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८८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र
के साथ जुड़ा है, बड़े-बड़े हास्पिटलों में उसके विभाग खुले हैं, उसका प्रयोग यही है- आसन करो, व्यायाम करो, कोई न कोई एक्सरसाइज अवश्य करो। कहा जा रहा है यदि आसन-व्यायाम नहीं करोगे तो बीमारी और बढ़ जाएगी। यदि घुटनों का दर्द है तो निरंतर व्यायाम करो अन्यथा बीमारी की गंभीरता बढ़ती चली जाएगी । पूज्य गुरुदेव के ज्येष्ठ भ्राता मुनिश्री चंपालालजी दक्षिण भारत की यात्रा पर थे । घुटनों में दर्द हो गया । प्रसिद्ध अस्थिचिकित्सक डा० ढोलकिया को दिखाया, पूछा- घुटनों में पीड़ा है । यात्रा करें या न करें । डा० ढोलकिया ने कहा- 'मुनिश्री ! यात्रा बन्द न करें। जब तक चलते रहेंगे, इन स्नायुयों पर दबाव पड़ता रहेगा तब तक आप चल पाओगे । जिस दिन आपने चलना बन्द कर दिया, उस दिन से आप कभी चल नहीं पाएंगे।' यह स्नायविक तनाव पूरे शरीर के लिए आवश्यक है । आसन और व्यायाम शरीर के प्रत्येक अवयव को सक्रिय कर देते हैं ।
आसन का विधान क्यों ?
भगवान् महावीर ने जिन आसनों का वर्णन किया, उनमें अलग-अलग प्रकार का स्नायविक तनाव होता है। एक आसन है दण्डायतिक—सीधे बैठकर पैर को लम्बा किया और खिंचाव पैदा हो गया । एक आसन है उत्तान-शयन आसन- सीधे लेटना । एक आसन है अवम-शयन- उल्टे लेटना । एक आसन है पार्श्व-शयन- दाएं पार्श्व और बाएं पार्श्व सोना । इस प्रकार अनेक आसन बतलाए गए हैं, जिनमें निर्जरा है, आत्मा का शोधन है, ग्रन्थियों का शोधन है और उसके साथ स्वास्थ्य का दृष्टिकोण भी है | यदि स्वास्थ्य का दृष्टिकोण नहीं होता तो आसन के इतने प्रकार क्यों बतलाए जाते ? निर्जरा और आत्मशोधन एक आसन से भी हो सकता था । यदि एक गोदोहिका आसन किया जाता तो प्रचुर निर्जरा हो जाती । भिन्न-भिन्न आसनों का प्रतिपादन क्यों किया गया ? कायोत्सर्ग का विधान क्यों किया गया ? इसकी पृष्ठभूमि में स्वास्थ्य का दृष्टिकोण प्रबल रहा है । एक मुनि के लिए अन्यान्य चिकित्साएं जटिल होती हैं । इस स्थिति में वह स्वस्थ रहे इसलिए स्वास्थ्य के सन्दर्भ में अनेक प्रकार के आसनों का विधान कर दिया ।
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