Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1978
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हावीर जयन्ती स्मारिका १६७८ प्रकाशक: राजस्थान जैन सभा जयपुर प्रधान सम्पादक : श्री भंवरलाल पोल्याका जयपुर TUMAP Jain Educaus ŞEde On ATAVI THAMRgmaina Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जैन सभा पदाधिकारी एवं कार्यकारिणी के सदस्य अध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष मंत्री कोषाध्यक्ष संयुक्त मंत्री संयुक्त मंत्री सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य १. श्री राजकुमार काला २. श्री ताराचन्द साह ३. श्री सुमेर कुमार जैन ४. श्री बाबूलाल सेठी ५. श्री सुरज्ञानी चन्द लुहाड़िया ६. श्री राजेन्द्र कुमार बिल्टीवाला ७. श्री रमेशचन्द गंगवाल ८. श्री कपूरचन्द पाटनी ६. श्री रतनलाल छाबड़ा १०. श्री लल्लूलाल जैन ११. श्री सूरजमल सौगानी १२. श्री कैलाशचन्द गोधा १३. श्री अरुण कुमार सोनी १४. श्री सुभाष काला १५. श्री भागचन्द छाबड़ा १६. श्री राजमल बेगस्या १७. श्री महेश काला १८. श्री तेजकरण सौगानी १६. श्री शांतिकुमार गोधा २०. श्र जानप्रकाश बख्शी २१. कुम । प्रीति जैन २२. श्री प्र 'शचन्द ठोलिया २३. श्री ज्ञान चन्द जैन झांझरी २४. श्री बलभद्र जैन सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य मदस्थ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती स्मारिका व्यवस्थापक मण्डल : संयोजक : श्री सुमेरकुमार जैन सदस्य : श्री कपूरचन्द पाटनी श्री देशभूषण सौगानी श्री ज्ञानचन्द झांझरी श्री रमेशचन्द्र गंगवाल श्री मदनलाल बैद श्री मुन्नीलाल जैन श्री नरेशकुमार सेठी श्री डी. आर. मेहता श्री कैलाशचन्द बैद श्री कैलाशचन्द चौधरी श्री साहिबलाल अजमेरा श्री सतीशकुमार अजमेरा 1978 प्रधान सम्पादक : भँवरलाल पोल्याका जैनदर्शनाचार्य, साहित्य शास्त्री सम्पादक मण्डल : डा० नरेन्द्र भानावत श्री ज्ञानचन्द जैन बिल्टीवाले श्री राजकुमार काला एम. ए., एल एल. बी. एडवोकेट श्री राजमल बेगस्या एम. ए. श्री पदमचन्द साह एम. ए., सम्पादन कला विशारद प्रकाशक : बाबूलाल सेठी मंत्री राजस्थान जैन सभा जयपुर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती समारोह 1978 संयोजक १. निबन्ध प्रतियोगिता श्री प्रकाशचन्द जैन २. भाषण प्रतियोगिता श्री ताराचन्द चौकड़ायत ३. युवा सम्मेलन श्री राजकुमार बरडिया ४. प्रभात फेरी महावीर पार्क से श्री ज्ञान प्रकाश बख्शी गोधों के चौक से श्री अशोककुमार पांड्या ५. संगीता संध्या ६. जुलूस ७. सांस्कृतिक कार्यक्रम ८. अर्थसंग्रह ६. प्रचार १०. पंडाल व्यवस्था नाटारियों का रास्ता मोदीखाना, जयपुर - 3 2. श्री बाबूलाल सेठी श्री सुरज्ञानी चन्द लुहाडिया श्री हीराचन्द बैद श्री तिलकराज जैन श्री सुरज्ञानीचन्द लुहाड़िया श्री राजकुमार जैन श्री बलभद्र जैन सूचना स्मारिका की प्रति प्राप्त करने के लिए निम्न में से किसी एक पते पर सम्पर्क करें 1. श्री राजकुमार काला एडवोकेट सह-संयोजक श्री बुद्धि प्रकाश भास्कर श्री प्रेमचन्द गंगवाल श्री अशोक कुमार कोडीवाल श्री राजेन्द्रकुमार बिल्टीवाला श्री श्री वीरेन्द्र गोदीका श्री राजमल बेगस्या श्री प्रकाशचन्द्र टोलिया श्री कैलाशचन्द्र गोधा श्री ताराचन्द शा श्री महेश काला श्री भागचन्द छ बड़ा मंत्री - राजस्थान जैन सभा जयपुर बीकानेर बैंक के पीछे, चोरुकों का रास्ता मोदीखाना, जयपुर - 31 नोट- पृष्ठ 2 – 137 पर 'महावीर की सीख अमर रहे' शीर्षक कविता के लेखक का नाम श्री रामचन्द्र सराधना छपने से रह गया है । पाठक सही करलें । ( 2 ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्यर्थ सन्देश C मुख्य मंत्री राजस्थान जयपुर CHIEF MINISTER OF RAJASTHAN JAIPUR रम्यमत्रजपत क्र. 1148/C/M/O/G/78 १४ अप्रैल १९७८ मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि राजस्थान जैन सभा, जयपुर महावीर जयन्ती के अवसर पर एक स्मारिका का प्रकाशन कर रही है। मुझे बताया गया है कि इस स्मारिका में जैन दर्शन, इतिहास, संस्कृति और साहित्य पर अधिकारी विद्धानों के शोधपूर्ण लेखों का समावेश किया जाएगा। भगवान महावीर सामाजिक नैतिकता और धार्मिक सहिष्णुता के प्रादर्श को स्थापित करने वाले थे। उस आदर्श को व्याबहारिक रूप से ग्रहण करने में उनके अनुयायी अभी तक प्रांशिक रूप से ही सफल हुए हैं। उनके ये आदर्श न केवल जैन धर्म के मानने वालों के लिये थे बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिये थे। अाज देश के बदले हुए सन्दर्भ में उनके उपदेशों का महत्व और भी बढ़ गया है। मैं प्राशा करता हूं कि आपकी स्मारिका भगवान महावीर के सिद्धान्तों व आदर्श को आगे बढ़ाने में सफल होगी। मेरी शुभ कामनाएं श्रापका, श्री बाबूलाल सेठी, मंत्री राजस्थान जैन सभा, चाकसू का चौक, जौहरी बाजार, जयपुर (भैरोंसिंह शेखावत) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम (प्रापकी बात हमारी बात) अध्यक्षीय प्रात्म-निवेदन प्रकाशकीय राजस्थान जैन सभा : संक्षिप्त परिचय महावीर जयन्ती स्पारिका 1977 : लोक दृष्टि में सितारे जो अस्त हो गये प्रथम खण्ड ( महावीर : उनका दर्शन एवं इतर दर्शन ) 1. वीर वन्दना डा. पन्नालाल 2. महावीर : आत्मक्रांति और डा. नरेन्द्र भानावत जनक्रान्ति के आईने में 3. भगवान महावीर के दर्शन श्री निहालचन्द जैन महावीर व्यक्तित्व-मापन श्री लक्ष्मीचन्द्र ‘सरोज' 5. ज्योतिर्मय तुम्हारी प्रतीक्षा है श्रीमती रूपवती किरण 6. ईश्वर : परिकल्पित निरर्थकता डा, महावीरसरन जैन 7. व्यक्ति की वृत्ति प्रो. प्रादित्य प्रचण्डिया 8 जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में डा. सागरमल जैन कर्म का अशुभत्व, शुभत्व और शुद्धत्व 9. श्री वीर स्तवन डा. बडकुल 10. जैन साधना का रहस्य श्री जमनालाल जैन 11. पांच महाव्रतों की वरीयता डा. शोभनाथ पाठक द्वितीय खण्ड (म्हारी धरती म्हारो देश) 1. मंगलाचरणम् श्री गुणभद्राचार्य 2. प्रशर्मरतिप्रकरणकार तत्वार्थ सूत्र डा. कुसुम पटोरिया तथा भाष्य के कर्ता से भिन्न 3. कीमती घोड़ा श्री मोतीलाल सुराना Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 17 41 13. 59 66 4. सूर के काव्य पर अपभ्रंश प्रो. श्रीरंजनसूरि देव कृष्ण-काव्य का प्रभाव 5. दो क्षणिकाए श्री शर्मनलाल 'सरस' 6. खारवेल का प्रारम्भिक जीवन श्री नीरज जैन डा. कन्हैयालाल अग्रवाल 7. प्रभु से विनम्र प्रश्न श्री मंगल जैन 'प्रेमी' सर्वतोभद्र प्रतिमा श्री शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी आदमी श्री मगनलाल 'कमल' 10. उत्तरपुराण में प्रतिबिम्बित राजनीति डा. रमेशचन्द जैन 11. चाहूंगा अपना सपना पं. उदयचन्द्र शास्त्री 12. कुलकर और श्रमण संस्कृति डा. प्रेमसागर जैन सगुण भक्तों की रहस्य भावना डा. पुष्पलता न 14. आत्मशांति को छू न सकेगी श्री कल्याणकुमार 'शशि' 15. खण्डेलवाल श्रावकों की उत्पत्ति भंवरलाल पोल्याका 16. तुम स्वयं महावीर हो श्री हजारीलाल 'काका' जैन हरिवंश पुराणकालीन भारत की डा. प्रेमचन्द जैन . सांस्कृतिक झलक संस्कृत नाट्य साहित्य में हस्तिमल्ल के । डा. कन्छेदीलाल नाटकों का स्थान 19. एक सत्य का हाथ बहुत है श्री भवानीशंकर 20. वाल्मीकि रामायण और जैन कथा डा. लक्ष्मीनारायण दुबे 21. औंकारं बिन्दु संयुक्तं श्री नन्दकिशोर 22. मुस्लिम राज्य में जैन धर्म . श्री दिगम्बरदास एडवोकेट आत्म गीत श्री भगवान स्वरूप जयपुर पोथी खाने का हिन्दी डा. प्रेमचन्द रांवका जैन साहित्य राघव पाटनी रचित यात्रा प्रकाश श्री अगरचन्द नाहटा जयपुर के जैन मेले पं. गुलाबचन्द जैनदर्शनाचार्य 27. महावीर रा स्वर गूंजे है श्री घनश्याम मुदगल 28. जयपुर की प्रथम डेढ़ शती के जैन डा. ज्योतिप्रसाद साहित्यकार नारी ममता मालपाणी बुधजन सतसई श्री रमाकान्त जैन 31. संघी झूताराम और उनके पूर्वज पं. भंवरलाल न्यायतीर्थ 32. बालक श्री राजमल बेगस्या 33. दीवान झूतारामजी और उनके वंशज । श्री प्रतापचन्द जैन 34. महावीर री सोख अमर रहे श्री रामचन्द्र सराधना 84 85 88 89 100 101 107 109 112 113 30. 120 121 125 131 133 137 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 139 श्री कुन्दनलाल डा. ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा 143 35. टोडरमलजी के कुछ अप्रकाशित पद आम्बेर संग्राहालय की तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा 37. जैन साहित्य में प्रयुक्त धर्म परीक्षा अभिप्राय The Jaina Atheism ___धर्म, धार्मिक और धर्मालय डा. प्रेमसुमन जैन 145 Dr. Harendra Prasad Verma डा. महेन्द्र प्रचण्डिया 151 160 तृतीय खण्ड ( मुक्त चिन्तन तथा अन्य ) 1. विश्वबंधुत्वस्योत्प्रेरको भगवान् महावीरः श्री नारायणसहाय शास्त्री 2. प्रीतंकर श्री मिश्रीलाल जैन अहसान श्री सुरेश 'सरल' 4. भगवान महावीर प्रश्न चिह्नों के घेरे में डा. राजेन्द्रकुमार बंसल 5. निबन्ध प्रतियोगिता के लेख (1) श्री जिनेन्द्रकुमार सेठी (2) श्री संजय जसोरिया निवेदन असावधानीवश स्मारिका में कुछ मुद्रण की अशुद्धियां रह गई हैं, पाठक पढ़ने से पूर्व कृपया संशोधन करलें। (1) पृष्ठ 'त' में 'सुन्दलाल' के स्थान पर 'सुन्दरलाल' (2) पृष्ठ '8' के पश्चात् लगा हुआ चित्र राजस्थान जैन सभा की वर्तमान कार्य-कारिणी के सदस्यों का है । इसमें 'बाबूलल' के स्थान में 'बाबूलाल' तथा 'लल्लूलल' के स्थान में 'लल्लूलाल' (3) पृष्ठ 2-89 पर अंग्रेजी मैटर की तीसरी पंक्ति का अन्तिम शब्द 'Their' | (4) पृष्ठ 2-106 के टिप्पण की प्रथम लाइन में 'of Heittage the Rulers' की जगह 'Heritage of the Rulers' । (5) तृतीय खण्ड के पृष्ठ 12 के कालम द्वितीय के अन्त में 'शेष पृष्ठ 16 पर' बढ़ालें तथा पृष्ठ संख्या 1-12 के स्थान में 3-12 करलें। -सम्पादक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज विश्व जिनकी २५७६ वीं जयंती मना रहा है देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग । सर्वज्ञ तोर्थंकर सिद्धमहानुभाव ॥ त्रैलोक्यनाथ जिनपुंगव वद्धमान । स्वामिन् गतोऽस्मि शरणं चरणद्रयं ते ॥ C w Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 為著 张双 3TIC 老虎关关注送 我常常识 9祇祇祇承获级 深获张获採观 हमारी 以NYA 长老卷 派派 बात 张荣获= Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यक्षीय अगर आज विश्व में धूमते घटना चक्र को व प्रोत्साहन से प्रेरित हो महावीर जयन्ती के पुण्य उसके वास्तविक रूप में मञ्च पर प्रस्तुत किया पर्व पर प्रतिवर्ष एक स्मारिका प्रकाशन का निश्वय जाय तो दृश्य इतना वीभत्स होगा कि मानवता रो किया था। प्रारंभ में उसके कदम लड़खडाये जरूर देगी, शायद उन दृश्यों को देखने का उसमें साहस मगर शीघ्र ही वे जम भी गये। अब तक उसके भी न होगा। कहीं काले गोरों में युद्ध छिड़ रहा है १४ अङ्क प्रकाशित हो चुके हैं तथा १५वां अङ्क यह तो कहीं एक दल दूसरे दल के लोगों के खून का आपके हाथ में है। यह स्मारिका वास्तव में एक प्यासा हो रहा है। कही एक जाति वाले दूसरी शोध तथा सन्दर्भ ग्रंथ है और विद्वत्समाज में वह जाति वालों के घर जला रहे हैं, उन्हें जीवित हा कितनी समाहत है इसका पता प्रतिवर्ष पाने वाले जलती आग में समर्पित कर रहे हैं तो कहीं मातृ- मैकडों प्रशंसापत्रों और पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित स्वरूपा स्त्रियों की इज्जत लूटी जा रही है, उनके होने वाली उसकी समीक्षाओं से लगता है । गतसाथ बलात्कार किया जा रहा है । मानव मानव वर्ष की स्मारिका पर आई हुई ऐसी सम्मतियों को का खून पीकर राक्षस बन गया है। रामायण काल प्रधान सम्पादक की इच्छा के विरुद्ध इस वर्ष हमने में तो एक ही रावण था लेकिन आज तो उनकी प्रकाशित करने का निश्चय किया है जिससे पाठकों गिनती ही नहीं की जा सकती। महावीर काल में को हमारे कथन की सत्यता का प्रत्यक्ष अनुभव हो तो पशुयज्ञ ही होते थे किन्तु आज तो नरमेघ हो रहे सके। हैं । महावीर काल में एक धर्म के उपासक दूसरे धर्म के उपासक ही से लड़ते थे तो आज एक धर्म इस वर्ष भी स्मारिका का सम्पादन श्री भंवर. के मानने वाले ही आपस में लड़ते हैं । जिधर देखो लालजी पोल्याका, जैनदर्शनाचार्य साहित्य शास्त्री उधर हिंसा का ही ताण्डव नृत्य । न दिन को चैन ने किया है। श्री पोल्याकाजी की यद्यपि वृद्धान रात को । किसी को यह विश्वास नहीं कि वस्था है और स्वास्थ्य भी खराब रहता है, किन्तु उसका जीवन इतने समय तक सुरक्षित है । अगर उन्होंने अपने स्वयं की चिन्ता किये विना पाठकों के गीता के इन व क्यों में सचाई है कि जब जब भी मनमोहने को सामग्री संकलित की है वह वास्तव में पृथ्वी पर अधर्म का साम्राज्य होता है भगवान् जिन शासन की महत्ता को निरन्तर कायम रखने पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करते हैं तो भगवान के क का एक बहुत ही सफल प्रयास है । श्री पोल्याकाजी अवतार ग्रहण करने का इससे अधिक उपयुक्त समय ___ का कार्य, कर्तव्य निष्ठा, प्रेम, लगन सहृदयता फिर कब होगा मगर वह भी शायद आराम की और साक्षात् मानवीय गुणों को देख कर मेरी नींद सो रहा है। विश्व की घटनाओं की ओर श्रद्धा के सुमन स्वतः ही उनके चरणों में अर्पित हो उसका कोई ध्यान नहीं। भ. महावीर के उपदेशों रहे हैं। आज यदि यह कहा जावे कि महावीर के प्रसार प्रचार की, उनको अपने में उतारने की, जयन्ती स्मारिका एवं श्री भंवरलालजी पोल्याका आज की परिस्थितियों में उनके मूल्यांकन की प्राज एक दूसरे के पर्यायवाची हैं तो कोई अतिशयोक्ति जितनी आवश्यकता है इससे पूर्व कभी नहीं हुई। नहीं होगी। उनके लिये कुछ भी लिखा या कहा अाज से १६-१७ वर्ष पूर्व राजस्थान जैन सभा जावे तो उसके लिये कोई उपयुक्त शब्द मेरे पास ने स्व. पं. चैन सुखदासजी न्यायतीर्थ की सत्प्रेरणा नहीं हैं। मेरी ईश्वर से यही कामना है कि श्री Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोल्याकाजी युग-युग जीयें और स्वास्थ्य उनका साथ दे । स्मारिका के लिये जिन लेखकों ने सामग्री भेजी है वे सभी धन्यवाद के पात्र हैं । अनेक लेखकों को निराश होना पड़ रहा है । उनकी रचनायें प्रकाशित नहीं की जा सकी इसके अनेक कारण हैं । मैं ऐसे सभी लेखकों से क्षमाप्रार्थी हूं । स्मारिका के प्रकाशन में व्यवस्थापक समिति के संयोजक श्री सुमेरकुमार जी जैन, एवं उनके व्यवस्थापक मण्डल के सभी सदस्यों का मैं अत्यन्त श्राभारी हूं विशेषकर श्री ज्ञानचन्द झांझरी, श्री देशभूषण जी सौगानी एवं श्री मदनलालजी बढ़ियाल वाले का जो सहयोग विज्ञापन एकत्रित करने में रहा है वह उसी का कारण है कि यह स्मारिका समय में पाठकों के समक्ष उपलब्ध है । राजस्थान जैन सभा की कार्यकारिणी के मेरे सभी साथी निरन्तर सभा की गतिविधियों में पूर्ण सहयोग देते रहते हैं यही कारण है कि सभा नई नई गतिविधियां लेकर भी सदैव सफल रही है । इस अवसर पर सभा के मंत्री श्री बाबूलालजी सेठी के बारे से कहे बिना मैं नहीं रह सकता हूं । श्री सेठजी सभा के प्राण हैं एवं मूक सेवक हैं, सदैव सभा के लिये कुछ न कुछ करते रहना उन्होंने अपने जीवन का एक अंग समझ लिया है । मैं - उनका भी अत्यन्त आभारी हूं जिनके कारण सभा की गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं । सभा के प्रत्यन्त वरिष्ठ सदस्य श्री कपूरचन्दजी पाटनी मेरे मार्गदर्शक हैं । कोई भी दिक्कत आने पर मैं अपनी समस्या का समाधान पाटनीजी से ही पाता हूं जो सदैव एक सच्चे मित्र की भांति उभी गुत्थियों को सुलझाने में मेरी मदद करते हैं | राजस्थान जैन सभा श्री पाटनीजी के प्रयासों से ही प्राज के स्वरूप में पहुंच सकी है। मैं उकका अत्यन्त आभारी हूं । सभा के विभिन्न कार्यक्रमों में सभा के दोनों उपाध्यक्ष सर्वश्री ताराचन्दजी साह एवं श्री सुमेर 4 कुमारजी जैन का एवं सभा के दोनों संयुक्त मन्त्री श्री रमेशचन्द्रजी गंगवाल एवं श्री राजेन्द्रजी बिल्टीवाला का तथा श्री तेजकरणजी सौगानी, श्री ज्ञानप्रकाशजी वरूशी श्री प्रकाशचन्द्रजी ठोलिया, श्री भागचन्दजी छाबड़ा श्री सुरज्ञानीलालजी लुहाड़िया, श्री बलभद्रजी जैन, श्री महेशचन्द्रजी काला श्री सुभाषजी काला, एवं अन्य सभी सदस्यों का प्रभारी हूं जिनके सहयोग से सभा का कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हो रहा है । इस वर्ष महावीर जयन्ती के अवसर पर विभिन्न समिति के संयोजकों एवं उनकी समिति के सदस्यों कि जिनका नाम स्मारिका में अन्यत्र प्रकाशित है, का भी मैं पूर्ण प्रभारी हूं जिनके कारण ही इस वर्ष यह प्रायोजन सफल हो का है। सम्पूर्ण समाज का विशेषकर श्रद्धेय श्री राजरूपजी टॉक, श्री हीराचन्दजी चंद, श्री प्रवीणचन्द्रजी छाबड़ा, श्री देवेन्द्रराजजी मेहत्ता, श्री नरेशकुमारजी सेठी, श्री निहालचन्दजी जैन श्री कैलाशचन्दजी चौधरी आदि का जो सहयोग मिलता रहा है जिसके परिणाम स्वरूप ही हम आगे की मंजिल तलाश करते रहते हैं । सभा कुछ नये कार्यक्रम शीघ्र ही हाथ में लेने को है । समाज के सहयोग से ही उनकी सफलता सम्भव हो सकेगी। अन्त में मैं मनलाइट प्रिंटर्स के व्यवस्थापक श्री महाबीर प्रसादजी जैन का भी प्रत्यन्त आभारी हूं जिनके सतत् प्रयत्नों से स्मारिका समय पर प्रकाशित हो सकी है । स्मारिका को काफी रोचक एवं सुन्दर बनाने का प्रयास किया गया है फिर भी कोई कमी रही हो तो इसकी जिम्मेवारी मेरी ही मानी जानी चाहिए । प्राशा है पाठक स्मारिका को पसन्द करेंगे। भगवान महावीर मुझे सन्मार्ग से अडिग न होने दें इसी भावना के साथराजकुमार काला अध्यक्ष राजस्थान जैन सभा, जयपुर Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EDEDDED EDERED EDEREDEEDED EEDEDER राजस्थान जैन सभा के अध्यक्ष श्री राजकुमार काला स्मारिका के सम्पादक पं० भंवरलाल पोल्याका का उनकी साहित्यिक एवं सामाजिक सेवाओं के लिये रजतप्लेट भेंट कर अभिनन्दन करते हुए। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रात्मनिवेदन स्मारिका प्रकाशन की जो परंपरा श्रद्धय गुरुवर्य पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ ने सन् 1962 मैं प्रारंभ की थी उसका यह 15 वां अंक पाठकों के हाथों में है । गुरुवर्य द्वारा लगाया हुआ यह पौधा न केवल निर्विघ्न अपना बाल्यकाल पूरा कर चुका है, अपितु उसकी सुवास भी अब महकने लगी है । यह सब ही के सम्मिलित प्रयासों और सहयोग का फल है किसी एक को इसका श्रेय नहीं जाता । मेरे सम्पादन काल का यह दसवां अंक है । 60 वर्ष की आयु मैंने पूर्ण कर ली है और स्वास्थ्य ठीक न रहने से शरीर की शक्ति निरन्तर क्षीण होती हुई समाप्ति की ओर अग्रसर हो रही है शायद श्रागामी अङ्क तक इतनी शक्ति भी न रहे । यदि गार्हस्थिक समस्याओं का समाधान संभव हुआ तथा अपेक्षित सहयोग मिल सका तो खण्डेलवाल जैन श्रावक जाति के इतिहास के कुछ अनुद्घाटित पृष्ठों को प्रकाश में लाना चाहता हूँ। और भी कुछ लिखने का विचार है लेकिन इच्छाएं पूर्ण हों आवश्यक नहीं । मेरे सम्पादन काल में मुझे सभी ओर से भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ है क्या रचनाकारों का, क्या साथियों का और क्या प्रेस का; उन सबके प्रति प्राभार से मेरा मस्तक नत है । भविष्य में भी स्मारिका इससे भी अधिक उपयोगी बनकर पाठकों के हाथों में पहुँचती रहे, पं० साहब द्वारा प्रवाहित ज्ञान गंगा का यह प्रवाह कभी सूखे नहीं, सतत् प्रवाहित होता रहे जिसकी शीतल शांति प्रदाता लहरों में स्नान कर पाठक गरण मानसिक सुख शांति प्राप्त करते रहें ऐसी हार्दिक कामना है । मुझे यह स्वीकार करने में जरा भी संकोच नही कि भरपूर साधन और सहयोग मिलने पर भी मैं स्मारिका को वह रूप नहीं दे पाता जिसकी कल्पना मेरे मस्तिष्क में है । इसके बहुत से कारण हैं जिनमें मेरी अक्षमता और प्रयोग्यता भी एक कारण तो है ही । इस वर्ष भो बहुत सी रचनाएं स्मारिका में अपना स्थान नहीं पा सकीं। उनमें कुछ तो बहुत ही महत्वपूर्ण थी किंतु समय और साधन दोनों ही सीमित हैं । उन सबसे मैं एतद् हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ और अप्रकाशित रचनाएं लौटा रहा हूँ । भविष्य में चाहे कोई भी सम्पादन करे मेरी उन सबसे विनम्र प्रार्थना है कि वे इसी प्रकार अपना सहयोग उसे प्रदान करते रहें । मेरे सहयोगी श्री पदमचंद शाह तथा श्रीराजमलजी बेगस्या तो मेरे अनुजसम है उनका तो मैं क्या धन्यवाद करू, मेरे प्राशीर्वाद मेरी शुभ कामनाएँ उनके साथ हैं । श्री राजकुमारजी काला अध्यक्ष तथा श्री बाबूलाल सेठी मंत्री भी प्रत्येक समस्या का बड़ी तत्परता से निदान करते हैं और प्रत्येक संभव सहयोग को तत्पर रहते हैं । सभा के अन्य सारे सदस्य ही मेरे साथ बड़ा प्रेमभाव रखते हैं उनका सबका भी हृदय से मैं श्राभार मानता हूँ तथा इस सुदीर्घकाल में हुई त्रुटियों, भूलों तथा अपराधों के लिये शुद्ध हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ । मैं भविष्य में कहीं भी रहूँ या कुछ भी करू ́ इसी प्रकार स्नेह और सहयोग मुझे प्राप्त होता रहेगा इसी विश्वास के साथ : * भंवरलाल पोल्याका 5 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आज से 2576 वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने अपने जन्म से इस वसुंधरा को पवित्र किया था। उनके जन्म से न केवल नर ने अपितु स्वर्ग के देवों और नरक के नारकियों ने भी सुख और शांति का अनुभव किया था । तीस वर्ष महावीर गृहस्थावस्था में रहे । जनकल्याण की भावना उन में प्रारंभ से ही थी । ज्यों-ज्यों समय बीतता गया वह और दृढ़ हो गई तथा इसी भावना से प्रेरित हो उन्होंने जंगल का रास्ता लिया । 12 वर्ष तक कठोर साधना के पश्चात् विचार-मंथन से जो नवनीत निकला साररूप में शब्दों में उसे यों व्यक्त किया जा सकता है.--- 1. जिस प्रकार तुम्हें जीवित रहने का अधिकार है विश्व के अन्य प्राणियों को भी है अतः स्वयं । जीवो और दूसरों को जीने दो। 2. मनुष्य की इच्छाएं अपरिमित हैं और उपभोग के साधन सीमित अतः आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो। 3. सचाई अनन्तधर्मा है । जो बात एक दृष्टिकोण से सत्य है दूसरे दृष्टिकोण से वह गलत भी हो सकती है । पूर्ण सत्य कहा नहीं जा सकता केवल जाना जा सकता है । अतः प्राग्रही मत बनो। प्राग्रह झगड़े की जड़ है। महावीर के इन सिद्धान्तों का जो महत्व उस समय था उससे कहीं अधिक अाज है। उनके बताये मार्ग पर चल कर ही जीवन में सुख शांति का अनुभव किया जा सकता है। भगवान महावीर के लोकोपकारी उपदेशों का जन-जन में प्रचार प्रसार करने के पवित्र उद्देश्य को लेकरं स्व० पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ की सत्प्रेरणा से सन् 1962 में राजस्थान जैन सभा ने भ० महावीर के पुण्य जन्मावसर पर एक स्मारिका प्रकाशन का निश्चय किया था जो अद्यावधि चालू है। स्मारिका का 15 वाँ अंक पाठकों को प्रस्तुत है । पं० चैनसुखदासजी के स्वर्गवास के पश्चात् इसका सम्पादन पं. भंवरलालजी पोल्याका जैनदर्शनाचार्य करते आ रहे हैं। आपकी निःस्वार्थ साहित्य सेवा अनूठी एवं अनुकरणीय है सभा ने आपका गत वर्ष महावीर जयन्ती पर सार्वजनिक सभा में समारोह के अवसर पर प्रायोजित विशाल जन समुदाय के सम्मुख अभिनन्दन किया। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PEYA सभा के मंत्री श्री बाबूलाल सेठी भाषण करते हुए क्षमापन पर्व समारोह 1977 श्री राजकुमार काला अध्यक्ष राजस्थान जैन सभा मुख्यअतिथि श्री भैरोसिंह शेखावत मुख्यमंत्री राजस्थान का स्वागत करते हुए Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वस्थ होते हुए भी इस वर्ष भी इन्होंने हमारे अनुरोध को स्वीकार किया एवं काफी अल्प समय में दिन रात परिश्रम कर इस कार्य के सम्पादन में जिस कर्तव्यनिष्ठा और लगन का परिचय दिया है उसके लिये मेरे पास श्री पोल्याकाजी का आभार प्रकट करने हेतु शब्द नहीं मिल रहे हैं। मापके सम्पादकीय लेख एवं लेखों पर टिप्पणियाँ आपकी विद्वत्ता, निस्पक्षता एवं निडरता की द्योतक हैं जो आप स्वयं को ज्ञात हो जायगा । इसके अतिरिक्त वे लेखकगण एवं कवि भी हमारे अत्यधिक साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने अपनी रचनायें स्मारिका में प्रकाशनार्थ भेजीं । स्थानाभाव से कुछ रचनायें स्मारिका में स्थान नहीं पा सकीं इसके लिये हम क्षमा प्रार्थी है। आर्थिक सहयोग के बिना किसी भी प्रकार का प्रकाशन कार्य संभव नहीं है। स्मारिका की अर्थ व्यवस्था सभा द्वारा विज्ञापन के माध्यम से ही की जाती है एतदर्थ एक प्रबन्ध समिति का गटन किया गया जिसके संयोजन का दायित्व श्री सुमेरकुमारजी जैन पर डाला गया। इस वर्ष इस कार्य में श्री जैन के अतिरिक्त सर्व श्री राजकुमारजी काला, देवेन्द्रराजजी मेहता, देशभूषणजी सौगाणी, ज्ञानचन्दजी जैन, मुन्नीलालजी जैन, कैलाशचन्दजी वैद, विद्याविजय काला, कपूरचन्दजी पाटनी, भागचन्दजी छाबड़ा, प्रकाशचन्दजी ठोलिया आदि ने जो सहयोग दिया उसे भुलाया नहीं जा सकता। अर्थ संग्रह हेतु जो सहयोग सर्वश्री देवकुमारजी शाह, कैलाशचन्दजी सौगानी, कैलाशचन्दजी गोधा, सुरज्ञानीचंदजी लुहाड़िया, ताराचन्दजी साह, विनयकुमारजी पापड़ीवाल, लल्लूलालजी जैन, भागचंदजी छाबड़ा, राजेन्द्रकुमारजी बिल्टीवाला, ज्ञानचंदजी जैन, प्रादि ने जो अथक परिश्रम करके दिया उनके प्रति आभार प्रकट किये बिना भी नहीं रह सकता । विज्ञापन दाताओं के अनुदान का ही यह फल है कि लागत से भी अत्यन्त अल्प मूल्य पर स्मारिकां पाठकों के हाथों में पहुंचती है। यह पुण्य कार्य विज्ञापन दातानों के सहयोग के बिना संभव नहीं है। इस वर्ष जिन संस्थानों ने अपने विज्ञापन प्रदान कर हमें सहयोग प्रदान किया है उनका हम हदय से आभार मानते हैं तथा भविष्य में भी उनसे इसी प्रकार के सहयोग की आशा करते हैं। ___ स्मारिका का प्रस्तुत अंक कैसा है यह निर्णय करना पाठकों का कार्य है। पाठकों से हमारा अनुरोध है कि इसमें रहने वाली त्रुटियों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते रहें जिससे कि तदनुरूप उनमें सुधार होता रहे । इस वर्ष की स्मारिका पर आपका अभिमत साग्रह आमंत्रित है । स्मारिका का मुद्रण कार्य मूनलाइट प्रिंटर्स ने किया। मुद्रण की अवधि में आने वाले कई व्यवधानों के बावजूद स्मारिका का समय पर प्रकाशित होना उनके अथक परिश्रम एवं सहयोग के बिना संभव नहीं था। इस हेतु संस्थान के मालिक श्री महावीरप्रसादजी जैन तथा उनके सभी सहयोगी धन्यवाद के पात्र हैं। • बाबूलाल सेठी मंत्री राजस्थान जैन सभा, जयपुर Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जैन सभा जयपुर संक्षिप्त परिचय राजस्थान जैन सभा जयपुर जैन समाज का एक मात्र ऐसा प्रतिनिधि संगठन है जो जैन समाज के सभी वर्गों को संगठित कर उसके सर्वागीण विकास में सतत प्रयत्नशील है। लगभग 25 वर्ष पूर्व दिनांक 16 अक्टूबर 1953 को समाज के जागरूक नवयुवकों ने आपसी मतभेदों को मिटाकर, संस्थाओं के नाम एवं पदों का मोह त्याग कर राजस्थान जैन सभा की स्थापना की थी । यह वर्ष सभा का रजत जयन्ती वर्ष है । विशुद्ध धार्मिक एवं सैद्धान्तिक मान्यताओं को प्रधानता देकर वास्तविक धर्म का मर्म समझाते हुए जैन समाज की साहित्यिक, सांस्कृतिक, चारित्रिक, सामाजिक एवं प्रार्थिक उन्नति के हेतु श्रावश्यक कार्य करना ही सभा का एक मात्र लक्ष्य है । इन लक्ष्यों की पूर्ति हेतु सभा का स्वयं का एक संविधान है जो राजस्थान सोसाइटीज एक्ट के अन्तर्गत पंजीकृत है । जनमानस को धर्म एवं कर्त्तव्य की ओर आकृष्ट करने की दृष्टि से पर्युषण पर्व, क्षमापन समारोह, महावीर जयन्ती समारोह तथा निर्वारर्णोत्सव पर विशेष समारोह तथा समय-समय पर व्याख्यानोंप्रवचनों के आयोजन एवं साहित्य प्रकाशन सभा की मुख्य गतिविधियां रही हैं । गत वर्ष में किये गये कार्यों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है : (अ) समारोह : बाबूलाल सेठी मंत्री राजस्थान जैन सभा (1) महावीर जयन्ती समारोह : समस्त जैन समाज के सहयोग से यह समारोह 26 मार्च, 1977 से 2 अप्रैल 77 तक निम्न कार्यक्रमों के रूप में मनाया गया : 26 मार्च, 1977 को प्रातः सी स्कीम स्थित महावीर स्कूल के प्रांगण में 'भगवान महावीर की देन' विषय पर निबन्ध प्रतियोगिता आयोजित को गई जिसमें श्री जिनेन्द्रकुमार सेठी प्रथम तथा संजय जसौरिया द्वितीय रहे। श्री नासिर हुसैन खां का प्रयास भी प्रशंसनीय रहा । 30 मार्च, 77 की रात्रि को बड़े दीवानजी के मंदिर में भजन संगीत संध्या का आयोजन श्री तेजकरण जी सा. इंडिया की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। श्री राजरूपजी सा. टांक विशेष अतिथि थे । विभिन्न संस्थानों के सभी आयु वर्ग के व्यक्तियों ने श्रध्यात्मिक भजन एवं गीत प्रस्तुत किये । 31 मार्च, 77 की रात्रि को आत्मानन्द सभा भवन में 'जीवन और अहिंसा' विषय पर भाषण Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (राजस्थान जैन सभा रजत जयन्ती वर्ष 1953-1978 नीचे बैठे हुए:-सर्वश्री अरुणकुमार सोनी, सुभाष काला, महेशचन्द काला कुर्सी पर :-सर्वश्री रमेशचन्द गंगवाल, सुरज्ञानीचन्द लुहाडिया, कपूरचन्द पाटनी, ताराचन्द शाह, राजकुमार काला, सुमेरकुमार जैन, बाबूल ल सेठी, कुमारी प्रीति जैन, राजेन्द्रकुमार विल्टी वाला खड़े हुए :-सर्व श्री प्रकाशचन्द ठोलिया, तेजकरण सौगानी, शान्तिकुमार गोधा, लल्लूल ल जैन, बलभद्र कुमार जैन ज्ञानचन्द जैन शासनन्ट मामा Enी गरजा गौगानी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतियोगिता का आयोजन प्रो. प्रवीणचन्दजी की संबोधित करते हुये उन्होंने कहा कि भगवान अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। जिसमें विभिन्न शिक्षण महावीर के उपदेशों के अनुसार आचरण द्वारा संस्थानों की छात्र-छात्राओं ने भाग लिया । कुमारी ही विश्व सुख और शान्ति का मार्ग अपना मंजु प्रथम, श्री सुभद्र पापड़ीवाल द्वितीय तथा सकता है । रोहित मोदी तृतीय रहे। इस अवसर पर पूज्य साध्वी श्री मणिप्रभाजी, __ 1 अप्रैल, 1977 को प्रातः प्रभात फेरी मुनि श्री रूपचन्दजी तथा प्राचार्य श्री संभवसागरजी निकाली गई जिसमें विभिन्न भजन मंडलियों ने के भी प्रवचन हुये । आचार्य श्री संभवसागरजी सक्रिय सहयोग दिया । रात्रि को लाल भवन में ने कहा कि धर्म किसी व्यक्ति विशेष का नहीं श्रीमती आशा गोलेछा की अध्यक्षता में एक परन्तु जो वैसा आचरण करे उसका ही है। महिला सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें मुनिश्री रूपचन्दजी ने कहा कि श्वेताम्बर हा० चन्द्रकांता डंडिया ने विशिष्ट अतिथि के रूप में मन्दिर या दिगम्बर मन्दिर तो मिलते है पर जैन सम्मेलन को सम्बोधित किया। इस अवसर पर मन्दिर नहीं। श्री नाथूलालजी जैन सदस्य लोक विभिन्न महिला वक्ताओं ने अपने विचार प्रकट सेवा आयोग ने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि मनुष्य किये तथा विभिन्न संस्थाओं ने भजन, नृत्य संवाद जन्म से नहीं वरन् पुरषार्थ से भगवान बनता है मादि के कार्यक्रम प्रस्तुत किये । और प्रत्येक प्राणी प्रयास द्वारा यह पद प्राप्त कर सकता है। 2 अप्रेल 77 को प्रातः 61 बजे महावीर पार्क से एक विशाल जुलूस प्रारम्भ हुआ जिसमें लगभग रात्रि को 8 बजे एक वृहद साँस्कृतिक कार्यक्रम 25-30 हजार का जन समुदाय सम्मिलित हुआ। का आयोजन श्री रणजीतसिंहजी कुमट, जिलाधीश जुलस में विभिन्न शिक्षण संस्थाओं एवं मंडलों जयपर की अध्यक्षता में किया गया जिसमें द्वारा भगवान महावीर के सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह विभिन्न शिक्षण संस्थाओं व मण्डलों ने बड़े ही व स्याद्वाद के संदेश से संबंधित झांकियां एवं एक आकर्षक नाटक, भजन और नत्य प्रस्तुत किये। सुसज्जित रथ में 'जिनवाणी' जुलूस के विशेष विशिष्ट अतिथि श्री हीराभाई एम. चौधरी ने इस पाकर्षण रहे । महिला मंडलों द्वारा एक ही वेश अवसर पर विजेतानों को पकार वितरित किये। भूषा में एवं पूर्ण अनुशासन बद्ध भजन प्रस्तुतीकरण भी एक भव्य आकर्षण रहा । जुलूस के दृश्य का (2) दशलक्षण पर्व समारोहःआँखों देखा हाल बड़े ही रोचक ढंग से श्री बुद्धिप्रकाशजी भास्कर ने प्रसारित किया। भौतिकता के द्वन्द्व फन्द से व्याप्त एवं प्राकुलित मानव को प्राध्यात्मिकता का रसास्वादन करा कर जुलूस नगर के प्रमुख बाजारों में होता हुआ शान्ति का प्राभास कराने की दृष्टि से प्रतिवर्ष की रामलीला मैदान में पहुंचकर एक सार्वजनिक सभा भाँति इस वर्ष भी भाद्रपद शुक्ला पंचमी से में परिवर्तित हो गया। सभा में कुमारी प्रीति चतुदर्शी तक मनाया गया। समारोह का उद्घाटन के मंगलाचरण के पश्चात् श्री मांगीलालजी जैन श्री त्रिलोकचन्दजी जैन, उद्योगमंत्री, राजस्थान न्यायाधीश, उच्च न्यायालय, राजस्थान ने झंडा- ने किया। पं. अभयकुमारजी जबलपुर वालों ने रोहण किया। इस अवसर पर जन समुदाय को दश धर्मों पर प्रतिदिन मार्मिक प्रवचन एवं श्र Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशचन्दजी जैन, डा० डी. कुमार, पं० भंवरलाल विभाग में प्रस्तुत अपने शोध प्रबन्ध में अहिंसा के पोल्याका, श्री मोहनलालजी जोशी, डा० नरेन्द्र प्रतिष्ठापक भगवान महावीर का अपने जीवन भानावत, श्री विद्यानन्दजी काला, डा० मूलचन्द काल में मांस भक्षण करने एवं जैन मुनि अकाल सेठिया, श्री प्रवीणचन्दजी छाबड़ा, श्री तेजकरणजी आदि विशेष परिस्थिति में अपने जीवन रक्षार्थ मांस डंडिया, श्री कपूरचन्दजी पाटनी, श्री निहाल- मछली आदि के सेवन का उल्लेख करने को सभा चन्दजी पाण्ड्या, डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ने के तत्वावधान में दि. 24 सितम्बर 77 की प्रायोविभिन्न विषयों पर अपने विचार प्रकट किये। जित समस्त जैन समाज की सभा में विरोध किया श्री महावीर दि. जैन उच्च माध्यमिक विद्यालय, गया एवं केन्द्रीय सरकार एवं विद्यालय को इस पद्मावती कन्या उच्च माध्यमिक विद्यालय, वीर आपत्तिजनक अंश को शोध ग्रंथ में से निकालने बालिका संघ, श्री महावीर दि. जैन बालिका विद्या- हेतु निवेदन किया। लय एवं श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय द्वारा संवाद व भजन प्रादि प्रस्तत किये (5) रजत जयन्ती समाराहःगये । 16 अक्टूबर 1977 को सभा के रजत जयन्ती वर्ष के प्रवेश अवसर पर प्रातः एक सामूहिक (3) क्षमापन पर्व समारोहः पूजन का दिग. जैन नशिया विजयरामजी पांड्या सदा की भांति विश्व प्रेम की भावना को में आयोजन किया गया एवं रचनात्मक कार्यों के जागृत करने हेतु सामूहिक क्षमापन पर्व समारोह, किये जाने हेतु विचार विमर्श किया । दिनांक 29 सितम्बर, 1977 को प्रातः 71 बजे रामलीला मैदान में श्री त्रिलोकचन्दजी जैन उद्योग (6) शाक सभा मंत्री की अध्यक्षता में मनाया गया। इस अवसर 27 अक्टूबर 77 को समाज शिरोमणी साहू पर मुख्य अतिथि श्री भैरोसिंहजी शेखावत मुख्य शांति प्रसादजी के असामयिक निधन पर एक मन्त्री राजस्थान ने जन समुदाय को संबोधित शोक सभा का आयोजन दि. 