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कर्मवाद और स्वास्थ्य
दृश्य जगत् में केवल शरीर के स्तर पर स्वास्थ्य और रोग का चिन्तन हुआ है । कुछ चिन्तन मन के स्तर पर भी हुआ है । आयुर्वेद में सामान्यतः तीन प्रकार के रोग मान्य हैं वातिक, पैत्तिक और श्लैष्मिक । आयुर्वेद के कुछ आचार्यों ने कर्म के स्तर पर भी रोगों का विश्लेषण किया है । उन्होंने माना है - रोगों के जनक पुण्य, पाप भी हैं । तज्जो रोगः कर्म-योगः - पुण्य पाप से उत्पन्न रोग कर्मज रोग हैं । इस प्रकार रोग केवल वातिक, पैत्तिक और श्लैष्मिक ही नहीं होते, वे कर्मज भी होते हैं । कर्मज रोगों का सम्बन्ध वात, पित्त और कफ से नहीं होता । उसका संबंध पूर्वजन्मकृत कर्मों से होता है, पुण्यपाप से होता है ।
भगवान् महावीर ने कर्मवाद का सर्वांगीण निरूपण किया और विविध कर्मों के विविध परिणामों की जानकारी दी । जैन दर्शन सम्मत चौदह पूर्व ग्रन्थों में 'कर्मप्रवाद' नामक पूर्व है । उसमें कर्म और उसके परिणामों का विस्तार से वर्णन प्राप्त है । आज वह महाग्रन्थ प्राप्त नहीं है, किन्तु कर्म विषयक जो सूत्र उपलब्ध हैं उनका गंभीर अध्ययन करने पर रोग, आरोग्य और कर्म का संबंध सूत्र सहज बुद्धिगम्य हो जाता है । उसके अध्ययन से नए-नए आयाम उद्घाटित होते हैं ।
घटना और सुख-दुःख
हमारा शरीर सुख-दुःख के अनुभव का साधन है । यह एक बात है ।
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