रेशन आदिआदि बीमारियां पैदा हो जाती हैं | इन बीमारियों का मूल कहां खोजें ? शरीर में तो कोई कारण नहीं बना । न कोई जीवाणु आया, न कोई कीटाणु आया, कुछ भी कारण नहीं बना। फिर ये बीमारियां क्यों पैदा हुईं ? इसका कारण खोजना होगा भाव जगत् में । अति उत्सुकता का भाव, भय का भाव, क्रोध का भाव-ये सारे हमारे स्वास्थ्य की श्रृंखला को गड़बड़ा देते हैं । वे सीधा अपना असर नहीं करते । वे पहले नाड़ीतंत्र को अस्त-व्यस्त करते हैं, नर्वस सिस्टम गड़बड़ा जाता है । वे ग्रन्थितंत्र को अस्त-व्यस्त करते हैं । जब नाड़ी तंत्र और ग्रन्थितंत्र की क्रिया गड़बड़ाती है, तब बीमारियों के लिए खुला निमंत्रण हो जाता है । इसलिए जब स्वास्थ्य पर विचार करें और महावीर की वाणी को सामने रखकर विचार करें तो हम शरीर से परे जाएं, मन से परे जाएं और भाव जगत् में प्रवेश करें, भाव जगत् की पूरी श्रृंखला को समझ लें ।
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