30 अक्टूबर को प्रातः करते हुए कहा कि हमारी क्षमा शाब्दिक व महावीर पार्क में किया गया । सर्व प्रथम सभा के प्रौपचारिक मात्र न होकर वास्तविक एवं हृदय से अध्यक्ष श्री राजकुमार काला ने साहू साहब के चित्र होनी चाहिये । प्राध्यात्मिक प्रवक्ता पं० अभय- को माल्यार्पण किया। इस अवसर पर कुमारजी ने कहा कि तत्वज्ञान के अभ्यास द्वारा हम 23 संस्थानों के प्रतिनिधियों ने साहू सा. के द्वारा कषायों का शमन करें ताकि क्रोध व बैर उत्पन्न किये गये कार्यों पर प्रकाश डालते हुए भावभीनी ही न हो । अध्यक्षीय भाषण करते हुये श्री जैन श्रद्धाजलियां अर्पित की । अन्त में 2 मिनट का सा. ने कहा कि इस महान पर्व पर बैर भाव मौन रख कर सामूहिक श्रद्धांजली अर्पित की गई । उत्पन्न न करें एवं जरूरत मन्द व्यक्तियों की सहायता करें। .... .... (7) महावीर निर्वाणोत्सव समारोहः ___11 नवम्बर 1977 को बड़े दीवान जी के (4) शोध प्रबन्ध के आपत्तिजनक अंश पर विरोधः मन्दिर में निर्वाण दिवस की सांध्य बेला में प्रायोवीणा जैन नामक शोध छात्रा ने पी. एच. जित किया गया । जिसमें डा० हुकमचंदजी भारिल्ल डी. की उपाधि हेतु दिल्ली विश्वविद्यालय के बौद्ध एवं पं० मिलापचन्दजी शास्त्री ने समारोह की ___10 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमापन पर्व समारोह 1977 • क्षमापन पर्व महोत्सव राजयात समा mma HD राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री शेखावत सभा को सम्बोधित करते हुए श्री राजकुमार काला अध्यक्ष राजस्थान जैन सभा समारोह के अध्यक्ष श्री त्रिलोकचन्द जैन उद्योग मंत्री राजस्थान का स्वागत करते हुए राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री भैरोसिंह शेखावत, मुख्य अतिथि तथा श्री राजकुमार काला अध्यक्ष राजस्थान जैन सभा मंत्रणा करते हुए teelibrary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महता पर प्रकाश डालते हुये सभा को क्रियात्मक गये उपद्रवों के प्रति विरोध प्रकट करने हेतु ठोस कार्यों एवं संगठन द्वारा समाज का धार्मिक दिनांक 28 जनवरी, 78 को समस्त जैन समाज कर्तव्यों की अोर आकृष्ट करने का दायित्व पूर्ण की एक सभा आयोजित की गई जिसमें किये गये करने को कहा । इस अवसर पर भजन व कविता उपद्भवों की घोर भर्त्सना की गई एवं संबंधित आदि भी प्रस्तुत किये गये। व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही हेतु केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार के संबंधित अधिकारियों से (8) जैन मेला निवेदन किया गया। दि. 18 दिसम्बर 77 को महावीर स्कूल सी-स्कीम के प्रांगण में एक 'जैन मेले का आयोजन अनौचित्यपूर्ण करारोपण का विरोध किया गया। इस अवसर पर कला प्रदर्शनी प्रायो __ ग्राम पंचायत श्री महावीरजी ने पंचायत के जित की गई जिसका उद्घाटन श्री तेजकरणजी आय के साधन बढ़ाने के नाम पर तीर्थ यात्री कर सा. डंडिया ने किया । समाज के सभी आयु के (50 पैसे प्रति यात्री) चुंगीकर व वाहन कर लगाने सदस्यों के लिये विभिन्न खेल कूद प्रतियोगिताओं के जो अनौचित्यपूर्ण निर्णय लिये हैं उसका विरोध का आयोजन किया गया । जिसका उद्घाटन श्री प्रकट किया गया एवं राज्य सरकार से निवेदन सुरेन्द्रकुमारजी जैन ने किया। इसमें प्रौढ़ महिलाओं किया गया कि वे इस संबंध में शीघ्र हस्तक्षेप एवं पुरुषों की संगीत-कुर्सी दौड़ एवं बच्चों की कर शीघ्र ही ग्राम पंचायत श्री महावीर जी को फैन्सी ड्रेस, शो का कार्यक्रम विशेष प्राकर्षण रहे। बाध्य करें कि वे करारोपण संबंधी प्रादेश विजेताओं को श्री सुमेरकुमार जैन द्वारा पुरस्कार वापिस लें। वितरण किये गये । इस अवसर पर बाढ़ पीडितों के सहायतार्थ नवरंग बाल विद्यालय के सहयोग से (ब) साहित्य प्रसार:बूट पालिस का भी प्रायोजन रखा गया । सबसे स्व. पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ की प्रेरणा से वयोवृद्ध श्री चिरंजीलालजी सा. वैद को शाल सभा ने 1962 से भगवान महावीर की पावन भेंट कर उनका अभिनन्दन किया गया । इस जयन्ती के अवसर पर एक स्मारिका का प्रकाशन अवसर पर समाज की विभिन्न सहयोगी संस्थाओं प्रारम्भ किया और वह सभा का एक नियमित ने अपनी अपनी स्टालों पर लागत मूल्य पर पेय व प्रकाशन बन गया। इसमें जैन दर्शन, इतिहास, भोज्य सामग्री उपलब्ध करायी। लाटरी द्वारा निति और साहित्य पर प्रधिकत विद्वानों के महाराजा, महारानी व राजकुमार-राजकुमारी का मवेषणापूर्ण लेख व कविताएं रहती हैं प्रारम्भ भी चयन किया गया। शाम को सभी ने अपने-अपने में स्मारिका का सम्पादन पूज्य पंडित साहब ने मिठाई रहित भोजन से सहभोज किया । स्वयं किया और पं० जी के स्वर्गवास के पश्चात् (9) जैन मुनियों पर किये गये उपद्रवों की तीव्र इस गुरुतर कार्य का दायित्व श्री भंवरलालजी भर्त्सना: पोल्याका द्वारा उठाया जा रहा है। दि. 3 व 4 जनवरी 78 को तिरुची में इसके अतिरिक्त समय-समय पर लघु पुस्तकों असामाजिक तत्वों द्वारा प्राचार्य श्री निर्मलसागरजी के प्रकाशन का कार्य भी सभा ने किया जिसमें 108 एवं उनके संघ पर असामाजिक तत्वों द्वारा किये मुनि श्री विद्यानन्दजी एवं डा० हुक्मचंदजी भारिल्ल Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वार लिखित पुस्तकों का एवं भजनावली आदि का प्रकाशन विशेष उल्लेखनीय हैं । (स) सामाजिक गतिविधियाँ: जैन सभा की गतिविधियाँ केवल समारोह प्रायोजन एवं साहित्यप्रचार तक ही सीमित नहीं हैं अपितु जब भी सामाजिक क्षेत्र में कोई समस्या उत्पन्न हुई सभा ने आगे आकर यथासम्भव समाधान करने का प्रयत्न किया है। राजस्थान विधान सभा में प्रस्तुत नम्न विरोधी बिल को वापिस कराने तथा राजस्थान ट्रस्ट में आवश्यक संशोधन कराने, राज्य सरकार से अनन्त चतुर्दशी एवं संवत्सरी का ऐच्छिक अवकाश स्वीकृत कराने, सांगानेर में जमीन से प्राप्त जैन मूत्तियों को समाज के सुपुर्द कराने तथा आयकर में हुये संशोधन से समाज को अवगत कराने पुरावशेष तथा बहुमूल्य कलाकृति अधिनियम की जानकारी देने एवं विरोध प्रकट करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किये हैं । समाज में व्याप्त कुरूढ़ियों और कुरीतियों के विरुद्ध भी यह सभा सदैव जागरूक रही है । समाज में सगाई एवं विवाह आदि के अवसर पर दहेज की मांग, ठहराव आदि को सदैव बुरी दृष्टि से देखती रही है और इन बुराइयों को दूर करने में सदैव प्रयत्नशील है । युवकों को नैतिकता और धर्म की ओर आकृष्ट करने के लिये सभा शिक्षण शिविर लगाने की योजना रखती है । वर्तमान परिस्थिति के सन्दर्भ में धार्मिक ज्ञान के प्रसार के लिये श्रावश्यक वाचनालय प्रारंभ करने का भी विचार है । योग्य छात्र-छात्राओं को छात्रवृत्तियां देने तथा असहाय विधवाओं को स्वावलम्बी बनाने हेतु श्रौद्योगिक प्रशिक्षण देने की भी एक योजना विचाराधीन है । नवयुवकों को पश्चिमी सभ्यता से परे हटाने के लिए सात्विक एवं सांस्कृतिक क्लबों की स्थापना तथा विचार गोष्ठियों द्वारा सामाजिक कुरीतियों के प्रति जागृति करना भी सभा के लक्ष्य हैं । सभा की प्रार्थिक स्थिति तथा संगठनात्मक पहलू सुदृढ़ नहीं है इस कारण चाहते हुये भी सभा अपने लक्ष्यों को पूर्ण करने में असमर्थ रही है । आप सबके तन-मन-धन के सहयोग से प्राशा है भविष्य में लक्ष्यों को प्राप्त करेगी । सभा द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले विभिन्न आयोजनों व कार्यक्रमों में जहाँ कार्यकारिणी समिति के सभी सदस्यों का सहयोग रहा है वहां सर्वश्री देवेन्द्रराजजी मेहता, हीराचन्द वैद, तिलकराज जैन, निहालचंद जैन, राजरूप टांक, हीराभाई एम. चौधरी, पं. मिलापचन्द शास्त्री, केवलचन्द ठोलिया, जसवन्तसिंह साँघी, डा० हुकमचंद भारिल्ल, पन्नालाल बांठिया, मूलचन्द पाटनी, रमेशचन्द पापड़ीवाल, प्रकाशचन्द जैन, तेजकरण इंडिया, माणिक्यचन्द्र जैन, सूरजमल बंद, नवीनकुमार बज, सौभाग्यमल रांक्का, डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, विनयकुमार पापड़ीवाल, देशभूषण सौगानी, रामचरण जैन, अशोक लुहा - डिया, देव कुमार साह, कैलाशचन्द सौगानी, राजकुमार जैन, राजकुमारजी बरड़िया, ताराचन्दजी चौकड़ायत, अशोककुमारजी पांड्या मुन्नीलालजी अजमेरा, सुरेन्द्रकुमारजी जैन यादि के सहयोग को भी भुलाया नहीं जा सकता | श्री वीर सेवक मण्डल और अन्य सभी शिक्षण संस्थानों भजन मण्डलियों आदि का भी सभी कार्यक्रमों में पूर्ण रचनात्मक सहयोग रहा है । सभा सभी व्यक्तियों एवं संस्थानों के प्रति आभार प्रकट करती है । समाज के प्रत्येक सदस्य से सभा को तन, मन एवं धन द्वारा सहयोग एवं सुझाव की अपेक्षा के नम्र निवेदन के साथ | 12 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभा के उपाध्यक्ष श्री ताराचन्द साह महावीर जयन्ती पर विशाल सभा को सम्बोधित कर रहे हैं। क्षमापन पर्व समारोह 1977 CHAR श्री प्रकाशचन्द ठोलिया संयुक्तमंत्री राजस्थान जैन सभा जयपुर विशाल सभा को सम्बोधित करते हुए + Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती स्मारिका, 1977 लोकदृष्टि में प्रातः स्मरणीय श्रद्धेय गुरुवर स्व० पं० चैनसुखदासजी को प्रेरणा से उन्ही के सम्पादकत्व में राजस्थान जैन सभा ने इस स्मारिका का प्रकाशन 16 वर्ष पूर्व प्रारम्भ किया और तब से यह महावीर जयन्ती के पावन अवसर पर दो वर्षों को छोड़कर प्रतिवर्ष निरन्तर प्रकाशित हो रही है । श्रद्धेय गुरुवर के पश्चात् उन्हीं के योग्य शिष्य श्रादरणीय अग्रज श्रीमान् भंवरलालजी पोल्याका के कंधों पर इस स्मारिका के संपादन का भार श्राया जिन्होंने सफलतापूर्वक पिछली एक दशाब्दी से इसको वहन किया हुआ है । यह स्मारिका भारत भर में निकलने वाली स्मारिकाश्रों में अपना शीर्ष स्थान रखती है । faद्वानों ने इसे सिर प्रांखों पर उठा के रखा है । इस सम्बन्ध में हर वर्ष उच्च कोटि के विद्वान् व पाठक गरण तथा समाचार पत्र पत्रिकार्य अपनी सम्मतियां प्रकट करते हैं तथा प्रा. पोल्याकाजी को बधाईयां देते हैं किन्तु श्रद्ध ेय गुरुवर की भांति ही स्व-प्रशंसा से दूर रहने वाले प्रा. पोल्याका जी ने कभी इन सम्मतियों को प्रशस्तियों को स्मारिका में प्रकाशित नहीं कराया । इस वर्ष मेरी बाल हठ ने अग्रजजी को सहमत करा ही लिया है । 1977 की स्मारिका के सम्बन्ध में कुछ उद्गार प्रस्तुत हैं । "यह पत्रिका शोध स्तर की है । प्रायः सभी लेखकों के लिये परिचयात्मक टिप्पणियां लिखकर सम्पादक ने पत्रिका को बहुत ही उपयोगी बनाया है । पत्रिका को चार खण्डों में विभाजित कर संपादक ने सूझ-बूझ का परिचय दिया है । पत्रिका की साज सज्जा एवं छपाई सुन्दर है । सम्पूर्ण पत्रिका जैन कला, संस्कृति एवं साहित्य के प्रति नवीन दृष्टिकोण प्रदान करती है" राजमल जैन बेगस्या सहायक सम्पादक "इसमें अनेक विद्वानों के लेख हैं जो सबके सब तथा सुरुचिपूर्ण स्मारिका निकालने के लिये, राजस्थान जैन नवभारत टाइम्स दि. 1 जून 1977 पठनीय तथा मननीय हैं ऐसी विद्वत्तापूर्ण सभा बधाई की पात्र है " जयपुर इतवारी पत्रिका दि. 15 मई 1977 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " कुल मिलाकर भारत के प्रसिद्ध जैनाजैन विद्वानों द्वारा लिखित 82 लेख तथा कवितायें इसमें है । लेखों पर प्रधान सम्पादक के परिश्रमपूर्वक लिखे गये टिप्पण हैं जो लेखों की विषय-वस्तु के समझने में सहायक हैं । सम्पादकीय भी पठनीय है। पग पग पर सम्पादक की सूझ-बूझ और परिश्रम का दिग्दर्शन होता है" दैनिक नवज्योति जयपुर दि. 28-8-77 "महावीर जयन्ती पर्व पर यों तो अनेक स्मारिकायें प्रकाशित हुईं किन्तु राजस्थान जैन सभा जयपुर की यह साहित्यिक स्मारिका सामग्री की दृष्टि से बेहतर है । प्रकाशन की छपाई, सफाई सुन्दर हैं" राष्ट्रदूत दैनिक जयपुर 11 सितo 77 "उर्दू में पूर्ण विकसित चन्द्र को चौदहवीं का चांद कहा जाता है, स्मारिकानों में प्रस्तुत स्मारिका सचमुच पूनम के चांद जैसी ही है । भव्य मुखपृष्ठ, उत्तम मुद्रण, साथ ही उच्च कोटि के सम्पादन से समृद्ध यह वृहत्काय स्मारिका जैन साहित्य के वर्तमान प्रकाशनों में अपना स्थान बनायेगी इसमें सन्देह नहीं । प्रधान सम्पादक महोदय के श्रम की छाप पूरी स्मारिका पर दिखाई देती हैं" “बड़े आकार की लगभग 300 पृष्ठों की प्रस्तुत स्मारिका कुल मिलाकर एक शोध ग्रन्थ का रूप लिये हुये है । अधिकांश निबन्ध न केवल उपयोगो हैं, अपितु स्थायी मूल्यों के हैं । स्मारिकाएं बहुत प्रकाशित होती हैं, लेकिन वे मात्र तात्कालिक प्रयोजन स्मारिका अपना चिरन्तन मूल्य बनाये रखेगी । निश्चित ही मनीषा के लिये बधाई के पात्र हैं ।" तक सीमित रह जाती हैं। लेकिन प्रस्तुत सम्पादक व प्रकाशक अपने श्रम तथा ख युगवीर साप्ताहिक पटना 26 मई 77 कथालोक मासिक दिल्ली मई 1977 "प्रस्तुत स्मारिका का सातत्य अपनी एक विशेषता है । स्व० पं. चैनसुखदासजी का यह बिरवा सिंचित होता रहता है, यह राजस्थान जैन सभा का कीमती योगदान है | सम्पादक निष्ठापूर्वक प्रतिवर्ष बिना किसी विवाद में पड़े, साधना तपस्या पूर्वक संपादन करके एक पठनीय वस्तु प्रदान करते हैं । सामग्री का चयन सुरुचिपूर्ण, खोजपूर्ण तथा ज्ञानवर्धक है ।" श्रमरण मासिक वाराणसी मई 1977 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "इसके पांच खण्डों में अन्तिम खण्ड के 90 पृष्ठ केवल विज्ञापनों के हैं, जिससे राजस्थान जैन सभा और इसके कार्यकर्ताओं की लोकप्रियता का परिचय मिलता है। लेखों पर प्र० सम्पादक की गागर में सागर की सी टिप्पणियां उल्लेखनीय हैं । प्रस्तुत विशेषांक पठनीय एवं संग्रहणीय है।" सम्मति वाणी मासिक इन्दौर, मई1977 “यह वार्षिक स्मारिका साहित्य सेवा में निष्ठा और लगन के साथ 14 वर्ष से अग्रसर है। सुयोग्य सम्पादक महोदय ने इसके स्तर को सदैव सुरक्षित रखा है। इतने सुन्दर बोधपूर्ण साहित्य का संकलन करने के लिये सम्पादक का प्रयत्न सराहनीय है।" सन्मति संदेश मासिक, नई दिल्ली जुलाई 77 "जयपुर में वीर जयन्ती पर स्मारिका प्रकाशन की परम्परा का प्रारम्भ पूज्य गुरुदेव पं० चैनसुखदासजी द्वारा किया गया था, उसी कडी में यह 14 वां पुष्प है। प्रस्तुत सभी लेखों के रचनाकार अधिकारी विद्वान हैं फलतः यह स्मारिका सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में मानी जानी चाहिये। हर दृष्टि से स्मारिका पठनीय, मननीय और संग्रहणीय है । लेख मंगाकर सुन्दर ढंग से चयन करना, प्रत्येक लेख को पूरा पढ़कर उसका संक्षिप्त सार लिखना और वह भी अल्प समय में-सचमुच यह कार्य भाई पोल्याकाजी के कठिन परिश्रम का द्योतक है। प्रत्येक पुस्तकालय में इसका संग्रह अपेक्षणीय है।" वीर वाणी पाक्षिक जयपुर-3 मई 1977 "उत्तमोत्तम लेखादि से युक्त जयपुर में प्रतिवर्ष प्रकाशित होने वाली यह वृहत्काय स्मारिका वास्तव में बेजोड होती है । लेखों पर प्रारम्भिक सम्पादकीय परिचयात्मक टिप्पणी सुन्दर तथा महत्वपूर्ण होती है । इसी प्रकार की टिप्पणियां कविताओं पर भी होनी चाहिये। निश्चय और व्यवहार नय के सम्बन्ध में सम्पादकीय सुन्दर है।" ज्ञान कौति लखनऊ (तीसरा मक) विद्वानों, मनीषियों से प्राप्त पत्र "स्मारिका बहुत सुन्दर निकली है । उसमें आपने बड़ी उपयोगी सामग्री का संचय किया है। भगवान महावीर के जीवन और सिद्धांतों पर अच्छा प्रकाश पडता है-उसके पीछे आपका परिश्रम और सूझबूझ है । मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये ।" यशपाल जैन संपादक-जीवन साहित्य सस्ता साहित्य मण्डल, दिल्ली। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मेरा अभिमत है कि यह तो 'एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति ......."वाली उक्ति चरितार्थ करती है। वर्ष में एक ही अंक निकालते हैं, पर मानसिक भोजन इतना उत्कृष्ट और सुस्वादु रहता है कि जिसका रसास्वादन महिनों तक आनन्द विभोर किये रहता है।" कुन्दनलाल जैन एम. ए (संस्कृत, हिन्दी) एल. टी. साहित्य शास्त्री प्रिन्सिपल शिक्षा निदेशालय, दिल्लीप्रशासन, दिल्ली । "स्मारिका का स्तर पूर्व स्मारिकाओं जैसा ही है, बल्कि यह स्मारिका उनसे भी अधिक सामग्री और विचार प्रदान करती है । कई लेख बड़े ही महत्वपूर्ण और नये चिन्तन को लिए हुए हैं । स्मारिका के समस्त लेख चुने हुये हैं। आपका सम्पादकीय और सम्पादकीय टिप्पणियां मर्मस्पर्शी हैं । आपको भी मेरा हृदय से धन्यवाद । इस यज्ञ की प्रारम्भक राजस्थान जैन सभा को भी कम साधुवाद नहीं, उसका यह प्रयास श्रेयस्कर है। डा. दरबारीलाल कोटिया न्यायाचार्य, वाराणसी। "विपुल सामग्री जुटाई है आपने । प्रत्येक लेख में सम्पादकीय टिप्पणी उल्लेखनीय है। इस सुन्दर प्रयास के लिये आप निश्चित ही बधाई के सुपात्र हैं।" डा. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया एम. ए. पीएच. डी., डी. लिट् मानद संचालक, जैन शोध अकादमी प्रागरा रोड, अलीगढ़। __ "महावीर जयन्ती स्मारिका पढ़कर निहाल हो गया । साहित्यिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक व शोध सामग्री की अनुपम थाती संजोये स्मारिका का जितना भी बखान करूं थोडा है। सर्वाङ्गीण सुन्दर सलोनी यह स्मारिका यथा नाम तथा गुण की गरिमा से समलंकृत है। कृपया साधुवाद स्वीकार करने का कष्ट करें।" डा. शोभनाथ पाठक एम. ए. पीएच. डी. साहित्यरत्न __ मेघनगर (म. प्र.) "महावीर जयन्ती स्मारिका 1977 अपनी पूर्व परम्परा में रहते हुये भी एक उज्ज्वल प्रयत्न है । यह हमें शोध सामग्री ही प्रदान नहीं करती, वरन विशाल राष्ट्र में भगवान महावीर और उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के पालन एवं अनुपालन की गतिविधियों का सचित्र व्योरा भी प्रस्तुत करती है। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पत्रिका भारत के जैन समाज में अपना गौरवपूर्ण स्थान रखती है ।" "पूर्व परम्परानुसार 1977 की स्मारिका भी एक श्रेष्ठ उपलब्धि है । ऐसी स्मारिका अन्यत्र दुर्लभ है । सामग्री प्रतीव स्तरीय तथा वैविध्यपूर्ण है । मेरा साधुवाद स्वीकार कीजिए । आप की साधना अत्यन्त गरिमामयी है ।" डा. जयकिशनप्रसाद, खण्डेलवाल एम. ए. (हिन्दी, संस्कृत, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति आदि ) एलएल. बी. पीएच. डी. प्रवक्ता संस्कृत विभाग आर. बी. एस. कालेज, आगरा । ज्ञानवर्धक लेखों का दुर्लभ सामग्री से संग्रह है । आपका परिश्रम सार्थक पूर्ण बनाने का प्रयत्न करेंगे । मेरी " स्मारिका में उच्च स्तरीय एवं हुआ । श्रागामी स्मारिका को कुछ नवीन राय है कि आप राजस्थान में जैन धर्म एवं साहित्य पर अधिकाधिक सामग्री संचित करें । कार्य कुछ कठिन एवं श्रम साध्य है ।" महावीर जयन्ती स्मारिका 78 डा० लक्ष्मीनारायण दुबे एम. ए. पीएच. डी. असिसटेन्ट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सागर विश्वविद्यालय, सागर (म.प्र.) " प्रतिवर्ष की भांति ही इस वर्ष की स्मारिका भी अनूठी है । लेख पठनीय, एवं शोध छात्रों के लिये उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करते हैं । प्रत्येक लेख पर दी गई आपकी टिप्पणी लेख के विषय को सुस्पष्ट करने में सहायक है । सम्पादन में किया गया आपका परिश्रम पग-पग पर दृष्टिगोचर होता है । बहुत कम संपादक इस प्रकार का श्रम करते हैं । " डा. निजाम उद्दीन हिन्दी विभागाध्यक्ष इसलामिया कालेज, श्रीनगर । प्रो. डा. बासुदेव शास्त्री साहित्याचार्य, विद्यवारिधि (पीएच. डी.) साहित्यविभागाध्यक्ष राज० महाराजा प्राचार्य संस्कृत महाविद्यालय, जयपुर । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता होती है कि आपके कुशल सम्पादन में राजस्थान जैन सभा जयपुर की यह महावीर जयन्ती स्मारिका अपना आकार-प्रकार. नियमितता एवं स्तर बनाये रखने में सफल रही है । इस वर्ष की स्मारिका में भी प्रभत पठनीय सामग्री है । बधाई स्वीकार करें।" विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जैन सम्पादक--जैन सन्देश (शोधाङ्क), मथुरा चार बाग, लखनऊ “सम्पूर्ण स्मारिका महत्वपूर्ण लेखों और उत्कृष्ट कवितामों से परिपूर्ण है । लेखों के साथ प्र. सम्पादक की पारखी टिप्पणियों ने तो अंक में चार चांद लगा दिये हैं। इतनी विशाल उपयोगी स्मारिका के लिये हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें।" श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' रामपुर यू. पी. "स्मारिका सदृश प्रकाशनों को बुद्धिजीवी वर्ग के लिये नये चिन्तन का मार्ग प्रशस्त करने के लिये निश्चय ही उपयोगी कहा जा सकता है । आप जयपुर से इस परम्परा का जनोपयोगी प्रकाशन कर सतत निर्वाह कर रहे हैं, इसका हर्ष है । मेरी पुनः शुभकामनाएं ।” (कैप्टन सेठ सर) भागचन्द सोनी अजमेर । "मेरे हृदय की डिक्शनरी नये विशेषण खोज रही है जो स्मारिका के उपयुक्त प्रतीत हो। हां, अग्रज जी, आपका अनुभव और सूझबूझ का धरातल, मुझे ही क्या, भारत के अन्यान्य बुद्धिजीवियों को चौंकाने लगा है। आप सोच रहे होंगे "मैं लगातार प्रशंसा कर रहा हूं।" सच मैं दोष निकालने का भी आदी है, आज तक किसी को मैंने बक्शा नहीं है । चाहता था कि आप पर भी दोषारोपण करू पर आपके सधे मन-मस्तिष्क ने अवसर ही प्रदान नहीं किया, बस यही दोष है आपका । मेरी बधाई की ध्वनि उस ओर भी मुखरित हो रही है, जहां श्री राजकुमारजी काला, बाबूलालजी सेठी एवं सभा की सम्पूर्ण कार्यकारिणी कार्यरत है। यह सात्विक बधाई डा. नरेन्द्र भानावत और श्री रमेशचन्द्र गंगवाल की ओर भी जाती है।" सुरेश 'सरल' (कई पुस्तकों के लेखक, सम्पादक) गढा फाटक, जबलपुर । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "महावीर जयन्ती स्मारिका 1977 ग्रंथ रत्न प्राप्त हुआ । पढकर देखकर मन गद् गद् हो गया और कुछ काव्य पंक्तियां लिखने को उत्साहित हुआ जो प्रेषित हैं । ग्रंथ गूंथ कर सुधर सजाई, नहीं एक पढ़कर मन में हुआ उजाला || परिश्रम, बडी योजना, कितने दिन में सफल बनाई 1 या कि स्मारक, बनकर एक पत्रिका प्राई 11 अनोखी सज्जा भूरि भूरि मन एक बार प्रारम्भ किया तो, बड़ा यह स्मारिका सुन्दर साज महावीर यश की मणिमाला | पूरी पंक्तियां को ललचाये | महावीर जयन्ती स्मारिका 78 बार बार अध्ययन कराये 1 राजस्थान जैन संगम की यह कृति अनुपम आकर्षण है । 'पोल्याका' जी के पावनतम, अनुभव का मंजुल दर्पण है ।" " इतने थोडे समय में इतनी सारी महत्वपूर्ण सामग्री को इतने सुचारु ढंग से प्रकाशित करने में आपने जो कठिन कार्य किया है, वह वास्तव में बड़ा प्रशंसनीय है । सामग्री जैन कला, साहित्य एवं धर्म में रुचि रखने बालों के लिये बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी ।” श्री घासीराम 'चन्द्र' साहित्यरत्न कमलागंज, शिवपुरी (म. प्र. ) " प्रस्तुत प्रक में इतिहास, संस्कृति और साहित्यिक विषयों की सामग्री विशेष सराहनीय है | समयोचित 'स्मारिका' प्रगति पर है और आगे भी यही परम्परा बनी रहे ऐसी मेरी कामना है ।” पं० उदयचन्द शास्त्री, इन्दौर डा. ब्रजेन्द्रनाथ शर्मा, गाजियाबाद कीपर राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली । 玡 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " मुख्य पृष्ठ पर जैन दर्शन के मावदर्शक और पंच कल्याणकों के सामूहिक भाव चित्रों की सूझ-बूझ एक अनोखी छटा है । साहित्यिक विविधा का समावेश स्मारिका में रखा गया है । हमारा एक सुझाव है कि रेखाओं द्वारा बोध वृत्तचित्रों को और समाहित किया जाये ।” पं० प्रेमचन्द 'दिवाकर,' शास्त्री श्रीवर्णी स्नातक परिषद, सागर (म. प्र. ) " राजस्थान जैन सभा का यह स्तुत्य कार्य जन-मानस को एक आध्यात्मिक क्रांति की दिशा देता है | लेख मौलिक और पुनरावृत्ति के दोष से मुक्त, ज्ञान पिपासा के शामक तथा शीर्षस्थ विद्वानों के हैं । कविता के क्षेत्र में अवश्य कुछ लचीली बन पड़ी । मेरी विनय है कि अच्छे गीतकार से आप रचनायें आमन्त्रित करें और गद्य की भांति पद्य के स्वरूप को निखारें तो स्मारिका में वही सौन्दर्यता श्राजायेगी जैसे नवोढा के सोलह शृङ्गार से वह महक उठती है । 33 " समस्त रोचक साहित्य विधाओं से युक्त यह एक विशिष्टतम कृति बन गई है । स्मारिका it अपना साहित्यिक व भावनात्मक सहयोग देने हेतु सदैव तत्पर हूँ ।" प्रो. निहाल जैन, नौगांव (म. प्र. ) " स्मारिका आपने बहुत अच्छी निकाली । दिन प्रतिदिन आप उसका स्तर ऊंचा कर रहे हैं । रचनायें केवल तात्कालिक पढ़ने की ही नहीं हैं किन्तु स्थाई रूप से कुछ रचनायें उपयोगी तथा सन्दर्भ के रूप में काम आने योग्य होने से संग्रहणीय बन गई है । आपका हार्दिक अभिनन्दन । श्राशा है आप भविष्य में भी उसका स्तर इसी प्रकार बढ़ाकर सत्साहित्य में वृद्धि करेंगे ।" कुमारी उषा किरण खमरिया, जबलपुर । " स्मारिका 1977, पांच भागों में प्रत्यन्त सुन्दर छपाई, सफेद कागज एवं उच्च कोटि के विद्वानों के लेखों से शोभित आकर्षक आवरणयुक्त प्रत्यन्त उपयोगी, धार्मिक तथा ऐतिहासिक उत्तम सामग्री के भरपूर है । मैं आपको तथा राजस्थान जैन सभा को स्मारिका के प्रकाशन पर हार्दिक बधाईभेट करता हूँ ।" ( स्व० ) रिषभदास रांका, पूना सम्पादक - जैन जगत, बम्बई । दिगम्बरदास जैन, एडवोकेट सहारनपुर महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " स्मारिका माला का 14 वां मरिया मिला। बडी आभा है इसमें । अपने लघु परन्तु मार्के की टिप्पणी-तरंगों से उसे और भी निखार दिया है। कई ऐसे लेख हैं इसमें जो बड़े ही श्रम शोध के साथ तैयार किये गये हैं । कई नये उदीयमान लेखकों को सामने लाये हैं आप | आपके द्वारा स्मारिका सम्पादन क्या है एक मिशन है । बधाई । " प्रतापचन्द जैन, श्रागरा "स्मारिका सम्पादन और प्रकाशन की दृष्टि से अपने श्राप में पूर्णतया सफल है और उसके लिये आप सभी बधाई के पात्र हैं । इस स्मारिका में जहां सर्वाङ्ग सुन्दर शोध-मूलक दृष्टि के लिये उत्तेजक स्थिति दर्शक निबन्ध हैं वहां भावपूर्ण कलात्मक कवितायें भी हैं, एक कहानी और एक एकांकी भी है । अग्रेजी विभाग की रचनायें भी बड़ी ज्ञानवर्धक हैं ।" " स्मारिका का श्राकार-प्रकार, साज-सज्जा एवं विषय वस्तु सब कुछ भव्य एवं स्पृहनीय है । अपनी अस्वस्थता के बावजूद आपने इसे सजाया संवारा है । इसके लिये आप धन्यवाद के पात्र हैं । कुछ लेख स्तर के हैं तथा उनका गवेषणात्मक महत्व है। कुल मिलाकर स्मारिका भगवान महावीर सम्बन्धी विभिन्न सूचनाओं से भरपूर है, बधाई ।" लक्ष्मीचन्द 'सरोज' एम. ए. सम्पादक - जैन संस्कृति बजाज खाना, जावरा (म. प्र. ) "स्मारिका गौरवपूर्ण ऐतिहासिक परम्परा को लेकर एक शोध ग्रन्थ बन गई है । सुयोग्य सम्पादन एवं सुरुचिपूर्ण मुद्रण ने चार चांद लगा दिये हैं । अनेक-अनेक धन्यवाद के साथ । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 डा. हरेन्द्रप्रसाद वर्मा, रीडर - भागलपुर वि. वि. भागलपुर । "आपका प्रतिवर्ष का यह कार्यक्रम बहुत ही सराहनीय है। जिस कार्यकुशलता के साथ स्मारिका प्रकाशित की है, वह वास्तव में प्रशंशनीय है । स्मारिका के लेखों से जो अल्प समय में अनेक विषयों की जानकारी मिलती है वह कई वर्षो के अध्ययन के बाद भी नहीं मिलती । स्मारिका के लेखक धन्यवाद के पात्र हैं । आपको इस सफलता के लिये हार्दिक बधाई । " ज्ञानचन्द 'ज्ञानेन्द्र' साहित्यरत्न, श्रायुर्वेदाचार्य ढाना (सागर) म. प्र. पंडित लाड़लीप्रसाद जैन सवाई माधोपुर (राज० ) झ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आपने इस वृद्धापन में भी जैन समाज की जो सेवा की है और कर रहे हैं. वन्दनीय है । प्रतिवर्ष की स्मारिका इसका प्रमाण है, स्मारिका की छपाई -सफाई, लेखों का चयन प्रफ श्रादि इतने मुश्किल काम हैं कि अच्छे से अच्छा नौजवान एक बार किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाय । मगर आप प्रतिवर्ष इसे एक नये आकर्षण के साथ पेश करते हैं इसे देखकर श्रद्धा से माथा झुक जाता है, बधाई स्वीकारें | । "यह एक संदर्भ ग्रन्थ का रूप धारण कर हैं । कलेवर और सामग्री दोनों ही दृष्टियों से इसका स्थान स्वतः सर्वोपरि सिद्ध होता है ।" ग्रन्य है ।" हास्यकवि हजारीलाल जैन 'काका' (बुन्देल खण्डी) सकरार ( जिला झांसी) 하 गई है। कुछ लेख तो बड़े ही महत्व के “ स्मारिका एक प्रकार से इतिहास, कला, साहित्य, और धर्म-दर्शन का संदर्भ जिनवाणी (मासिक) जयपुर, नवम्बर, 1977 " प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी जैन सभा की यह वार्षिक स्मारिका न केवल विज्ञापनों से भरी है, बल्कि चार खण्डों में हिन्दी अंग्रेजी की अच्छी रचनाओं का सुन्दर संकलन एवं सम्पादन भी है । "प्रथम एवं द्वितीय खण्ड के कुछ निबंध तो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। स्मारिका पठनीय है। -'........... शैलेन्द्रकुमार रस्तोगी एम० ए० ( पुरातत्व एवं संस्कृति) पुरातत्व संग्रहालय, लखनऊ । जैन जगत, बम्बई, मई 1977 ' स्मारिका के नियमित प्रकाशन भोर इसमें आने वाली महत्वपूर्ण सामग्री के कारण इसका महत्व बढ़ गया है । उच्च कोटि की सामग्री का चयन और उस पर सम्पादकीय टिप्पणियां स्वतः ही पाठक को एक बार पढ़ना प्रारंभ करने के पश्चात् पूर्ण स्मारिका का पठन न हो जाने तक छोड़ने का मन नहीं करता ।' वल्लभ सन्देश, जयपुर जुलाई 1977 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमकते सितारे जो प्रस्त हो गये यह वर्ष जैन शासन के लिये शुभ नहीं कहा जा सकता । इस वर्ष में दिगम्बर जैन समाज के शिरोमणि साहू श्री शान्तिप्रसाद जैन हमें बिलखता छोड़कर चले गये। जिनवाणी के तपःपूत कट्टर सुधारक पं० परमेष्ठीदास जैन और प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलाल जैन, सामाजिक कार्यकर्ता एवं समाज को कार्तकर्त्तानों की सुन्दर टीम देने वाले प्राणिमात्र के सेवक श्री रिषभदास रॉका, पं उदय जैन तथा प्राच्य साहित्य के प्रकाशक श्री सुन्दरलाल जैन हमारे बीच नहीं रहे। ये ऐसे व्यक्तित्व थे जिन पर समस्त जैन समाज को नाज था । ये व्यक्ति नहीं अपितु स्वयं में मूर्त संस्थाएं थे । इनके प्रभाव की समाज में पूर्ति होना सम्भव नहीं । श्रावक शिरोमणि साहू शान्तिप्रसाद जैन अनभिषिक्त सम्राट् श्रावक शिरोमणि, दानवीर और समाज के कर्णधार साहू श्री शान्तिप्रसाद जैन के बारे में कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो नहीं जानता हो । सरस्वती और लक्ष्मी के इस वरदपुत्र का गत 27 अक्टूबर को प्रातः हृदय गति रुक जाने से स्वर्गवास हो गया । आपके जीवन में धर्म, कर्म, अर्थ और मोक्ष की निरुपम संगति थी । प्रेय व श्रेय के समान उपासक स्व० साहू जी का जन्म उत्तर प्रदेश के अंतर्गत नजीबाबाद के साहू घराने में 1912 में हुआ । आपके पितामह श्री सलेक चंद साहू थे। पिता श्री दीवानचंद जी और मातुश्री मूर्तिदेवी थीं । आपका समूचा विद्यार्थी जीवन प्रथम श्रेणी का रहा । यह केवल अध्ययन और ज्ञानोपार्जन की दृष्टि से ही नहीं, वरन् अन्य वृष्टियों से भी । वे सभी सद्गुण और सद्वृतियां श्राप में विकसित हुई, जो सफलता के शिखर तक पहुंचने के लिए आवश्यक हैं । उद्योग के क्षेत्र में श्रापने स्वयं विभिन्न श्राधुनिक पद्धतियों का गंभीर अध्ययन किया तथा विविध विषय क्षेत्रों में निरंतर गवेषणाएँ कराई । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 さ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचमुच जिस सहजता के साथ उद्योग एवं व्यवसाय के क्षेत्र में साहजी ने सफलता प्राप्त की, वह उनकी स्वभावगत प्रतिभा और सूझबूझ, संगठनक्षमता तथा अध्यबसाय और सहनशीलता की सम्मिलित देन है। विगत वर्षों में देश की विभिन्न शीर्ष व्यवसाय-संस्थानों के पाप अध्यक्ष रहै हैं । इनमें प्रमुख हैं : फेडरेशन आफ इंडियन चेम्बर आफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री, इंडियन चेम्बर आफ कामर्स, इंडियन शुगर मिल्स एसोसिएशन, इण्डियन पेपर मिल्स एसोसिएशन, बिहार चेम्बर आफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री, राजस्थान चेम्बर आफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री, ईस्टर्न यू. पी. चेम्बर आफ कामर्स एण्ड इण्डस्ट्री, पाल आर्गनाईजेशन आफ इण्डस्ट्रियल एम्पलायर्स । इसी अवधि में भारतीय श्रम-व्यवस्था सम्बन्धी नियम बनते समय आपने उद्योग-धन्धों का व्यावहारिक दृष्टिकोण उपस्थित किया। अपनी विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्नता तथा व्यापक अनुभव के कारण स्वर्गीय पं. जवाहरलालजी ने देश की प्रौद्योगिक प्रगति की वैज्ञानिक परिकल्पना को कार्यान्वित करने के लिए जो प्रथम राष्ट्रीय समिति गठित की थी, उसमें देश के तरुण औद्योगिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए आपको इसका सदस्य बनाया गया। साहू साहब की भारतीय धर्म-दर्शन और इतिहास तथा सांस्कृतिक विषयों के अध्ययन में भी प्रांतरिक रुचि थी। भारतीय कला एव पुरातत्व के क्षेत्र में भी वे साधिकार चर्चा किया करते थे । धार्मिक श्रद्धा में वह अडिग थे । भारतीय भाषाओं एवं साहित्य के विकास-उन्नयन की दशा में आपका अति विशिष्ट योगदान रहा । आपके द्वारा सन् 1944 में भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापना एवं स्वर्गीया श्रीमती रमा जैन के साथ उनकी कार्य-प्रवृत्तियां विशेषकर उसके द्वारा प्रवर्तित भारतीय भाषाओं की सर्वश्रेष्ठ सजनात्मक साहित्यिक कृति पर प्रतिवर्ष एक लाख रुपये की पुरस्कार योजना की परिकल्पना और अब तक 11 पुरस्कारों के निर्णयों की कार्यविधि में अनवरत रुचि एवं मार्ग दर्शन, उनकी दूरदर्शिता एवं क्षमता के बहुप्रशंसित अमर प्रतीक हैं । ज्ञानपीठ के अतिरिक्त प्रापने साहू जैन ट्रस्ट, साहू जैन चेरीटेबल सोसायटी तथा अनेक शिक्षण संस्थाओं की भी संस्थापना की। वैशाली, प्राकृत जैन धर्म एवं अहिंसा शोध-संस्थान की तथा प्राचीन तीर्थों एवं मन्दिरों आदि के जीर्णोद्धार में प्रचर अर्थदान दिया है। आप अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई तथा अहिंसा प्रचार समिति, कलकत्ता, अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन परिषद् एवं मारवाडी रिलीफ सोसायटी के अध्यक्ष रह चुके थे। भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव के कार्यक्रमों को सफल बनाने में आपका सर्वाधिक योगदान रहा है । जैन समाज के चारों संप्रदायों की ओर से गठित भगवान महावीर 2500 वां निर्वाण महोत्सव महासमिति के आप कार्याध्यक्ष थे भारत की संपूर्ण दिगंबर जैन समाज की ओर से गठित ऑल इंडिया दिगंबर भगवान महावीर 2500 वां निर्वाण महोत्सव सोसायटी एवं बंगालप्रदेश क्षेत्रीय समिति के अध्यक्ष के रूप में आपने देश-व्यापी सांस्कृतिक चेतना को जागृत किया । भारत सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय समिति और बिहार तथा बंगाल की समितियों में भी आपने महत्वपूर्ण पदों का दायित्व तन्मयता से संभाला । · महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज ने अपनी श्रद्धा स्वरूप प्रापको 'दानवीर' तथा 'श्रावक - शिरोमणी की उपाधियों से सम्मानित किया । प्रापके स्वर्गवास से सामाजिक इतिहास का एक युग समाप्त हो गया । समाज सेवी श्री रिषभदास रांका भारत जैन महामण्डल के प्रारण, जैन समाज के सुप्रसिद्ध नेता, जैन जगत मासिक के स्वतंत्रता सेनानी, समाज सेवी श्री रिषभदास शंका गत 10 दिसम्बर को इस प्रसार संसार से महाप्रयाण कर गये । सम्पादक, स्व० शंकाजी ने 75 वर्ष के सफल जीवन में राष्ट्र साहित्य एवं मानवता की उल्लेखनीय सेवाएं की हैं । आप कर्मयोगी थे । जीवन के अन्तिम क्षणों तक वे प्रसन्न भाव से निष्काम कर्म में संलग्न रहे । पिछले कई महिनों से प्राप ब्लेडर के कैंसर की बीमारी से ग्रस्त थे किन्तु समभाव से हंसते-हंसते न उसे केबल सहन ही कर रहें थे बल्कि अपने दृढ़ मनोबल से स्वाध्याय, लेखन प्रादि का बम्बई अस्पताल में भी प्रतिदिन प्राठ-दस घंटे कार्य करते रहें । पिछले दिनों उपचार हेतु जब वे अस्पताल में थे तब उनसे 'वल्लभ संदेश' मासिक द्वारा प्रकाश्य 'जैन एकता' बिशेषांक के लिए उनके विचार चाहे थे । उन्होंने अपने विचार अविलम्ब भेजे । मैं तो विश्वास भी नहीं कर सकता कि मृत्यु शैया पर लेटे रांकाजी अपने पत्रों के जवाब इतने जल्दी कैसे दे पाते थे ? यह उनका दृढ़ मनोबल ही था जिसके कारण वे रोग पर भी ग्रप्रमत्त भाव से विजयी हो चुके थे । आंध्र के तूफान पीड़ितों की सेवार्थ इस बीमारी में भी जाने के लिए प्राप ब्याकुल थे लेकिन चिकित्सकों ने आपको अनुमति नहीं दी श्रापको गांधीजी, जमनालालजी बजाज, विनोबा भावे जैसे महानतम राष्ट्रीय विभूतियों का सम्पर्क मिला और अपने इन शीर्षस्थ नेताओं के निदेशन में राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय भाग लिय और अनेकों बार जेल भी गये । अनेकों अखिल भारतीय स्तर की संस्थाओं में आप सक्रिय पदाधिकारी रहे । गौसेवा और सर्वोदय के लिए आपने अपना जीवन लगा दिया । जैन समाज की एकता के लिए आपने भारत जैन महामण्डल के तत्वावधान में कार्य किया। भगवान महावीर 2500 वाँ निर्वाण महोत्सव समारोह में आपका योगदान स्मरणीय रहेगा । आपकी सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों से प्रभावित होकर ही आपका 1974 में महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम्बई महानगरी में अभिनन्दन किया जाकर आपको एक लाख रुपये की थैली भेंट की गई जिसमें आपने अपने पास से कुछ राशि मिलाकर सेवा कार्यों हेतु एक न्यास बनाकर इस राशि के उपयोग की घोषणा की । यह आपके त्याग व प्राणीमात्र की सेवा का प्रतीक है । महान समाज सुधारक एवं जिनवाणी पुत्र पं० परमेष्ठीदास जैन उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्द के शब्दों में पं परमेष्ठीदासजी राष्ट्र की निधि थे । प्रकाण्ड विद्वान, प्र० भा० दिग० जैन परिषद् के मुख-पत्र 'वीर' के सम्पादक स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणीय यौद्धा, कई ग्रंथों के लेखक तथा अनुवादक, सुधारवादी नेता तथा स्पष्ट प्रवक्ता पं० परमेष्ठीदास जैन का गत 13 जनवरी को उनके निवास स्थान पर असामयिक निधन हो गया । पण्डितजी का जन्म झांसी मण्डल में महरोली ग्राम में सन् 1907 में हुआ । सन् 1928 में श्राप सिद्धान्त शास्त्री तथा न्यायतीर्थ परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए। आपने जैन मित्र, लोक जीवन, वीर का सम्पादन किया । 17 से भी अधिक पुस्तकों का आपने अनुवाद, लेखन अथवा सम्पादन किया । गुजरात की प्रसिद्ध संस्था 'राष्ट्र भाषा प्रचारक मण्डल' की स्थापना आपके ही सद्प्रयत्नों के फलस्वरूप हुई थी । सन् 1942 के स्वतन्त्रता संग्राम में श्रापने सपत्नी जेल यात्रा की । साबरमती जेल में श्राप सत्याग्रहियों को हिन्दी तथा जैन धर्म की शिक्षा देते रहे । महात्मा गांधी, काका कालेलकर, श्रीमन्नारायण और मावलंकर जैसे राष्ट्रीय नेताओं के निकट सम्पर्क में रहने का उन्हें गौरव प्राप्त था । राष्ट्र सेवा के साथ ही श्रापने समाज सुधार की दिशा में भी कार्य प्रारम्भ किया और कट्टर विचारों के सुधारक होने के कारण समाज सुधारकों में अग्रणीय पंक्ति में रहे । साधुनों के शिथिलाचार का आपने डट कर विरोध किया । चर्चासागर समीक्षा, सुधर्म श्रावकाचार समीक्षा. दान समीक्षा जैसी पुस्तकें लिखकर मापने जाली ग्रंथों का भण्डाफौड किया । समयसार व मोक्षशास्त्र की आपने विस्तृत टीकाएं की। दस्सानों को पूजा का अधिकार दिलाया । मृत्यु भोज जैसी प्रथात्रों महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के विरोध में खुलकर अपने विचार व्यक्त किये । 'जैन धर्म की उदारता, शीर्षक पुस्तक जैन धर्म का सच्चा और उदार स्वरूप जनता के समक्ष रखा । साहित्य सेवा के संदर्भ में आपको 'वीर निर्वारण भारती' पुरस्कार से सम्मानित किया गया । शिवपुरी के श्री नेमीचन्द गौंदवाले आपका अभिनन्दन ग्रंथ प्रकाशित कर रहे थे लेकिन दैव को यह स्वीकार नहीं था अब वह स्मृति ग्रंथ होगा ।' प्रज्ञा चक्षु पं० सुखलाल जैन प्रज्ञा चक्षु पं० सुखलालजी का दुःखद देहावसान 97 वर्ष की अवस्था में गत 2 मार्च को हदमाबाद में हो गया । ग्राप पिछले एक सप्ताह से किडनी एवं रक्तचाप के रोग विशेष पीड़ित थे । उपलब्ध श्रेष्ठ उपचार व्यवस्थानों के पश्चात भी प्रापको बचाया न जा सका । पण्डितजी भारतीय दर्शन शास्त्र और संस्कृति के प्रकाण्ड पण्डित, समर्थक, चिन्तक और सुप्रसिद्ध लेखक थे । सरस्वती के इस वरद पुत्र के अवसान पर देश के चिन्तन जगत में गहरा शोक छा गया । आपके निधन पर प्रधानमन्त्री श्री मोरारजी भाई देसाई ने एक शोक संदेश में कहा कि पं० सुखलालजी के अवसान से देश ने भारतीय विद्या के एक अत्यन्त विद्वान और असाधारण दार्शनिक को खो दिया है । पण्डितजी ने गांधीजी के एक साथी की तरह गुजरात विद्यापीठ के पुरातत्व मन्दिर के विकास में सराहनीय सहयोग दिया था । पंण्डितजी अपने पीछे विद्या और वर्चस्व की ऐसी विरासत छोड गये हैं जिसका लाभ इस देश के नागरिकों को सदैव मिलता रहेगा । आपकी प्रेरणा से ही पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध हिन्दू विश्वविद्यालय और गुजरात विद्यापीठ के माध्यम से को समर्पित किये जो प्राज आपके प्रभाव की पूर्ति में प्रागे शोध-खोज के मार्ग दर्शक होंगे । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 में श्रापने संस्थान की स्थापना हो सकी काशी अपने अनेकों विद्वान शिष्यरत्न समाज ग Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० उदय जैन कानोड़ के जवाहर विद्यापीठ एवं जैन शिक्षण संघ के संस्थापक संचालक पं० उदय जैन का दि० 27 नवम्बर 77 को 64 वर्ष की अवस्था में हृदय, गति रुक जाने से देहावसान हो गया । इनका जन्म नाम वृद्धिचन्द था। सन् 1936 में राजस्थान के प्रसिद्ध राष्ट्रीय नेता श्री माणिक्यलाल वर्मा के साथ सम्पर्क हुआ। मृत्यु भोज जैसी कुरीतियों का सक्रिय विरोध किया। साधुओं में व्याप्त शिथिलाचार के विरुद्ध सफल आवाज उठाई अक्टूबर सन् 1940 में प्रतापोदय स्कूल की स्थापना की । सन् 1942 में प्रजामण्डल आन्दोलन में जेल यात्रा की । सन् 1952 तक राजनीति में सक्रिय रहने के पश्चात संन्यास ग्रहण कर अपना सम्पूर्ण जीवन संस्था को समर्पित कर दिया। भगवान् महावीर की जीवन और सिद्धान्तों पर लिखी इनकी 'वीर विभूति' नामक पुस्तक इनके स्वतन्त्र लेखन तथा चिन्तन का प्रतिनिधित्व करती है। श्री सुन्दलाल जैन प्राच्य विद्या के प्रकाशक भारतीय प्राच्य विद्या के प्रमुख प्रकाशक, समाज सेवी सरस्वती के पुजारी लाला सुन्दरलाल जैन का गत जनवरी माह में स्वर्गवास हो गया। प्राच्य विद्या के ग्रंथों के प्रकाशन में प्रापका वरेण्य स्थान था। प्राच्य ग्रन्थों के प्रकाशन के क्षेत्र में आपने भारत तथा विदेशों में भी महान यश अजित किया । भाप में. मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन गृह के संस्थापक थे । एक हजार से भी अधिक उच्च स्तर के ग्रंथों के प्रकाशन का श्रेय इस संस्थान को है जिसने लालाजी के निर्देशन में महत्वपूर्ण प्रगति की । भारतीय प्राच्य विद्या के राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में वे चिर-स्मरणीय एवं श्रद्धा-पात्र रहेंगे। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 对减减减袄祆袄斮S प्रथम OT案案袭案张器 历被褫袄、 XXXX खण्ड 張8 महावीर : उनका दर्शन एवं इतर दर्शन EffffffffffffLEEEEEEE Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 वीर वन्दना ॥ डा० पन्नालाल : साहित्याचार्यः सागरम् । हिंसादिपापानलदग्धविश्वं ___शमामतेन प्रशमय्य शान्तम् । चकार यरतं प्रर मामि नित्यं दौरं सुधीरं मनुजौघ हीरम् ॥१॥ एकान्तवादेन हतं समस्तं जगत् समुद्धर्तुमना मनस्वी। स्याद्वादपीयूषपयोदवृष्ट्या ___ तुष्टं व्यधाद्यस्तमहं नमामि ॥२॥ मादाय पाणौ शुक्लाभिधानं ध्यानं कृपाणं विधिवैरिणस्तान् । हत्वा द्रुतं येन शिवस्य राज्यं प्राज्यं सुलब्धं स जिनोऽत्र जीयात् ॥३॥ कुवादिवादाद्रि समूहसानु प्रचण्डवन तिमिरौघभानुम् । नमामि वीरं गुरिणभिः सनाथं | पादानतामर्त्यसमूहनाथम् ॥४॥ प्रचारितायों भवि येन नित्यं साम्यस्रवन्त्यां सहसावगाह्य । प्राप्नोति सौख्यं जनता जगत्यां तं वीरनाथं प्रणमामि सम्यक् ॥५॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी भी क्षेत्र में व्याप्त बुराई को जड़ से उखाड़ डालने हेतु किण गया प्रयत्न कान्ति कहलाती है। जब बुराई का समूल उच्छेद हो जाता है तो वह क्रान्ति सफल कहलाती है । महावीर ने क्रान्ति के लिए व्यक्ति तथा समष्टि दोनों क्षेत्रों को चुना । व्यक्तिगत क्रान्ति में वे पूर्ण सफल हुए क्योंकि उन्होंने प्रात्मिक मलों को दूर कर उसका शुद्ध स्वरूप प्राप्त कर लिया था। समष्टि के उत्थान के लिए उन्होंने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का मार्ग बताया तथा समाज संगठित रूप से एक परिवार को भांति रह सके इसके लिए चिन्तन के क्षेत्र में उन्होंने अनेकान्त तथा वाणी के क्षेत्र में स्याद्वाद का प्रतिपादन किया। निश्चय ही ये सिद्धान्त हैं जिनका पालन यदि समष्टि करे तो धरा पर ही स्वर्ग का निर्माण हो सकता है, उसे अन्यत्र ढूढने की आवश्यकता नहीं। —पोल्याका महावीर : प्रात्मक्रान्ति और जनक्रान्ति के प्राईने में .डॉ० नरेन्द्र भानावत प्राध्यापक हिन्दी विभाग राज. वि. वि., जयपुर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी महावीर का जन्म दिवस है । इसी बिन्दु पर व्यक्ति और समाज, अात्म धर्म है । उन्होंने साधना और पुरुषार्थ के बल पर आत्मा और समाज धर्म परस्पर मिलते हैं और एक दूसरे पर लगे समस्त कर्मदलिकों को नष्ट कर, निर्मल को पुष्ट और कल्याणक बनाते हैं । और निर्विकार परमात्म स्थिति प्राप्त कर अपने जैन धर्म में मुख्य बल अात्म जागृति पर दिया जन्म को सार्थक बनाया। महावीर ने यह सार्थकता गया है । व्यक्ति तब तक देहासक्त अथवा देहपरायण अर्थात् निर्वाण जिस दिन प्राप्त किया उसे हम बना रहता है, तब तक उसकी जागृति वारतविक दीपावली पर्व के रूप में मनाते हैं। जन्म से निर्वाण जागृति नहीं कही जा सकती। वह एक प्रकार की की यह साधना अथवा यात्रा एक प्रकार से सुषुप्ति की अवस्था है। जब वह देहातीत होकर जागरण की यात्रा है। यह जागरण मुख्यतः आत्मपरायण बनता है तब उसमें वास्तविक जागृति आत्म केन्द्रित होकर भी जनजागृति का मूल थिरकने लगती है । पर्युषण पर्व की साधना और 1-2 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का निर्वाण दिवस प्रधान रूप से प्रात्म- स्रोत अविरल फूटता रहे । आज व्यक्ति यांत्रिक बन जागरण की ओर उन्मुख करते हैं। पर महावीर गया है। उसमें हार्दिकता का अंश कम होता जा जयन्ती, आत्म जागृति से प्राप्त शक्ति और प्रकाश रहा है । वह अपनो के वीच रह कर भी पराया का जन जागृति में उपयोग करने का अवसर प्रदान बन गया है, उसकी दिशाएं और रिश्ते खो गये हैं। करती है। ऐसी स्थिति में महावीर का अहिंसा प्रत और मैत्री भाव राग से परे, सबको अनुराग में बांधता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि जैन धर्म मूलतः जनक्रान्ति और प्रात्मक्रान्ति का धर्म रहा आज के अर्थ प्रधान युग में अहिंसा की सम्यक है। जब ये दोनों क्रान्तियां समानान्तर चलती हैं परिपालना अपरिग्रह की भावना को आत्मसात तब आत्म धर्म और समाज धर्म में सन्तुलन बना किये बिना नहीं हो सकती। यदि कोई व्यक्ति रहता है पर जब यह सन्तुलन बिगड़ता है तब परिग्रह की मर्यादा न करे और अहिंसा की साधना स्थिति के अनुसार आत्म धर्म अथवा समाज धर्म में करने का व्रत ले तो वह कभी पूर्ण नहीं हो सकता। से किसी एक को प्रधानता देनी पड़ती है। मेरी भगवान महावीर ने आज से अढाई हजार वर्ष पूर्व दृष्टि से पर्युषण पर्व की साधना और महावीर जब आर्थिक समस्या इतनी जटिल नहीं थी. के निर्वाण दिवस की पाराधना, उपासना में हमारा अपरिग्रह के महत्व को हृदयंगम कर लिया था । बल आत्ममिता को जागृत करने पर विशेष रहता अहिंसा महाव्रत की निर्बाध साधना के लिये ही है। यदि हम महावीर जयन्ती को मनाते समय उन्होंने वैभव सम्पन्न, ऐश्वर्यपूर्रा सम्पूर्ण राजपाट समाजर्मिता पर विशेष बल देते हुए, जन जागृति को त्याग कर आकिंचन व्रत ग्रहण कर लिया था । का आह्वान कर सकें और उसके अनुरूप रचनात्मक आज के संदर्भ में महावीर द्वारा प्रतिपादित परिग्रह कार्यक्रम प्रस्तुत कर सकें तो हम महावीर की परिमाण व्रत की सर्वाधिक सार्थकता यही है कि विचारधारा को सही परिप्रेक्ष्य दे पायेंगे । व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह न करे, उसके पास आवश्यकता से अधिक जो सम्पत्ति हैं भगवान महावीर के सिद्धान्त जन जागृति में उसे वह अपने स्वामित्व की न समझे वरन् समाज अटूट प्रेरणा स्रोत बन सकते हैं। उनका अहिंसा की समझे और लोक कल्याण के लिये उसका का सिद्धान्त अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए निष्काम भाव से विसर्जन करदे । दूसरों के अस्तित्व की स्वीकृति पर बल देता है। जैसी आपकी आत्मा है वैसी दूसरे प्राणी की भी यह बड़ी विडम्वना है कि महावीर के तथाहै, जैसा संवेदन आपको प्रिय लगता है वैसा दूसरे कथित अनुयायी आज अत्यधिक परिग्रही हैं। उनमें को भी। अतः मन, वचन और कर्म से आप कोई से बहुत कम ऐसे हैं जिन्होंने अपने परिग्रह की ऐसा काम न करें जिससे दूसरे को कष्ट हो अथवा मर्यादा बांध रखी हो और आवश्यकता से अधिक उसकी स्वतंत्रता में बाधा पड़े । अहिंसा का यह सम्पत्ति का उपयोग वे जनकल्याण के लिये करते सिद्धान्त वैयक्तिक रूप से जीने की ऐसी पद्धति हों । आवश्यकता इस बात की है कि परिग्रह निर्धारित करता है कि जिसमें व्यक्ति किसी दुःख परिमाण व्रतधारी श्रावकों की संख्या अधिकाधिक का कारण न बन पाये और अपने जीवन व्यवहार बढ़े। को, शील-स्वभाव के इस प्रकार गठित करें कि भगवान् महावीर ने परिग्रह को केवल चलउसके रोम-रोम से प्रेम, करुणा और मैत्री का अचल सम्पत्ति तक ही सीमित नहीं रखा । उन्होंने महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-3 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत, सम्प्रदाय, हठवादिता आदि को भी परिग्रह चारित्र के पूर्व “सम्यक्" विशेषण की इस दृष्टि से माना। विचारों की एकांगिता और संकीर्णता के गहरी अर्थवत्ता है । आज ज्ञान का, दर्शन का और दायरे से व्यक्ति मुक्त हो, यह उसकी मूल्यवान् चारित्र का क्षेत्र बड़ा व्यापक वना है, पर उसमें से स्वतन्त्रता है। इस स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिये 'सम्यवत्व' गायब हो जाने से वह सर्वकल्याणकारी उन्होंने अनेकांत दर्शन की प्रतिष्ठा की। अनेकान्त नहीं बन पा रहा है। दर्शन का मूलहार्द है-जो कुछ तुम सोचते हो या देखते हो वही सच नहीं है, दूसरे जो सोचते हैं महावीर जन्मजात क्रान्ति पुरुष थे। उन्होंने और देखते हैं वह भी सच हो सकता है, ऐसा समझ विचार और प्राचार दोनों धरातलों पर प्रात्मक्रांति कर किसी एक ही बात पर अड़े न रहो। अपनी के साथ-साथ जनक्रान्ति की। उनकी क्रान्ति के बात पर दूसरों की दष्टि से भी चिन्तन करो। साथ अहिंसा और अभय का अद्भुत मेल था, वस्तु अनन्त धर्मात्मक है अतः किसी एक धर्म को स्वतंत्रता और समानता की अनूठी संधि थी। देख कर या समभकर उसके समस्त धर्मों को देखने महावीर की वह क्रान्ति जनक्रान्ति वन कर जनया समझने की भूल मत करो । जब कभी सत्य का जीवन में फूटे, प्राज इसकी अपेक्षा है। इसके लिये प्रखण्ड रूप में दर्शन करना हो तब अपने को प्रावश्यक है कि हम धामिकों के जीवन में ही विरोध की स्थिति में रखकर सत्य को परखो। क्रान्ति न लावें वरन् धर्म को भी क्रान्ति के वाहक तब सत्य का जो रूप निखरेगा वह अखण्ड के रूप में प्रतिपादित और मूल्यांकित करें। महावीर और पूर्ण होगा। भगवान महावीर ने इस जयन्ती मनाने की सार्थकता इसी बात पर स्थिति को "सम्यक" कहा है। ज्ञान, दर्शन और निर्भर है। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 | Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणिमात्र का साध्य मुक्ति है। जिस मार्ग पर चल कर मुक्तिलाभ किया जा सकता है वह साधन कहलाता है तथा उस मार्ग का ज्ञान ही विज्ञान कहलाता है । साधारणतः भौतिक शरीर के छूटने को मुक्ति माना जाता है किन्तु वह तो भौतिक होने से एक न एक दिन छूटता ही है । वास्तविक मुक्ति है तेजस और कार्मण शरीरों से छुटकारा जिनके कारण श्रात्मा जन्ममरण के चक्कर में अनादि काल से घूम रहा है । प्राणिमात्र में सभभाव रखना साधना का केन्द्र बिन्दु है और तप वह प्रक्रिया जिससे श्रात्मा के कार्मिक बन्धन ढीले होते हैं । स्व में केन्द्रित होना ही प्रतिक्रमण है तथा मूर्च्छा टूटने पर जो प्राप्त होता है वह ही महाव्रत हैं। यह है वह विज्ञान जिसे महावीर ने स्वयं जाना तथा उसकी साधना कर साध्य को पाया तथा जिस मार्ग पर चलने के लिए जनता को उपदेश दिया । इसी का वैज्ञानिक विवेचन अपनी विशिष्ट शैली में मान्य लेखक ने इस निबन्ध में प्रस्तुत किया है । जिसे पढ़कर पाठक अपने आपको लाभान्वित प्रनुभव करेंगे ऐसी प्राशा है। - पोल्याका वैज्ञानिक को प्रांख से - भगवान महावीर के दर्शन भीतर से बाहर की श्रोर अगर हमें भगवान महावीर को समझना है तो उन्हें बाहर से न समझें बल्कि भीतर से जानें । बाहर का परिचय हने कथ्य की ओर ले जाता है, सत्य की प्रोर नहीं। सभी चौबीस तीर्थ करों की प्रतिमायें, स्वरूप में एक जैसी होती हैं । क्या इतने लम्बे समय के अन्तराल से होने वाले तीर्थ - कर, रूप में एक जैसे होंगे ? फिर एक जैसे स्वरूप करने का क्या तात्पर्य है ? इसका एक ही अर्थ यह हो सकता है कि तीर्थ कर जैसे दिव्य पुरुषों का बाह्य विसर्जित हो जाता है । फिर उनका वाह्य महावीर जयन्ती स्मारिका 78 श्री निहालचन्द जैन व्याख्याता शा० उ० मा० वि० नौगाँव (म प्र ० ) शरीर कोई महत्व नहीं रखता। क्योंकि उन सभी तीर्थंकरों की श्रात्मायें एक ही चिन्तमय धरातल को प्राप्त हो गयी थीं । अतः हमने बाहर का रूप भी अन्तर को उजागर करने के लिये एक जैसा बना दिया है । तो इस अन्तर्दृष्टि से ही भगवान महावीर को समझें तभी ये हमारी ज्ञानक्रान्ति में प्रेरक बन सकते हैं । अन्यथा हमारी बाह्य दृष्टि 'केवल ज्ञान' प्राप्त करने के साधनों को ही साध्य मानकर यह कहती रहेगी कि केवल ज्ञान के लिए 'दिगम्बरत्व' चाहिये । अथवा अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को महावीर 1-5 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी ने अपनी उत्कृष्टता में साधा था। महावीर और विकल्प चाहे कैसा भी क्यों न हो को जानने के ये सब बाह्य रूप हैं कि उन्होंने घर वह बांधता है। बांधने वाला परतन्त्र है और छोड़ा था, राजमहल छोड़े थे, और सारी विभूति परतन्त्रता दुख का मूल है। लेकिन जहां दृष्टा छोड़ी थी। भाव हैं, जहां साक्षी भाव हैं वहां फिर बंधना नहीं होता। वह फिर विकल्पों की कसक में नहीं क्षुद्र ज्ञान ही घर और दीवार की सीमानों को । प्रा पाता। जानता है । जहां विराट ज्ञान पा गया वहाँ उनके खड़े होने का दायरा भी अनन्त बन जाता है साधना का केन्द्र बिन्दु-'सामायिक' उनका घर भी अनन्त बन जाता है और उनका जीवन भी अनन्त ही हो जाता है। सच तो यह है भगवान महावीर की साधना का केन्द्र बिन्दु कि विराट को भोगने का सामर्थ्य एक क्षुद्र चित्त है-'सामायिक' । यदि हम वैज्ञानिक सन्दर्भ में इस में नहीं हो पाता इमलिये वह दीवारों से घिरे 'सामायिक' शब्द का विश्लेषण करें तो भगवान क्षेत्र को घर मान बैठता है। महावीर जैसे प्रात्म महावीर से बड़ा और कोई वैज्ञानिक दिखाई नहीं पूरुषार्थी, जिनकी जन्म से निर्वाग तक विजय पड़ता। संसार की प्रत्येक वस्तु तीन आयाम में की भाषा रही, से स्पष्ट है कि यदि वे ब्राह्मण भी होती हैं वे हैं - लम्बाई, चौडाई और ऊंचाई। होते तो क्षत्रिय कहलाते । क्योंकि क्षत्रिय-धर्म है, लेकिन प्रात्मा की एक और दिशा है जो चेतना विजय पाना, भुकना नहीं। की दिशा है, वह है,–'समय' । जो अस्तित्व का चौथा अायाम है । जो प्राइन्सटीन और मिन्को ने महावीर स्वामी ने बारह वर्ष जो तपश्चर्या अस्तित्व की परिभाषा इन्हीं चारों आयामों के की थी उसकी उपलब्धि 'वीतरागता' थी। सत्य, जोड़ से की है । इस बात का पहला बोध आज अहिंसा, ब्रह्मचर्य प्रादि उस वीतराग-उपलब्धि की से 2500 वर्ष पहिले भगवान महावीर स्वामी उप-उत्पत्तियां थीं । जैसे गेहूँ के साथ भूसा उसका को हुआ था कि 'समय' चेतना की दिशा है । जो बाइ-प्रोडक्ट होता है, वैसे ही जब वीतरागता तत्व सदा से है और सदा रहेगा - वह समय है। फलित होती है तो कुछ अशुद्ध अवस्थायें अपने समय की धारा में संसार की प्रत्येक वस्तु आप विजित हो जाती हैं। वीतरागता एक परिवर्तित हो रही है, परन्तु यह स्वयं अपरिवर्तअनुभूति है जो अन्तर में पैदा होती है और सत्य, नीय है । यही अकेला शाश्वत सत्य है जो सदा था अहिंसा और ब्रह्मचर्य आदि उसकी अभिव्य- और सदा रहेगा। इसलिये भगवान महावीर ने क्तियां हैं। आत्मा को 'समय' शब्द से व्यवहृत किया। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक ने परमारणु का विश्लेषण केवल ज्ञान का क्या अर्थ है ? जहां ज्ञान ने एक इलेक्ट्रान के रूप में किया। उसी प्रकार स्वयं के कर्तापन का भाव मिटाकर केवल दृष्टापन महावीर स्वामी ने चेतना का विश्लेषण एक का भाव रख लिया, वही ज्ञान, केबल-ज्ञान बन अन्तिम खण्ड या प्रण के रूप में किया है जिसका जाता है । क्योंकि जब तक कर्तव्य का भाव है, नाम--समय है। समय वर्तमान का तथाकथित तब तक स्वामित्व है, भोगने की सज्ञा है। फिर क्षण (एक माइक्रोसेकेण्ड) उसका भी कुछ चाहे ही पुण्य ही क्यों न भोगे, प्रेम ही क्यों लाखवां हिस्सा होता है, तो इलेक्ट्रान की भांति न करे उस कापन में विकल्प आयेगा दिखाई नहीं देता। भगवान महावीर कहते हैं कि 1-6 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस दिन आप इतने शान्त और निर्मल बन जायें रूप पुद्गल परमाणुगों के विशिष्ट समूह के रूप कि वर्तमान का वह अत्यल्प समय का कणा भी में होते हैं जो चैतन्य या जीव को प्रभावित करने झलक जाये तो आप सामायिक में प्रवेश कर गये की एक विशेषता रखते हैं। जैसे आकाश की होते हैं। अनन्त विद्य त चुम्बकीय तरंगों में से एक निश्चित तपश्चर्या-एक वैज्ञानिक प्रक्रिया स्वरूप में बारम्बारता की तंरगों को रेडियो-रिसीवर का ____भगवान महावीर की तपश्चर्या का हेतु कर्मों प्रोसिलेटर अपने में उसी प्रकार की तंरगों को से निर्बध होकर अपने सहज चैतन्य स्वरूप को उत्पन्न कर विद्युतीय साम्यावस्था के सिद्धान्त प्राप्त कर लेना था। भगवान महावीर ने 'काया से प्राप्त करता है । ठीक ऐसी ही घटना प्रात्मा में क्लेश' अर्थात् काया के मिटाने को तप कहा। कार्माण स्कन्धों के प्राकर्षित होने में होती है । मगर उनका मतलब इस पौद्गलिक काया को विचारों और भावों की अनवरत शृखला के कष्ट देने या मिटाने से नहीं था । जो अनन्त बार परिणामस्वरूप मन, वाणी और शारीरिक नष्ट हुई, उसे मिटाने में कौनसी साधना है ? क्रियानों द्वारा प्रात्मा के प्रदेशों में कम्पन उत्पन्न उनका काया से तात्पर्य था वह सूक्ष्स शरीर जिसे होते हैं, जिसे जैन दशन में योग संज्ञा दी गई है। उन्होंने 'कार्माण शरीर' कहा है, जो उस बाह्य प्रर्थात् योग-शक्ति से प्रात्मा के प्रदेशों से एक शरीर और आत्मा को जोड़ने का माध्यम अनन्त क्षेत्रावगाही सम्बन्ध रखने वाले 'कार्माण शरीर' जन्मों से बनी हुई है और जिसे आज तक नहीं । के परमाणु में कम्पन होते हैं और यह कार्माण मिटाया जा सका है। तप का अर्थ उन्होंने ऐसी शरार होने मी शरीर एक ओसिलेटर की भांति कार्य करने लगता गर्मी से लिया है जो भीतर-साक्षी भाव से पैदा है । जो Electrical resonance के सिद्धान्ताहोती है और जिससे यह सूक्ष्म शरीर पिघलने नुसार लोकाकाश में उपस्थित समान बारम्बारता लगता है । तैजस और कार्माण शरीर ऊर्जा या तरंग-लम्बाई की कार्माण-तरंगों को आकर्षित (Energy) के रूप में हमारी चेतन शक्ति (ग्रात्मा) कर ग्रहण करता रहता है और इस प्रकार कारण से सम्बद्ध है। शरीर का संगठन कभी भी स्खलित नहीं हो जिस प्रकार रेडियो तरंगों में विद्य त तरंगें पाता है । और चुम्बकीय तरंगें एक साथ एक-दूसरे के तपश्चर्या-वह प्रक्रिया है जो इस कार्माण अभिलम्ब अविनाभावी रूप के साथ-साथ रहती हैं, शरीर के प्रोसिलेटर की कम्पन प्रक्रिया को ढीली और उनमें बीजभूत शब्दों को पैदा करने की शक्ति बनाता है जो कि योगों की सरलता या मन, प्रसुप्तावस्था में रहती है। ठीक इसी प्रकार ये वाणी और क्रिया की चंचलता को समेटने से तैजस प्रौर कार्माण शरीर भी तरंगों के रूप में होता है। यह स्वयं में कर्तव्यपन के विसर्जन चैतन्य शक्ति को अपने में बांधे हुये हैं। यही और साक्षी-भाव के सृजन से सम्भव होता है। तरंगें कर्मों के प्रास्रव और बंध तथा संवर और यहां से कारण शरीर का पिघलना प्रारम्भ हो निर्जरा की प्रक्रियायें करती रहती हैं। जाता है और जितने अनुपात में कारण शरीर यहां थोड़ा 'कर्म सिद्धान्त' को भी विज्ञान के की तीव्रता कम होगी, तेजस शरीर भी उसी आधुनिकतम तरंग सिद्धान्त से देख लें जिससे अनुपात में विरल होता जायेगा। यही प्रतिक्षण उपयुक्त पानव या निर्जरा की प्रक्रिया स्पष्ट हो की संवर प्रक्रिया है। अर्थात् तपश्चर्या से संवर जाती है। ये 'काणि शरीर' कार्माण वर्गणा की घटना होती है। साक्षी भाव की एक ऐसी महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-7 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरमावस्था पाती है जिसे निर्विकल्प समाधि मकान में, पत्नी में, बेटे आदि में फैली रहती है। कहते हैं, यहां योगों की प्रवृति एकदम बन्द हो जितनी अधिक प्रासक्ति, चेतना का बाहरी फैलाव जाती है और फिर कार्मारण-शरीर संरचना में उतना ही अधिक होता जाता है। यहां प्रतिक्रमण नवीन कारण तरंगों का आना तो समाप्त हो से तात्पर्य है --सारी चेतना को समेट लेना अपने ही जाता है, वरन् इसका संगठन भी बिखरने भीतर । 'सामायिक' में प्रवेश से पूर्व हमारी चेतना लगता है, यही निर्जरा है। और सम्पूर्ण-कर्मों की अपने 'स्व' में आ जाये तभी सामायिक की सीढ़ी निर्जीणावस्था ही मोक्ष है। मोक्ष कोई स्थान चढ़ी जा सकती है । 'स्व' में केन्द्रित होना ही विशेष नहीं है । यह स्थिति विशेष है, जहां आत्मा प्रतिक्रमण है। वह चेतना के फैलाव को स्वयं से वे सूक्ष्म कामरिण और तेजस शरीर भी समाप्त के केन्द्र पर सघनीभूत कर लेना है। जिससे हो जाते हैं । इन्हीं सूक्ष्म शरीर को पिघलने में इसका उपयोग प्रात्म-स्थिति वा आत्म-दर्शन के लगा हा श्रम तपश्चर्या है और पिघलने की जो लिये किया जा सके । इसी हेतु श्रावक के लिये प्रक्रिया है, ध्यान है। प्रतिक्रमण करने का विधान है जो ध्यान में जाने का पूर्व चरण है। महावीर एक बड़ी खोज विज्ञान सीधे नियम पर निर्धारित है और वह भगवान महावीर-महाव्रती कहलाते हैं। कार्य कारण, सिद्धात पर खड़ा है। धर्म भी महाव्रत क्या है ? मूर्छा के टूटते ही जो उपलब्ध विज्ञान है । धर्म है, चेतना विज्ञान । बाहर जो है, होता है, वह महाव्रत है । अभ्यास कर साधी गई उसकी खोज विज्ञान है, भीतर जो है. उसकी वस्तु या व्रत से हम अपनी मर्छा नहीं तोड़ सकते। खोज धर्म है । अतः धर्म भी कार्य कारण सिद्धांत क्योंकि प्रयास से साधे हुये व्रत में भी एक संघर्ष पर खड़ा है। विज्ञान कहता है कि भगवान से है, मन के खिलाफ चलने की एक व्यवस्था है । हमें लेना-देना नहीं। हम तो प्रकृति का नियम जब वस्तुप्रों से हमाग लगाव ही छूट जाये तब खोजते हैं। ठीक यही बात भगवान महावीर ने वह स्थिति ही अमूर्छा की स्थिति है और ऐसी चेतना से कही है कि हम नियन्ता को विदा करते स्थिति में विस्फोट की भांति महावत उपलब्ध हैं। उन्होंने आत्म पुरुषार्थ को महत्ता दी और होता है। कहा कि हम जो कर रहे हैं, वही हम भोग रहे हैं, ऊपर भगवान महावीर की साधना के सन्दर्भ अच्छा या बुरा भोगना कोई भाग्य का लिखा या में कुछ बातें कहीं हैं । जैसे विज्ञान जीवन से किसी नियन्ता का दिया नहीं बल्कि हमारे कार्य अलग नहीं है उसी प्रकार साधना भी जीवन से का फल है। कार्य और उसके फल में सीधा अलग कोई वस्तु नहीं। साधना तो जीवन में धर्म सम्बन्ध है जो उसी क्षण से मिलना प्रारम्भ हो के फूल हैं जो स्वयं को सुवासित तो कर ही देते जाता है। हैं वातावरण को भी सुगन्धमय बना देते हैं । कुछ पारिभाषिक शब्द-नये सन्दर्भ में - ऐसे कुछ साधना के तथ्यों को वैज्ञानिक परिभाषा ... भगवान महावीर स्वामी ने श्रावक के लिये में बांधकर उन्हें आज के नये सन्दर्भो में देखा है प्रतिक्रमण' बताया है। प्रतिक्रमण का साधारण ताकि धर्म से उपेक्षित युवा पीढ़ी इन सिद्धान्तों अर्थ है आक्रमण को वापिस कर देना । सामान्य और विश्वासों के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि उत्पन्न कर रूप से हमारी चेतना, मित्र में, शत्रु में, धन में, सके । 1-8 महावीर जयन्ती स्मारिका Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POOR गुण दो प्रकार के होते हैं। एक सामान्य जो सब में समान रूप से मिलते हैं। दसरे विशेष जिनसे एक की दूसरे से विशेषता ज्ञात होती है, पहचान होती है, उसकी परख होती है। व्यक्ति की विशेषता उसे दूसरे व्यक्तियों से पृथक् पहचनवाती है। प्रस्तुत लेख में भ. महावीर के व्यक्तित्व को शास्त्रीय, प्रायुर्वेदीय, मनोविज्ञान आदि विभिन्न दृष्टिकोणों से जांचा परखा गया है और लेखक इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि महावीर के व्यक्तित्व का वर्णन शब्दों द्वारा करना सम्भव नहीं है और उसकी दृष्टि में उसकी यह असफलता में ही महावीर के व्यक्तित्वमापन की सफलता अन्तनिहित है। -पोल्याका महावीर-व्यक्तित्व-मापन ॐ श्री लक्ष्मीचन्द्र ‘सरोज' एम ए. बजाज खाना, जावरा (म. प्र.) यद्यपि व्यक्तित्व के अर्थ और स्वरूप के सम्बन्ध (1) सतोगुण (सत्व) में विद्वानों ने काफी ऊहापोह किया परन्तु उसकी (2) रजोगुण (रजस्) सर्वमान्य परिभाषा अभी भी स्वीकृत नहीं हुई है। (3) तमोगुण (तमस्) जनसाधारण व्यक्ति को वह प्रभावीशक्ति मानते हैं, जब तीनों गुण रामान परिमारण में रहते हैं जा दूसरा क हृदय जातता है, उसका विश्वास प्राप्त तब प्रकृति .अपनी सुप्त अवस्था में होती है पर करती है, उन्हें प्रभावित करती है ।। साम्यावस्था भंग होते ही प्रकृति जागृतावस्था में व्यक्तित्व शब्द व्यक्ति से बना है। विचार के पाती है। सामान्यतया तो प्रत्येक पदार्थ और व्यक्ति इस बिन्दु से व्यक्तित्व से तात्पर्य उन गुणों से है, में ये तीनों गुण पाये जाते हैं पर जिस अनुपात में ये जिनके आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति में अन्तर लेखा जा गुण जिस व्यक्ति में जैसे होंगे, उनके अनुरूप ही सकता है। यह अन्तर व्यक्ति के प्रान्तरिक और उसके व्यक्तित्व का निर्माण होगा। बाह्य व्यावहारिक गुणों पर अाधारित होता है । भगवद् गीता के 14वें अध्याय में भी सत्व हां तो व्यक्तित्व-व्यक्ति का गुण, उसकी भाववाचक रजस् और तमस् के आधार पर मनुष्य का व्यक्तित्व संज्ञा है। बनने की बात कही गई है। कपिल के सतोगुणी कपिल मुनि ने सांख्य शास्त्र में व्यक्तित्व के जिन व्यक्तियों में सत्व या रजोगुण की अधिसूचक तीन गुण माने हैं:-- कता मानी गई है, उनमें सौम्य और शान्ति विराज महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान रहती है । कारण, सत्व हलका और प्रकाशक ग समधातु-शरीर में रस रक्त प्रादि धातुएं है, इसलिये सत्व पदार्थ हलके होते हैं । सत्व से न कम हों न अधिक । यूक्त व्यक्ति-सुख और दुख दोनों अवस्थाओं में सम घ. सममल-मल-मत्र पसीना आदि न कम रहते हैं। पाना न अधिक। भगवान महावीर परमवीतरागी थे । क्षमा और ङ. समक्रिया-शारीरिक और मानसिक मृदुता की मूर्ति थे । प्रार्जव और शौच के स्रोत थे। क्रियाओं में समता । सत्य और संयम के केन्द्र थे। तप और त्याग के च. प्रसन्नात्मेन्द्रिय मना:-प्रात्मा और इन्द्रिय प्रतीक थे । आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य के ज्वलन्त तथा मन की प्रसन्नता, बाहर-भीतर खुशहाली की आदर्श थे। उन्होंने अनुगामियों को सामायिक या उजियाली । समभाव की साधना करने का सुखद सन्देश दिया था । सर्वदा समता के सदन में सुख से निवास करने भगवान महावीर का शरीर परम प्रौदा रिक की सलाह दी थी। वे चंचलता और उत्तेजना से ___ था, अतएव वातपित्त कफ जनित विकारों से परे रहित थे, अत एव अपने जीवन में प्रागत अनेक था । श्राहार की बात तो फिर भी उनके लिये थी उपसर्गों और परीषहों (स्व-परकृत उपद्रवों) को पर निहार की बिल्कुल नहीं। उाका उत्कृष्ट जीतने में समर्थ हुये। वे आलस्य से परे थे, अत ___ शारीरिक संहनन और संस्थान विश्व में एक ही एव 'संयमः खलु जीवनम्' की शिक्षा अपने जीवन था, इसलिये वे मल-मूत्र-पसीना जैसी सर्वसाधारण बाधाओं से परे थे। उनके जीवन की शारीरिक में सिद्धान्त और व्यवहार से दे सके थे। और मानसिक क्रियाओं में जो समता या एकहां तो कपिल मुनि के सांख्य शास्त्र की दृष्टि रूपता थी, उसी के कारण राजकुमार महावीर से महावीर के व्यक्तित्व का मापन एक शब्द में क्रान्तिकारी शान्ति प्रिय महावीर बने । चूकि शरीर 'सतोगुणी' होगा। और शरीर जनित भोग-उपभोगों के प्रति उनके मन में तीव्र विरक्ति थी, इन्द्रिय रूपी अश्वों को उन्होंने आयुर्वेद के पूर्ण पुरुष वश में कर लिया था. इसलिए वे अपने मन और आयुर्वेद के प्राचायों से आदर्श व्यक्तित्व के आत्मा की दृष्टि से पूर्णतया प्रसन्नता-निराकुलताविषय में परामर्श लें तो वे अपने अध्ययन और निश्चितता लिए थे। अनुभव के आधार पर कहेंगे कि सम दोष समग्निश्च समधातु मलक्रियः । हां तो आयुर्वेद की दृष्टि से महावीर व्यक्तित्व प्रसन्नात्मेन्द्रिय मना: मापन पूर्ण पुरुष या अलौकिक पुरुष के अनुरूप होगा। प्रस्तुत सूत्रस्वरूप पंक्ति का सुविशद पर . संक्षिप्त स्पष्टीकरणयों किया जा सकेगा कि परसोना से परे दिगम्बर ____ व्यक्तित्व (Personality) पर्शनेलिटी शब्द क. समदोष-शरीर में वात (स्नायु संस्थान) की व्यत्पत्ति यनान की भाषा (ग्रीक) के परसोना पित्त (रक्त संस्थान) और कफ (मलसंस्थान) की Persona) शब्द से मानी जाती है । परसोना उस समान अवस्था हो । बाहरी वेशभुषा को कहते थे, जिसे प्राचीन यूनान ख. समग्नि-पाचक अग्नि की समानता । के लोग नाटक खेलते समय पहनते थे। इस दृष्टि 1-10 __ महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से व्यक्तित्व केवल बाहरी ग्रावरण मात्र ठहरता है । व्यक्तित्व की यह परिभाषा सुस्पष्टतया अपूर्ण है । कारण, व्यक्तित्व का सम्बन्ध बाहर-भीतर दोनों ओर से है । नाटक में पात्र के लिये वेशभूषा के साथ अभिनेयता भी प्रपेक्षित है । दुहरा व्यक्तित्व तो क्या ? एक भी पूर्ण व्यक्तित्व इस परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आता है वैसे अपूर्णतया दोनों ही परस्पर सम्बद्ध हैं । हां तो भगवान महावीर परसोना से परे परम दिगम्बर थे । वे एक ऐसे क्रान्तिकारी राजकुमार थे जो जीवन पर्यन्त राजा नहीं बने पर फिर भी राजाओं के राजा बन सके। उन्होंने कलिंग देश के राजा जितशत्रु की कन्या यशोदा से तो विवाह नहीं किया पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पूर्व निधियां लिये उस मुक्ति श्री का वरण अवश्य किया कि जिसके बाद उन्हें कुछ भी पाना शेष नहीं रहा और जिसकी प्राप्ति में सर्वस्व की प्राप्ति जैसी जीवन-साधना भी नितान्त निरुद्देश्य थी । वे शरीर से आत्मा और शिव की दिशा में बढ़ने लगे तो उन्होंने समग्र राजसी देवी परसोना को भार समझ कर त्याग दिया और अधिक क्या कहें ? सिर पर केश तक नहीं रखे । परसोना से परे, बाह्य और श्राभ्यन्तर के परिग्रह से रहित भगवान महावीर परम दिगम्बर हुए और लज्जा स्त्री जैसे वाईस परीषहों को जीतने में समर्थ हुये । उनका परसोना दिगम्बरत्व था । आत्मविद सामाजिक संस्कारी दार्शनिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व की व्याख्या करें तो व्यक्तित्व श्रात्मज्ञान का ही दूसरा नाम है । यह पूर्णतया प्रतीक है । विचार के इस बिन्दु से महावीर आत्मविद थे । उन्होंने अदृश्य हुई अनन्त दर्शन, ज्ञान, बल और सुख मूलक शक्तियों की अपने मानवीय जीवन में उपलब्धि की थी । श्रात्म बोध की दिशा में अग्रसर होकर, साधना की सफलता का सूचक केवलज्ञान उन्होंने पाया । उसके महावीर जयन्ती स्मारिका 78 आधार पर ही उन्होंने एक दो नहीं बल्कि तीस बरसों तक ग्रात्मवत्सर्वभूतेषु और ग्रात्मा सो परमात्मा बनने का दिव्य सन्देश सारे संसार को दिया । समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए कहा जा सकेगा कि व्यक्तित्वउन सब तत्वों का संगठन है, जिनके द्वारा व्यक्ति को समाज में कोई स्थान प्राप्त होता है । इसलिए हम व्यक्तित्व को सामाजिक प्रवाह कह सकते हैं । विचार के इस बिन्दु से महावीर पूर्णतया सामाजिक हैं। जब वे संसार में कुण्डग्राम के सुसज्जित राजभवन में थे तब वे राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला की प्राँखों के तारे थे। वे प्रजा के लिये वर्धमान अनेकानेक राजा, अपनी पुत्री का पाणिग्रहण थे । उनके नाना चेटक थे तो मौसा श्रेणिक थे । संस्कार उनके साथ कर कृतकृत्य हो जाना चाहते थे; और जब राजमहल छोड़कर परम ज्योति बने, वन में उच्चकोटि के योगीश्वर बने । बारह वर्षीय विकट साधना के पश्चात् — उन्होंने समवशशरण या धर्म सभा में जो दिव्य देशना दी, उसमें जियो और जीने दो की भावना मुखरित हुई । उनका समग्र सन्देश सांसारिक भले कम हो पर सामाजिक तो है ही, इसमें अणुमात्र को भी सन्देह की गुंजायश नहीं है । महावीर द्वारा संकलित विराट संघ में - जो मुनि प्रार्थिका श्रावक-श्राविका का समुदाय था, उसकी सामाजिक चेतना परम्परा की सीढ़ियों को पार करती हुई प्रतीत से प्राज तक बढ़ रही है । बाहर-भीतर से मुखरित मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्यक्तित्व में वंशानुक्रम और वातावरण दोनों का समान महत्व है । राजकुमार मार्टन की दृष्टि से व्यक्तित्व व्यक्ति के जन्म जात तथा अर्जित स्वभाव, मूलप्रवृत्तियों, भावनाओं तथा इच्छाओं आदि का समुदाय है । विचार के इन बिन्दुओं को दृष्टि में रखते हुए 1-11 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जा सकेगा कि व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानु- उनके मानसिक संगठन में व्यक्तित्व का विकास क्रम के परिवेश की अपेक्षा वातावरण की सामयिक दर्शनीय था। रैक्स रॉक की दृष्टि से समाज द्वारा चेतना का ही अधिक योग-दान रहा। महावीर का सद्गुणों का समावेश महावीर के व्यतित्व में हुआ। जन्म हुआ राजसी सम्भ्रान्त परिवार में, किसी भी प्रकार की कमी नहीं, रही सही कमी देवताओं के डेशियल की दृष्टि से महावीर के व्यक्तित्व में वस्त्र-आभूषण-भोजन ने पूरी की। यों महावीर अति व्यवहारों का वह समायोजित संकलन है जो उनके सुख से पीड़ित थे फलतः वे धर्म के नाम पर यज्ञ अविचलित अनुयायियों को ग्राज भी परिलक्षित हो की हिंसा को रोकने बढ़े; समाज में तिरस्कृत रहा है । जन्मजात वृत्तियों और बाह्य पाचरणों होती नारी को सम्मान दिलाने चले, भोगमूलक का महावीर में एक अभूतपूर्व ताल मेल है। प्रवृत्ति के स्थान पर योगमयी निवृत्ति की प्रतिष्ठा के लिये अग्रसर हुए। विलासी देश और समाज को तप त्याग और परोपकार की दृष्टि लिये विरागी बनाने के लिये महावीर ने क्या नहीं महावीर ब्राह्मण हैं । सत्साहस और सुधैर्य तथा किया ? ईश्वरबादी समाज को स्वयं ईश्वर बनाने । र सुवीरता की मूत्ति होने से क्षत्रिय हैं। प्रात्मनिधि के लिये महावीर ने एक अपूर्व चेतना या देशना दी। से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के कोष होने से दार्शनिक द्वन्द्वों में उलझते हुये बौद्धिक वर्ग को वैश्य हैं । सेवक को भी सख्य बना देने की क्षमता उन्होंने अनेकान्त की वह दीप-शिखा दी कि जिसके लिये, संसार के उद्धार हेतु बीड़ा लिये महावीर विमल प्रकाश में शत्रु मित्र बन सके व विरोध अभूतपूर्व शूद्र भी हैं। हिप्नोकेटस के शब्दों में स्वयं निरोध हुआ। महावीर जो जीवन-काल में महावीर रक्तवर्ण (कनत्स्वर्णभासो-Sanguine) तीर्थकर वने उसकी पृष्ठ-भूमि में उनके पिछले व सदा प्रसन्न व्यक्ति हैं। वार्नर की दृष्टि से उन्हें वर्तमान जीवन के संस्कार और स्वभाव मुखरित 'चतुर' की श्रेणी में रखा जा सकता है । क्रोचमर वृद्धिंगत हुए, यह तो निस्संकोच स्वीकारना के विचार से वे ऐसथेनिक (A thenic) सिद्धान्त होगा। प्रिय व्यक्ति हैं, सिद्धान्त को जीवन में उतारने के पक्षपाती हैं। थार्नद्राइक के मत से महाबीर के व्यक्तित्व की विविधा सूक्ष्म विचारक और स्थूल विचारक (क्रियाशीलता) मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि लिये फ्रायड के पर बल देने वाला कहा जा सकेगा। टरमैन की मतानुसार इदम् (Id) अहं (Ego) से पर नैतिक दृष्टि से महावीर प्रतिभाशाली व्यक्तित्व लिये हैं मन (Super Ego) भी महावीर को कहा जा तो जेम्स की दृष्टि से महावीर का व्यक्तित्व नर्म सकेगा। कारण, महावीर ने नैतिकता लिये इदं प्रकृतिवाला है। केटल की दृष्टि से वेग हीन (शरमीले अन्तर्मुखी) हैं और युग की दृष्टि से भी और अहं की अपने जीवन-काल में काफी पालो महावीर अन्तर्मुखी व्यक्तित्व लिये हैं तब ही तो चना की थी। तीर्थकर की प्रशंसा में चित्रंकिमत्र यदि तेत्रिदशॉग नाभिः जैसी पंक्तियां पठनार्थ मिलती है। युग की दृष्टि से महावीर सामूहिक अज्ञात मन लिये थे। उन्होंने पूर्वजों की विशेषताओं को, स्टीफेन्सन के विचार से महावीर प्रसारक जातीय गुण भाव-प्रतिमाओं को अत्यन्त प्रांजल अन्तशुखी हैं और स्प्रंगर की दृष्टि से महावीर परिष्कृत स्वरूप दिया था। वारेन की दृष्टि से ज्ञानात्मक व्यक्तित्व लिये थे । बुहलर के वर्गीकरण 1-12 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को दृष्टि में रखते हुये महावीर को समाज उदासीन में-प्रतिमाओं और चित्रों में अवलोकनार्थ मिलती कहा जा सकेगा। भावनाओं के आधार पर है। व्यक्तित्व का वर्गीकरण किया जावे तो महावीर को प्राशावादी सर्वदा प्रमुदित प्रफुल्ल व्यक्ति कहा सूर्य सत्य तो यह है कि जैसे महावीर के गुणों जा सकेगा। महावीर के व्यक्तित्व में प्रात्मचेतना, का वर्णन करना जिह्वा द्वारा सहज सरल नहीं है सामाजिकता तात्कालिक वातावरण, ध्येय पर दृष्टि वैसे ही उनके दिव्य भव्य व्यक्तित्व का मापन अपूर्व अनेकता में एकता की भावना विकेन्द्रित हुई लेखनी-प्रसूत शब्दों द्वारा कर सकना सम्भव नहीं है। महावीर शारीरिक मानसिक-यात्मिक तीनों है। लगता है कि अपनी इस असफलता में ही प्रकार के व्यक्तियों के कुबेर थे। महावीर की महावीर व्यक्तित्व मापन की सफलता अन्तर्निहित निर्वसन सौम्य छवि, आज भी उनकी प्रतिकृतियों है। OOD POST ज्योतिर्मय ! तुम्हारी प्रतीक्षा है * रूपवती 'किरण' ___ ज्योतिमय ! तुम्हारी प्रतीक्षा है। अज्ञान की प्रो दिव्यदर्पण ! तनिक अपनी झांकी तो घनी अंधियारी में अपना लोकोत्तर दिव्य पालोक दिखा दो, मैं अपना रूप संवार लू। यह निखिल फैला दो न । ओ महामानव ! तुम एक बार पुनः जग अपनी छवि निहार ले। कदाचित् अपना वही 'जियो और जीने दो' का परम पावन सन्देश प्रतिबिम्ब देख उसे अपनी सुधि हो आये । वह सुना दो। जिससे दिग्दगंत अग-जग गूंज उठे और भटकना छोड़ अपनी राह लौट पड़े । यथार्थतः मानव से लेकर सूक्ष्मतम प्राणियों में भी सुख शांति प्रकाश में खुली आँखों सत्य पर प्रहार असम्भव की लहर धावित हो नवसंदन दे दे। मानवता है। अज्ञानतम में मानव उद्दाम लालसानों की जय जयकार करेगी और मैं चन्द्र के थाल में नक्षत्रों मधुर प्रेयों प्रलोभनों का आवरण डाल मोहक के मोतियों की झालर लगा सूर्य की प्रखर ज्योति आकर्षण हृदय में बसाये अांखें मूद निरन्तर से तुम्हारी आरती उतारूंगी। अविवेक के हथौड़े से सत्य पर प्रहार किये जा रहा महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-13 | Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । वह दुःख और वेदना से थककर चूर चूर हो कर विस्तृत भूभाग में विमुक्ति का पथ संवारते हुये रहा है । पर न अांखें खुलती हैं, न अधंकार हटता सुदृढ़ चरणों से समता के धरातल पर शांति पूर्वक .. है । दिन प्रतिदिन वासनामों का उन्माद बढ़ता ही उतर आयें । जा रहा है । तन के शृगार में मन का शृगार ही हे मानवता के संरक्षक ! तुम्हारी मानवता छूट गया। भयभीत है। अहिंसा, सत्य की यहां खिल्ली उड़ - आज मानव के कारूण्य को चुनौती दी है रही है। अपरिग्रहवाद का उपहास किया जा रहा भयंकर सर्वग्रासी भयंकर हिंसक वृत्ति ने । महा- है। मानव में ऐश्वर्य का उन्माद जो जागा है । नाश के प्रलयंकर बादल विश्व के प्रांगण में सदैव लज्जा निर्लज्जता की मार खाकर अर्धनग्न सी मंडराते रहते हैं। उनकी अांशिक वर्षा ही मनुष्य बिक्षिप्त पड़ी है। मेरे प्रभु ! क्या उसे सहारा को संत्रस्त किये हैं । विज्ञान के संहारक प्रगतिशील दे न उठायोगे? चरणों से धरासंतप्त और प्रकंपित है। क्षमामयी की सहिष्णुता अमर्यादित हो उसमे किनारा कर ___ करुणामय ! मानव की अज्ञानता चरम सीमा रही है। उसकी असहनशीलता के परिचायक आज पार कर गई है । वह शांति पाने के मिस रणचण्डी के विकराल भूकंप, हहराता हुया तूफान, विनाश- का आह्वान करता है । पारस्परिक सौहार्द हेतु लीला करती हुई जड़ जंगम को लीलती बाढ़ हैं। युद्ध सज्जा का प्रदर्शन एवं समानता लाने के लिये क्या करे बेचारी ? उसकी घबराहट प्राणियों की वैभव का संचयन करता है। वह मृतको के लिये मौत बन गई है। प्रायो प्रभु! धरित्री को समता तो संजीवनी की खोज तो कर रहा है, परन्तु जीवित बंधा जायो। मानवता अपलक तुम्हारा पथ जोह रही है। प्राणियों के विध्वंस में प्रतिक्षण संलग्न है । सुधाकर ! मानव मानव के प्राणों का ग्राहक देव ! तुम जियो और जीने दो का शाश्वत बन बैठा है। वह उन्मत्त हो ऐसे अस्वाभाविक सुमधुर जीवन-संगीत सुनाकर क्या एक बार पुनः कार्यों में प्रवृत्त है, जो उसके भाल पर अमिट समां न बांध दोगे ? तुम्हारी ही स्वर-लहरी कलंक की भांति लग चुके हैं । कहां पाऊँ वह समष्टि के त्राण-हरण मे समर्थ । तुम्हारे स्मरण विवेक का सद्वारि ? कौन सा है वह अथाह मात्र ___ मात्र से मेरी हृत्तंत्री के तार तार झनझना उठते सागर ? जहां प्रायश्चित के निर्मलजल से यह कलंक ह । विह्वल हा अस्फुट स्वरा म अधर तुम्हारा धोकर बहाद। मानव का भाल पनः दिव्य दीप्ति जय जयकार का उद्घोष करने लगते हैं। रक्त की से दमक उठे। एक बूद प्रतिपल सौ सौ चक्कर खाती हुई अद्भुत लास्परत हो जाती है । लगता है कब पूजीपति शोसकों के निगड़ में अखिल विश्व तुम्हारे प्रत्यक्ष दर्शन करू । पधारो देव ! मैं चंद्र के शोषित मानव कराह रहे हैं। प्रभु ! उन्हें के थाल में नक्षत्रों के मोतियों की झालर लगा सूर्य तुम्हारे आश्वासन, उद्बोधन की नितांत आवश्य- की प्रखर ज्योति से तुम्हारी प्रारती उतारूगी। कता है । ताकि वे अहिंसात्मक क्रांति का जयघोष ज्योतिर्मय ! तुम्हारी प्रतीक्षा है । 1-14 महाबीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के दार्शनिकों ने इस सृष्टि का कर्ता धर्ता तथा पुरुषों के भाग्य का विधाता ईश्वर है या नहीं आदि प्रश्नों पर पर्याप्त ऊहापोह किया है और कुछ ने उसका अस्तित्व स्वीकारा और कुछ ने नकारा है । चार्वाक, सांख्य, मीमांसक, यौद्ध और जैन ऐसे किसी ईश्वर की सत्ता मानने से इन्कार करते हैं ।. विद्वान लेखक ईश्वरवादी और श्रनीश्वरवादो दोनों प्रकार के दर्शनों द्वारा अपने-अपने पक्ष में दिये गये तर्कों की समीक्षा कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि शरीर इन्द्रिय और जगत के कारण रूप में 'ईश्वर' नामक किसी अन्य सत्ता की कल्पना व्यर्थ है । इस सम्बन्ध में उन्होंने जैन दृष्टिकोण का समर्थन किया है । लेख परिश्रमपूर्वक लिखा हुआ। तत्सम्बन्धी जानकारी से भरपूर है । - पोल्याका ईश्वर : परिकल्पित निरर्थकता; आत्मा का परब्रम्हत्व स्वरूप : संत्रस्त एवं निराश मानव हेतु जीवन - विकास की आनन्दमयी एवं वैज्ञानिक दृष्टि इस विशाल पृथ्वी पर जब कोई लघु मानव दृष्टि विधान, जीवों की उत्पत्ति तथा उनके भाग्य निर्माता ग्रादि विषयों पर विचार करने के लिए उद्यत होता है तथा सृष्टि के विविध जीवों सुख-दुख की विषमताएं पाता है तो जगत के महावीर जयन्ती स्मारिका 78 * डा० महावीरसरन जैन, डी. फिल. डी. लिट्. वि. वि. निवास गृह पचपेटी जबलपुर निर्माता पालक एवं संहारक किसी श्रदृश्य एवं परम शक्ति के रूप में ईश्वर की कल्पना करके, उसी को जीवों की उत्पत्ति एवं उनके भाग्य विधान का भी कारण मानकर सन्तोष कर लेता है । इसी भावना से अभिभूत हो वह इस प्रकार की विचार 1-15 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा अभिव्यक्त करता है कि जीवों का भाग्य परपीडाशील है कि वह ऐसे कर्म कराता है ईश्वर के ही अधीन है, वही विश्व नियंता है, जिससे अधिकांश जीवों को दुख प्राप्त होता है । वही उन्हें उत्पन्न करता है, संरक्षण देता है तथा निश्चय ही कोई भी व्यक्ति ईश्वर की परपीडा उनके भाग्य का निर्धारण करता है। शील स्वरूप की कल्पना नहीं करना चाहेगा। ___ इस स्थिति में जीव में कर्मों को करने की इन विषयों पर गहराई से विचार करने पर स्वातन्त्र्य शक्ति माननी पड़ती है । अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं । यह जिज्ञासा शेष रह जाती है कि कर्मों को क्या ईश्वर ही मनुष्य के भाग्य का निर्माता सम्पादित करने की शक्ति या पुरुषार्थ की स्वीकृति है ? क्या वही उसका भाग्य विधाता है ? यदि कोई मानने के अनन्तर क्या परमात्मा कर्मों के फल का मनुष्य सत्कर्म न करे तो भी क्या वह उसको अनु- विभाजन एक न्यायाधीश के रूप में करता है ग्रह से अच्छा फल दे सकता है ? मनुष्य के जितने अथवा कर्मानुसार फल प्राप्ति होती है। दूसरे कर्म हैं वे सबके सब क्या पूर्व निर्धारित हैं ? उसके शब्दों में फलोद भोग में परमात्मा का अवलम्बन इस जीवन के कर्मों का उसकी भावी नियति से अगीकार करना आवश्यक है अथवा नहीं ? क्या किसी प्रकार कोई सम्बन्ध नहीं है ? ताकिक दृष्टि से यदि विचार करें तो ईश्वर मनुष्य ईश्वराधीन होकर ही क्या सब कर्म को नियामक एवं पाप पुण्य का फल देने वाला करता है या उसकी अपनी स्वतन्त्र कतृत्व शक्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। कारण कार्य भी है जिसके कारण वह अपनी निजी चेतना शक्ति के सिद्धान्त के आधार पर विश्व की समस्त घटके कारण कर्मों के प्रवाह को बदल सकता नामों की ताकिक व्याख्या करना सम्भव है । यदि ऐसा न होता तो प्रकृति के नियमों की कोई भी वैज्ञानिक शोध सम्भव न हो पाती। यदि ईश्वर ही भाग्य निर्माता होता तब तो वह मनुष्य को बिना कर्म के ही स्वेच्छा से फल यह तर्क दिया जा सकता है कि ईश्वर ने ही प्रदान कर देता। यह मानने पर मनुष्य के पुरु- प्रकृति के नियमों की अवधारणा की है। इन्हीं षार्थ, धर्म, आचरण, त्याग एवं तपस्या मूलक के कारण जीव सांसारिक कार्य प्रपंच करता जीवन . व्यवहार की सार्थकता ही समाप्त हो है। जावेगी। __ इसका उत्तर यह है कि यदि ईश्वर के द्वारा यदि जीव ईश्वराधीन ही होकर कर्म करता ही प्रकृति के नियमों की अवधारणा हुई होती तो होता तो इस संसार में दुख एवं पीड़ा का प्रभाव उसमें जागतिक कार्य प्रपंचों में परिवर्तन करने की होता। हम देखते हैं कि इस संसार में मनुष्य भी शक्ति होती। हम देख चुके हैं कि यह सत्य अनेक कष्टों को भोगता है। यदि ईश्वर या पर- नहीं है। इसका कारण यह है कि यदि ऐसा होता मात्मा को ही निर्माता, नियंता एवं भाग्य विधाता तो परमकरुण ईश्वर के द्वारा निर्धारित संसार के माना जावे तो इसके अर्थ होते हैं कि ईश्वर इतना जीवों के जीवन में किंचित भी दुख, अशान्ति एवं 1-16 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्लेश नहीं होता । यदि हम ईश्वर की कल्पना प्रशान्त, परिपूर्ण राग द्व ेष रहित, मोह विहीन वीतरागी प्रानन्द परिपूर्ण रूप में करते हैंतो भी उसे फल में हस्तक्षेप करने वाला नहीं माना जा सकता । उस स्थिति में वह राग द्वेष तथा मोह आदि दुर्बलता से पराभूत हो जावेगा । यदि जीव स्वेच्छानुसार एवं सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में स्वतन्त्र है, उसमें परमात्मा के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं है तथा वह अपने ही कर्मों का परिणाम भोगता है, फल प्रदाता भी दूसरा कोई नहीं है तो क्या उसकी उत्पत्ति एवं विनाश के हेतु रूप में किसी परम शक्ति की कल्पना करना आवश्यक है? इसी प्रकार क्या सृष्टि विधान के लिए भी किसी परम शक्ति की कल्पना आवश्यक है ? यदि नहीं तो फिर परमात्मा या ईश्वर की परिकल्पना की क्या सार्थकता है । कर्तावादी सम्प्रदाय पदार्थ का तथा उसके परिणमन का कर्ता (उत्पत्ति-कर्ता, पालनकर्ता तथा विनाशकर्ता ) ईश्वर को मानते हैं । इस विचारधारा के दार्शनिकों ने ईश्वर की परिकल्पना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परम शक्ति के रूप में की है जो विश्व का कर्ता तथा नियामक है तथा समस्त प्राणियों के भाग्य का विधाता है । इसके विपरीत चार्वाक, निरीश्वर सांख्य, मीमांसक, बौद्ध एवं जैन इत्यादि दार्शनिक परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं । वैशेषिक दर्शन भी मूलतः ईश्वरवादी नहीं है । भारतीय दर्शनों में नास्तिक दर्शन तो ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करते; शेष षड्दर्शनों में महावीर जयन्ती स्मारिका 78 प्राचीनतम दर्शन सांख्य है । इसका परवर्ती दार्शनिकों पर प्रभाव पड़ा है । इस दृष्टि से सांख्य दर्शन के ईश्वरवाद की मीमांसा आवश्यक है । सांख्य दर्शन में दो प्रमेय माने गये हैं - ( 1 ) पुरुष, (2) प्रकृति 1 पुरुष चेतन है, साक्षी है, केवल है, मध्यस्थ है, द्रष्टा है और अकर्ता है। प्रकृति जड़ है, क्रियाशील है और महत् से लेकर धरणि पर्यन्त सम्पूर्ण तत्वों की जन्मदात्री है, त्रिगुणात्मिका है, सृष्टि की उत्पादिका है, श्रज एवं अनादि है तथा शाश्वत एवं अविनाशी है | 2 ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिकाप्रों में ईश्वर, परमात्मा, भगवान या परमेश्वर की कोई कल्पना नहीं की गयी है | कपिल द्वारा प्रणीत सांख्य सूत्रों में, ईश्वरासिद्ध: ( ईश्वर की प्रसिद्धि होने से ) सूत्र उपस्थापित करके ईश्वर के विषय में अनेक तर्कों को प्रस्तुत किया गया है। यहां प्रमुख तर्कों की मीमांसा की जावेगी : (1) कुसुम वच्चमरिणः - सूत्र के आधार पर स्थापना की गयी है कि जिस प्रकार शुद्ध स्फटिकमरिण में लाल फूल का प्रति विम्ब पड़ता है उसी प्रकार प्रसंग, निर्विकार, अकर्ता के सम्पर्क में प्रकृति के साथ-साथ पुरुष रहने से उसमें उस प्रकर्ता पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है । इससे जीवात्माओं के प्रदृष्ट कर्म संस्कार कलोन्मुखी हो जाते हैं तथा सृष्टि प्रवृत्त होती है । यह स्थापना ठीक नहीं है। इसके अनुसार चेतन जीवात्मानों को पहले प्रकृति में लीन रहने की कल्पना करनी पड़ेगी तथा उन्हें प्रकृति से उत्पन्न मानने पर जड़ को चेतन का कारण मानना 1-17 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ेगा। इसके अतिरिक्त यदि प्रष्ट कर्म संस्कार कर्ता नहीं है। प्रकृति ही दर्पणवत् उसके प्रतिफल प्रदान करते हैं तो फिर परमात्मा के सहकार बिम्ब को प्राप्त करके सृष्टि विधान में प्रवृत्त होती की क्या आवश्यकता है ? (2) अकार्यपि तद्योगः पारवश्यात्-4 ___ सृष्टि-विधान में प्रकृति की प्रवृत्ति तर्क संगत सूत्र के अाधार पर स्थापना की गई है कि है किन्तु पुरुषाध्यास की सिद्धि के लिए पुरुष प्रतिप्रकृति कारण रूप है, कार्य नहीं है । अनन्त, विभु बिम्ब की कल्पना व्यर्थ प्रतीत होती है । अलिप्त जीवात्मा पुरषों के अदृष्ट कर्म संस्कार सहित सर्व कर्ता की शक्ति से माया रूप प्रकृति का शक्तिमान संसार प्रकृति में लीन रहता है। चूकि प्रकृति वनकर जगत की सृष्टि करना संगत नहीं है । युद्ध जड़ है अतएव सृष्टि के लिए उसमें पुरुष के योग में राजा सेना सहित स्वयं लड़ता है अथवा युद्ध की आवश्यकता होती है। एवं विजय के लिए समस्त उद्यम करता है । इस स्थिति में राजा को अकर्ता नहीं कहा जा सकता। यह तर्क भी संगत नहीं है । हाइड्रोजन के दो चेतन, सूक्ष्म, निर्विकल्प, निर्विकार, निराकार का एवं आक्सीजन के एक परमाणु के संयोग से जल अचेतन, स्थल, पाशा-विकल्पों से व्याप्त, सविकार बन जाता है। इसमें परमात्म सहकार की अनि एवं साकार प्रकृति जैसी पूर्ण विपरीत प्रकृति का वार्यता दृष्टिगत नहीं होती। संयोग सम्भव नहीं है। जीवात्मा का प्रकृति से यदि सर्व चेतन पुरुषों का सर्वातीत पुरुषोत्तम सम्बन्ध बन्धन के कारण है किन्तु क्या परमात्मा में लीन होकर सृष्टि के समय उत्पन्न होना माना जैसी परिकल्पना को भी बन्धनमस्त माना जा जावे तो बीजाकुर न्याय से सर्वातीत पुरुषोतम सकता है जिससे उसका प्रशान्त एवं जड़ स्वभावी सहित समस्त जीवात्माओं की उत्पत्ति नाश की प्रकृति से सम्बन्ध सिद्ध किया जा सके । दोषापत्ति करती है। निष्काम परमात्मा में सृष्टि की इच्छा क्यों ? (3) एक स्थापना यह है कि परमात्मा सर्व- पूर्ण से अपूर्ण की उत्पत्ति कैसी? अानन्द स्वरूप वित् एवं सर्वकर्ता है और वह प्रकृति से अयस्का- में निरानन्द की सृष्टि कैसी ? जिसकी सभी न्तवत् (चुम्बक सदृश्य) सृष्टि करता है । वह प्रेरक इच्छायें पूर्ण हैं, जो प्राप्त काम है उसमें सृष्टि मात्र है। रचना की इच्छा कैसी ? यदि इस स्थापना को माना जावे तो परमा- इस प्रकार ईश्वरोपपादित स ष्टि की अनुपत्मा को प्रसंग, निगुण, निलिप्त, निरीह कैसे पन्नता सिद्ध होती है। माना जा सकता है ? कर्तावादी दार्शनिकों ने विश्व स्रष्टा की परि(4) जिस प्रकार सेना की जय एवं पराजय कल्पना इस सादृश्य पर की है कि जिस प्रकार का आरोप राजा पर किया जाता है उसी प्रकार कुम्हार घड़ा बनाता है उसी प्रकार ईश्वर संसार प्रकृति के क्रियाकलापों का मिथ्या आरोप पर. का निर्माण करता है। बिना बनाने वाले के घड़ा मात्मा पर किया जाता है। तत्वतः परमात्मा नहीं बन सकता। सम्पूर्ण विश्व का भी इसी 1-18 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार किसी ने निर्माण किया है । प्रश्न उपस्थित होते हैं कि सृष्टि की सत्ता सत्य है या मिथ्या है, नित्य है या अनित्य है ? जड़ है या यह सादृश्य ठीक नहीं है। यदि हम इस तर्क चेतन है ? यदि परमात्मा से सृष्टि विधान माना के प्राधार पर चलते हैं, कि प्रत्येक वस्तु, पदार्थ जाता है तो या तो परमात्मा की चेतन रूप की या द्रव्य का कोई न कोई निर्माता होना जरूरी है परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी आदि को भी चेतन तो फिर प्रश्न उपस्थित होता है कि इस जगत के मानना पड़ेगा अथवा पृथ्वी आदि के अनुरूप परनिर्माता परमात्मा का भी कोई निर्माता होगा मात्मा को जड़ मानना पड़ेगा । सत्य स्वरूप ब्रह्म गौर इस प्रकार यह चक चलता जावेगा। अन्ततः से जगत की उत्पत्ति मानने पर ब्रह्म का कार्य इसका उतर नहीं दिया जा सकता। असत्य कैसे हो सकता है ? यदि जगत की सत्ता सत्य है तो उसका अभाव कैसा ? जगत को स्वप्न कुम्हार भी घड़े को स्वयं नहीं बनाता । वह एवं माया रचित गन्धर्व नगर के समान पूर्णतया मिट्टी आदि पदार्थों को सम्मिलित कर उन्हें एक मिथ्या एवं असत्य मानना क्या संगत है ? विशेष रूप प्रदान कर देता है। . क्या जगत को माया के विवर्त रूप में स्वीकार यदि ब्रह्म से सृष्टि विधान इस प्राधार पर कर रज्जु में सर्प अथवा शक्ति में रजत की भांति माना जाता है कि ब्रह्म अपने में से जगत को कल्पित माना जा सकता है ? कल्पना गुण है । प्राकार बनकर आप ही क्रीड़ा करता है तब पृथ्वी गुण तथा द्रव्य की पृथकता नहीं हो सकती। आदि जड़ के अनुरूप ब्रह्म को भी जड़ मानना स्वप्न बिना देखे या सुने नहीं आता । सत्य पदार्थों पड़ेगा अथवा ब्रह्म को चेतन मानने पर पृथ्वी आदि के साक्षात् सम्बन्ध से वासनारूप ज्ञान प्रात्मा में को चेतन मानना पड़ेगा। स्थित होता है। यदि ब्रह्मा ने सष्टि विधान किया है तो स्वप्न में उन्हीं का प्रत्यक्षरण होता है। स्वप्न इसका अर्थ यह है कि सृष्टि विधान के पूर्व केवल और सुषुप्ति में बाह्य पदार्थों का प्रज्ञान मात्र होता ब्रह्मा का अस्तित्व मानना पड़ेगा। इसी आधार है अभाव नहीं। पर शून्यवादी कहते हैं कि सृष्टि के पूर्व शून्य ____ इस कारण जगत को अनित्य भी नहीं माना था, अन्त में शून्य होगा, वर्तमान पदार्थ का जा सकता । जब कल्पना का कर्ता नित्य है तो अभाव होकर शून्य हो जावेगा तथा शांक रवेदांती उसकी कल्पना भी नित्य होनी चाहिए अन्यथा वह ब्रह्म को विश्व के जन्म, स्थिति और संहार का भी अनित्य हुआ। कारण मानते हुए भी' जगत को स्वप्न एवं माया रचित नगर के समान पूर्णतया मिथ्या एवं असत्य जैसे सुषुप्ति में बाह्य पदार्थों के ज्ञान के मानते हैं । क्या सृष्टि विधान का कारण परमा- अभाव में भी बाह्य पदार्थ विद्यमान रहते हैं वैसे स्मा ही है ? क्या सृष्टि की प्रादि में जगत न था, ही प्रलय में ही जगत के बाह्य रूप के ज्ञान के केवल ब्रह्म था तथा इसका अस्तित्व क्या शून्य हो अभाव में भी द्रव्य वर्तमान रहते हैं। कोयला को जावेगा ? आदि के सम्बन्ध में विचार करते समय जितना चाहें जलावें, वह राख बन जाता है, उस महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-19 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का बाह्य रूप नष्ट हो जाता है किन्तु 'कोयला' कार कर जीवों को परमात्मा के अश रूप में स्वीमें जो द्रव्य तत्व है वह सर्वथा नष्ट कभी नहीं हो कार किया जा सकता है ? सकता। प्रात्मवादी दार्शनिक आत्मा को अविनाशी विश्व जिन जीवों (चेतनाओं) एवं पूदगल मानते हैं । श्री मद् भगवत् गीता में भी इसी पिटा का ममच्चय के तत्वत: अविनाशी प्रकार की विचारणा का प्रतिपादन हुआ है। यह प्रांतरिक हैं । इस कारण जगत को मिथ्या स्वप्न व जीवात्मा न कभी उत्पन्न होता है, न कभी मरता वत् एवं शून्य नहीं माना जा सकता। किसी भी है, न कभी उत्पन्न होकर प्रभाव को प्राप्त होता नवीन पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती। किसी भी है, अपितु यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है और शरीर का नाश होने पर भी नष्ट प्रयोग से नये जीव अथवा नए परमाणु की उत्पति। नहीं होता । इस जीवात्मा को अविनाशी नित्य नहीं हो सकती । पदार्थ में अपनी अवस्थानों का अज और अव्यय अर्थात् विचार रहित समझना रूपान्तर होता है । इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड के चाहिए । जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके प्रत्येक मूल तत्व की अपनी मूल प्रकृति है। कार्य नवीन वस्त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही यह कारण के नियम के आधार पर प्रत्येक मूल तत्व जीवात्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नवीन शरीरों अपने गुणानुसार बाह्य स्थितियों में प्रतिक्रियाए को ग्रहण करता रहता है। इसे न तो शस्त्र काट करता है। इस कारण जगत मिथ्या नहीं है। सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो संसार के पदार्थ अविनाशी हैं इस कारण विश्व को सकता है और न वायु सुखा सकती है । यह अच्छेस्वप्नवत् नहीं माना जा सकता। ब्रह्माण्ड के द्य, अदाह्य एवं अशोष्य होने के कारण नित्य, उपादान या तत्व अनादि, आन्तरिक एवं अविनाशी सर्वगत, स्थिर, अचल एवं सनातन है। इस दृष्टि होने के कारण अनिमित हैं । शून्य से किसी वस्तु से किसी को प्रात्मा का कर्ता स्वीकार नहीं कर का निर्माण नहीं होता । शून्य स जगत मानन पर सकते । यदि प्रात्मा अविनाशी है तो उसके निर्माण जगत का अस्तित्व स्थापित नहीं किया जा सकता। या उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। इसका जो वस्तु है उसका प्रभाव कभी नहीं होता । इस कारण यह है कि यह सम्भव नहीं कि कोई वस्तु प्रकार जगत सत्य है तथा उसका शून्य से सद्भाव निर्मित हो किन्तु उसका विनाश न हो। इस सम्भव नहीं है। इस प्रकार ईश्वर को अनादि कारण जीव ही कर्ता तथा भोता है क.मनिसार अनन्त मानना तर्क संगत है। अनेक रूप धारण करता रहता है ।10। विज्ञान का भी यह सिद्धांत है कि पदार्थ जैन दर्शन की भांति चार्वाक, निरीश्वर सांख्य, अविनाशी है । वह ऐसे तत्वों का समाहार है मीमांसक एवं बौद्ध इत्यादि भी ईश्वर के अस्तित्व जिनका एक निश्चित सीमा के आगे विश्लेषण में विश्वास नहीं करते । न्याय एव वैशेषिक दर्शन नहीं किया जा सकता। मूलत : ईश्वरवादी प्रतीत नहीं होते। वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का कहीं उल्लेख नहीं है । न्याय प्रब प्रश्न शेष रह जाता है कि क्या परमात्मा सूत्रों में कथंचित है । इन दर्शनों में परमाणु को ही या ईश्वर को समस्त जीवों के अशी रूप से स्वी. सबसे सूक्ष्म और नित्य प्राकृतिक मूल तत्व माना 1-20 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है 111 सृष्टि की उत्पत्ति 'परमाणुवाद स्वरूप में अवस्थान को ही परम लक्ष्य, योग यां सिद्धांत' के आधार पर मानी गयी है। दो परमा- कैवल्य माना है । णुत्रों के योग से व्यणुक, तीन व्यणुकों के योग से त्यणुक, चार त्या कों से चतुरणुक और चतुर- जैन दर्शन भी पुरुष विशेषः ईश्वरः में विश्वास णुकों के योग से अन्य स्थूल पदार्थों की सृष्टि मानी नहीं करता । प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा बनने गयी है । 2 जीवात्मा को अगु, चेतन, विभु तथा की शक्ति का उद्घोष करता है । द्रव्य की दृष्टि से नित्य आदि कहा गया है ।13 इस प्रकार वैशेषिक आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है। दर्शन में परमाणु को मूल तत्व मानने के कारण दोनों का अन्तर अवस्थागत अर्थात् पर्यायगत है। ईश्वर या परमात्म शक्ति को स्वीकार नहीं किया जीवात्मा शरीर एवं कर्मों की उपाधि से युक्त हो गया। कर 'संसारी' हो जाता है । 'मुक्त' जीव त्रिकाल शुद्ध नित्य निरंजन 'परमात्मा' है। 'जिस प्रकार न्याय में सूत्रकाल में ईश्वरवाद अत्यन्त क्षीण यह प्रात्मा राग द्वेष द्वारा कर्मों का उपार्जन करती प्रायः था । भाष्यकारों ने ही ईश्वर वाद की स्था है और समय पर उन कर्मों का विपाक फल भोगती पना पर विशेष बल दिया । आत्मा को ही दो है, उसी प्रकार यह आत्मा सर्वकर्मों का नाश कर भागों में विभाजित कर दिया गया-जीवात्मा एवं सिद्ध लोक में सिद्ध पद को प्राप्त करती है।15 परमात्मा । 'ज्ञानाधिकरणमात्मा । स द्विविधः जीवात्मा 'प्रात्मा देव देवालय में नहीं है, पाषाण की परमात्मा चेति । तत्र श्वरः सर्वज्ञः परमात्मा एक प्रतिमा में भी नहीं है, लेप तथा मूर्ति में भी नहीं एव सुख दु.खादि रहितः जीवात्मा प्रति शरीरं है। वह देव अक्षय अविनाशी है, कर्म फल से भिन्नो विभुनित्यश्च ।।' रहित है, ज्ञान से पूर्ण है, समभाव में स्थित है।'16 इस दृष्टि से प्रात्मा ही केन्द्र बिन्दु है जिस पर आगे चल कर परमात्मा का भव्य प्रासाद 'जैसा कर्मरहित, केवलज्ञानादि से युक्त प्रकट निर्मित किया गया। कार्य समयसार सिद्ध परमात्मा परम प्राराध्य देव प्रात्मा को ही ब्रह्म रूप में स्वीकार करने की मुक्ति में रहता है वैसा ही सब लक्षणों से युक्त विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद् युग में भी थी। शक्ति रूप कारण परमात्मा इस देह में रहता है." 'प्रज्ञाने ब्रह्म', 'अहं ब्रह्मास्मि', 'तत्वमसि', 'प्रय- तू सिद्ध भगवान् और अपने में भेद मत कर 117 मात्मा ब्रह्म' जैसे सूत्र वाक्य इसके प्रमाण हैं। 'हे पुरुष ! तू अपने आप का निग्रह कर, स्वयं ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञान स्वरूप है । यही लक्षण आत्मा । के निग्रह से ही तू समस्त दुःखों से मुक्त हो जायेगा।'18 का है । 'मैं ब्रह्म हूं', 'तू ब्रह्म ही है', 'मेरी प्रात्मा ही ब्रह्म है' आदि वाक्यों में मात्मा एवं ब्रह्म .. _ 'हे जीव ! देह का जरा-मरण देखकर भय पर्याय रूप में प्रयुक्त हैं। मत कर । जो अजर अमर परम ब्रह्म है उसे ही पतंजलि ने ईश्वर पर बल न देते हुए मात्म अपना मान 119 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-21 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव का लक्ष्य जाता है ।'22 पर ब्रह्मत्व अर्थात् शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करना है, ___'उस परमात्मा को जब केवल ज्ञान उत्पन्न होता है, योग निरोध के द्वारा समस्त कर्म नष्ट 'जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ हो जाते हैं, जब वह लोक शिखर पर सिद्धालय वही परमात्मा है । इस प्रकार मैं ही स्वयं अपना में जा बसता है तब उसमें ही वह कारण परमात्मा उपास्य हं। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है । 20 व्यक्त हो जाता है । 23 'जो व्यवहार दृष्टि से देह रूपी देवालय में निवास करता है और परमार्थतः देह से भिन्न है जैन दर्शन की सृष्टि व्यवस्था के सम्बन्ध में वह मेरा उपास्यदेव अनादि अनन्त है। वह केवल ईश्वर की कतृत्व शक्ति का निषेध तथा सर्व व्याज्ञान स्वभावी है । निःसंदेह वही प्रचलित स्वरूप पक एक परमात्मा के स्थान पर प्रत्येक जीवन का कारण परमात्मा है । मुक्त हो जाने पर कार्य-परमात्मा बन जाने संबंधी विचारधारा का प्रभाव परवर्ती दार्शनिक सम्प्रदायों 'कारण परमात्मा स्वरूप इस परम तत्व की पर पड़ा है । वस्तुत: स्वभाव एवं कर्म इन दो उपासना करने से यह कर्मोपाधि युक्त जीवात्मा शक्तियों के अतिरिक्त शरीर, इन्द्रिय एवं जगत के ही परमात्मा हो जाता है जिस प्रकार बांस का वृक्ष कारण रूप में 'ईश्वर' नामक किसी अन्य सत्ता अपने को अपने से रगड़कर स्वयं अग्नि रूप हो की कल्पना व्यर्थ है ।'24 1. 2 7. सांख्य तत्व कौमुदी, कारिका 18, 191 2. वही-कारिका 11, 12, 14 । सांख्य सूत्र 351 प्रकाश 2 1 4 . सांख्य सूत्र 55 । प्रकाश 3 । सांख्य सूत्र 56-57 । प्रकाश 31 6. दे. सांख्य सूत्र 58 । प्रकाश 3। तैत्तिरीयोपनिषद 3 1 ]; 3 1 6 और ब्रह्मसूत्र 11112 पर शांकर भाष्य' ।। ब्रह्म सूत्र 211114; 212129; विवेक चूडामणि 140; 142; वेदांत सार, पृ. 8। गीता 2120-24 एवं 2151 पर शांकर भाष्य । (क) ब्रह्मसूत्र 213133-39। (ख) श्वेताश्वतरोपनिषद् 416 । (ग) ईशोपनिषद् 3 । तर्क भाषा, पृ. 108 । 12. वही-पृ. 181 । वही-पृ.152-1531 14. तर्क संग्रह, खण्ड 1। 10. 11. 13. 1-22 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. जहा रागरण कडाणं कम्मारणं, पावगो फलविवागो जह य परिहीणकम्मा, तिद्धा सिद्धालयमुवैति ।। -प्रौपपातिक सूत्र-351 16. 18. देउ ण देवले गवि सिलए णवि लिप्पई रणवि चित्ति अखउ गिरंजणु णाणमउ सिउ संठिय समचित्ति ।। -परमात्म प्रकाश-123। नेहउ हिम्मलु णामउ सिद्धिहि रिणवस इ देउ । तेहउ णिवसइ वंभु परु देह ह मं करि पेउ । --परमात्म प्रकाश-261 परिसा ! अत्तारणमेव अभिनिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि । -प्राचारांग 3131119। देह हो पिक्खि वि जरमरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामरु बंभु परुसो पापाण मुरोहि ॥ -पाहउ दोहा 1133 (मुनि रामसिंह) य: परमात्मा स एवाऽहं योऽहं स परमस्ततः अहमेव मयोपास्यो, नान्यः काश्चिदिति स्थितिः ।। -समाधि शतक, 31 (पूज्यपाद) देह देवलि जो वसइ दे उ अरणाइ अरगंतु। केवलणाणफुरंततणु, सो परमम्पु णिमतु ॥ 0. -परमात्म प्रकाश 113 'उपास्यमानमेवात्मा जायते परमोऽथवा । मथित्वात्मानमात्मौव जायतेग्निर्यथा तरुः' -समाधिशतक (पूज्यपाद) 23. ज्ञानं केवलसंज्ञं योग निरोधः समग्रक हतिः । सिद्धिनिवासश्च यदा, परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ।। -अध्यात्म सार 20124 (उपाध्याय यशोविजय) 24. तदनुकरण भुवनादी निमित्त कारणत्वादीश्वरस्य न चैतदसिद्ध्यः -प्राप्त परीक्षा 1151 । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-23 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति की वृत्ति * प्रो० प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति' एम० ए० (स्वर्णपदक प्राप्त), रिसर्चस्कालर हिन्दी-विभाग-श्री वाष्र्णेय महाविद्यालय अलीगढ़ । छठी शती की बात है । एक व्यक्ति धनोपार्जन हेतु दूसरे प्रान्तर गया । दीर्घकाल तक वह घर नहीं लौटा । पत्रों की शृखला बंध गयी । व्यक्ति उनकी उपेक्षा करता गया। छः मास के उपरान्त उसका लौटना हुमा । मार्ग में विश्राम हेतु एक धर्मशाला में उसने टिकने का निश्चय किया। रात्रि का दीपक जला । यात्रा की थकान मिटाने के लिए व्यक्ति शैय्या पर लेट गया । वह शैय्या पर लेट कर सुख का आनन्द ले ही रहा था कि समीर अवस्थित कमरे से करुण ऋदन सुनाई पड़ा। इधर निशा यौवन को प्राप्त हो रही थी उधर क्रन्दन प्रारोहण को अग्रसर था । व्यक्ति के सुखानन्द में व्यवधान प्रा पड़ा । उसके वस्तुस्थिति को जानने के लिए परिचारक को भेजा। परिचारक ने स्थिति का उद्घाटन किया-'बाब जी! निकट के कमरे में एक लड़का ठहरा हुमा है । उसके उदरशूल हो रहा है । इसलिए वह चिल्ला रहा है।' व्यक्ति ने मौन तोड़ा-अबे ! जा, उसे समझा, वह रोये नहीं । मुझे नींद नहीं आ रही । कह दे।' परिचारक कह पाया पर रोना रुका नहीं अपितु स्वर ने तीव्रता और पकड़ ली। व्यक्ति फुफकार उठा । उसने परिचारक को आदेश दिया- 'उसे धर्मशाला से निकाल दो।' अरण्य न्याय कब नहीं चलता ? परिचारक गए और लड़के तथा उसके सेवक के बिस्तर बाहर फेंक दिए। रात ढल रही थी । घर के भीतर भी लोग ठिठुर रहे थे । व्यक्ति प्राराम से सो गया । वह प्रातःकाल उठा। _ 'ये कहने से नहीं मानते, कुछ प्रा बीतती है तब मानते हैं'–कहते कहते व्यक्ति ने सुख की सांस ली। उसका अभिमान सीमा का अतिक्रमण कर गया । वह बोला-'पहले शान्त रहता तो क्यों जाना पड़ता ?' परिचारक बोला-'बाबूजी ! शान्त तो वह मर कर ही हुआ है ।' क्या, मर गया ? जी, मर गया ! कौन था वह ? आप ही जानें ! व्यक्ति उठकर बाहर आया। गांव और पिता नाम को जानकर व्यक्ति के प्राण भीतर के भीतर और बाहर के बाहर रह गए । अब वह अपने पुत्र के लिए प्रांसू ही बहा सकता था। ___सामाजिक जीवन में व्यक्तिवादी मनोवृत्ति के कारण मनुष्य कितना क्रूर हो जाता है। निस्संदेह सच्चा और अच्छा जीवन 'जीरो और जीने दो' में व्यज्जित है। पीलीकोठी, आगरारोड़, अलीगढ । 1-24 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _____ संसार में मुख्य रूप से दो प्रकार के दर्शन हैं--1. आत्मवादी, और | 2. अनात्मवादी । जैन, सांख्य, योग, मीमांसा आदि दर्शन प्रथम श्रेणी में आते हैं और बौद्ध दर्शन द्वितीय श्रेणी में। फिर भी दोनों ही प्रकार के दर्शन इस बात में एक मत हैं कि अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे कर्म का फल बुरा मिलता है। दोनों ही प्रकार के दर्शनों ने तीन प्रकार के कर्म माने हैं। इनके नामों में भिन्नता होने पर भी इनके स्वरूप में प्रायः भिन्नता नहीं है । पाश्चात्य दर्शन भी कर्मों का विभाजन इसी प्रकार करता है। जैन, बौद्ध और गीता दर्शनों में माने गए इन तीनों ही प्रकार के कर्मों का विशद तुलनात्मक अध्ययन विद्वान् लेखक ने परिश्रमपूर्वक अपने इस निबन्ध में प्रस्तुत किया है जो इस विषय के अध्येताओं के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा। -पोल्याका जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का अशुभत्व, शुभत्व और शुद्धत्व • डा० सागरमल जैन, अध्यक्ष दर्शन विभाग हमीदिया महाविद्यालय भोपाल (म.प्र.) तीन प्रकार के कर्म :-- नैतिक कहा जा सकता है । लेकिन नैतिकता के क्षेत्र में आने वाले सभी कर्म भी एक समान नहीं होते यद्यपि जैन दृष्टि से 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' की हैं, उनमें से कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं। उक्ति ठीक है, लेकिन जैनाचार दर्शन में सभी कर्म जैन परिभाषा में इन्हें क्रमशः पुण्य कर्म और पाप अथवा क्रियायें समान रूप से बन्धनकारक नहीं हैं। कर्म कहा जाता है । इस प्रकार जैन विचारणा के उसमें दो प्रकार के कर्म माने गये हैं, एक को कर्म अनुसार कर्म तीन प्रकार होते हैं। ईयापथिक कर्म कहा गया है दूसरे को अकर्म; समस्त साम्परायिक (कर्म) 2 पुण्य कर्म और 3 पाप कर्म । बौद्ध क्रियायें कर्म की श्रेणी में और ईर्यापथिक क्रियाएं विचारणा में भी तीन प्रकार के कर्म माने गये हैं अकर्म की श्रेणी में आती हैं। यदि नैतिक दर्शन 1 अव्यक्त या अकृष्ण अशुक्ल कर्म 2 कुशल या की दृष्टि से विचार करें, तो प्रथम प्रकार के कर्म शुक्ल कर्म और 3 अकुशल या कृष्णकर्म। गीता ही नैतिकता के क्षेत्र में पाते हैं और दूसरे प्रकार भी तीन प्रकार के कर्म बताती है-1 अकर्म 2 कर्म के कर्म नैतिकता के क्षेत्र से परे हैं। उन्हें अति- (कुशल कर्म) और 3 विकर्म (अकुशल कर्म) । जैन महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-25 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचारणा का ईपिथिक कर्म बौद्ध दर्शन का अनंतिक । जैन विचारणा का ईपिथिक कर्म अतिनै. अव्यक्त या अकृष्ण अशुक्ल कर्म तथा गीता का तिक कर्म है, पुण्य कर्म नैतिक कर्म है, और पाप कर्म अकर्म है। इसी प्रकार जैन विचारणा का पुण्य अनैतिक कर्म है । गीता का अकर्म अतिनैतिक, शुभ कर्म बौद्ध दर्शन का कुशल (शुक्ल) कर्म तथा गीता कर्म या कर्म नैतिक और विकर्म अनैतिक है। बौद्ध का सकाम सात्विक कर्म या कुशलकर्म और जैन विचारणा में अतिनैतिक, नैतिक और अतिनैतिक कर्म विचारणा का पाप कर्म बौद्ध दर्शन का अकुशल का क्रमशः अकुशल, कुशल और अव्यक्त कर्म अथवा (कृष्ण) कर्म तथा गीता का विकर्म है। कृष्ण, शुक्ल और अकृष्ण अशुक्ल कर्म कहा गया । पाश्चात्य नैतिक दर्शन की दृष्टि से भी कम है। इन्हें निम्न तुलनात्मक तालिका से स्पष्ट किया तीन प्रकार के होते हैं 1-अतिनैतिक, 2 नैतिक, 3 जा सकता है : - - कर्म पाश्चात्य प्राचार दर्शन । - - 1. शुद्ध 2. शुभ अतिनैतिक कर्म नैतिक कर्म जैन , बौद्ध गीता ईर्यापथिक कर्म अव्यक्त कर्म अकर्म पुण्य कर्म कुशल (शुक्ल) कर्म (कुशल कर्म) कर्म पाप कर्म ___ अकुशल (कृष्ण) विकर्म 3. अशुभ अनैतिक कर्म कर्म प्राध्यात्मिक या नैतिक पूर्णता के लिए हमें क्रमशः या दूसरे का अहित करने की दृष्टि से किए जाते अशुभ कर्मों से शुभ कर्मों की ओर और शुभ कर्मो हैं, पाप कर्म हैं । मात्र इतना ही नहीं सभी प्रकार से शुद्ध कर्मों की ओर बढ़ना होगा । अागे हम इसी के दुर्विचार और दुर्भावनाएँ भी पाप कर्म हैं । क्रम से उन पर थोड़ी अधिक गहराई से विवे न ___ पाप या अकुशल कर्मों का वर्गीकरण जैन करेंगे। दार्शनिकों के अनुसार पाप कर्म 18 प्रकार के हैं : अशुभ या पाप कर्म : जैन प्राचार्यो - नेपाप 1. प्रारणातिपात-हिंसा, 2. मृषावाद-प्रसत्य भाषण, की यह परिभाषा दी है कि वैयक्तिक संदर्भ में जो 3. अदत्तादान-चौर्य कर्म, 4. मैथुन-काम विकार प्रात्मा को बंधन में डाले, जिसके कारण प्रात्मा या लैंगिक प्रवृत्ति, 5. परिग्रह-ममत्व, मूर्छा, तृष्णा का पतन हो, जो प्रात्मा के प्रानन्द का शोषण करे या संचय वृत्ति, 6. क्रोध-गुस्सा, 7. मान-अहंकार, त्म शक्तियों का क्षय करे. वह पाप है। 8. माया, कपट, छल, षडयंत्र और कटनीति, 9 सामाजिक संदर्भ में जो पर पीड़ा या दूसरों के दुःख लोभ-संचय या संग्रह की वृत्ति, 10. राग-प्रासक्ति, का कारण है, वह पाप है (पापाय परपीड़न) 11. द्वष-घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या । 12. क्लेशवस्तुतः जिस विचार एवं प्राचार से अपना और संघर्ष, कलह, लड़ाई, झगड़ा आदि, 13. अभ्यापर का अहित हो और जिसका फल अनिष्ट की ख्यान-दोषारोपण, 14. पिशुनता-चुगली, 15. प्राप्ति हो, वह पाप है। नैतिक जीवन की दृष्टि से परपरिवाद-परनिंदा, 16. रति अरति-हर्ष और वे सभी कर्म जो स्वार्थ, घृणा या अज्ञान के कारण शोक, 17. माया मृषा-कपट सहित असत्यभाषण, 1-26 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. मिथ्यादर्शनणल्य-अयथार्थ धद्धा या जीवन निम्न दस प्रकार के पापाचरण का वर्णन किया दष्टि । बौद्ध दृष्टिकोरण : बौद्ध दर्शन में कायिक, वाचिक और मानसिक आधार पर निम्न 10 प्रकार के पापों या प्रकुशल कर्मों का बर्णन मिलता (अ) कायिक : 1. हिंसा, 2. चोरी, 3. व्य भिचार (ब) वाचिक : 4. मिथ्या (ग्रसत्य), 5. ताना मारना, 6. कटुवचन, 7. असंगत बोलना (अ) कायिक पाप : 1. प्राणातिपात-हिंसा, 2. अदत्तादान-चोरी या स्तेय, 3. कामेमु-मिच्छाचार-कामभोग सम्बन्धी दुराचार । (म) मानसिक : 8. परद्रव्य अभिलाषा, 9. अहित चिन्तन, 10. व्यर्थ आग्रह (ब) कायिक पाप : 4. मृपावाद-असत्य भाषरण, 5. पिसुनावाचा-पिशुन वचन, 6. परूसावाचा-बठोर वचन, 7. सम्फलाप-व्यर्थ पालाप । (स) मानसिक पाप : 8. अमिज्जा-लोभ, 9 व्यापाद-मानसिक हिंसा या अहित चिंतन, 10. मिच्छादिट्ठी-मिथ्या दृष्टिकोण । अभिधम्म संगहे" में निम्न 14 अकशल चैतसिक बताए गए हैं : पाप के कारण : जैन विचारकों के अनुसार पापकर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं--1. राग या स्वार्थ, 2. द्वेष या घृणा और 3. मोह या अज्ञान। प्राणी राग, द्वेष और मोह से ही पाप कर्म करता है । बुद्ध के अनुसार भी पाप कर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं-1. लोभ (राग), 2. द्वेष और 3. मोह । गीता के अनुसार काम (राग) और क्रोध ही पाप के कारण हैं । 1. मोह-चित्त का अन्धापन, मूढ़ता, 2. अहिरिक पुण्य (कुशल कर्म) : पुण्य वह है जिसके निर्लज्जता, 3 अनौतपयं-अभीरुतापाप कर्म में भय न कारण सामाजिक एव ___ कारण सामाजिक एवं भौतिक स्तर पर समत्व की मानना, 4. उद्धच्च-उद्धतपन, चञ्चलता, 5. लोभो- स्थापना होती है । मन, शरीर और बाह्य परिवेश तृपणा, 6. दिट्ठि-मिथ्या दृष्टि 7. मानो-अहंकार, के मध्य सन्तुलन बनाना यह पुण्य का कार्य है। 8. दोसो-ष, 9. इम्सा-ईर्ष्या (दूसरे की सम्पत्ति पुण्य क्या है इसकी व्याख्या में तत्वार्थ सूत्रकार को न सह सकना) 10. मच्छरिय-मात्सर्य (अपनी कहते हैं-शुभाश्रव पुण्य है। लेकिन पुण्य मात्र सम्पत्ति को छिपाने की प्रवृत्ति), 11. कुक्कुच्च- प्राश्रव नहीं है, वरन् वह बन्ध और विपाक भी है कौकृत्य (कृत-प्रकृत के बारे में पश्चाताप), 12. दूसरे वह मात्र बन्धन या हेय ही नहीं है वरन् थीनं, 13. मिद्ध', 14. विचिकिच्छा-विचिकित्सा उपादेय भी है। अतः अनेक प्राचार्यों ने उसकी (संशयालुपन)। व्याख्या दूसरे प्रकार से की है। प्राचार्य हेमचन्द्र पुण्य अशुभ कर्मों का लाघव है और शुभ कर्मों गीता का दृष्टिकोण : गीता भी जैन और बौद्ध का उदय है। इस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र की दर्शन में स्वीकृत इन पापाचरणों या विकर्मों का दृष्टि में पुण्य अशुभ (पाप) कर्मों की अल्पता और उल्लेख आसुरी सम्पदा के रूप में किया गया है। शुभ कर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त गीता रहस्य में तिलक ने मनु स्मृति के आधार पर अवस्था का द्योतक है । पुण्य के निर्वाण की उपमहावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-27 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धि में सहायक स्वरूप की व्याख्या प्राचार्य 1. अन्न पुण्य : भोजनादि देकर क्षुधात की क्षुधा प्रभयदेव की स्थापना सूत्र की टीका में मिलती है। निवृत्ति करना। प्राचार्य अभयदेव कहते हैं-पुण्य वह है जो प्रात्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले 2. पान पुण्य : तृषा (प्यास) से पीडित व्यक्ति जाता है। प्राचार्य की दृष्टि में पुण्य प्राध्यात्मिक को पानी मिलना। साधनों में सहायक तत्व हैं । मुनि सुशीलकुमार 3. लयन पुण्य : निवास के लिये स्थान देना जैसे जैनधर्म नामक पुस्तक में लिखते हैं-पुण्य मोक्षार्थियों धर्मशालाएँ आदि बनवाना । की नौका के लिये अनुकूल वायु है जो नौका को भवसागर से शीघ्र पार करा देती हैं। जैन कवि 4. शयन पुण्य : शय्या, बिछौना आदि देना । बनारसीदासजी कहते हैं जिससे भावों की विशुद्धि हो, जिससे आत्मा ऊर्ध्व मुखी होता है अर्थात् 5. वस्त्र पुण्य : वस्त्र का दान देना । प्राध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है और जिससे 6. मन पुण्य : मन से शभ विचार करना। इस संसार में भौतिक-समृद्धि और सुख मिलता है जगत के मंगल की शुभ कामना वही पुण्य है। करना। जैन तत्व ज्ञान के अनुसार पुण्य कर्म 7. वचन पण्य : प्रशस्त एवं संतोष देने वाली वे शुभ पुद्गल परमाणु हैं जो शुभवृत्तियों वाणी का प्रयोग करना। एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर प्राकर्षित हो बन्ध करते हैं और अपने विपाक के 8. काय पुण्य : रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों अवसर पर शुभ अध्यवसायों, शुभ विचारों एवं की सेवा करना। क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक मानसिक एवं भौतिक अनुकूलतानों के संयोग प्रस्तुत 9. नमस्कार पुण्यः गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिये उनका अभिवादन कर देते हैं। प्रात्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ करना। भी जो शुभ पुद्गल परमाणु को अाकर्षित करती हैं, पुण्य कहलाती हैं। साथ ही दूसरी ओर बौद्ध प्राचार दर्शन में भी पुण्य के इस दानावे पद्गल परमाणु जो इन शुभ वृत्तियों एवं त्मक स्वरूप की चर्चा मिलती है । संयुक्त निकाय क्रियाओं को प्रेरित करते हैं और अपने प्रभाव से में कहा गया है-अन्न, पान, वस्त्र, शैय्या, प्रासन एवं प्रारोग्य सम्पत्ति एवं सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम चादर के दानी पुरुष में पुण्यकी धाराएँ प्रा गिरती के अवसर उपस्थित करते हैं पुण्य कहे जाते हैं। है। अभिधम्मत्थसंगहों में 1. श्रद्धा, 2. अप्रमत्तता शुभ मनोवृत्तियां भाव पुण्य हैं और शुभ पुद्गल (स्मृति), 3. पाप कर्म के प्रति लज्जा, 4. पाप परमाणु द्रव्य पुण्य हैं। कर्म के प्रति भय, 5. अलोभ (त्याग), 6. अद्वेषपुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण-भगवती मैत्री, 7. समभाव, 8-9. मन और शरीर की सूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रसन्नता, 10-11. मन और शरीर का हलकापन, प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण माना है। 11-12. मन और शरीर की मृदुता, 13-14. मन स्थानांग सूत्र में नव प्रकार के पुण्य बताए गए और शरीर की सरलता प्रादि को भी कुशल चैतसिक कहा गया है ।13 1-28 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बौद्ध विचारणा में पुण्य के स्वरूप डाक्टर तो पाप कर्म के बन्ध का ही भोगी होगा। को लेकर विशेष अन्तर यह है कि जन विचारणा इसके विपरीत वही डाक्टर करुणा से प्रेरित में संवर निर्जरा और पुण्य में अन्तर किया गया है। होकर वरण चीरता है और कदाचित् उससे रोगी जब कि बौद्ध विचारणा में ऐसा स्पष्ट अन्तर नहीं की मृत्यु हो जाती है तो भी डाक्टर अपनी शुभ हैं। जैनाचार दर्शन में सम्यक् दर्शन, (श्रद्धा) भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है । सम्यक् ज्ञान, (प्रज्ञा) और सम्यक् चारित्र (शील) प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी भी यही कहते हैं-पुण्य को संवर और निर्जरा के अन्तर्गत माना गया है। बंध और पाप बंध की सच्ची कसौटी केवल ऊपर जबकि बौद्ध प्राचार दर्शन में धर्म संघ और बुद्ध की क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी के प्रति दृढ़ श्रद्धा, शील और प्रज्ञा को भी पुण्य कर्ता का आशय ही है18 । (कुशलकर्म) के अन्तर्गत माना गया है 13 । इन कथनों के आधार पर तो यह स्पष्ट है, पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) की कसौटी : कि जैन विचारणा में भी कर्मों की शुभाशुभता के शुभाशुभता या पुण्य पाप के निर्णय के दो प्राधार निर्णय का अाधार मनोवृत्तियां ही हैं फिर भी हो सकते हैं । 1- कर्म का बाह्य स्वरूप तथा जैन विचारणा में कर्म का बाह्य स्वरूप उपेक्षित समाज पर उसका प्रभाव । 2- दूसरा कर्ता का नहीं है। यद्यपि निश्चय दृष्टि की अपेक्षा से अभिप्राय । इन दोनों में कौनसा प्राधार यथार्थ है, मनोवृत्तियां ही कर्मों की शुभाशुभता की निर्णायक यह विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्ध हैं तथापि व्यवहार दृष्टि में कर्म का बाह्य स्वरूप दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभा- ही सामान्यतया शुभाशुभता का निश्चय करता है। शुभता का सच्चा प्राधार माना गया है। गीता स्पष्ट सूत्रकृतांग में पाक कुमार बौद्धों की एकांगी रूप से कहती है जिसमें कर्तृत्व भाव नहीं है, जिसकी धारणा का निरसन करते हए कहते हैं जो मांस बुद्धि निलिप्त है, वह इन सब लोगों को मार भी खाता हो चाहे न जानते हुए भी खाता हो तो भी डाले तथापि यह समझना चाहिए कि उसने न तो उसको पाप लगता ही है, हम जानकर नहीं खाते किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन इसलिए हम को दोष (पाप) नहीं लगता ऐसा कहना में आता है। 4 । धम्मपद में बुद्ध वचन भी ऐसा ही एक दम असत्य नहीं तो क्या है19 | इससे यह (नैष्कर्म्यस्थिति को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, स्पष्ट हो जाता है कि जैन दृष्टि में मनोवृत्ति के दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजा सहित राष्ट्र को साथ ही कर्मों का बाह्य स्वरूप भी शुभाशुभता की मारकर भी निष्पाप होकर जाता है15 । बौद्ध दर्शन दष्टि से महत्वपूर्ण है । वास्तव में सामाजिक दृष्टि में कर्ता के अभिप्राय को ही पुण्य पाप का प्राधार या लोक व्यवहार में तो यही प्रमुख निर्णायक माना गया है, इसका प्रमाण सूत्रकृतांग सूत्र के होता है । सामाजिक न्याय में तो कर्म का बाह्य प्रार्द्रक वौद्ध सम्वाद में भी मिलता है16 । जहां तक स्वरूप ही उसकी शुभाशुभता का निश्चय करता जैन मान्यता का प्रश्न है विद्वानों के अनुसार उस में हैं क्योंकि प्रान्तरिक वृत्ति को व्यक्ति स्वयं जान भी कर्ता के अभिप्राय को ही कर्म की शुभाशुभता सकता है, दूसरा नहीं। जैन दृष्टि एकांगी नहीं का आधार माना गया है । शुभ अशुभ कर्म के बंब है, वह समन्वयवादी और सापेक्षवादी है, वह व्यक्तिका प्राधार मनोवृत्तियां ही हैं । एक डाक्टर किसी सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की शुभाशुभता को पीड़ा पहुंचाने के लिए उसका वरण चीरतो है, का निर्णायक मानती है और समाज सापेक्ष होकर उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाए परन्तु कर्मों के बाह्य स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-29 | Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय करती है, उसमें द्रव्य (बाह्य) और भाव परमार्थिक मत्य । नैतिकता व्यवहार से परमार्थ (प्रांतरिक) दोनों का मूल्य है। उसमें योग (बाह्य की ओर प्रयारण है अतः उसमें दोनों का ही मूल्य क्रिया) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही बन्धन के है। कर्म के शुभाशुभत्व के निर्णय की दृष्टि से कारण माने गये हैं, यद्यपि उसमें मनोवृत्ति ही कर्म के हेतु और परिणाम दोनों का ही मूल्यांकन प्रबल कारण है । वह वृत्ति और क्रिया में विभेद ग्रावश्यक है। नहीं मानती है। उसकी समन्वयवादी दृष्टि में मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव चाहे हम कर्ता के अभिप्राय को शुभाशुभता के नहीं है। मन में शुभ भाव होते हुए पापाचरण निर्णय का अाधार माने, या कर्म के समाज पर सम्भव नहीं है। वह एक समालोचक दृष्टि से होने वाले परिणाम को। दोनों ही स्थितियों में कहती है-मन में सत्य को समझते हुए भी बाहर से किस प्रकार का कर्म पुण्य कर्म या उचित कर्म कहा दूसरी बातें (अणुभाचरग) करना क्या संयमी जावेगा और किस प्रकार का कम पाप कर्म या पुरुषों का लक्षण है ? उसकी दृष्टि में सिद्धान्त अनुचित कर्म कहा जावेगा यह विचार यावश्यक और व्यवहार में अन्तर अात्म प्रवंचना और लोक प्रतीत होता है। सामान्यतया भारतीय चिन्तन में छलना है । मानसिक हेतु पर ही जोर देने वाली पुण्य पाप की विचारणा के सन्दर्भ में सामाजिक धारणा का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग में कहा दृष्टि ही प्रमुत्र है । जहां कर्म अकर्म का विचार गया है-कर्म बन्धन का सत्य ज्ञान नहीं बताने व्यक्ति मापेक्ष है, वहां पुण्य पाप का विचार समाज वाले इस वाद को मानने वाले कितने ही लोग संसार सापेक्ष है । जब हम कर्म अकर्म या कर्म के बन्धनत्व में फंसते रहते हैं कि पाप लगने के तीन स्थान हैं का विचार करत हैं तो वैयक्तिक कर्म प्रेरक या स्वयं करने से, दूसरों से एक कराने से, दूसरों के वैयक्तिक चेतना की विशुद्धता (वीतरागता) ही कार्य का अनुमोदन करने से । परन्तु यदि हृदय । हमारे निर्णय का आधार बनती है लेकिन जब हम पाप मुक्त हो तो इन तीनों के करने पर भी पुण्य पाप का विचार करते हैं तो समाज कल्याण निर्वाण अवश्य मिले । यह वाद अज्ञान है, मन से ___ या लोकहित ही हमारे निर्णय का अाधार होता पाप को पाप समझते हुए, जो दोष करता है, उसे है । वस्तुतः भारतीय चिन्तन में जीवनादर्श तो निर्दोष नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह संयम शुभाशुभत्व की सीमा से ऊपर उठना है, उस (वासना निग्रह) में शिथिल है। परन्त भोगासक्त सन्दर्भ में वीतराग या अनासक्त जीवन दष्टि का लोग उक्त बात मानकर पाप में पड़े रहते हैं20 । निर्माण ही व्यक्ति का परम साध्य माना गया है और वही कर्म के बन्धकत्व या प्रबन्धकत्व का पाश्चात्य प्राचार दर्शन में भी सुग्ववादी प्रमापक है । लेकिन जहां तक शुभ-अशुभ का सम्बन्ध विचारक कर्म की फल निष्पत्ति के आधार पर है उसमें "राग' या ग्रासक्ति का तत्य तो रहा उनकी शुभाशुभता का निश्चय करते हैं, जबकि हना है शुभ और अशुभ दोनों में ही राग या माटिन्यू कर्म प्रेरक पर उनकी शुभाशुभता का प्रासक्ति तो होती ही है अन्यथा राग के अभाव में निश्चय करता है । जैन विचारणा के अनुसार इन कर्म शुभाशुभ से ऊपर उठकर अतिनैतिक होगा। दोनों पाश्चात्य विचारणामों में अपूर्ण सत्य रहा यहां प्रमुखता राग की उपस्थिति या अनुपस्थिति हा है, एक का प्राधार लोकदृष्टि या समाज की नहीं वरन् उसकी प्रशस्तता की है। प्रशस्त दष्टि है और दूसरी का आधार परमार्थ दृष्टि या राग शुभ या पुण्य बन्ध का कारण माना गया है शुद्ध दृष्टि है । एक व्यावहारिक सत्य है और दूसरा और अपशस्त राग अशुभ या पाप बन्ध का 1-30 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण है। राग की प्रशस्तता उसमें द्वष के पर विचार करते समय कर्ता प्राशय को भुलाया तत्व की कमी के आधार पर निर्भर होती है। नहीं जा सकता है। यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं तथापि सामाजिक जीवन में प्राचरण के शुभत्व का जिम राग के साथ ष की मात्रा जितनी अल्प प्राधार- यद्यपि यह सत्य है कि कर्म के शुभत्व और कम तीव्र होगी वह राग उतना प्रशस्त होगा और जिस राग के साथ दुष की मात्रा और तीव्रता का निर्णय अन्य प्राणियों या समाज के प्रति किए जितनी अधिक होगी वह उतना ही अप्रशस्त गए व्यवहार अथवा दृष्टिकोण के सन्दर्भ में होता है। लेकिन अन्य प्राणियों के प्रति हमारा कौनसा होगा। व्यवहार या दृष्टिकोण शुभ होगा और कौनसा द्वष विहीन विशुद्ध राग या प्रशस्त राग ही व्यवहार या दृष्टिकोण अशुभ होगा इसका निर्णय प्रेम कहा जाता है । उस प्रेम से परार्थ या परोपकार किस आधार पर किया जाए ? भारतीय चिन्तन वृत्ति का उदय होता है, जो शुभ का सृजन करती ने इस सन्दर्भ में जो कसौटी प्रदान की है, वह यह है उसी से लोक मंगलकारी प्रवृत्तियों के रूप में है कि जिस प्रकार के व्यवहार को हम अपने लिए पुण्य कर्म निसृत होते हैं जबकि द्वेष युक्त अप्रशस्त प्रतिकूल समझते हैं. वैसा प्राचरण दूसरे के प्रति राग ही घृणा को जन्म देकर स्वार्थ वृत्ति का नहीं करना और जैसा व्यवहार हमें अनुकूल है, विकास करता है, उससे अशुभ, अमंगलकारी पाप वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना; यही शुभाचरण कर्म निसृत होते है संक्षेप में जिस कर्म के पीछे है। इसके विपरीत जो व्यवहार हमें प्रतिकूल है, प्रेम और परार्थ होते हैं वह पुण्य कर्म और जिस वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना और जैसा कर्म के पौछे घृणा और स्वार्थ होते हैं वह पाप । व्यवहार हमें अनुकूल है वैसा व्यवहार दूसरों के कर्म । प्रति नहीं करना, अशुभाचरण है । भारतीय ऋषियों मात्र का यही सन्देश है कि 'पात्मनः प्रति जैन प्राचार दर्शन पुण्य कर्मों के वर्गीकरण में कूलानि परेषां मा समाचरेत्' अर्थात् जिस पाचरण जिन तथ्यों पर अधिक बल देता है, वे सभी समाज को तुम अपने लिए प्रतिकूल समझते हो वैसा सापेक्ष हैं। वस्तुतः शुभ अशुभ वर्गीकरण में आचरण दूसरों के प्रति मत करो। संक्षेप में सभी सामाजिक दृष्टि ही प्रधान है। भारतीय चिन्तकों प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् दृष्टि ही व्यवहार के की दृष्टि में पुण्य और पाप की समग्र चिन्तना का शुभत्व का प्रमाण है। सार निम्न कथन में समाया हुआ है कि परोपकार पुण्य है और पर-पीडन षाप है'। जैन विचारकों जैन दृष्टिकोण - जैन दर्शन के अनुसार जिसकी ने पुण्य बन्ध के दान सेवा प्रादि जिन कारणों का संसार के सभी प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् दृष्टि है उल्लेख किया है उनका प्रमुख सम्बन्ध सामाजिक वही नैतिक कर्मों का स्रष्टा है । दशवकालिक कल्याण या लोक मंगल से है। इसी प्रकार पाप सूत्र में कहा गया है समस्त प्राणियों को जो अपने के रूप में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है वे समान समझता है और जिसका सभी के प्रति सभी लोक अमंगलकारी तत्व हैं । इस प्रकार हम समभाव है वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता कह सकते हैं जहां तक शुभ-अशुभ या पुण्य-पाप के है । सूत्रकृतांग में धर्माधर्म (शुभाशुभत्व) के वर्गीकरण का प्रश्न है हमें सामाजिक सन्दर्भ में ही निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना, यही उसे देखना होगा । यद्यपि बन्धन की दृष्टि से उस दृष्टिकोग्ग स्वीकार किया गया है। सभी को जीवित महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-31 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहने की इच्छा है, कोई भी मरना नहीं चाहता, लगता है वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति किया सभी को प्राण प्रिय हैं, सुख शान्तिप्रद है और दुख जाए; हे युधिष्ठर ! धर्म और अधर्म की पहिचान प्रतिकूल है । इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है जिसके का यही लक्षण है। द्वारा किसी भी प्राण का हनन नहीं हो 124 पाश्चात्य दृष्टिकोण-पाश्चात्य दर्शन में भी बौद्ध धर्म का दृष्टिकोण-बौद्ध विचारणा में भी सर्वत्र आत्मवत् दृष्टि को ही कर्म के शुभत्व सामाजिक जीवन में दूसरों के प्रति व्यवहार करने का यही दृष्टिकोण स्वीकृत है कि जैसा व्यवहार का आधार माना गया है । सुत्तनिपात में बुद्ध कहते तुम अपने लिए चाहते हो वैसा ही दूसरे के लिए हैं-जैसा मैं हूं वैसे ही ये दूसरे प्राणी भी हैं और जैसे करो । कान्ट ने भी कहा है कि केवल उसी नियम ये दूसरे प्राणी हैं वैसा ही मैं हं इस प्रकार सभी को के अनुसार काम करो जिसे तुम एक सार्वभौम अपने समान समझकर, किसी की हिंसा या घात नहीं नियम बन जाने की इच्छा कर सकते हो । मानवता करना चाहिए25 । धम्मपद में भी बुद्ध ने यही कहा चाहे वह तुम्हारे अन्दर हो या किसी अन्य के वह है कि सभी प्राणी दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से सभी सदैव से साध्य बनी रहे, साधन कभी न हो । भय खाते हैं, सबको जीवन प्रिय है, अतः सबको कान्ट के इस कथन का आशय भी यही निकलता अपने समान समझकर न मारे और न मारने की है कि नैतिक जीवन के संदर्भ में सभी को समान प्रेरणा करे । जो सुख चाहने वाले प्राणियों को, __ मानकर व्यवहार करना चाहिए । अपने सुख की चाह से दुःख प्रदान करता है वह मरकर भी सुख नहीं पाता। लेकिन जो सुख शुभ और अशुभ से शुद्ध को पोर---जैन चाहने वाले प्राणियों को, अपने सुख की चाह से विचारणा में शुभ एवं अशुभ अथवा मंगल अमंगल दुःख नहीं देता, वह मर कर भी सुख को प्राप्त की वास्तविकता स्वीकार की गई है । उत्तराध्ययन होता है। सूत्र में नव तत्व माने गये हैं जिसमें पुण्य और - गीता एवं महाभारत का दृष्टिकोण-मनुस्मृति, पाप को स्वतंत्र तत्व के रूप में गिना गया है34 ) महाभारत और गीता में भी हमें इसी दृष्टिकोण जबकि तत्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने जीव, अजीव, का समर्थन मिलता है। गीता में कहा गया है कि पाश्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सातों जो सुख और दुःख सभी में दूसरे प्राणियों के प्रति को ही तत्व कहा है वहां पर पुण्य और पाप का प्रात्मवत् दृष्टि रखकर ब्यवहार करता है, वही स्वतंत्र तत्व के रूप में स्थान नहीं है । लेकिन यह परमयोगी है28 | महाभारत में अनेक स्थानों पर विवाद अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता क्योंकि इसी दष्टिकोण का समर्थन हमें मिलता है। उसमें जो परम्परा उन्हें स्वतन्त्र तत्व महीं मानती है वह कहा गया है कि जैसा कि अपने लिए चाहता है भी उनको आश्रय एवं बंघ तत्व के अन्तर्गत तो वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति भी करे । त्याग- मान लेती है । यद्यपि पुण्य और पाप मात्र प्राश्रव दान, सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय सभी में दूसरे को अपनी नहीं है वरन् उनका बंध भी होता है और विपाक प्रात्मा के समान मान कर व्यवहार करना भी होता है । अतः पाश्रव के दो विभाग शुभाश्रव चाहिए30 । जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों के प्रति अपने और अशुभाश्रव करने से काम पूर्ण पूरा नहीं होता समान व्यवहार करता है वही स्वर्ग के सुखों को वरन् बंध और विपाक में भी दो दो भेद करने प्राप्त करता है31 । जो व्यवहार स्वयं को प्रिय होंगे । इस वर्गीकरण की कठिनाई से बचने के लिए 1-32 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही शायद पाप एवं पुण्य को दो स्वतंत्र तत्व के रूप में मान लिया है। फिर भी जैन विचारणा निर्वारण मार्ग के साधक के लिए दोनों को हेय और त्याज्य मानती है क्योंकि दोनों ही बन्धन के कारण हैं । वस्तुतः नैतिक जीवन की पूर्णता शुभाशुभ या पुण्य पाप से ऊपर उठ जाने में हैं शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) का भेद जब तक बना रहता है, नैतिक पूर्णता नहीं श्राती है । अशुभ पर पूर्ण विजय के साथ ही व्यक्ति शुभ (पुण्य) से भी ऊपर उठकर शुद्ध दशा में स्थित हो जाता है । जैन दृष्टिकोण--ऋषिभासित सूत्र में ऋषि कहता है - पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार संतति के मूल हैं 36 प्राचार्य कुन्दकुन्द पुण्य पाप दोनों को बन्धन का कारण मानते हुए भी दोनों के बन्धकत्व का अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं । समयसार ग्रन्थ में वे कहते हैं - शुभकर्म पाप ( कुशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं । किर भी पुण्य कर्म भी संसार ( बन्धन) का कारण होता है । जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लोह बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है । उसी प्रकार जीव कृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन का कारण होते हैं" । श्राचार्य दोनों को ही श्रात्मा की स्वाधीनता में बाधक मानते हैं। उनकी दृष्टि में पुण्य स्वर्ण की बेड़ी है और पाप लोहे की बेड़ी । फिर भी प्राचार्य पुण्य को स्वर्ण बेड़ी कहकर उसकी पाप से किंचित श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं । याचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टिकोण से पुण्य और पाप दोनों में भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि ग्रन्ततोगत्वा दोनों ही बन्धन हैं । इसी प्रकार पं० जयचन्द्रजी ने भी कहा है पुण्यपाप दोउकरम, बंधरूप दुइ मानि । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, बंदू चरन हित जानि ।। अनेक जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण लक्ष्य दृष्टि से हेय मानते हुए भी उसे निर्वारण का सहायक तत्व स्वीकार किया है। यद्यपि निर्वाण की स्थिति को प्राप्त करने के लिए अन्ततोगत्वा पुण्य को छोड़ना होता है फिर भी वह निर्वाण में ठीक उसी प्रकार सहायक है, जैसे साबुन बस्त्र के मैल को साफ करने सहायक है । शुद्ध वस्त्र के लिए साबुन का लगा होना भी जिस प्रकार अनावश्यक है उसे भी अलग करना होता है, वैसे ही निर्वाण या शुद्धात्म दशा में पुण्य का होना भी अनावश्यक है उसे भी क्षय करना होता है । लेकिन जिस प्रकार साबुन मैल को साफ करता है और मैल की सफाई होने पर स्वयं अलग हो जाना है - वैसे ही पुण्य भी पाप रूप मल को अलग करने में सहायक होता है और उसके अलग हो जाने पर स्वयं भी अलग हो जाता है। जिस प्रकार एरण्ड बीज या अन्य रेचक औषधि मल के रहने तक रहती है और मल निकल जाने पर वह भी निकल जाती है वैसे ही पाप की समाप्ति पर पुण्य भी अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं । वे किसी भी नव कर्म संतति को जन्म नहीं देते हैं । ग्रतः वस्तुतः व्यक्ति को अशुभ कर्म से बचना है। जब वह अशुभ (पाप) कर्म से ऊपर उठ जाता है उसका कर्म शुभ बन जाता है । शेष पर पूर्ण विजय पा जाने पर राग भी नहीं रहता है अतः राग-द्वेष के अभाव में उससे जो कर्म निसृत होते हैं वे शुद्ध (ईर्यापथिक) होते हैं । पुण्य (शुभ) कर्म के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुण्योपार्जन की उपरोक्त क्रियाए भी जब अनासक्तभाव से की जाती हैं तो वे शुभ बन्ध का कारण न होकर कर्मक्षय ( संवर और निर्जरा) का कारण बन जाती हैं । इसी प्रकार संवर और निर्जरा के कारण संयम और तप जब श्रासक्तभाव 1-33 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं फलाकांक्षा (निदान अर्थात् उनके प्रति कल के शुभ दोनों प्रकार के कर्मफलों से मुक्त होना । रूप में किसी निश्चित फल की कामना करना) से आवश्यक है । श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं 'हे अर्जुन, तू युक्त होते हैं तो वे कर्मक्षय अथवा निर्वाण का जो भी कुछ कर्म करता है, जो कुछ खाता है, जो कारण न होकर बन्धन का ही कारण बनते हैं, कुछ हवन करता है, जो कुछ दान देता है अथवा चाहे उनका फल सूख के रूप में क्यों नहीं हो। तप करता है वह सभी शुभाशुभ कर्म मुझे अर्पित जैनाचार दर्शन में अनासक्त भाव या राग द्वष से कर दे अर्थात् उनके प्रति किसी प्रकार की आसक्ति रहित होकर किया गया शुद्ध कार्य ही मोक्ष या या कर्तृत्व भाव मत रख । इस प्रकार सन्यास-योग निर्वाण का कारण माना गया है और प्रासक्ति से से युक्त होने पर तू शुभाशुभ फल देने वाले कर्म किया गया शुभ कार्य भी बन्धन का ही कारण बन्धन से छूट जावेगा और मुझे प्राप्त होवेगा । समझा गया है । यहां पर गीता की अनासक्त गीताकार स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करता है कि कर्म योग की विचारणा जैन दर्शन के अत्यन्त शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों ही बन्धन हैं और समीप आ जाती है । जब दर्शन का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति के लिए उनसे ऊपर उठना आवश्यक है। प्रात्मा को अशुभ कर्म से शुभ कर्म की अोर और बुद्धिमान व्यक्ति शुभ और अशुभ या पुण्य और शुभ से शुद्ध कर्म (वीतरागदशा) की प्राप्ति है। पाप दोनों को ही त्याग देता है ।43 सच्चे भक्त का आत्मा का शुद्धोपयोग ही जैन नैतिकता का अन्तिम लक्षण बताते हुए पुनः कहा गया है कि जो शुभ साध्य है। और अशुभ दोनों का परित्याग कर चुका है अर्थात् बौद्ध दृष्टिकोण-बौद्ध दर्शन भी जैन दर्शन जो दोनों से ऊपर उठ चुका है वह भक्तियुक्त पुरुष के समान ही नैतिक साधना की अन्तिम अवस्था मुझे प्रिय है । डा० राधाकृष्णन ने गीता के में पुण्य और पाप दोनों से ऊपर उठने की बात परिचयात्मक निबन्ध में भी इसी धारणा को कहता है। भगवान बुद्ध सुत्तनिपात में कहते हैं-जो प्रस्तुत किया है। वे प्राचार्य कुन्दकुन्द के साथ पुण्य और पाप को दूर कर शांत (सम) हो गया है सम स्वर हो कर कहते हैं 'चाहे हम अच्छी इस लोक और परलोक (के यथार्थ स्वरूप) को इच्छात्रों के वन्धन में बन्धे हो या बुरी इच्छाओं जान कर (कर्म) रज रहित हो गया है जो अन्य के, बन्धन तो दोनों ही हैं। इससे क्या अन्तर पड़ता मरण से परे हो गया है वह श्रमण स्थिर, स्थितात्मा है कि जिन जंजीरों में हम बन्धे हैं वे सोने की हैं या लोहे की 145 जैन दर्शन के समान गीता भी (तथता.) कहलाता है40 । समिय परिव्राजक द्वारा बुद्ध वंदना में पुन: इसी बात को दोहराया गया हमें यही बताती है कि प्रथमतः जब पुण्य कर्मों के है । वह शुद्ध के प्रति कहता है जिस प्रकार सुन्दर सम्पादन द्वारा पाप कर्मों का क्षय कर दिया जाता पुण्डरीक कमल पानी में लिप्त नहीं होता. उसी है तदनन्तर वह पुरुष रागद्वेष के द्वन्द्व से मुक्त होकर प्रकार पाप पुण्य और पाप दोनों में लिप्त नहीं दृढ़ निश्चयपूर्वक मेरी भक्ति करता है 146 इस होते1 । इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध विचा- प्रकार गीता भी नैतिक जीवन के लिए अशुभ कर्म रणा का भी अन्तिम लक्ष्य शुभ और अशभ से से शुभ कर्म की अोर और शुभ कर्म से शुद्ध या निष्काम कर्म की अोर वढ़ने का संकेत देती है । ऊपर उठना है। गीता का अन्तिम लक्ष्य भी शुभाशुभ से ऊपर गीता का दृष्टिकोण----स्वयं गीताकार ने भी निष्काम जीवन दृष्टि का निर्माण है। यह संकेत किया है कि मुक्ति के लिए शुभा. पाश्चात्य दृष्टिकोण--पाश्चात्य प्राचार दर्शन 1-34 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अनेक विचारकों ने नैतिक जीवन को पूर्णता के जैन, बौद्ध और गीता के प्राचार दर्शन इस प्रश्न लिए शुभाशुभ से परे जाना प्राट श्यक माना है पर गहराई से विचार करते हैं कि प्राचरण ब्रेडले का कहना है कि नैतिकता हमें उससे परे (क्रिया) एवं बन्धन के मध्य क्या सम्बन्ध है ? ले जाती है ।7 नैतिक जीवन के क्षेत्र में शुभ और क्या कर्मणा बध्यते बन्धुः की उचित सर्वांश सत्य अशुभ का विरोध बना रहता है लेकिन प्रात्म- है ? जैन, बौद्ध एवं गीता की विचारणा में यह पूर्णता की अवस्था में यह विरोध नहीं रहना उक्ति कि कम से प्राणी बंधन में आता है सर्वांश चाहिए। अत: पूर्ण प्रात्म-साक्षात्कार के लिए या निरपेक्ष सत्य नहीं है । प्रथमतः कर्म या क्रिया हमें नैतिकता के क्षेत्र (शुभाशुभ के क्षेत्र) से ऊपर के सभी रूप बंधन की दृष्टि से समान नहीं हैं, उठना होगा । बेडले ने नैतिकता के क्षेत्र से ऊपर फिर यह भी सम्भव है कि प्राचरण एवं क्रिया के धर्म (प्राध्यात्म) का क्षेत्र माना है, उसके अनुसार होते. हए भी कोई बन्धन नहीं हो। लेकिन यह मैतिकता का अन्त धर्म में होता है। जहां व्यक्ति निर्णय कर पाना कि बन्धक कर्म क्या है और शुभाशुभ के द्वन्द्व से ऊपर उठकर ईश्वर से तादात्म्य प्रबन्धक कर्म क्या है, अत्यन्त ही कठिन है । गीता स्थापित कर लेता है । वे लिखते हैं कि अन्त में कहती है कर्म (बंधक कर्म) क्या है ? और अकर्म हम ऐसे स्थान पर पहुंच जाते हैं, जहां पर क्रिया (अवंधक कर्म) क्या है ? इसके सम्बन्ध में विद्वान एवं प्रतिक्रिया का अन्त होता है, यद्यपि सर्वोत्तम भी मोहित हो जाते हैं 149 कर्म के यथार्थ स्वरूप क्रिया सर्वप्रथम यहां से ही प्रारम्भ होती है। का ज्ञान अत्यन्त गहन विषय है। यह कर्म समीक्षा यहां पर हमारी नैतिकता ईश्वर से तादात्म्य में का विषय अत्यन्त गहन और दुष्कर क्यों है, इस चरम अवस्था में फलित होती है और सर्वत्र हम प्रश्न का उत्तर हमें जैनागम सूत्रकृतांग में भी उस अमर प्रेम को देखते हैं, जो सदैव विरोधाभास मिलता है। उसमें बताया गया है कि कर्म, क्रिया पर विकसित होता है, किन्तु जिसमें विरोधाभास या पाचरण समान होने पर भी बन्धन की दृष्टि का सदा के लिए अन्त हो जाता है ।48 से वे भिन्न भिन्न प्रकृति के हो सकते हैं। मात्र ब्रडले ने जो भेद नैतिकता और धर्म में किया प्राचरण, कर्म या पुरुषार्थ को देखकर यह निर्णय वैसा ही भेद भारतीय दर्शनों ने व्यावहारिक नैतिकता देना सम्भव नहीं होता है, कि वह नैतिक दृष्टि से और पारमार्थिक नैतिकता में किया है। व्यावहारिक किस प्रकार का है । ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही नैतिकता का क्षेत्र शुभाशुभ का क्षेत्र है यहां पाच समान वीरता को दिखाते हुए (अर्थात् समान रूप से कर्म करते हुए) भी अधूरे ज्ञानी और सर्वथा रण की दृष्टि समाज सापेक्ष होती है और लोक मंगल ही उसका साध्य होता है । पारमार्थिक नैति- अज्ञानी का, चाहे जितना पराक्रम (पुरुषार्थ) हो, कता का क्षेत्र शुद्ध चेतना (अनासक्त या वीतराग पर अशुद्ध है और कर्म बन्धन का कारण है, परन्त जीवन दृष्टि) का है, यह व्यक्ति सापेक्ष है। व्यक्ति ज्ञान एवं बोध सहित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध है को बन्धन से बचाकर मुक्ति की और ले जाना ही और उसे उसका कुछ फल नहीं भोगना पड़ता। इसका अन्तिम साध्य है। योग्यरीति से किया हुआ तप भी यदि कीति की इच्छा से किया गया हो तो शुद्ध नहीं होता ।50 शद्ध कर्म (कर्म)----शुद्ध कर्म का तात्पर्य उस कर्म का बन्धन की दृष्टि से विचार उसके बाह्य जीवन व्यवहार से है जिसमें क्रियाएँ राग-द्वेष से स्वरूप के आधार पर ही नहीं किया जा सकता है, रहित होती हैं तथा जो प्रात्मा को बन्धन में उसमें कर्ता का प्रयोजन, कर्ता का विवेक एवं नहीं डालता है, प्रबन्धक कर्म ही शुद्ध कर्म है। देशकालगत परिस्थितियां भी महत्वपूर्ण तथ्य हैं महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-35 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौर कर्मों पर ऐसा सर्वागपूर्ण विचार करने में विद्वत् वर्ग भी कठिनाई में पड़ जाता है । कर्म में कर्ता के प्रयोजन को जो कि एक प्रान्तरिक तथ्य है, जान पाना सहज नहीं होता है । लेकिन फिर भी कर्ता के लिए जो कि अपनी मनोदशा का ज्ञाता भी है यह प्रावश्यक है, कि कर्म और कर्म का यथार्थ स्वरूप समझे क्योंकि उसके अभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है । गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मैं तुझे कर्म के उस रहस्य को बताऊंगा जिसे जानकर तू मुक्त हो जावेगा 151 वास्तविकता यह है कि नैतिक विकास के लिए बंधक और प्रबंधक कर्म के यथार्थ स्वरूप को जानना आवश्यक है । बंधकत्व की दृष्टि से कर्म के यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में भारतीय प्रचार दर्शन का दृष्टिकोण निम्ना नुसार है । जैन दर्शन में कर्म प्रकर्म विचार-कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए उस पर दो दृष्टियों से विचार किया जा सकता है-'. उसकी बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर और 2 उसकी शुभाशुभता के आधार पर कर्म का बधनात्मक शक्ति के आधार पर विचार करने पर हम पाते हैं। कि कुछ कर्म बन्धन में डालते हैं जबकि कुछ कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं ! बन्धक कर्मों का कर्म श्रौर प्रबन्धक कर्मों को अकर्म कहा जाता है । जैन विचाररणा में कर्म और अकर्म के यथार्थ स्वरूप की विवेचना सर्वप्रथम प्राचारांग एवं सूत्रकृतांग में मिलती है । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि कुछ कर्म को वीर्य ( पुरुषार्थ ) कहते हैं, कुछ कर्म को वीर्य ( पुरुषार्थ ) कहते हैं ।" इसका तात्पर्य यह है कि कुछ विचारकों की दृष्टि में सक्रियता यही पुरुषार्थ या नैतिकता है जबकि दूसरे विचारकों की दृष्टि में निष्क्रियता ही पुरुषार्थ या नैतिकता है । इस सम्बन्ध में महावीर अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत 1-36 करते हुए, यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं कि कर्म का अर्थ शरीरादि की चेष्टा एवं अकर्म का कर्म अर्थ शरीरादि की चेष्टा का प्रभाव ऐसा नही मानना चाहिए। वे अत्यन्त सीमित शब्दों में कहते हैं प्रमाद कर्म है अप्रमाद कर्म है। 53 प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को कर्म कहकर महावीर यह स्पष्ट कर देते हैं कि अकर्म निष्क्रियता को अवस्था नहीं, वह तो सतत जागरूकता है । श्रप्रमत्त अवस्था या आत्म जागृति की दशा में सक्रियता भी कर्म होती है जबकि प्रभव दशा या श्रात्म जागृति के प्रभाव में निष्क्रियता भी कर्म ( बन्धन) बन जाती है । वस्तुतः किसी क्रिया का बन्धकतत्व मात्र क्रिया के घटित होने में नहीं वरन् उसके पीछे रहे हुए कषाय भावों एवं राग द्वेष की स्थिति पर निर्भर है। जैन दर्शन के अनुसार राग-द्वेष एवं कषाय, जो कि आत्मा की प्रमत दशा है किसी क्रिया का कर्म बना देते हैं । लेकिन कषाय एवं आसक्ति से रहित होकर किया हुआ कर्म कर्म बन जाता है । महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो प्राश्रव या बन्धन कारक क्रियाएं हैं, वे ही अनासक्ति एवं विवेक से समन्वित होकर मुक्ति के साधन बन जाती हैं । 54 प्रकार जैन विचारणा में कर्म और अकर्म अपने बाह्य स्वरूप की अपेक्षा कर्त्ता के विवेक और मनोवृत्ति पर निर्भर होते हैं । जैन विचारणा में बन्धक तत्व की दृष्टि से क्रियाओं को दो भागों में बांटा गया है । 1 ईय पथिक क्रियाएं (अकर्म ) और 2 - साम्परायिक क्रियाएं ( कर्म या विकर्म ) ईर्यापथिक क्रियाएं निष्काम वीतराग दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति की क्रियाएं हैं जो बन्धनकारक नहीं है जबकि साम्परायिक क्रियाएं श्रासक्त व्यक्ति की क्रियाएं हैं जो बन्धनकारक हैं । संक्षेप में वे समस्त क्रियाएं जो प्राश्रव एवं बन्ध का कारण हैं, कर्म हैं और वे समस्त क्रियाएं जो संवर एवं निर्जरा का हेतु है, प्रकर्म है। जैन इस महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि में प्रकर्म या ईर्यापथिक कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह रहित होकर मात्र कत्तव्य अथवा शरीर निर्वाह के लिए किया जाने वाला कर्म । जबकि कर्म का अर्थ है राग-द्वेष एवं मोह सहित क्रियाएं । जैन दर्शन के अनुसार जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष और मोह से युक्त होता है बन्धन में डालता है और इसलिए वह कर्म है और जो क्रिया व्यापार राग-द्वेष और मोह से रहित होकर कर्त्तव्य निर्वाह या शरीर निर्वाह के लिए किया जाता है वह बन्धन का कारण नहीं है अतः अकर्म है । जिन्हें जैन दर्शन में ईर्यापथिक क्रियाएं या प्रकर्म कहा गया है उन्हें बौद्ध परम्परा अनुचित, अव्यक्त या श्रकृष्ण अशुक्ल कर्म कहती है और जिन्हें जैन परम्परा साम्परायिक क्रियाएं या कर्म कहती हैं, उन्हें बौद्ध परम्परा उपचित कर्म या कृष्ण-शुक्ल कर्म कहती है । आइए जरा इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करें । बौद्ध दर्शन में कर्म कर्म का विचार बौद्ध विचारणा में भी कर्म और उनके फल देने की योग्यता के प्रश्न को लेकर महाकर्म विभंग में, विचार किया गया है, जिसका उल्लेख श्रीमती सर्मादास गुप्ता ने अपने प्रबन्ध 'भारत में नैतिक दर्शन का विकास' में किया है । 55 बौद्ध दर्शन का प्रमुख प्रश्न यह है कि कौन से कर्म उपचित होते हैं । कर्म के उपचित से तात्पर्य संचित होकर फल देने की क्षमता के योग्य होने से है । दूसरे शब्दों में कर्म के बन्धन कारक होने से है । बौद्ध परम्परा का उपचित कर्म जैन परम्परा के विपाकोदयी कर्म से और बौद्ध परम्परा का अनुपचित कर्म जैन परपरा के प्रदेशोदयी कर्म (ईर्याथिक कर्म) से तुलनीय है । महाकर्म विभाग में कर्म की कृत्यता और उपचितता के सम्बन्ध को लेकर कर्म का एक चतुवि वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। १ - वे कर्म जो कृत (सम्पादित) नहीं है लेकिन महावीर जयन्ती स्मारिका 78 उपचित ( फल प्रदाता ) है वासनाओं के तीव्र प्रवेग से प्रेरित होकर किये गये ऐसे कर्म संकल्प जो कार्य रूप में परिणत न हो पाये हैं, इस वर्ष में आते हैं। जैसे किसी व्यक्ति ने क्रोध या द्वेष के वशीभूत होकर किसी को मारने का संकल्प किया हो, लेकिन वह उसे मारने की क्रिया को सम्पादित न कर सका हो । २ - वे कर्म जो कृत है और उपचित मी है वे समस्त ऐच्छिक कर्म, जिनको संकल्पपूर्वक सम्पादित किया गया है, इस कोटि में आते हैं । यहां हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृत उपचित कर्म और कृत उपचित कर्म दोनों शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के हो सकते हैं । २- वे कर्म जो कृत हैं लेकिन उपचित नहीं हैं : श्रभिधर्मकोष के अनुसार निम्न कर्म कृत होने पर उपचित नहीं होते हैं अर्थात् अपना फल नहीं देते हैं : (अ) वे कर्म जिन्हें संकल्पपूर्वक नहीं किया गया है अर्थात् जो सचिन्त्य नहीं हैं, उपचित होते हैं । ( ब ) घे कर्म जो सचिन्त्य होते हुए भी सहसा - कृत हैं, उपचित नहीं होते हैं । इन्हें हम श्राकस्मिक कर्म कह सकते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान में इन्हें विचार प्रेरित कर्म ( ग्राइडियो मोटर एक्टीविटी) कहा जा सकता है | ( स ) भ्रान्तिवश किया गया कर्म भी उपचित नहीं होता । ( द ) कृत कर्म के करने के पश्चात् यदि अनुताप या ग्लानि हो तो उसका प्रकटन करके पाप विरति का व्रत लेने से कृत कर्म उपचित, नहीं होता । 1-37 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (इ) शुभ का अभ्यास करने से तथा प्राश्रय बल से (बुद्ध के शरणागत हो जाने से ) भी पाव कर्म उपचित नहीं होता । ४- वे कर्म जो कृत भी नहीं हैं और उपचित भी नहीं हैं : स्वप्नावस्था में गये किए भी कर्म भी इसी प्रकार के होते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं प्रथम दो वर्गों के कर्म प्राणी को बन्धन में डालते हैं लेकिन अन्तिम दो प्रकार के कर्म प्राणी को बन्धन में नहीं डालते । बौद्ध आचार दर्शन में भी राग-द्वेष और मोह से युक्त होने पर कर्म को बंधन कारक माना जाता 'है जबकि राग-द्व ेष श्रोर मोह से रहित कर्म को बन्धक कारक नहीं माना जाता है। बौद्ध दर्शन भी राग-द्व ेष और मोह रहित अर्हत् के क्रिया व्या पार को बन्धन कारक नहीं मानता है ऐसे कर्मों को अकृष्ण अशुक्ल या श्रव्यक्त कर्म भी कहा गया है । गीता में कर्म-कर्म का स्वरूप : गीता भी इस संबंध में गहराई से विचार करती है कि कौन सा कर्म बन्धन कारक और कौन सा कर्म बन्धन कारक नहीं है ? गीताकार कर्म को तीन भागों में वर्गीकृत कर देते हैं । १= कर्म, २ - विकर्म, ३ कर्म । गीता के अनुसार कर्म और विकर्म बन्धन कारक हैं जबकि अकर्म बन्धन कारक नहीं हैं । (१) कर्म- - फल की इच्छा से जो किये जाते हैं, उसका नाम कर्म 1 1-38 शुभ (२) विकर्म - समस्त अशुभ कर्म जो वासनात्रों की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, विकर्म हैं । साथ ही फल की इच्छा एवं अशुभ भावना से जो दान, तप, • सेवा आदि शुभ कर्म किये जाते हैं वे भी विकर्म कहलाते हैं। गीता में कहा गया है जो तप मूढ़तापूर्वक, हठ से, मन, वाणी, शरीर की पीड़ा कर्म सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने की नीयत से किया जाता है वह तामस कहलाता है । 56 साधाररणतया मन, वारणी एवं शरीर से होने वाले हिंसा, सत्य, चोरी प्रादि निषिद्ध कर्म विकर्म समझे जाते हैं, परन्तु वे बाह्य रूप से विकर्म प्रतीत होने वाले कर्म कर्त्ता की भावनानुसार कर्म या प्रकर्म के रूप में बदल जाते हैं । प्रासक्ति और अहंकार के रहित होकर शुद्ध भाव दशा में, एवं मात्र कर्त्तव्य सम्पादन में होने वाली हिंसादि ( जो देखने में बिकर्म से प्रतीत होती है, भी फलोत्पादक न होने से अकर्म ही है 1 ) (३) श्रकर्म - फलासक्ति से रहित होकर अपना कर्त्तव्य समझ कर जो भी कर्म किया जाता उस कर्म का नाम अकर्म है। गीता के अनुसार परमात्मा में अभिन्न भाव से स्थित होकर कर्तापन के अभिमान से रहित पुरुष द्वारा जो कर्म किया जाता है, वह मुक्ति के अतिरिक्त अन्य फल नहीं देने वाला होने से कर्म ही है । कर्म की अर्थ विवक्षा पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार: जैसा कि हमने देखा जैन, बौद्ध श्रौर गीता के प्रचार दर्शन क्रिया व्यापार को बंधकत्व की दृष्टि से दो भागों में बांट देते हैं । १- बंधक कर्म, और २ - प्रबंधक कर्म । अबंधक क्रिया व्यापार का जैन दर्शन में अकर्म का ईर्यापथिक कर्म । बौद्ध दर्शन में प्रकृष्ण - प्रशुक्ल कर्म या अव्यक्त कर्म तथा गीता में अकर्म कहा गया है । प्रथमतः सभी समालोच्य श्राचार दर्शनों की दृष्टि में प्रकर्म क्रिया का प्रभाव नहीं है। जैन विचारणा के शब्दों में कर्म प्रकृति के उदय को समझ कर बिना राग द्वेष के, जो कर्म होता है, वह वाणी, शरीर की क्रिया के प्रकर्म ही है मन, प्रभाव का नाम ही कर्म नहीं | गीता के अनुसार व्यक्ति की मनोदशा के श्राधार क्रिया न करने वाले व्यक्तियों का क्रिया त्याग रूप अकर्म भी कर्म बन सकता है और महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाशील व्यक्तियों का कर्म भी प्रकर्म बन सकता देखते हुए भी नहीं देखता है। प्राचार्य अमृतचंद्र है । गीता कहती है कर्म न्द्रियों की सब क्रियाओं को सूरी का कथन है--रागादिकि (भावों) से मुक्त त्याग क्रिया रहित पुरुष जो अपने को सम्पूर्ण हकर आचरण करते हुए यदि हिंसा (प्राणघात) क्रियाओं का त्यागी समझता है, उसके द्वारा प्रकट हो जाये तो वह हिंसा नहीं है अर्थात् हिंसा और रूप से कोई काम होता हुआ, न दीखने पर भी अहिंसा, पाप और पुण्य बाह्य परिणामों पर निर्भर त्याग का अभिमान या प्राग्रह रखने के कारण नहीं होते हैं वरन् उसमें कर्ता की चित्तवृत्ति ही उसमे वह त्याग रूप कर्म होता है । उसका वह प्रमुख है। उतराध्ययन सूत्र में भी स्पष्ट रूप से त्याग का अभिमान या प्राग्रह, अकम को भी कर्म कहा गया है-भावों से विरक्त जीव शोक रहित बना देता है । इसी प्रकार कश्य प्राप्त होने हो जाता है वह कमल पत्र की तरह संसार में पर भय या स्वार्थवश कर्तव्य कर्म से मुह मोड़ना, रहते हुए भी लिप्त नहीं होता। गीताकार भी विहित कर्मों का त्याग कर देना आदि में भी कर्म इसी विचार दृष्टि को प्रस्तुत करते हुए कहता है नहीं होते, परन्तु इस अकम दशा में भी भय या राग जिसने कर्म फलासक्ति का त्याग कर दिया है, जो भाव अकर्म को भी कर्म बना देता है । 60 जबकि वासना शुन्य होने के कारण सदैव ही आकांक्षा अनासक्त वृत्ति और कर्तव्य की दृष्टि से जो कर्म रहित है और आत्मतत्व में स्थिर होने के कारण किया जाता है, वह राग-द्वेष के अभाव के कारण पालम्बन रहित है वह क्रियानों को करते हुए भी प्रकर्म बन जाता है। उपयुक्त विवेचना से स्पष्ट कूछ नहीं करता है। गीता का अकर्म जैन दर्शन है कि कर्म और अकर्म का निर्णय केवल शारीरिक के संवर और निर्जरा से भी तुलनीय है। जिस क्रियाशीलता या निष्क्रियता से नहीं होता । कर्ता प्रकार जैन दर्शन में संवर एवं निर्जरा के हेतु किया के भावों के अनुसार ही कर्मों का स्वरूप बनता है। जाने वाला समस्त क्रिया व्यापार मोक्ष का हेतु इस रहस्य को सम्यकोरण जानने वाला ही होने से अकर्म ही माना गया है, उसी प्रकार गीता गीताकार को दृष्टि से मनुष्यों से बुद्धिमान योगी में भी फलाकांक्षा से रहित होकर ईश्वरीय आदेश है। सभी विवेच्य प्राचार दर्शनों में कर्म अकर्म के पालनार्थ जो नियत कर्म किया जाता है वह विचार में वासना, इच्छा, या कर्तृत्व भाव ही प्रकर्म ही माना गया है । दोनों में जो विचार प्रमुख तत्व माना गया है । यदि कर्म के सम्पादन साम्प है वह एक तुलनात्मक अध्येता के लिए काफी में वासना, इच्छा या कर्तृत्व बुद्धि का भाव नहीं महत्वपूर्ण है। गीता और जैनागम प्राचारांग में तो वह कर्म बन्धन कारक नहीं होता है । दूसरे मिलने वाला निम्न विचारसाम्य ही विशेष रूपेण शब्दों में बन्धन की दृष्टि से वह कर्न अकर्म बन द्रष्टव्य है। प्राचारांग सूत्र में कहा गया है 'अग्रजाता है, वह क्रिया प्रक्रिया हो जाती है । वस्तुतः कर्म और मूल कर्म के भेदों में विवेक रखकर ही कर्म अकर्म विचार में क्रिया प्रमुख तत्व नहीं होती कर्म कर । ऐसे कर्मों का कर्ता होने पर भी वह है प्रमुख तत्व हैं कर्त्ता का चेतन पक्ष । यदि चेतना साधक निष्कर्म ही कहा जाता है । निष्कर्मता के जाग्रत है, अप्रमत्त है, विशुद्ध है, वासना शून्य है, जीवन में उपाधियों का प्राधिक्य नहीं होता, लेकिन षार्थ दृष्टि सम्पन्न है तो फिर किया का बाह्य प्रदर्शन नहीं होता । उसका शरीर मात्र योग क्षेत्र | स्वरूप अधिक मूल्य नहीं रख सकता । पूज्यपाद का (शारीरिक क्रियानों का वाहक) होता है। कहते हैं जो प्रात्मतत्व में स्थिर है वह बोलते हुए गीता कहती है ---आत्मविजेता, इन्द्रियजित सभी भी नहीं बोलता है, चलते हुए भी नहीं चलता है, प्राणियों के प्रति समभाव रखने वाला व्यक्ति कर्म बहावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-39 | Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कर्ता होने पर निष्कर्म कहा जाता है । वह कर्म समाविष्ट है। सूत्र कृतांग के अनुमार जो प्रवृतियाँ से लिप्त नहीं होता । जो फलासक्ति से मुक्त होकर प्रमाद रहित हैं, वे अकर्म हैं। तीर्थ करों की संघ कर्म करता है वह नैष्ठिक शान्ति प्राप्त करता है। प्रवर्तन प्रादि लोक कल्याण कारक प्रवृतियां एवं लेकिन जो फलासक्ति से बन्धा हुअा है वह कुछ सामान्य साधक के कर्मक्षय (निर्जरा) के हेतु किये नहीं करता हुअा भी कर्म बन्धन से बन्ध जाता गये सभी साधनात्मक कर्म अकर्म है। संक्षेप में जो है। गीता का उपरोक्त कथन सूत्रकृतांग के कर्म राग-द्वेष से रहित होने से बन्धन कारक नहीं निम्न कथन से भी काफी निकटता रखता है। हैं वे अकर्म ही हैं। गीता रहस्य में भी तिलकजी सूत्रकृतांग में कहा गया है-मिथ्या दृष्टि व्यक्ति का ने यही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है-कर्म और सारा पुरुषार्थ फलासक्ति से युक्त होने के कारण अकम का जो विचार करना हो तो वह इतनी अशुद्ध होता है और बन्धन का हेतु है। लेकिन ही दृष्टि से करना चाहिए. कि मनुष्य को वह कर्म सम्यक् दृष्टि वाले व्यक्ति का सारा पुरुषार्थ शुद्ध है. कहाँ तक बद्ध करेगा, करने पर भी जो कर्म क्योंकि वह निर्वाण का हेतु है। हमें वद्ध नहीं कहता उसके विषय में कहना चाहिए इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों ही प्राचार कि उसका कर्मत्व अथवा वन्धकत्व नष्ट हो दर्शनों में अकर्म का अर्थ निष्क्रियता तो विवक्षित. गया। यदि किसी भी कर्म का बन्धकत्व अर्थात् नहीं है लेकिन फिरभी तिलकजी के अनुसार यदि कर्मत्व इस प्रकार नष्ट हो जाय तो फिर वह कर्म इसका अर्थ निष्काम बुद्धि से किये गये प्रवृतिमय अकर्म ही हुमा-~-कर्म के बन्धकत्व से यह निश्चय सांसारिक कर्म माना जाय तो वह बुद्धि संगत किया जाता है कि वह कम है या अकम ।। 3 जैन नहीं होगा। जैन विचारणा के अनुसार निष्काम और बौद्ध प्राचार दर्शन में अर्हत के क्रिया व्यापार बुद्धि से युक्त होकर अथवा वीतरागावस्था में सांसा- को तथा गीता में स्थित प्रज्ञ के क्रिया व्यापार को रिक प्रवृतिमय कर्म का किया जाना ही सम्भव बन्धन और विपाक रहित माना गया है, क्योंकि नहीं है। तिलकजी के अनुसार निष्काम बुद्धि से अर्हत या स्थितप्रज्ञ में राग-द्वेष और मोह रूपी युक्त हो युद्ध लड़ा जा सकता है, लेकिन जैन वासनाओं का पूर्णतया प्रभाव होता है अतः उसका दर्शन को यह स्वीकार नहीं है । 70 उसकी दृष्टि क्रिया व्यापार बन्धन कारक नहीं होता है और में अकर्म का अर्थ मात्र शारीरिक अनिवार्य कर्म ही . इसलिए वह अकर्म कहा जाता है। इस प्रकार अभिप्रेत है। जैन दर्शन की ईर्यापथिक क्रियाए तीनों ही आधार दर्शन इस सम्बन्ध में एक मत हैं प्रमुखतया अनिवार्य शारीरिक क्रियाए ही हैं ।"1 कि वासना एवं कषाय से रहित निष्काम कर्म गीता में भी प्रकर्म का अर्थ शारीरिक अनिवार्य अकर्म है और वासना सहित सकाम कर्म ही कर्म कर्म के रूप में ग्रहित है । (4/21) आचार्य शंकर है बन्धन कारक है। ने अपने गीताभाष्य में अनिवार्य शारीरिक कर्मों . उपरोक्त प्राधारों पर से निष्कर्ष निकाला जा को अकर्म की कोटि में माना है। लेकिन थोड़ी सकता है कि कर्म अकर्म विवक्षा में कम का चैतअधिक गहराई से विचार करने पर हम पाते हैं सिक पक्ष ही महत्वपूर्ण कार्य करता है । कौनसा कर्म कि जैन विचारणा में भी प्रकर्म अनिवार्य शारी- बन्धन कारक है और कौनसा कर्म बन्धन कारक रिक क्रियाओं के अतिरिक्त निरपेक्ष रूप से नहीं है इसका निर्णय क्रिया के बाह्य स्वरूप से जनकल्याणार्थ किये जाने वाले कर्म तथा कर्मक्षय नहीं वरन् क्रिया के मूल में निहित चेतना की के हेतु किया जाने वाला तप स्वाध्याय आदि भी रागात्मकता के प्राधार पर होगा। पं. 1-40 _महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती समारोह 1977 जलूस का एक विहंगम दृश्य Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख नालजी कर्म की भूमिका में लिखते हैं कि (रागादिभाव) नहीं है तो ऊपर की कोई भी क्रिया साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम प्रात्मा को बन्धन में रखने में समर्थ नहीं है। नहीं करने से अपने को पुण्य पाप का लेप नहीं इससे उल्टा यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान लगेगा । इससे वे काम को छोड़ देते हैं पर बहुधा है तो ऊपर से हजार यत्न करने पर भी कोई अपने उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूट ती। इससे वे को बन्धन से छुड़ा नहीं सकता।-इसी से यह इच्छा रहने पर भी पुण्य पाप के लेप (बन्ध) से कहा जाता है कि प्रासक्ति छोड़कर जो काम अपने को मुक्त नहीं कर सकते ।-- यदि कषाय किया जाता है वह बन्धक नहीं होता है। 1. अभिधान राजेन्द्र खण्ड 5 पृ० 876 2. बोल संग्रह, भाग 3, पृ० 182 3. बौद्ध दर्शन और अन्य भारतीय दर्शन पृ० 480 4. अभिधम्मत्थसंगहो, पृ० 19-20 5. मनुस्मृति 12/5-7 6. तत्वार्थ०, पृ० 6/ 4 7. योगशास्त्र 4/107 8. स्थानांग टी. 1/11-12 9-10. जैनधर्म, पृ० 84 11. भगवती 7/10/12 12. स्थानांग 9, 13. अभिधम्मत्थ संगहो (चैतसिक विभाग) 14. गीता 18/17 15. धम्मपद 249 16. सूत्रकृतांग 2/6/27-42 17. जैन धर्म, पृ० 160 18. दर्शन और चिन्तन खण्ड 2, पृ० 226 19. सूत्रकृतांग 2/6/27-42 20. सूत्रकृतांग 1/1/24-27-29 21. देखिये 18 पाप स्थान प्रतिक्रमणसूत्र 22. अनुयोगद्वार सूत्र 129 23. दशवै० 4/9 24. सूत्रकृतॉग 2/2/4/पृ० 104 25. दशवै० 6/11 26. सूत्रनिपात 37/27 27. धम्मपद 129-131-132 28. गीता 6/32 29. म०मा० शा० 258/21 30-31. म०भा०अनु० 113/6-10 32. म०भा० सुभाषित संग्रह से उद्धृत 33. नीति सर्व पृ० 268 से उद्धृत 34. उत्तरा० 28/14 35. तत्वार्थ० 1/4 36. इसि० 9/2 37. समयसार 145-146 38. प्रवचनसार टीका 1/72 39. समयसार टीका पृ० 20740. सूत्तनिपात 32/11 41. सूत्तनिपात 32/38. 42. गीता 9/28 43. गीता 2/50 44. गीता 12/16 45. भगवत् गीता (रा०) पृ० 5646. गीता 7/28 47. इथिकल स्टडीज, पृ० 314 48. इथिकल ज स्टीडीज, पृ० 342 49. गीता 4/16 50. सूत्रकृतांग 1/8/22-24 51. गीता 4/16 52. सूत्रकृतांग 1/8/1-2 53. सूत्रकृतांग 1/8/3 54. प्राचाराग 7.4/2, 1 55. डेवलपमेन्ट आफ मारल फिलासफी इन इंडिया, पृ० 168-174 56. गीता 27/19 57. गीता 18/17 58. गीता 3/10 59. गीता 3/6 60. गीता 18/17 61. गीता 4 18 62. इष्टोपदेश 41 63. पुरुषार्थ 45 64, उत्तरा 32 99 65. गीता 4/20 66. आचारांग 1/3/2/4, 1/3/1/110 देखिए प्राचारांग (संतबाल) परिशिष्ठ पृ० 36-37 67. गीता 5/7, 5/12 68. सूत्रकृतांग 1/8/22-23 69. गीत रहस्य 4/16 (टिप्पणी) 70. सूत्रकृतांग 2-2/12 71. गीता (शां०) 4/51 72. गीता भाष्य 73. गीता रहस्य पृ० 68474. पीछे देखिए-नैतिक निर्याय का विषय, पृ० 75. कर्मग्रन्थ-प्रथम भाग भूमिका, पृ० 25-26 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-41 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-42 ॐ श्री वीर स्तवन 5 ॐ डा० वड़कुल डी. एल. जैन 'धवल' बरेली म.प्र. फ्र ******************❀❀❀❀❀❀ म्हारे मन मन्दिर में श्रान, पधारो महावीर भगवान || टेक ॥ हुआ था पाप तिमिर सब दूर, किया मिथ्यास तुम्ही ने चूर । तुम्ही तम दूर किया अज्ञान, मिटाई जग से हिंसा मन ।। १ ।। किया मन इन्द्रभूति का शुद्ध, कहाये गोतम-गणी प्रबुद्ध | प्रसारा विश्व अनन्ता ज्ञान, लिया बहु प्राणित शिवस्थान || २ || देखकर ज्योतिष फल श्रवरुद्ध, दर्श कर पुष्पक हुआ विशुद्ध । तजे सब पोथी पृष्ठ, म्लान, किया तप पाया मोक्ष-सोपान || ६ ॥ हुआ आश्चर्य अरण्य - विशाल, कालिया तड़पा दुख से व्याल | क्षमा कर दीना मन्त्र महान् मिला तब उसको स्वर्ग -विमान ॥ ४ ॥ करें प्रभु हम विनती कर जोर न पावें फिर से जीवन और । हो ऐसा 'धवल' श्रात्मा ज्ञान, करें अध पावें मुक्ति-निदान ।। ५ महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयत्न ही साधना है। प्रायः सभी भारतीय दार्शनिकों का लक्ष्य मुक्ति लाभ है। इस हेतु प्रत्येक दार्शनिक ने साधना पति का निरूपण किया है । महावीर दर्शन की भी अपनी साधना पद्धति है। वत, तप, ध्यान, स्वाध्याय, पूजा पाठ प्रादि सब उसी साधना के अंग हैं । इस साधना पद्धति में छिपे रहस्य का, वास्तविक साधना के स्वरूप का दिग्दर्शन पाठक चिन्तनशील रचनाकार को इस रचना में पावेंगे। --पोल्याका - जैन साधना का रहस्य • श्री जमनालाल जैन, सहसम्पादक 'श्रमण' आई. टी. आई. रोड़ वाराणसी-5 साधना वह वैचारिक प्रक्रिया तथा सामाजिक बल्कि मृत्यु के क्षण तक चलता रहता है। यह नाचरण अथवा शामिक अनुशासन है जिसके एक प्रकार की साधना ही है। अभ्यास द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को सार्थक जीवन निरन्तर गतिशील है और हमारी करना चाहते हैं। व्यक्तित्व की सार्थकता का सबै मावश्यकताएं इस गतिशीलता के आधार पर प्रथम एव मूलभूत प्राधार हमारा शरीर है । हम घटती-बढ़ती रहती हैं। प्रारम्भ में यानी बाल्यकाल शास्त्रों का, मत-मतान्तरों का, परम्परामों का, में हमें इस जीवन की गतिशीलता का ज्ञान नहीं प्राध्यात्मिक जाति का अभ्यास एवं प्रयास कर रहता, इसलिए आवश्यकताएं भी सीमित होती या न करें, हमें जो शरीर प्राप्त है उसको टिकाए हैं। जैसे-जैसे मनु य अपनी गतिशीलता अथवा रखने, उसे सक्षम बनाने एवं उससे काम लेने के व्यक्तित्व को समझने लगता है वैसे-वैसे उसकी लिए नितांत आवश्यक है कि उसे साधा जाय। Tranam श्री व्यापक mi fair माडी आवश्यकताए भी व्यापक एवं विराट रूप लेती जान अनजान हमारा शरीर जन्म के क्षण से सक्रिय है। खाने-पीने, नहाने-धोने, उठने बैम्ने, चलनेरहता है। प्रवृति इसमें सहायक होती है । माता-फिरने, सोने-जागने, पहनने-अोढ़ने जैसी सामान्य पिता का या परिवार का वातावरण इसमें सहायक प्रतीत होने वाली बातों में भी मनष्य आगे चलकर होता है। शरीर विकास क साथ-साथ ज्यों-ज्यों काफी सावधान एवं जागरूक होने लगता है और इन मानसिक विकास होता है, बौद्धिक क्षमता बढ़ती है। बातों की भी आचार संहिता उसके मानस पर छा त्यों-त्यों हमारी प्रक्रियाएं एवं प्रवृत्तियां भी नए- जाती है। परम्परा, संस्कार, सामाजिक व्यवहार 'नाग नए रूप ग्रहण करती हैं। और यह क्रम एक दो रिक शिष्ट चार एवं कानून के सन्दर्भ में विकासवर्ष तक या दस-बीस वर्ष तक ही नहीं चलता, मान् मनुष्य अपने जीवन का, उसकी गतिशीलता महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-43 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मूल्यांकन करता है एवं उसे सार्थक सिद्ध करने सहज मानी जाने वाली क्रियानों अथवा प्रवृत्तियों में के लिए अपनी सहज क्रियाओं को वैधानिक जामा सम्पूर्ण विश्व की प्रात्म-सावना का उम्मष करने पहना देता है । का महान प्रयास किया गया है। यह साधारण घटना नहीं है जबकि अजुन श्रीकृष्ण से या पशु-पक्षियों की इन्हीं सहज प्रवृत्तियों को हम गणधर गौतम महावीर से साधारण सी प्रीत साधना नहीं कहते, क्योंकि उनकी इन सहज होने वाली उठने-बैठने, चलने-फिरने, खाने-पीने प्रवृत्तियों या कार्य-कलापों में कभी कोई विकास र क्रियानों के विषय में मार्ग-दर्शन चाहते हैं। नहीं हुआ । सरकस में काम करने वाले या विशिष्ट संस्थानों में प्रयोजनवश प्रशिक्षित पशुनों के व्यव- वस्तुत: देखा जाय तो सम्पूर्ण मानव जीवन हार-विशेष को साधना अवश्य कह सकते हैं। ही साधना मय है। जीवन अपने में साधना ही है । किन्तु इसकी भी एक मर्यादा है। मनुष्य की ऐसी जैसे प्रत्येक व्यक्ति का जीवन अद्वितीय होता है, मर्यादा नहीं है, सीमा नहीं है। ममूल्य होता है, वैसे ही साधना भी अनन्तरूपिणी है। सामान्यतः समान प्रतीत होने वाली एक छोटी मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो अपनी प्रत्येक सी दैनिक क्रिया भी प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न होती प्रवृत्ति, प्रत्येक कर्म एवं प्रत्येक भावना के साथ और एक व्यक्ति की भी वह दैनिक क्रिया प्रतिदिन विकासशील रहा है और इसी प्रकार उसने ज्ञान- एक सी नहीं रह पाती । ऐसा न हो तो मनुष्य जड़ विज्ञान का प्रतुल्य, अकूत कोष अपने में समाहित हो जायेगा, उसके ज्ञान का स्रोत सूख जायेगा, करता गया है। उसका आत्म-दीपक बुझ जायेगा। संसार के अनेक धर्मों ने मानवीय क्षमता के फिर भी साधना को भौतिक, नैतिक, एवं विकास को ध्यान में रखकर, अपने-अपने समय में प्राध्यात्मिक इन तीन वर्गों में विभाजित कर सकते व्यक्तित्व की सार्थकता के कई मायाम उदघाटित हैं। इन्हें हम व्यक्तिपरक, समष्टिपरक एवं आत्मकिये । खान-पान तथा चलने-फिरने से लेकर परक भी कह सकते हैं । भौतिक साधना में वे सब पात्मसिद्धि या परमात्म-प्राप्ति तक; समग्र जीवन चीजें ली जा सकती हैं, जो शरीर संरचना से को समटने वाली हजारों-हजार क्रियाओं पर धर्म- लेकर जीवन-संरक्षण तक पाती हैं। इनमें किसी प्रवर्तकों ने या अनुभवी महापुरुषों ने अपने विचार सीमा तक शरीर शुद्धि को भी जोड़ा जा सकता प्रकट किये हैं। छोटी से छोटी क्रिया को भी है। अपनी प्रावश्यकतानों की पूर्ति एवं उपभोग के उन्होंने साधना का स्वरूप दिया। प्रत्येक क्रिया लिए किया जाने वाला प्रयास इसमें पा जाता है । को धर्ममय कहकर उन्होंने क्रिया की प्राण-प्रतिष्ठा नैतिक साधना का क्षेत्र व्यक्ति से ऊपर उठकर की। इससे क्रियानों की गरिमा बढी, उनके प्रति समाज तक बढ़ जाता है। व्यक्ति को समाज में, सजगता बढ़ी और पारस्परिक व्यवहार में चेतनता सबके साथ रहना है, समाज के प्रति उसके अनेक का प्रवेश हुआ । जैसे कलाकार पाषाण के कण- कर्तव्य एवं दायित्व होते हैं, अपने सम्पर्क में आने कण में विराट सौन्दर्य की अनुभूति करते हुए मूर्ति वालों के प्रति उदारता, मृदुता, विनयशीलता का का निर्माण करके अपनी सम्पूर्ण चेतना-ऊर्जा बर्ताव करना पड़ता है । इन सब के लिए उसे उसमें उड़ेल देता है और वह मूर्ति हमारे समक्ष सामाजिक नियमों का पालना करना पड़ता जीवन्त हो उठती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की है। सामाजिक धरातल पर व्यक्ति 1-44 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब अपने जीवन को तोलता है, तब उसका जाता है, तब प्राचार में जड़ता आ जाती है । इस प्राचार नैतिक नियमों के पालन में व्यक्ति को जड़ता के निवारण के लिए भी प्रयास करना अपने परिवार, पास-पड़ोस, गांव तथा राज्य-राष्ट्र पड़ता है। भारतीय धर्मों में वैदिक, जैन और के लिए त्याग भी करना पड़ता है, क्योंकि उसके बौद्ध अपनी विशेषता एवं महत्ता रखते हैं । वैदिक जीवन का विकास भी समाज के अनेकमुखी त्याग धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्वतंत्र पर निर्भर करता है । अहिंसा आदि पांचव्रत, मैत्री चिंतकों के कारण उसमें युगानुकूल प्रवृत्तियों का प्रमोद प्रादि भावनाए परस्पर उपग्रह प्रादि नैतिक समावेश होता गया और व्यक्ति को यह स्वतंत्रता साधना के साधन हैं। रही कि चाहे जिस मार्ग को अपना कर कल्यारण साधना करे । जैन धर्म की साधना पद्धति मूल में तीसरी भूमिका प्राध्यात्मिक है । प्राध्यात्मिक एक प्रकार की रही, उसके साधनों में यदकदा कुछ साधना में व्यक्ति शरीर एवं सामाजिक म दिाप्रों हेरफेर होता रहा । जैन साधना का मौलिक से ऊपर उठ कर ऐसी भूमिका में प्रवेश करता है प्राधार दार्शनिक विचार रहा बो वैदिक धर्म से जहां आसक्ति और प्राकुलता नाम की कोई चीज सर्वथा भिन्न है। नहीं रह जाती । धीरे-धीरे वह शरीर-शुद्धि करते हुए पात्म शुद्धि की स्थिति को उपलब्ध करना वादक धर्म ने जहाँ कम, भक्ति, और ज्ञान पर अपना लक्ष्य बना लेता है। मानसिक एवं शारी- साधना का भवन निर्मित किया वहां जैन धर्म ने रिक विकारों को दूर करने के लिए वह मासन दर्शन, ज्ञान और चारित्र की एकता पर बल दिया ध्यान, प्राणायाम आदि के प्रयोग करता है और जैन साधना का लक्ष्य हा परमात्म-पद की प्राप्ति अपने अस्तित्व का चिंतन करता है। धामिक परि. जब कि वैदिक साधना का लक्ष्य रहा है परमात्मा भाषा में ऐसे व्यक्ति साधु-संन्यासी या श्रमण कहे में लीनता । इसी लिए हम देखते है कि जैन मनीजाते हैं। इनकी प्राचार संहिता बिलकुल अलग षियों ने वैदिक धर्म के क्रियाकांडो में प्रारही जड़ता प्रकार की होती है । सम्पूर्ण, जीब सृष्टि एवं का पूरी शक्ति के साथ विरोध किया । जटा प्रकृति के साथ प्रात्म-भ ब स्थापित करने की दिशा बढ़ाना, नी में स्नान करना, श्राद्ध करना, तर्पण में उनकी हर क्रिया इतनी सावधानीपूर्वक होती है करना, सूर्यादि ग्रहण के साथ व्रत-दान करनी कि कभी-कभी प्रबोध मन को ये सब बातें हास्या- यज्ञोपवीत धारण करना, आदि सैकड़ों क्रियाओं स्पद भी लगती हैं। अपने शरीर के प्रति अनासक्त को साधना का अग मानने से जैनो ने इनकार या उदासीन होकर समस्त जीवों के शरीरों में करके साधना के क्षेत्र में महान् क्रान्ति की था प्रपने को और अपने में सृष्टि-विग्रह को समाहित इसमें संदेह नहीं। करने की यह साधना इतनी सूक्ष्म एवं कठिन होती है कि निरन्तर अभ्यास के बावजूद फिसलने का जैन साधना की गति वीतरागता की और है । भौतिक सुख सुविधाओं अथवा बाह्य समृद्धि का डर रहता है। जीवन में कोई महत्व यहां स्वीकार नहीं किया प्राध्यात्मिक साधना को प्रायः सभी धर्मों ने गया जो यह मानता है कि मैं सुखी-दुखी हूं, राजा महत्व दिया है । सबके अपने-अपने मार्ग हैं, विधियां रंक हूँ, सुन्दर-असुन्दर हूं, सम्पन्न-विपन्न हूँ, वह हैं और प्राचारगत विशेषताएं हैं । जब साध्य जैन धर्म की दृष्टि में बहिरात्मा है । बहिरात्मा वह प्रोझल हो जाता है और साधन ही प्रमुख बन जो मोहासक्त है, मिथ्या में जीता है और जिसे महाबीर जयन्ती स्मारिका 78 1-45 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने अस्तित्व की यथार्थता का पता नहीं है। ऐसे : से पलायन नहीं करता और न यह अभिव्यक्त होने व्यक्ति को जैन धर्म बेहोश कहता है । वह मोह देता है कि वह किसी भी प्रकार से असामान्य या की महावारूणी पिये हुए है । वह जानकर भी : विशिष्ट है । भौतिक सामग्री वा वैभव को सच्चा नहीं जानता, देखकर भी नहीं देखता । जब गुरु: साधक प्रात्मभाव से देखता है और उनका उप. प्रसाद से बहिरात्मा को अपने अस्तित्व का, अपने योग प्राध्य त्मिक दृष्टि से करता है । यहां फिर जीवन के मूल्य का ज्ञान होता है और संसार की वही बात दोहराने की जो करता है कि कलाकार नश्वरता का दर्शन खुली आँखो से करता है, तो के लिए पत्थर का छोटा सा कर भी उसकी विशाल वह इन सबसे विरक्त होकर अंतर्मुख हो जाता एवं व्यापक भगवत् भावना का अश है। अपने है। तब उसे सारा बाह्य वैभव, माया और छलावा कर्म को व्यक्ति जब सर्वात्मभाव से सम्पन्न करता लगने लगता है। वह तब निर्ग्रन्थ हो जाता है। है और उसमें उपका स्वार्थ तिरोहित हो जाता है, समस्त ग्रन्थियों को खोलकर उन्मुक्त हो जाता है। तब वह केवल कर्म नहीं रह जाता-वह अकर्म ही सारे बाह्य सौन्दर्य में उसे विरूपत। दिखाई देने हो जाता है। योगीन्दु देव ने लिखा हैलगती है। एक जाज्वल्यमान प्रात्मा का स्मरण वह करता है। भेद विज्ञान उसमें जाग जाता है, जहि भावइ तहि जहि जिय जंभावइ करि तंजि ! और वह अपना ही दीपक बन जाता है। केम्वइ मोक्ष अत्थि पर चिनहं सुद्धि रणंज जि ।। . परमात्मप्रकाश, 2/70 जैन-साधना की कुछ पद्धति तो है, पर पद्धति का उपयोग साधन: के तौर पर ही किया जाता -हे जीव जहाँ खुशी हो जानो और जो मर्जी है। अन्ततः तो सब पद्धतियों से परे होने पर ही हो कगे, किंतु जब तक चित्त शुद्ध नहीं हो तब साध्य की उपलब्धि होती है। पद्धतियां तो फिस. तक मोक्ष नहीं मिलेगा। लन से, भटकाव से बचने के लिए सकेत मात्र है। जैन श्रमण परंपरा की यह अनोखी विशेषता पद्धतियां तो अनुभवियों के प्रयोग हैं जिनसे सबक रही है कि हस्यवर्ग से निरंतर संपर्क रखते हुए लेकर साधक को अपना मार्ग तय करना है। भी, उनसे प्रतिदिन आहारादि प्राप्त करते हुए भी ___ प्रश्न यह है कि क्या भौतिकता को अध्यात्म श्रमण आकाक्षायों से परे रहते हैं और भ्रामरीमें परिणत किया जा सकता है? भौतिकता की वृत्ति से विचरण करते हैं। फूल मे अपनी प्रावनिन्दा करना और उसे छोड़कर जंगल का रास्ता श्यकता भर का पराग ग्रहण करने वाले भ्रमर का अपना लेना कठिन नहीं है, किन्तु इसमें साधना का का जीवन जैन श्रमरणों की चर्चा के लिए उत्तम दृष्टासूत्र हाथ से छट जाता है । पचेन्द्रिय के विषयों पर न्त रूप में प्रस्तुत किया जाता है। विजय प्राप्त करने के लिए शास्त्रों में अनेक उपायों ' जैन धर्म या दर्शन क" अपना कर्म सिद्धान्त से का उल्लेख मिलता है और यह भी कि घर छोड़ है। उसका भाग्य या कर्तव्य से दूर का भी संबध कर अनगार बन जाना चाहिए। अनेक साधक नहीं है । यह कर्म सिद्धान्त दार्शनिक निप्पत्ति है मुनिवेश धारण करके विचरण भी करते हैं । प्रार- जिसके अनुसार व्यरित सम्धक श्रद्धा, सम्यक्ज्ञान मिभक अभ्यास की दृष्टि से इसका महत्व अवश्य एवं सम्यक चरित्र के समन्वित मार्ग पर, संतुलनहै, किन्तु सम्यक्साधना में यह सब बात गौण हो पूर्वक साधना करता हा अपने साध्य को प्राप्त जाती हैं । सम्यक् साधना में व्यक्ति कहीं किसी करता है । वह त्यागने के लिए कुछ नहीं त्यागता, 1-46 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहण करने के लिए कुछ ग्रहण नहीं करता। लाख बात की बात यह निश्चय उर लायोः। उसका लक्ष्य होता है अपनी चेतना में से सब छोड़ सकल जग दंद-फंद निज प्रातम ध्यारो ।। प्रकार की जड़ता-आजीवता को समाप्त करना अथवा निर्जीवता मात्र को अपनी चेतना या स्फू । ....... अपनी आत्मा का ध्यान या चिन्तन स्वार्थ तिद्वारा सजीव बनाकर उसके प्रति समभाव स्था नहीं है क्योंकि प्रात्मा की शक्ति परिमित नहीं , है और उसकी ज्योति ब्रह्माण्डव्यापी है। एक पित करना। प्रात्मा में सर्वशक्ति का निवास है, इसलिए वह जैनाचार्यों ने व्यर्थ साधनाओं को कोई महत्व विश्व कल्याण से विपरीत स्थिति नहीं है। नहीं दिया। भौ िकता में रचे पचे लोगों के लिए भगवान महावीर ने सूत्र रूप में कहा है- जो एक ऐसी साधनाए हैं जो आकर्षण का कारण बन सकती को जानता है वह सबको जानता है। हम सब है प्रोर जिन में किसी अनोखी चमत्कृति का दर्शन अपने को पहचान लें विश्व तो तब जाना हुआ ही होता है । वे जन पूज्य भी बन जाते हैं । पानी पर समभो । लेकिन वास्तविकता यह है कि मनुष्य चलना, दीवाल को चला देना, दिन में तारे उगा नानावेश या रूप धारण करके भी अपने को नहीं देना, मनचाही वस्तु को निमिष मात्र में उपस्थित । जान पाता। उसकी प्रांखे निरन्तर अपने से बाहर, कर देना, भविष्यवाणी करना, दूसरे के मन की दूर विश्व के मंच पर परिवर्तन-शील दृश्यों को बात जान लेना, ग्राग में कूद पडना, शुली पर लेट देखने में लगी रहती है, जो कि अपने में एक माया जाना, या शस्त्र रिया द्वारा अंग भग करना, है, ग्रन्थि है । माया के यथार्थस्वरूप को जानने प्रादि सैकड़ों प्रकार की साधनाओं में लोग वर्षों के लिए भी अपने को जानना नितांत आवश्यक है। तक लगे रहते हैं । लेकिन जैन धर्म ने इन प्रक्रि- : जैन यागम-ग्रन्थों में जो कथाएं मिलती हैं, धानों को लोकेषणा कहा है, कषाय कहा है। उनका कलागत मूल्यांकन करना, साहित्य मनीसाधना तो वही उपादेय है जो रागद्वेष से विरत । । 'षियों का कार्य भले हो, उन कथाओं के भीतर करे पंडित दौलतराम जी ने स्पष्ट कहा है एक शाश्वत सत्यं पालोकित है कि मुक्ति की यह राग प्राग दहै सदा तातें समामृत से इथे। साधना के पथ पर चलने में यात्री बार-बार चिरभजे विषय कषाय, अब तो त्याग निजपद बेइये। फिसलता है, खाई-खन्दक में गिरता है, जन्म -छहढाला जन्मान्तर के अंपार दुःख-सागर में डूबता है, कभी-कभी सुख-स्वर्ग में भी भोगैश्वर्य-सम्पदा सारांश यह कि समस्त चराचर जगत् के प्रति प्राप्त करता है । परन्तु यह सब तो पथ के अवरोध समभाव रखने की साधना सर्वोपरि साधना है। हैं. शल कांटे हैं। इससे उत्तीर्ण होने पर ही सिद्धि मापेक्ष अथवा साकांक्ष साधना से भोगैश्वर्य प्राप्त हाथ लगती है। जब व्यक्ति 'मैं' से मुक्त होकर हो सकता है । स्वर्ग तक मिल सकता है, और तो . 'सर्व' का हो जाता है, अपने को श य कर देता प्रौर कल्पनातीत अनुत्तर विमान का सुख भी मिल है अपने में से कर्ताभाव को समाप्त कर देता है। सकता है। किन्तु निलकुल सुख की प्राप्ति तो पता से अविरता के भवन में चरण साम्यावस्था से ही उपलब्ध हो सकती है । मोक्ष धरता है। भी अन्ततः अपनी अकांक्षात्रों से मुक्त होना ही है । छहढालाकार ने निष्कर्ष रूप में लाख टके की जैन-साधना व्यवहार और निश्चय के रूप में बात कही है द्विविध हैं। यह द्विविध साधना भी श्रावक धर्म पदावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-47 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं श्रमण धर्म के रूप में द्विविध है। श्रावक की चेतना प्रकृतिस्थ हो जाती है--वह परम दिगम्बर - साधना व्यवहार प्रधान होते हुए भी उसकी दृष्टि (निग्रन्थ) हो जाता है। दिगम्बर केवल रूढ़ निश्चयमूलक साध्य पर होती है। श्रावक की नग्नता के अर्थ में नहीं, बल्कि सम्पूर्णमना वह साधना निश्चय का पूरक होती है, तभी वह एक दिशात्रों के विराट वस्त्र को प्रोढ़ लेता है। संसार समय समस्त बाह्यतानों से निवृत्त श्रमण-मार्ग . में रहकर भी वह संसार का नहीं रह जाता। की ओर प्रवृत्त होता है --- अन्तर्मुख होता है। श्रमण के लिए जैन शास्त्रों में अट्ठाइस मूलगुणों धावक धीरे-धोरे एकादश सोपानों पर चढ़ता है। के पालन का विधान है। वे निरन्तर बारह अनुयह ठीक है कि उसकी यह व्यवहार-साधना खान- प्रेक्षात्रों का चिन्तन करते हैं। दश धर्मों का पान, तथा स्थूल व्रतों तक सीमित होती है, उसका पालन करते हैं। मन, वचन, काय का गोपन करते समूचा व्यवहार परस्पर-सापक्ष होता है, एवं हैं। और चलने, बोलने, खाने-पीने भादि के रूप सांसारिक समस्याओं में प्राबद्ध भी होता है, किन्तु में पांच समितियों का सावधानीपूर्वक आचरण अनादिकालीन मोहनीय संस्कारों एवं मिथ्यात्वों करते हैं। इस प्रकार की साधना का प्रतिपादन से ग्रस्त जीवन को एक नई दिशा देते समय ऐसा अन्यत्र दुर्लभ है। नैतिक चारित्र भी बड़ा क्रान्तिकारी होता है। इस साधना में एक ऐसा तत्व दर्शन अन्तर्भूत श्रावक धर्म की जो प्राचार-संहिता जैन में प्रति. है जो साधक को साध्य से विमुख हीं होने देता। पतिपादित है वह अन्यत्र दुर्लभ हैं। बाहर से वह ___ सात तत्व एवं छः द्रव्यमूलक सृष्टि-यवरथा का न म ग नैतिक दिखती है, जरूर, लेकिन उसके बीज बहुत निदर्शन जैनदर्शन बी अपनी मौलिक देन है। इस गहरे गये होते हैं और उन में विशाल वृक्ष बनने तत्वज्ञान की प्राधारशिला पर ही समग्र साधना की की क्षमता होती है। सामाजिक शिष्टाचार के इमारत खड़ी है । कहने का तात्पर्य यह है कि केवल लिए या राष्ट्रीय चरित्र की एकरूपता के लिए नैतिक उपदेशों या कर्मकाण्डों के प्राधार पर नैतिक उपदेशों से भरी हुई प्राचार-संहिता मनुष्य की गई साधना मनुष्य को तप वी तो बना सकती को ऊपर ऊपर से आकर्षित करती है और उसे भी है, उसमें सहिष्णुता भी पा सकती है, किन्तु मैतिकता का मुखौटा लगाने की सुविधा मिल साध्य अस्पष्ट ही रहता है । जैन धर्म के अनुसार जाती है, किन्तु इतने से वह प्रात्म-विकास की साधक के समक्ष साध्य का चित्र स्पष्ट रहता है, ओर जाने में समर्थ नही हो जाता-बल्कि प्रात्म. और उसी के चतुर्दिक उसकी साधना का चक्रमण बंचक ही अधिक होता है । जैन प्राचार संहिता होता है। '; ने कभी शिष्टाचार का नैतिक उपदेश नहीं दिया । जैन साधक तप भी करता है। जैन साधक .. श्रावक के व्रतों की विशेषता यह है कि इन व्रतों के लिए बारह प्रकार के तपों का विधान है। को स्वीकार करने के उपरांत--इनमें से किसी छः तप बाह्य हैं और छः प्राभ्यन्तर । बाह्य तपों एक व्रत को भी किसी भी अश में स्वीकार करने के द्वारा साधक कभी अनशन करके, कभी मुख से । के उपरांत मनुष्य में बदलाव प्रारम्भ हो जाता है, कम खाकर, कभी सीमित पदार्थ ग्रहण करके, • क्योंकि यह व्रत स्वीकृति प्रात्मशोधन एवं प्रात्म कभी किसी रस को तज करके, और कभी शरीर शुद्धि के लिए होती है। को नियंत्रित करके वासनाप्रों पर अंकुश लगाता जब श्रावक की साधना प्रात्मशोधन के एक है, अभिलाषायों को संकोचता है । आन्तरिक तप बिन्दु पर पहुंच जाती है तो वहां उसकी समग्न के द्वारा वह ज्ञान-ध्यान पठन-पाठन-चिन्तन में 1-48 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती समारोह 1977 भाषण प्रतियोगिता का एक दृश्य सभा भ १०८ श्राचार्य श्री संभवसागर जी ससंघ मंच पर विराजमान हैं। विशाल सभा का एक दृश्य Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरत रहता है। तप के ये प्रकार मनोवैज्ञानिक तो एक सामान्य एवं स्थूल विधान मात्र है जिसके दृष्टि से बड़े मूल्ययान हैं। इनमें बाहरी तपन नहीं पीछे मानवीय ज्ञान-शक्ति की अवहेलना है। प्रारंभ है । लोगों को चमत्कृत करके प्रसिद्धि प्राप्त करने के 25 वर्षों तक ब्रह्मचर्याश्रम के पालन का विधान की अभीप्सा नहीं है और व्यर्थता भी नहीं है। मनुष्य को आगे 'भोग' में ले जाता है, जबकि जैन शरीर को सताने की अपेक्षा उसे हल्का-फुल्का एवं साधना के अंतर्गत ब्रहचर्यव्रत का विधान एक बार विकार-विवजित बनाने में जो तपस्या सहायक स्वीकार करने के बाद अत्याज्य है और इसी कारण हो, वही करने का इंगित इन तपों में है । ये तप वह मनुष्य को 'योग' की ओर ले जाता है । विश्व बाहर से दीखते भी नहीं हैं साधक इन्हें प्रदर्शित कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने संकेत किया है कि भी नहीं करता। सूर्य जैसे अपनी किरणों से 'जीवन एक अमर जवानी है, उसे उस प्रायु से संसार को प्रकाश के साथ-साथ जीवन देता है, नफरत है जो इसकी गति में बाधक हो जो दीपक वैसे ही इन द्वादश तपों से साधक अपने में तेज का की छाया की तरह जीवन का पीछा करती है। अनुभव व करता है और इस तेज से वातावरण को हमारा जीवन नदी की धारा की लहरों की तरह आलोक मिलता है । ये तप साधक के शरीर-दीप अपने तट से छूता है, इसलिए न कि वह अपनी को प्रज्वलित रखते हैं । तमोमय शरीर का दीपक सीमानों का बंधन अनुभव करे, बल्कि इसलिए कि बुझता नहीं है, उसका उत्सर्ग होता है, जो समूचे वह प्रतिक्षण यह अनुभूति लेता रहे कि उसका वातावरण में एक प्रकाश-किरण छोड़ जाता है। अनन्त मार्ग समुद्र की और खुला है। जीवन ऐसी कविता है जो छन्दों के कठोर अनुशासन में चुप जन-साधना में श्रायु की मर्यादा का कोई नहीं होती, बल्कि इससे अपनी प्रांतरिक स्वतंत्रता प्रावधान नहीं है। जिस मानव चेतना में और क्षमता को और भी अधिक प्रकट करती है। ज्ञान-किरण का उदय हो जाता है, वैराग्य की (साधना, पृष्ठ ६२-६३) उर्मि तरंगायमान होने लगती है, वह साधना के पथ पर आरोहण कर जाता है । अनेक उदाहरणों सावना का क्षेत्र विस्तार अनीम है, अनन्त में हम देखते ही हैं कि अल्पवय में ही अनेक पुरुष प्रकाश की भांति । किसी भी एक क्षेत्र या विषय ज्ञानी एवं संत पुरुष हो गये हैं । ज्ञान प्रात्मिक में साधना की ओर बढ़ने पर प्रत्येक जागरूक व्यक्ति ऊर्जा है, वह पोथी-पुस्तकों की चीज नहीं है। अपने को नितान्त अला या शून्य ही पाता है। कबीर तो कह ही गये हैं कि पोथी-पढ़ कर तो जीवन भर हुबकीयां लगाने पर भी अन्ततः लगता संसार मर ही गया, कोई पण्डित नहीं हुआ । एक है कि अभी तो विराट के एक विन्दु का भी स्पर्श तरुण भी श्रमण हो सकता है और एक वृद्ध भी नहीं हुप्रा है । बोलने को तो हम रात दिन बोलते माया-जाल में उलझा रह जाता है। उत्तराध्यनसूत्र रहते हैं, लेकिन यथार्थतः बोलने की विशेषताओं में अनाथीमुनि की एक ऐसी ही प्रतीक-कथा है। या गरिमा से हम अन्त तक अपरिचित ही रह जैन आगमों में अनेक तरुण तपस्वियों की गाथाएं जाते हैं । सर्वाधिक प्राचीन जैनागम आचारांगसत्र अकित हैं जो माता-पिता को घर में छोड़कर वन में साधु के लिये पाहार प्राप्त करना भी अहिंसा की की अोर प्रस्थान कर गये । मूल बात यह है कि दृष्टि से एक साधना ही है। पांचो इन्द्रियों से तथा पाश्रम व्यवस्था निर्माण करके मनुष्य जीवन को विभिन्न शारीरिक अवयवों से निरंतर काम लेते चार खडों में विभाजित करने की कल्पना ज्ञान हुए भी और यह जानते हुए भी कि इनका क्या प्रथवा साधना के मार्ग में सहायक नहीं होती। वह उपयोग एवं लाभ है, हम इनके प्रति कितने अन महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-49 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान रह जाते हैं ? सांस के बिना जीवन पल भर तियों में इस प्रकार की विशिष्टताए भले ही भी नहीं चल सकता, किन्तु क्या हम श्वासोच्छवास उपयोगी हों, किन्तु इस प्रकार मनुष्य सहजता से की सूक्षमतम प्रक्रियाओं अथवा विधियों से परिचित टूटता जाता है और परिणामतः विश्वःप्रकृति से रहते हैं ? यह जानना ही तो साधना है। एकरूप नहीं हो पाता। सन्त कबीर ने 'सहज समाधि' की बात कही है । लगता तो यह है कि ___ साधना की दिशा में कदम रखने का अर्थ है जीवन में सहज होना ही अत्यन्त कठिन है। संकल्प करना, एकाग्र होना, अपनी समस्त शक्तियों असामान्य या कठिन मार्ग अग्नाना अपेक्षाकृत को केन्द्रित करना ताकि उपलब्धि का बीज अकु प्रासान प्रतीत होता है। कोरी स्लेट पर बिल्कुल रित हो सके, वह कठोर अवरोध को भेदकर ऊपर सीधी रेखा खींचना ही कठिन है। जंगल में सीधे उठ सके ओर विशाल वृक्ष बन सके । संकल्पपूर्वक बिरवा बहुत कम होते हैं। हमारा जीवन भी अनेक सिद्धि ही साधना का फल है । यही बीज की वक्रताओं का घर है। वक्ताओं को मिटाने का स्वतंत्रता है । हमारे शरीर में परिव्याप्त चेतना नाम ही सहजता है। मन्दिर में जाकर मूर्ति के विश्व-चेतना का अंश होते हुए भी वह विश्व से मागे साष्टांग नमन करना हमारे लिए कठिन पृथक, तुच्छ या लघु नहीं है । उसमें सम्पूर्ण विश्व नहीं है । पर शयन की सहज क्रिया को ही प्रभुसमाहित है । बूद छोटी अवश्य है, पर सागर से नमन मानना बड़ा कठिन है। विश्व के साथ भिन्न नहीं है। तादात्म्य स्थापित करने या विश्व में अपने को किसी भी प्रकार की साधना का मूल आधार लीन करने के लिए हमारी भूमिका नदी के प्रवाह शरीर होता है । शरीर की सहायता से ही साधना की भांति होनी चाहिए कि वह सागर की ओर फलवती होती है । साधना से शरीर सक्षम बनता सहन बही चली जाती है । अंकुर सहज दृक्ष बनता चला जाता है। साधना का भार ढोने पर है और शरीर की क्षमता से चेतना में तेजस्विता प्राती है । जब आत्मा तेजस्वी होती है तो यह तन तो हम श्रमिक ही रह जाते हैं, श्रमण नही बन परमात्मा का मंगलधाम बन जाता है। शरीर के पाते । शरीर के अंग अपना कार्य कितनी सहजता प्रति प्रासक्ति न रखना आवश्यक है, लेकिन उसके से करते हैं कि उनके लिए हमें सोचना भी नहीं शत्रुता भी अनुचित है। जो लोग शरीर को सताने पड़ता। हम बालक से तमण और तरुण से प्रौढ़ में साधना देखते हैं, वे केवल बोझ ही ढोते है।' वृद्ध होते जाते हैं। परन्तु पता नहीं चलता कि यह सब कैसे घटित हो गया । तो साधना हमें विशिष्ट अवस्था, विशेष प्रासन, विशिष्ट करनी है सहजता की, ऋजुता की, भार-विहीन प्रकार का प्राहार-विहार, रहन-सहन, वेश, व्यायाम, होने की, और तभी हमारा यह तन प्रात्म दीपक प्राणायाम, जप, जाप, स्नान-ध्यान, अथवा प्रयास से ज्योतिर्मान होकर हमें वहां पहुचा सकता है को प्रायः साधना कहा जाता है । अमुक परिस्थि- जहां प्रात्मा की अन्तिम परिणति है। -1-50 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पापों से विरक्त होना व्रत कहलाता है । जैन दर्शन में पाप केवल एक माना गया है और वह है हिंसा । कोई भी क्रिया से जब तक उसमें हिंसा सम्मिलित न हो वह पाप रूप नहीं हो सकती । झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह हिंसा रूप होने के कारण ही पाप हैं । व्रती होने के लिए निःशल्य अर्थात् माया, मिथ्या और निदान से रहित होना प्रावश्यक है । प्ररण वत का पालन गृहस्थ और महाव्रत का पालन साधु करते हैं । वे जब प्रवृत्ति रूप होते हैं तो पुण्याश्रव के तथा निवृत्ति रूप होने पर संवर का कारण होते हैं । प्राज की भौतिक उन्नति से संत्रस्त मानव को भगवान महावीर द्वारा प्रणीत ये महावत किस प्रकार शांति और सुख के प्रदाता हैं इस प्रश्रन का उत्तर पाठक निम्न पंक्तियों में पावेंगे। -पोल्याका पांच महाव्रतों की वरीयता डा० शोभनाथ पाठक एम. ए., पी. एच. डी. (संस्कृत) साहित्य रत्न मेघनगर जिला झाबुग्रा, म. प्र. 457779 भौतिक चकाचौध में भटकता हुआ मानव इसी सम्बल से हम आज प्राकुल संसार को संवार आज अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर भले ही इत- सकते हैं । महावीर के पांच महावतों की महत्ता राये व अस्थाई सुख की अनुभूति कर उन्मत्त हो पर यहां संक्षिप्त प्रकाश डाला जा रहा हैजाय पर उसका अंतस् अाकुल है, प्रशांत है, अतृ- अहिंसा प्न है । अणु की विभीषिका न्यूट्रान की विनाश- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य लीला, समाज के संमुख महाकाल के समान मुह के सम्बल से संसार को सवारने वाले महावीर के बाए खड़ी है । मानवता इस महा प्रलय की कल्पना मिटान सिद्धान्त ही युग को उबारने में सक्षम है । भाज से ही कांप उठती है। संसार के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या जीवन को ऐसी विषम परिस्थिति में विश्व प्राज भारतीय सुरक्षित रखने की है । प्रायुधों की होड़ में विनाशसंस्कृति की ओर प्राशा लगाए युग को उबारने कारी अस्त्र-शस्त्र बन रहे हैं । ऐसी विषम परिस्थिति की बाट जोह रहा है। तथ्यतः प्राज वैज्ञानिक में अहिंसा की गरिमा को समझना नितांत आवश्यक उपलब्धियों से हम मानवता को संतुष्ट नहीं कर है । अतः हमें भगवान महावीर के प्रादों, उप. सकते वरन इसके लिए हमें भगवान महावीर के देशों को विश्वस्तर पर प्रसारित प्रचारित करना पांच महाव्रतों की वरीयता को परखना होगा। चाहिए । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-51 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अहिंसा परमो धर्म की " नींव पर भारतीय संस्कृति पल्लवित पुष्पित हो रही है । भगवान महावीर ने भी 'जीग्रो और जीने दो' के सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि: उंग्रहे य तिरिय, सव्वत्थ विरइं विज्जा, जे केई तसथावरा । ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, और तिर्यग्लोक इन तीनों लोकों में जितने भी त्रास और स्थावर जीव हैं उनके प्राणों का विनाश करने से दूर रहना चाहिए । वैर की शांति को ही निर्वाण कहा गया है । यदि केवल इसी विचार को ही मनुष्य अपना ले तो संसार के सभी प्राणी सुख का अनुभव करने लगेंगे। तथ्यतः जितना प्यारा हमें अपना प्राण है, उतना ही दूसरों को भी तोत्रिय है, फिर क्यों हिंसा की जाती है ? क्यों न उन्हें अपने ही समान समझा जाये । महावीर ने यही तो उपदेश युग कल्याण के लिए दिया था । संति निवारणमाहियं ॥ विरए गामधम्मेहि, तेसि 1-52 जे केई जगई जगा । अवुत्तमायाए, थामं कुव्वं परिव्वए || श्रर्थात् शब्दादि विषयों के प्रति उदासीन बने हुए मनुष्य को इस संसार में विद्यमान जितने भी स और स्थावर जीव हैं, उनको प्रात्मतुल्य मान, उनकी रक्षा करने में अपनी शक्ति का उपयोग करना चाहिए और इसी प्रकार संयम का भी पालन करना चाहिए । मनुष्य विवेकशील प्राणी है अतः उसे स्वयं विचार कर किसी को कष्ट नहीं पहुवाना चाहिए अपितु सभी प्राणियों के प्रति सहा नुभूति रखना ही सुखदायक है | भगवान महावीर ने समझाया है कि पुढ़वी य श्राऊ, अगरणी तर रूक्ख-वीया य तसा य पाणा ॥ जे. जे अण्डया संसेयया एवाइ एएस य बाऊ जाणो, पडिलेह एए कारण य प्रायदण्डे, य जराऊ पारणा । जे. 1 रसया भिहाण ॥ कायाई, पवेइयाइ । सायं 11 एएस या विप्परिया सुविन्ति ॥ अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, वायु, तृस्ण, वृक्ष श्रादि वनस्पति तथा अण्डज, जरायुज, स्वेदज, रसज, इन सभी त्रस प्राणियों को ज्ञानियों ने जीव समूह कहा है। इन सबमें सुख की इच्छा होती है, इस तथ्य को समझना चाहिए। इसे जानकर भी जो इन जीव कायों का नाश करके पाप का संचय करता है, वह बार बार इन्ही प्राणियों में जन्म धारण करता है । अत: अहिंसा के आधार पर विश्व के पोषण - पालन की समस्या पर गंभीरता से विचार अपेक्षित है । सत्य प्रपना राष्ट्रीय प्रतीक ही है । "सत्यमेव जयते" भगवान महावीर ने भी इसी सत्य की वरीयता का बखान करते हुए कहा है कि "तं सच्चं भयवं" अर्थात् सत्य ही भगवान है जो सत्य को ग्रप नाता है वह भगवान के समान हो जाता है महा महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर ने प्रसत्य बोलने को पाप मानकर सदा सत्य तं अप्पणा न गिव्हंति, बोलने का ही आह्वान किया यथा नौ वि गिण्हावए पर। मन्नं वा गिण्हमारणं वि, मुसाबानो य लोगम्मि, ___ नाणुजाणंति संजया ॥ सत्वसाहूहि गरिहियो । अविस्सासो य भूयारणं, अर्थात् कोई भी वस्तु चाहे सजीव हो अथवा तम्हा मोसं विवज्जए ।। निर्जीव, कम हो या ज्यादा, यहां तक कि वह दांत कुतरने तक की सलाई के समान ही छोटी क्यों न इस जगत में सभी साधु पुरुषों ने असत्यवादन की घोर निंदा की है । अत: असत्य वचन का परि - हो, उसे बिना उसके स्वामी से पूछे नहीं उठाना स्याग करना चाहिए। यही नहीं वरन् सत्य व चाहिए। यही नहीं वरन दूसरों से भी न उठवाये और न उठाने वाले का अनुमोदन करें। यथाः मधुर वचन से तो सोने में सुगंध ही पैदा हो जाती है। इसलिए कड़वा वचन न बोलकर सत्य ब मधुर तहाभिभूयस्स उदत्तहारिणो, वचन ही बोले यथा रुवे अतितस्स परिग्गहे य । महत्तदुक्खा उद्ववंति कंटया, मायामुसं वड्ढइ लाभदोसा, अग्रोमथा ते वि तपो सुउद्धरा । तत्था वि दुक्खा न विमुच्चई से ।। वाया दुरूत्तागि दुरूद्धराणि, रूप के संग्रह से असंतुष्ट बना हुआ जीव तृष्णा वेराणूबन्धीणि महत्भयाणि ।। के वशीभूत होकर अदत्त का ग्रहण करता है और अर्थात् कांटा व कील चुभ जाने पर कुछ देर इस तरह प्राप्त बस्तु के रक्षणार्थ लोभ-दोष में सक] ही दुख होता है पर कठोर वाणी की चोट फंसकर कपट क्रिया द्वारा असत्य बोलता है। इन चिरकाल तक का ट पहुंचाते हुए वैर को उपजा कर कारणो से वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता । अतः विनाश की ओर ले जाती है। प्रतः बागी पर दुख से मुक्त होकर सुख प्राप्त करने के लिए अस्तेय सदैव संयम रखना चाहिए। वृत्ति को परखना आवश्यक है। विश्वकल्याण की अस्तेय कामना से इस उपदेश पर ध्यान देना अावश् यक है। ____ अाज एक दूसरे की संपत्ति व वस्तुओं को हड़पने की प्रवृत्ति कितनी बलवती होती जा रही हैं अपरिग्रह जो किसी से छिपी नहीं है। भगवान महावीर की उपदेशों को हृदयंगम करके इस बुराई को मिटापा । प्राज के सर्वोदय सिद्धान्त का महत्व अपरिग्रह जा सकता है तभी समाजवाद साकार हो सकता। __ की वरीयता में समाविष्ट है शोषरण द्वारा धन संग्रह ___की कड़ी निन्दा की गई है। महावीर ने कहा हैहै । महावीर ने स्पष्ट कहा हैचित्तमंतमचित्तं वा, जे पापकम्हेहि धरणं मणूसा, अप्पं वा अइ वा बद्ध। समायघन्ती अमई गहाय । दंतसोहणमित्तं वि, पहाय ते पासपयहिए नरे, उग्गहंसि प्रजाइया ।। बेरागुवद्धा गरयं उवेन्ति ।। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 1-53 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् जो मनुष्य धन को अमृत मानकर यही नहीं वरनविविध पाप कर्मों द्वारा धन की प्राप्ति करता है, वभचेर उत्तमतव, नियम, नाण सण वह कर्मों के दृढ़ पाश में बंध जाता है और अनेक चरित्र, सम्मत, विणयमूल" जीवों के साथ वैरानुबन्ध कर अन्ततः सारा धन ऐश्वर्य यहीं छोड़ नरक में जाता है जो धन दौलत . अर्थात् ब्रह्मचर्य ही उत्तम तप, नियम, ज्ञान, संसार को पागल बना कर मदमत्त कर देती है। दर्शन, चारित्र, संयम, और विनय का मूल है। : ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले की महत्ता के विषय तथ्यता वह विष के समान है। महावीर ने में महावीर ने कहा है - कहा हैवित्तण ताणं न लभे पमत्त । देवदाणवगंधव्वा, जक्खरनखसकिन्नरा । इम्माम्मिा लोह अदवा परत्था ॥ वमयारि नमसंति, दुक्कट जे करेति ते ॥ दीवप्पणठेव अणंत मोहे । अर्थात् अत्यंत दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत की साधना न माड्य दट्ठ मद्दमेव ॥ करने वाले ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, इस लोक व परलोक दोनों में शोषण से कमाया राक्षस, किन्नरादि सभी देवी देवता नमस्कार करते र है। विश्व में ब्रह्मचर्य ही स्थायित्व प्रदान करता हुआ धन सुखदायक नहीं है। अन्धकार में जैसे दीपक बुझ जाय तो दिखा हुआ मार्ग भी अनदीखा है। तभी तो कहा गया है-- हो जाता है। उसी प्रकार पौदगलिक वस्तुओं के एस धम्मे धुवे निच्चे, (धनादि) अंधकार में न्याय मार्ग को देखना असं. सासए जिणदेसिए । भव हो जाता है । अतः महावीर के इस उपदेश का सिद्धा सिज्झन्ति चाणेरण, पालन आवश्यक है। सिज्मस्सन्ति तहावरे ॥ ब्रह्मचर्य यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्र व है, शाश्वत है, और जिनदेशित है अर्थात जिनों द्वारा उपदिष्ट है इसी ब्रह्मचर्य की वरीयता का तो बखान जितना धर्म के पालन से अनेक जीव सिद्ध बन गये बन रहे भी किया जाए थोड़ा है । इस व्रत से ही तो मानव ईश्वर की श्रेणी में पहुंच सकता है । महावीर ने है और भविष्य में भी बनेंगे। भी कहा है-- अतः महावीर प्रतिपादित पांच महावतों की वरीयता को परख अपनाने की नितांत प्रावश्यकता "लोगुत्तमं च क्यमिणं" है। इसी सम्वल से हम आधुनिक युग को संवार अर्थात् यह ब्रत लोकोत्तर है। सकते हैं । इति - - - 1-54 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती समारोह 1977 महावीरजयनी समा हा लाहिरहा जागिर पर पदार्थ दुख का कारण नहीं,किन्तु र पदार्य में आत्मबुद्धि दुरख कारण है। आत्मा में आत्मबुद्धि नाही सुख है। नकी प्राप्तिसंभव है मंच पर कार्यकारिणी के सदस्य तथा विशिष्ट अतिथिगण बैठे हैं। साध्वीश्री मणिप्रभाजी सभा को सम्बोधित करते हुए मुनिश्री रूपचन्दजी सभा में प्रवचन करते हुए Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 苏光光 द्वितीय 纽RM B祇祇祇祇祇祇祇祇图 खण्ड 纽M 阅法法送法提供接送 EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE म्हारी धरती : म्हारो देश Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर - वचन B १. किसी भी प्राणी की हिंसा न करना ही ज्ञानी होने का सार है । २. जीव मरे या जीये इससे हिंसा का सम्बन्ध नहीं है । यत्नाचार - हीन प्रमादी पुरुष निश्चित रूप से हिंसक है । यत्नाचारपूर्वक प्रभावहीन प्रवृत्ति करने वाले को जीव की हिंसा हो जाने मात्र से बंध नहीं होता । ३. सम्यकज्ञान का फल शुद्ध चारित्र है । ४. हिंसा, संयम और तपरूप धर्म ही उत्कृष्ट मंगल अर्थात् कल्याणकारी है। ५. श्रप्रमत्त और सावधान रहते हुए सदा हितकारी, मित और प्रिय वचन बोलना चाहिए । ६. परोपकारो लोग अपनी आपत्तियों का विचार नहीं करते । ७. जीव के अच्छे और बुरे भाव ही पुण्य तथा पाप क्रमश: हैं । ८. बांधे हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है । ६. मन के विकल्पों को रोक देने पर यह श्रात्मा ही परमात्मा बन जाता है । १०. तू ही कर्म करने वाला है, तू ही उनका अच्छा बुरा फल भोगने वाला है तथा तू ही मुक्त होने वाला है फिर कर्मबन्धन से मुक्त होकर स्वाधीन होने का प्रयत्न क्यों नहीं करता । ११. तू स्वयं ही तेरा गुरु है । फर्म- गुलाबचन्द कासलीवाल 35 III भोईवाड़ा, कासलीवाल भवन बम्बई द्वारा प्रचारित www Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐卐 मंगलाचरणम् श्री वर्धमानमनिशं जिनवर्धमानम् त्वां तं नये स्तुतिपथं पथि संप्रधौते। योऽन्त्योपि तीर्थकरमनिममप्यजैषीत् काले कलौ च पृथुलीकृतधर्मतीर्थः ॥ देवा वीरजिनोऽयमस्तु जगतां वन्द्यः सदा मूर्टिन मे -गुणभद्राचार्यः Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशमरतिप्रकरणकार तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के कर्त्ता से भिन्न 'प्रशमरति प्रकरण' नामक श्वेताम्बर सम्प्रदाय का ग्रन्थ 'तत्वार्थ सूत्र' के कर्ता प्राचार्य उमास्वाति की रचना बहुत प्राचीनकाल से मानी जाती रही है। सिद्धसेन गरिए, जिनदास महत्तर श्रादि श्वेताम्बर प्राचार्यों एवं ग्रन्थकारों ने उसे प्रसंदिग्ध रूप से उमास्वाति की कृति माना है । विद्वान् लेखक ने प्रशमरतिकार की मान्यताओं का तत्वार्थ सूत्रकार की मान्यतानों के साथ जो साम्य बताया है वह तो तत्वार्थसूत्र के आधार पर है किन्तु वैषम्य का श्राधार सूत्र ग्रन्थ न होकर उसका भाष्य है । भाष्य सूत्रकार कृत है अथवा नहीं यह अभी पूर्ण निश्चय के साथ नहीं कहा जा सकता । स्वर्गीय जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अपने 'श्वेताम्बर तत्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की जांच' शीर्षक निबन्ध में, जो उनकी पुस्तक 'जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' में ग्यारहवां है भाष्य को उमास्वाति कृत न मानने में जो तर्क दिये हैं वे अकाट्य चाहे न हों और कुछ विद्वान् उनसे सहमत न भी हों तो भी वे सर्वथा उपेक्षरणीय नहीं हैं । अतः भाष्य के आधार पर ही 'प्रशमरति प्रकरण' को उमास्वातिकृत नहीं मानना कम जँचता है फिर भी निम्न निबंध इस दिशा में ऊहापोह के लिए मार्ग प्रशस्त करता है यह भी कम महत्व की बात नहीं है। - पोल्याका 2-2 तत्त्वार्थसूत्र जैन तत्त्वज्ञान का संग्राहक, सुन्दर सुव्यवस्थित व महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जो दोनों ही सम्प्रदायों में आगम-ग्रन्थों की भांति ही समादृत है । तत्त्वार्थसूत्र का भाष्य स्वोपज्ञ है या अन्योपज्ञ यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है । श्वेताम्बर परम्परा स्वोपज्ञ भाष्य के अतिरिक्त प्रशमरतिप्रकरण श्रादि ग्रन्थों को उमास्वाति प्रणीत मानती है । प्रशमरतिप्रकरण 313 कारिकाओं में रचित ग्रन्थ है, जिसमें संक्षेप में जैन तत्त्वज्ञान को गुम्फित किया गया है । प्रायः सम्पूर्ण प्राचीन जैन साहित्य प्राकृत भाषा में प्रणीत है । तत्त्वार्थसूत्रकार महावीर जयन्ती स्मारिका 78 डॉ० कुसुम पटोरिया आजाद चौक सदर, नागपुर Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने संस्कृत सूत्र शैली में जैन तत्त्वज्ञान को पिरोया है । प्रशमरतिप्रकरण भी संस्कृत में संक्षिप्त शैली में रचित है । प्रशमरतिप्रकरण का तत्वार्थसूत्र से कहीं-कहीं शब्दशः साम्य हैं । साम्य- प्रशमरति - प्रकरण की चार कारिकाओं में तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र ज्यों के त्यों विद्यमान हैं । प्रशमरति----सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानाम् । साकारोऽनाकारश्च सोऽष्टभेदश्चतुर्धा तु तत्त्वार्थ सूत्र - उपयोगो लक्षणम् । 2 स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः । 3 प्रशगरति - उत्पादविगमनित्यत्वलक्षणं यत्तदस्ति सर्वमपि 1 114 सदसद्वा भवतीत्यन्यथापितानपि तविशेषात् तत्त्वार्थसूत्र—सद्द्रव्यलक्षणम् । उत्पादन्ययध्रौव्ययुक्त सत् । तद्भावाव्ययं नित्यम् 1 अर्पितानपि सिद्ध प्रशमरति - - एतेष्वध्यवसायो योऽर्थेषु विनिश्चयेन तत्त्वमिति । सम्यग्दर्शनमेतच्च तन्निसर्गादधिगमाद्वा 116 तत्त्वार्थसूत्र -- तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा 17 प्रणमरति - एषामुत्तरभेदविषयादिभिर्भवति विस्तराधिगमः । एकादीन्येकस्मिन् भाज्यानि त्वाचतुभ्यः इति ॥ 8 तत्त्वार्थसूत्र - एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्भिन्नाचतुभ्यः 19 प्रशमरति -- सम्यक्त्वज्ञानचारित्र सम्पदः साधनानि मोक्षस्य । तास्वेकतराभावेऽपि मोक्षमार्गोऽप्यसिद्धिकर: 110 तत्त्वार्थसूत्र - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग: (11 प्रशमरतिप्रकरण की उक्त कारिकाओं में तत्वार्थसूत्र के सूत्र के सूत्र ज्यों के त्यों उद्धृत कर लिये गये हैं । उक्त साम्य प्रशमरतिप्रकरण और तत्त्वार्थसूत्र के एककर्तृत्व का आभास देता है । יון प्रशमरतिप्रकरण की भाष्य के साथ भी काफी समानता है । प्रशमरति में उपयोग को द्विविध साकार एवं अनाकार बताया है । 12 तत्वार्थभाष्य में भी ज्ञानोपयोग को साकार व दर्शनोपयोग को अनाकार शब्दों से उल्लिखित किया है । प्रशमरति में कहा गया है सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में से एक के भी प्रभाव में मोक्षमार्ग प्रसिद्धिकर है । तास्वेकतराभावेऽपि मोक्षमार्गोऽप्यसिद्धिकरः । 13 इन्हीं शब्दों का भाष्य में भी प्रयोग है । एकतराभावेऽप्यसाधनानि 114 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-3 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के होने पर भी चारित्र कभी होता है कभी नहीं किन्तु चारित्र के होने पर सम्यग्दर्शन और ज्ञान का लाभ सिद्ध ही है । इस बात को प्रशमरतिप्रकरण तथा भाष्य में लगभग एक से शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है । प्रशमरति—पूर्वद्वयसम्पद्यपि तेषां भजनीयमुत्तरं भवति । पूर्वद्वयलाभः पुनरुत्तरलाभे भवति सिद्धः ॥15 तत्त्वार्थभाष्य-एषां च पूर्वलाभे भजनीयमुत्तरम् । उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः ।। प्रशमरति में शिक्षा, पागम, उपदेशश्रवण अधिगम के तथा स्वभाव और परिणाम निसर्ग के पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं। शिक्षागमोपदेशश्रवणान्येकार्थकान्यधिगमस्य । एकार्थः परिणामो भवति निसर्ग: स्वभावश्च ।।17 भाष्य में भी ये ही पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं आगमः अभिगमः आगमो निमित्त श्रवणं शिक्षा उपदेश इत्यनान्तरम् । ....."निसर्गः परिणामः स्वभावः अपरोपदेशः इत्यनर्थान्तरम् । तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्दों में अभिनिबोध को उल्लिखित किया है ।19 प्रशमरति में भी मतिज्ञान को अभिनिबोधक कहा है । संसारानुप्रेक्षा का प्रशमरतिप्रकरण का वर्णन भाष्यानुसारी हैमाता भूत्वा दुहिता भगिनी भार्या च भवति संसारे । व्रजति सुतः पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव ।।21 भाष्य----माता हि भूत्वा भगिनी दुहिता माता च भवति । भगिनी भूत्वा माता भार्या दुहिता च भवति । इस प्रकार प्रशमरतिप्रकरण का तत्त्वार्थभाष्य से शाब्दिक साम्य है, जो आपाततः दोनों के कर्ता के ऐक्य की संभावना को जन्म देता है । वैषम्यप्रशमरतिप्रकरण तथा सभाष्य तत्त्वार्थसूत्र में महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक अन्तर है । (1) द्रव्य संख्या-तत्त्वार्थसूत्रकार मुख्य 5 द्रव्य मानते हैं । काल द्रव्य के स्वतन्त्र अस्तित्व के विषय में वे उदासीन हैं । श्वेताम्बर पाठ 'कालश्चेत्येके ।'23 तो निश्चित रूप से काल के स्वतन्त्र द्रव्यत्व के विषय में सूत्रकार की तटस्थता को घोषित कर रहा है। दिगम्बर पाठ 'कालश्च' के द्वारा भी सूत्रकार की मान्यता का विश्लेषण करें, तो कह सकते हैं कि सूत्रकार इस विषय में तटस्थ थे । अजीव द्रव्यों के वर्णन से पाँचवे अध्याय का प्रारम्भ होता है यहाँ प्रथम सूत्र में धर्म, अधर्म, अाकाश और पुद्गल इन चारों को अजीवकाय कहा गया है । यहां काल के कायत्व का अभाव होने से उसका परिग्रहण नहीं किया गया । द्रव्यारिण24 व जीवाश्च25 इन दो सूत्रों के उपरान्त कालद्रव्य का उल्लेख संभव व आवश्यक था, किन्तु यहाँ कालद्रव्य का वर्णन नहीं है। जीवद्रव्य का वर्णन 2-4 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले के अध्यायों में हो चुका । पाँचवे काल व्यतिरिक्त चार अजीव द्रव्यों का वर्णन कर चुकने के पश्चात् सूत्रकार द्रव्य का सामान्य लक्षण करते हैं । गुणपर्ययवद् द्रव्यम् । इसके उपरान्त वे कालद्रव्य का उल्लेख करते हैं ।27 यदि सूत्रकार काल को भी पृथक् द्रव्य मानते, तो अवश्य उसका उल्लेख भी अजीवद्रव्यों की गणना के साथ अर्थात् 'अजीवकाया धर्मा-धर्माकाशपुद्गलाः ।28 के तुरन्त बाद 'द्रव्याणि' सूत्र के पहले करते, अथवा जीवाश्च के साथ अर्थात् उसके तुरन्त बाद करते । इतना नहीं तो कम से कम द्रव्य का सामान्य लक्षण करने के पूर्व अवश्य करते । आ आकाशादेकद्रव्यारिण निष्क्रियाणि च । इन दो सूत्रों द्वारा धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यों को एक-एक तथा निष्क्रिय कहा है । काल द्रव्य भी निष्क्रिय है, पर उसकी निष्क्रियता का सूत्रों में कहीं संकेत नहीं है । द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या 30 का विचार करते समय 'नाणोः'31 अणु को अप्रदेशी कहा है । काल भी अप्रदेशी है, परन्तु उसका उल्लेख नहीं है। कालद्रव्य की यह उपेक्षा सिद्ध करती है कि वे काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते। भाष्यकार ने तो सर्वत्र द्रव्य को पाँच प्रकार का ही कहा है-एते धर्मादयश्चत्वारो जीवाश्च पञ्च द्रव्याणि च भवन्तीति ।32 या आकाशाद् धर्मादीन्येक द्रव्याण्येव भवन्ति । पुद्गलजीवास्त्वनेकद्रब्याणि 133 धर्म से आकाश तक धर्म, अधर्म और प्राकाश एक द्रव्य हैं । पुद्गल और जीव अनेक द्रव्य है । यहाँ भी उन्होंने काल द्रव्य का उल्लेख नहीं किया है । एतानि द्रव्याणि नित्यानि भवन्ति ।............." न हि कदाचित् पञ्चत्वं भतार्थत्वं च व्यभिचरन्ति । कालश्चेत्ये के का भाष्य है-एके त्वाचार्या व्याचक्षते कालोऽपि द्रव्यमिति ।35 प्रशमरतिकार को निर्विवाद रूप से षड्द्रव्य इष्ट है-- धर्मा-धर्माकाशानि पुद्गला: काल एव चाजीवाः । पुद्गलवर्जमरूपं तु रूपिणः पुद्गलाः प्रोक्ताः । जीवाजीवा द्रव्यमिति षड्विधं भवति लोकपुरुषोऽयम् । वैशाखस्थानस्थः पुरुष इव कटिस्थकरयुग्मः ॥ इस प्रकार द्रव्यों के विषय में सैद्धान्तिक मतभेद है। (2) जीव के भाव-- तत्त्वार्थसूत्र में जीव के पाँच भाव माने गये हैं । वही भाव भाष्यकार को अभीष्ट है । औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ।37 प्रशमरति-प्रकरण कार ने छह भाव माने हैं । सान्निपातिक भाव का भी परिग्रहण किया है। भावा भवन्ति जीवस्यौदयिक: पारिणामिकश्चैव । प्रौपशमिकः क्षयोत्थः क्षयोपशमजश्च पञ्चते ।। ते चैकविंशतित्रिद्विनवाष्टादशविधाश्च विज्ञेयाः । पष्ठश्च सान्निपतिक इत्यन्यः पञ्चदशभेदः ॥38 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 . 2-5 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) ऊर्ध्वलोक प्रशमरतिप्रकरणकार ने ऊर्ध्वलोक को 15 प्रकार का कहा है। ये 15 भेद कौन से हैं, इनका विवरण नहीं है। देव चार प्रकार के हैं, इनमें भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क मध्यलोक में रहते हैं। वैमानिक ऊर्ध्वलोक में रहते हैं वे दो प्रकार के हैं कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्पोपपन्न 12 प्रकार के हैं । कल्पातीत में नौ ग्रैवेयक, (दिगम्बर परम्परानुसार नौ अनुदिश) तथा 5 अनुत्तर विमानवासी देव हैं। इनके अतिरिक्त सिद्धशिला भी ऊध्वलोक में है, जिसमें सिद्धों का निवास है। इस प्रकार 12 कल्पों के बारह, ग्रेवेयकों का एक, अनुत्तर विमानों का एक तथा ईषत्प्राग्भार या सिद्धशिला का एक भेद मिलाकर 15 भेद होते हैं । टीकाकार ने 12 कल्पों के 10 भेद किये हैं क्योंकि पानत--प्राणत तथा पारण-अच्युत इन युगलों का एक-एक इन्द्र होने से एक-एक भेद है। नौ ग्रेवेयकों के अधो, मध्य तथा उपरितन के भेदानुसार तीन भेद, पाँच महाविमानों का एक भेद तथा ईषत्प्राग्भार का एक भेद मिलाकर कुल 15 भेद होते हैं । इस प्रकार इन दोनों प्रकार की गणनाओं से ऊर्ध्व लोक 15 प्रकार का होता है । ___ तत्त्वार्थभाष्यकार तो ज्योतिष्क देवों के एक भेद प्रकीर्णक तारात्रों की स्थिति ऊर्ध्वलोक में मानते हैं। सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहा नक्षत्राणि च तिर्यग्लोके, शोषास्तूर्ध्वलोके ज्योतिष्का भवन्ति 139 इससे स्पष्ट है कि भाष्यकार उक्त 15 भेदों के अतिरिक्त ऊर्ध्वलोक का एक भेद और मान रहें हैं, जो कि प्रकीर्णकताराओं का है, जिसका समावेश उक्त 15 भेदों में सम्भव नहीं है । (4) संयम के भेदों में अन्तर-यद्यपि प्रशमरतिप्रकरण तथा तत्त्वार्थ भाष्य दोनों में संयम के 17 भेद प्रदर्शित किये गये हैं, संख्या में समानता होने पर नाम अलग-अलग हैं । प्रशमरतिप्रकरण में पाँच प्रास्रवद्वारों से विरति, पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विजय तथा तीन दण्ड से उपरति 17 प्रकार का संयम माना गया है। पञ्चास्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहश्च कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥40 तत्त्वार्थभाष्य में ये भेद इस प्रकार हैं योगनिग्रहः संयमः । स सप्तदशविधः । तद्यथा पृथिवीकायिकसंयमः, अप्कायिकसंयमः, तेजस्कायिकसंयमः, वायुकायिकस यमः, वनस्पतिकायिकसंयमः, द्वीन्द्रियसंयमः, त्रीन्द्रियसंयमः, चतुरिन्द्रियसंयमः, पञ्चेन्द्रियसंयमः, प्रेक्ष्यसंयमः, उपेक्ष्यसंयमः अपहृत्यसंयमः, प्रमृज्यसंयमः, कायसंयमः, वाक् संयमः, मनः संयमः, उपकरणसंयमः, इति संयमो धर्मः 141 तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के साथ प्रशमरतिप्रकरण का उक्त साम्य-वैषम्य इस बात को स्पष्ट करता है कि तत्त्वार्थसूत्र तथा भाष्य के कर्ता व प्रशमरति के कर्त्ता एक नहीं हैं। 2-6 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यकार ने अपनी सम्पूर्ण परिचय-परक प्रशस्ति दी है, परन्तु प्रशमरतिकार ने अपना नामोल्लेख भी नहीं किया है । इससे दोनों का रुचि-भेद प्रकट होता है । इन ग्रन्थों का जो पारस्परिक भावगत साम्य है, उसका कारण तत्त्वज्ञान का एक ही स्रोत से उद्भूत होना संभव है। इसी कारण पारिभाषिक शब्दों में समानता है । शब्दगत साम्य इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि तत्त्वार्थसूत्र भाष्य व प्रशमरतिकार के समक्ष विद्यमान थे और वे जिन पूर्वकवियों द्वारा रचित प्रशभजननशास्त्रपद्धतियों का उल्लेख करते हैं सभाष्यतत्त्वार्थसूत्र उनमें से एक है। प्रशमरतिप्रकरणकार स्वयं कहते हैं कि जिनवचनरूप समुद्र के पार को प्राप्त हुए महामति कविवरों ने पहले वैराग्य को उत्पन्न करने बाले अनेक शास्त्र रचे हैं। उनसे निकले हुये श्रु तवचनरूप कुछ करण द्वादशाङग के अर्थ के अनुसार हैं । परम्परा से वे बहुत थोड़े रह गये हैं, परन्तु मैंने उन्हें रङ्क के समान एकत्र किया है। श्रतवचनरूप धान्य के कणों में मेरी जो भक्ति है, उस भक्ति के सामर्थ्य से मुझे जो अविमल, अल्प बुद्धि प्राप्त हुई है, अपनी उसी बुद्धि के द्वारा वैराग्य के प्रेमवश मैंने वैराग्य-मार्ग की पगडंडी रूप यह रचना की है ।12 ___ इन कारिकामों से स्पष्ट है कि उक्त प्रकरण की रचना विभिन्न विशिष्ट ग्रंथों को लक्ष्य में रखकर उनका सार ग्रहण कर की गई है, उनमें से एक तत्त्वार्थसूत्र व उसका भाष्य भी है । शब्दसाम्य का यही कारण है। प्रशमरतिप्रकरण अन्यकर्तृक रचना प्रतीत होती है, क्योंकि एक ही व्यक्ति दो ग्रन्थों में दो भिन्न मतों का प्रतिपादन नहीं कर सकता। प्राचीन (सिद्धसेन-हरिभद्र आदि) तथा नवीन विद्वानों में दोनों के एककर्तृत्त्व की जो भ्रान्ति है, उसका कारण उक्त शब्द साम्य ही प्रतीत होता है । ॐ 1. प्रशमरतिप्रकरण कारिका 194 3. वही, 2-9 5. तत्त्वार्थसूत्र 5-29, 5-30, 5-31, __5...32 (दिगम्बर पाठानुसार) 7. तत्त्वार्थ सूत्र 1-23 9. तत्त्वार्थसूत्र 1-30 11. तत्त्वार्थसूत्र 1-1 13. तत्त्वार्थसूत्र 1-9 का भाष्य 15. तत्वार्थसूत्र 1-1 का भाष्य । 17. तत्त्वार्थ सूत्र 1-1 का भाष्य 19. तत्त्वार्थ सूत्र 1-3 का भाष्य 21. प्रशमरति 225 23. तत्त्वार्थ सूत्र 2-7 का भाष्य 2. तत्त्वार्थसूत्र 2-8 4. प्रशम. 204 6. प्रशमरतिप्रकरण कारिका-2221 8. प्रशमरति 226 10. प्रशमरति 230 12. प्रशमरति 194 14 प्रशमरति 230 16. प्रशमरति 231 18. प्रशमरति 223 20. तत्त्वार्थ सूत्र 1-13 22. प्रशमरति 156 24. तत्त्वार्थसूत्र 5238 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. तत्त्वार्थसूत्र 5-2 27. वही 5 - 36 या 38 29. वही; 5-1 31. वही 5 - 8,9,10,11 33. सभाष्य तत्त्वार्थसूत्र पृ० 247 35. 5-6 का भाष्य 37. प्रशमरति प्रकरण कारिकाः 2-8 207 व 210 1 39. तत्त्वार्थसूत्र 4 - 14 का भाष्य । 41. तत्त्वार्थसूत्र 96 का भाप्य 26. वही 5-3 28.5-39 30 तत्त्वार्थ सूत्र 5 / 6-7 32. वही 5-11 34. 5-5 का भाष्य 36.5 -38 का भाष्य । 38. तत्त्वार्थसूत्र 2 - 1 प्रशमरतिप्रकरण 196 व 197 40. प्रशमरति 172 42. प्रशमरतिप्रकरण: कारिका 5-7 कीमती घोड़ा राजा ने एक बड़ी रकम देकर उस घोड़े को खरीद कर अस्तबल में भेज दिया पर घोड़े में एक बहुत बड़ी एब थी । वह सदा मनमानी करता था । यदि उस पर कोई बैठता तो बजाय चलने के वह वहीं बैठ जाता या फिर ऐसा भागता कि जंगल में जाकर ही रुकता । खाने के लिये भी उसे अच्छी हरी हरी घास चाहिये थी तथा दिन रात उसे खिलाना चालू रखते तो पूरे समय खाया ही करता । जानकार को जब घोड़े की एव बाबत बतलाया गया तो उसने कहा - इसे लगाम लगाइये तथा अस्तबल से निकाल कर थोड़े समय बाजार में घुमाइये । जानकार के कहे अनुसार करने पर थोड़े दिन में घोड़ा सुघर गया । घोड़ा आज भी मनमानी । जानकार उत्तमपुरुष हमने भी त्याग तपस्या कर मानव जन्म पाया पर हमारा मन रूपी करता है | खाना पीना तथा पांचों इन्द्रियों के विषयों में रचापचा रहता है कहते हैं कि इस मन रूपी घोड़े को त्याग एवं संयम की लगाम लगाइये नहीं तो यह जंगल में जाकर पटक देगा । त्याग एवं संयम के साथ धर्म स्थान पर जाकर स्वाध्याय में मन लगाया तो जीवन उन्नत होने में देर न लगेगी ★ श्री मोतीलाल सुराना इन्दौर | महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने इष्ट के प्रति अनन्य अनुराग भक्ति कहलाती है। वह प्रायः दो प्रकार से की जाती है। अपने आराध्य को जीवन लीलाओं तथा उनके पतितोद्धारक, दोनरक्षक, मुक्तिप्रदाता आदि गुणों का गान करके अथवा आत्मा परमात्मा के अजर, अमर, अक्षत, निरंजन, चिदानन्द आदि विशेषताओं का बखान करके तथा उपास्य और उपासक के एकाकार होने की भावना भा कर । प्रथम भक्ति सगुण और दूसरी निर्गुण भक्ति कहलाती है। यद्यपि जैन ईश्वर को कर्ता, हर्ता, फलप्रदाता सृष्टि का नियन्ता नहीं मानते तथापि वे पंच परमेष्ठियों की भक्ति को अपने इष्ट की प्राप्ति में निमित्त मानते हैं अतः ऊपरी दृष्टि से वैष्णव सगुण भक्ति और जैनों के अपने उपास्य की भक्ति में कोई भेद दिखाई नहीं देता। प्रायः ऐसा कहा जाता है कि जैन भक्ति पदों पर वैष्णव सगुण भक्तों का पर्याप्त प्रभाव है किन्तु बात इससे ठीक उलटी है । कृष्ण और राम वैष्णव सगुण उपासकों के प्रमुख उपास्य हैं और सूर तथा तुलसी प्रमुख उपासक । तुलसी की रामायण जहां जैन स्वयंभू कवि से प्रभावित है वहां सूर के कृष्ण काव्य पर अपभ्रश के जैन कृष्ण काव्यों का प्रभाव है । कैसे ? यह इस निबन्ध से जानिये । 1" -पोल्याका सर के काव्य पर अपनश-कृष्ण काव्य का प्रभाव .प्रो० श्रीरंजन सूरिदेव संपादक-'परिषद् पत्रिका' बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना अपभ्रश, भाषा की विकास-परम्परा में होना या उनका आधार ग्रहण करना काव्य रचना भारतीय प्राच्यभाषा की अन्तिम विकसित अवस्था परम्परा की सहज एकसूत्रता का द्योतक है। है और यह आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं से इसलिए, अपभ्रंश और हिन्दी-काव्यों में समानता प्रापाततः सम्बद्ध है। परिनिष्ठित अपभ्रंश में स्थापित करने वाली तात्त्विक प्रवृत्तियों का समावेश प्रादेशिकता के सन्निधान के कारण प्राचार्य हेमचन्द्र हिन्दी-साहित्य के इतिहास का एक उज्ज्वल पक्ष है। (12 वीं शती) ने इसे ग्राम्य अपभ्रंश की संज्ञा दी है । हेमचन्द्र द्वारा सन्दर्भित इसी ग्राम्य अपभ्रंश से अपभ्रंश-भाषा का समय पांचवीं शती से हिन्दी का विकास हुआ है । अतएव, प्राचीन हिन्दी तेरहवीं-चौदहवीं शती तक दृष्टिगोचर होता है। कवियों का अपभ्रंश-कवियों की कृतियों से प्रभावित किन्तु, अपभ्रंश-साहित्य की उपलब्धि आठवीं शती 2-9 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रारम्भ होती है औरइ सका समृद्धि-युग नवीं से तेर हवीं चौदहवीं शती तक है। आठवीं नवीं शती में प्राप्त अपभ्रंश - साहित्य में स्वयम्भू कवि का ग्रादिम स्थान है । इनके अतिरिक्त, नवीं से तेरहवीं-चौदहवीं शती तक की अवधि में पुष्पदन्त, धवल, धनपाल, नयनंदी, कनकामर, धाहिल्ल, रइधू आदि अनेक पांय प्रतिभाशाली कवियों ने अपने वाग्वैभव का विस्तार किया है । इनमें काव्यात्मक कथ्य और शिल्प की दृष्टि से पुष्पदन्त का नाम धुरिकीर्त - नीय है । अपभ्रंश-साहित्य में काव्यसृष्टि की दृष्टि से स्वयम्भू और पुष्पदन्त का अतिशय महत्त्वपूर्ण स्थान है, तो सूर और तुलसी हिन्दी साहित्य के गौरवालंकार हैं । साथ ही शोधचाक्षुष प्रध्ययन से यह स्पष्ट है कि हिन्दी के महाकवि तुलसी ने अपने 'रामचरितमानस' के रचना-शिल्प में अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू की रामायण 'पउमचरिउ' के प्रभाव को आत्मसात् किया है, तो महाकवि सूरदास ने पुष्पदन्त की अपभ्रंश कृति 'महापुराण' के भावशिल्प से अपने काव्यतत्त्व को विशिष्टता प्रदान की है । महाकवि पुष्पदन्त और महाकवि सूरदास का समय, दार्शनिक मान्यताएं, भाषा-संस्कार, वर्णनशैली और यहां तक कि काव्य-वस्तु में भी स्पष्ट पार्थक्य दृष्टिगत होता है, फिर भी दोनो के कृष्णलीला चित्ररण में मूलभूत समानताएं हैं। पुष्पदन्त अपभ्रंश के कवि हैं और सूरदास ने ब्रजभाषा में अपने काव्यों का निबन्धन किया है। पुष्पदन्त का समय दसवीं शती का मध्यभाग है, जबकि देशी राज्यों के बीच सत्ता हस्तगत करने के लिए पारस्परिक संघर्ष चल रहा था और सूरदास ने सोलहवीं शती में, अर्थात् मुगलों के उत्कर्ष काल में अपनी काव्य-भारती का विस्तार किया था। पुष्पदन्त ने अपने 'महापुराण' में कृष्ण कथा को बीजरूप 2-10 में उपन्यस्त किया है, तो सूर ने अपने 'सूरसागर' में कृष्ण की लीलामयी कथा को विराट और व्यापक फलक पर उतारा है। हालाँकि, 'सूरसागर' श्रीमद्भागवत गीता पर आधृत है, किन्तु सूर ने दसवें स्कन्ध में कृष्ण की ललित लीलाओं को इतना अधिक वैविध्य और विस्तार प्रदान किया है कि वह एक स्वतन्त्र काव्य सृष्टि बन गई है । 'सूरसागर' की कृष्णलीलाओं का पारम्परिक प्रेरणा-स्रोत 'विद्यापति पदावली' और 'गीतगोविंद' है, ऐसी भी सामान्य धारणा है । किन्तु आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूरदास के पहले भी कृष्णलीला गान की लिखित या मौखिक पूर्व-परम्परा के रहने की ओर संकेत किया है। इसी तथ्य संकेत के सन्दर्भ में 'महापुराण' में चित्रित कृष्णलीलाओं को देखकर यह बात स्थिर हो जाती है कि ईसा की दसवीं शती में कृष्ण की वाल्य और यौवन की लीलाएं अपने नव्यतम परिवेश में सातिशय लोकप्रिय होने के साथ ही भाषा - काव्य में भी प्रतिष्ठित हो चुकी थी । पुष्पदन्त ने भी सूरदास की तरह ही कृष्ण की सामान्य बाल लीलाओं साथ उनकी मिथकीय, अर्थात् देवी या पौराणिक लीलाओं का भी वर्णन उपस्थित किया है । के द्वारा पुष्पदन्त से सीधे प्रेरणा ग्रहण सूर करने की बात विवादास्पद भले ही हो, किन्तु दोनों के कृष्णलीला - वर्णन का न्यूनाधिक मूलभूत समानताओं से इनकार नहीं किया जा सकता । वर्णन में अन्तर केवल सम्प्रदाय-भेद के कारण ही आया है । 'महापुराण' जैन परम्परा का परिपोषक है, तो 'सूरसागर' वैदिक परम्परा के पर्यावरण में प्रस्तुत हुआ है। सच पूछिए तो जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं की कथाओं की प्रात्माएं एक हैं, विविधता है. तो केवल वचोभंगी का। ज्ञातव्य है कि जैन कथाएं जहां प्रायः लौकिक होती हैं वहां वैदिक या पौराणिक कथाओं में अलौकिकता की स्थापना की परम्परा दृष्टिगोचर होती है । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णकथा की लोकातिशायिनी प्रियता के कारण णं माहबहु पक्खु सा पोसई ॥ पुष्पदन्त ने जैन कृष्ण से सम्बद्ध अपने 'महापुराण' बिहिं भाइहिं थक्कउ तीरिरिणजलु । काव्य ग्रंथ में सामान्य धारणा से कुछ विपरीत णं घरणारि विहत्तउ कज्जलु ॥ वातें जोडी हैं। 'महापुराण' की 83-86 वीं ___अर्थात्, यमुना नदी कृष्ण के प्रति इतनी अधिक सन्धियों में मुख्यतः कृष्णलीला का ही वर्णन है । भक्ति-विभोर हो जाय कि वह गेरू के रंग से रंगे इसके अतिरिक्त 87--88 वीं सन्धियों में भी जरासन्ध और बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के कथा-प्रसंग जल के कपड़े पहन ले, पानी में गिरे हुए फूलों से अपनी कबरी (जूड़ा) संवार ले, स्नान करती में श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण हुआ है। किन्नर-वधुनों के स्तनों द्वारा अपना वात्सल्य पुष्पदन्त के अनुसार माता-पिता की कारावास प्रदर्शित करे, लहरों के विलास से विभ्रम पैदा करे, में अवस्थिति के समय यथानिर्धारित सामान्य जन्म- जल में रहने वाले नागराज की मणियों की किरणों काल के पहले अर्थात् सातवें महीने में होता है। से अधिक आलोक बिखेर दे, कमल की आंखों से यही कारण है कि कृष्णावध का इच्छुक कंस कृष्ण को देखे, अतिशय निर्मल जलकणों के चावलों तत्काल कृष्णजन्म की बात से अनभिज्ञ रह जाता से भरे कमलिनी के पत्तों के थाल से आरती उतारे, है । वसुदेव नवजात बालक को गोद में उठाते हैं कलकल शब्दों से मंगल की घोषणा करती हुई वह और बलराम उस पर छत्र की छाया करते हैं । एक कृष्ण के शरीर का पोषण करे ग्रौर कृष्ण को देव वृषभ का रूप धारण कर अपने सींगों से प्रकाश मार्ग देने के लिए यमुना नदी का जल गृहिणी के करता है। कंस के भय से वे तीनों धीरे धीरे चलते सीमन्त द्वारा विभक्त काले-कजरारे केशपाश की हैं । बालक के अगूठे का स्पर्श होते ही गोकुल के तरह दो भागों में बंट जाय । गोपुर का द्वार खुल जाता है। उग्रसेन को यह बताने पर कि यह बालक उन्हें पर्याप्त सुख-समृद्धि सूर ने कृष्ण जन्म की घटनाओं को मिथक के प्रदान करेगा, आगे बढ़कर गोद में ले लेते हैं। सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है। कृष्ण योगमाया के प्रभाव से देवकी के घर में आते हैं और जन्म के कृष्ण की आरती उतारती-सी यमुना नदी बाद वासूदेव से कह देते हैं कि वे उन्हें गोकूल कलकल शब्द के साथ बह रही है। पुष्पदन्त कवि पवा. के भाव-विमुग्ध यमुना-वर्णन की एक मनोरम झांकी द्रष्टव्य है : अहो वसुदेव जाहु लै गोकुल । । तुम हो परम सभागे ॥ गरुयर त तोउ रत्तबरु । णं परिहइ यकुसुमहिं कब्बरु ॥ वसुदेव कृष्ण को गोद में ले जाते हैं और किणरियण सिहरइ णं दावइ । शेष नाग उनपर अपने फणों से छाया करता है । विब्भयेहि णं संसउ भावइ ॥ वसूदेव सीधे नन्द के घर पहंचकर कन्या से बालक फरिणमणि - किरणहि णं उज्जोयउ । का विनिमय कर मथुरा वापस आ जाते हैं और कमलच्छिहिए कण्डु पलोयई ॥ यथावचन वह कन्या कंस को समर्पित कर दी भिसिरिणपत्त थालेहिं सुरिणम्मल । जाती है। उच्चाइय रणं खलकण-तन्दुल ॥ खलखलंति णं मंगलु घोसइ । पुष्पदन्त ने इस प्रसंग में थोड़ा परिवर्तन कर महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-11 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया है। उनके कथ्य में तत्कालीन लोक-विश्वास पात्र में अपनी परछाई देखकर कृष्ण उसे बुलाते की अनुध्वनि मुखर है। उनके अनुसार, बालक हैं । यह देख नन्द और यशोदा आपस में हंसते हैं को लेकर यमुना पार करते ही बलराम को नन्द और कृष्ण को अपनी छाती से लगा लेते हैं : मिलते हैं । नन्द की गोद में नवजात कन्या है । पूछने पर वे बताते हैं कि उनकी पत्नी यशोदा के घय भायरिण अवलोइवि भावइ । - द्वारा पुत्र की प्राप्ति के लिए देवी की मनौती णिय पडिबिंबु बिठ्ठ बोल्लावइ ।। मानने के बावजूद पुत्री उत्पन्न हुई। इसलिए, वे हसइ णंदु लेप्पिणु अवरुण्डइ । उसे वापस करने के लिए देवी के निकट जा रहे हैं। तहु उरयलु परमेसर मंडइ ।। बलराम अवसर का लाभ उठाकर नन्द से कहते इसी काव्य-प्रसंग को सूरदास की कारुकारिता हैं-'लो यह पुत्र । देवी ने तुम्हारे लिए ही भेजा के सन्दर्भ में देखिए । बाल-लीला का कितना है और अपनी पुत्री मुझे दे दो।' बलराम लड़की मनोहारी रूप है ! सूर की पंक्तियां हैं : को लेकर लौट जाते हैं। यहां भी लड़की कंस को सौंप दी जाती है। कंस उसके नाक-कान कटवाकर माखन खात हंसत किलकत । उसे तलघर में डलवा देता है। कन्या बाद में हरि स्वच्छ घट देख्यो । भिक्षुणी बन जाती है लेकिन वह कृष्ण जन्म के निज प्रतिबिंब निरखि रिस । सम्बन्ध में आकाशवाणी नहीं करती। हालांकि मानत जानत प्रान परेख्यों ।। 'सूरसागर' में जैसे ही कंस कन्या को पत्थर पर पटकना चाहता है, वैसे ही कन्या उसके हाथ से कृष्ण की देवी लीलाओं में उनका अलौकिक छूटकर आकाश में उड़ जाती है और कृष्ण जन्म की व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है। 'सूरसागर' में सूचना देती है । 'महापुराण' के अनुसार, कंस को कंस को कृष्ण जन्म की सूचना योग कन्या से ही बहुत बाद में वरुण ज्योतिषी से कृष्ण जन्म का मिल जाती है, अतएव वह प्रारम्भ से ही कृष्ण को पता चलता है । निस्सन्देह, ‘महापुराण' और विविध प्रकार से उपद्रत करता है । परन्तु 'सूरसागर' में कृष्ण जन्म की अलौकिक पृष्ठभूमि 'महापुराण' के कंस को कृष्ण जन्म की सूचना तब और परिस्थितियां समान रूप से वणित हैं, किन्तु मिलती है, जब कृष्ण का पुण्य-प्रताप परवान चढ़ उसके कारणों में पर्याप्त भिन्नता है। चुका होता है। कंस के दुःस्वप्न देखने के बाद ज्योतिषी वरुण उसे स्वप्नफल बताने के क्रम में 'महापुराण' में कृष्ण की बाल-लीलानों को कृष्ण जन्म की सूचना देता है। कंस पूतना को मानवी और दैवी इन दो रूपों में विभक्त किया कृष्णवध के लिए भेजता है, परन्तु कृष्ण ही पुतना गया है। मानवी लीलाओं में धूलिधसर बालक का के रक्त-माँस चूस लेते हैं । उसके बाद एक देवी गोपियों के हृदय चराना, मथानी पकडना और शकटासुर का रूप धरकर पाती है और कृष्ण से मथानी को तोड़ देना, अधबिलोया दही बिखेर पराजित होकर भाग खडी होती है। यशोदा ऊखल देना, गोपियों का कृष्ण को पकड़ना और मथानी से कृष्ण को बांधकर यमुना किनारे चली जाती तोड़ने के बदले में आलिंगन मांगना या दिन-भरके है। बालक कृष्ण उनके पीछे लगता है। इसी लिए प्रांगन की कैद दे देना ग्रादि हैं। बीच एक राक्षस कृष्ण पर पेड़ उखाड़कर फेंकता हैं, जो उनकी भुजानों से टकराकर चूर-चूर हो बाल-लीला का एक रोचक प्रसंग है । घी के जाता है । इसी प्रकार, एक गर्दभी और अश्व 2-12 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपद्रव करने आते हैं और दोनों बुरी तरह परास्त बाद कृष्ण उग्रसेन को मथुरा के राज्य सिंहासन होते हैं । पनिहारिनें यशोदा को सारी बातें बताती पर स्थापित कर शौरिपुर जाने का निश्चय हैं । यशोदा दौड़कर पाती है और बालक के आहत करते हैं । होने की आशंका से उसे सहलाती है तथा बंधन खोल देती है । इसके बाद बालक कृष्ण अरिष्ट को पछाड़ते 'सूरसागर' में कंस, कृष्ण को बुलाने के लिए, हैं। उनकी कीर्ति समस्त गोकल में फैल जाती है। अक्रूर को भेजता है । कृष्ण के साथ केवल नन्द यशोदा को जब यह वात मालूम होती है, तब वह जाते हैं--यशोदा और दूसरी गोपियां नहीं जाती कुढ़कर सोचती है-यह मेरी कोख से बालक नहीं है। देवकाय, यानी कसवध होने के बाद भी जब राक्षस पैदा हना है लोग देखते ही रह जाते हैं और कृष्ण वृन्दावन लौटने को राजी नहीं होते, तब मेरा बालक अकेले संकटों से भिड जाता है ! और नन्द अकेले वापस चले जाते हैं। कृष्ण के बिना तब श्री कृष्ण को उठाकर घर ले जाती हैं । वर्षा में । उनकी वापसी पर यशोदा और गोपियों की गंभीर गोवर्धन पर्वत उठा लेने से कृष्ण की ख्याति दिगन्त प्रतिक्रिया होती है। बाद में, कृष्ण अपना कुशलप्रसारी हो जाती है । कृष्ण को मथुरा बुलाने के सन्देश देने के लिए उद्धव को गोकुल भेजते हैं । व्याज से कंस अपनी कन्या के स्वयंवर का ठाट । ___ उद्धव से निर्गुण-साधना का उपदेश सुनकर रचता है (जन कथा--परम्परा में ममेरी बहन से गोपियों को गहरा आघात पहुंचाता है। वे उसका विवाह का प्रचलन प्रचुरता से मिलता हैं ।) स्वयं-- कठोर प्रत्याख्यान करती हैं और इस प्रकार सगुण प्रेमाभक्ति के समर्थन में उपालम्भ-प्रधान एक नवीन वर में जाने के लिए जरासन्ध के पुत्र भानु और पाख्यान-काव्य की सष्टि हो जाती है। पुष्पदन्त सुभानु के साथ कृष्ण भी हो लेते हैं। के कृष्ण काव्य में इस मधुमय प्रसंग का प्रभाव है । उनके अनुसार, कृष्ण के साथ ग्वालबाल और 'महापुराण' और 'सूरसागर'-दोनों के वर्णन नन्द-यशोदा भी मथुरा जाते हैं। शौरीपुर जाने के क्रम में प्रमुख और महत्त्वपूर्व वैभिन्न्य यह है कि पूर्व कृष्ण सबकी कामनाएं पूरी कर विदाई देते हैं पुष्पदन्त के कृष्ण जरासन्ध के पुत्र भानु-सुभानु के और नन्द-यशोदा के अविस्मरणीय उपकार को अनुसार बनकर जाते हैं, जहां वे कंस की कन्या के कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हुए कहते हैं : स्वयंवर की शर्तों को पूरा कर देते हैं। कंस अपने शत्र कृष्ण को पहचान लेता है और उनके ससैन्य . इय गोवीयण वयरणइं सुणंतु। . वध की योजना बनाता है। बलराम नन्द को इस कीलइ परमेसरु दर हसंतु ॥ बात की सूचना देते हैं । फलतः, नन्द सुरक्षा की सम्भासियउ मेल्लिवि गव्वभाउ । दृष्टि से गोकुल से अन्यत्र 'नन्दगोकुल' नाम की इह जम्महु महु तुहं ताय ताउ ।। बस्ती बसाते हैं । कंस वहां भी कृष्ण का पीछा परिपालिउ थगण-थरणेन जाई । नहीं छोड़ता है। वह कृष्ण के लिए, यमुना से बीसरमि न खणुमि जसोइमाइ॥ . कमल लाने का आदेश भेजता है । नन्द पर इसकी कइवय दियहिइं तहु जाहि ताम । गहरी प्रतिक्रिया होती है। कृष्ण न केवल कमल पडिवक्ख कुलक्खउ करमि जाम ।। तोड़ लाते हैं, प्रत्य त मुष्टिक और चाणूर के साथ कंस का भी काम तमाम कर देते हैं। आकाश से होने अर्थात्, इस प्रकार गोपियों की बातें सुनते वाली पुष्प वृष्टि के बीच कृष्ण का अपने कुल के और कुछ हंसते हुए 'परमेसरु' (कृष्ण परमेश्वर) उद्धारक-रूप में अभिनन्दन किया जाता है । इसके क्रीडा करते रहे, यानी मनोविनोद की स्थिति में महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-13 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहे । बाद में गर्वभाव छोडकर उन्होंने नन्द से कहा महं उप्परि दीसहिं अधिरचित्त ।। कि इस जन्म में आप मेरे तात हैं। मैं यशोदा कवि भणइ दहिउ-मंथंतियाइ । माता को एक क्षण के लिए नहीं भूल सकता, तुहुं महुं धरियउ उन्भंतियाई ।। जिन्होंने अपने स्तनों का दूध पिलाकर मुझे पाला । लवणीय लित्त करु तुझ लग्गु । कुछ दिनों के लिए आपलोग चले जोयें, तब तक कवि भणइ पलोयइ मझु मग्गु ।। मैं प्रतिपक्षियों का कुलक्षय कर लू। तुहं रिण सिणारायण सुयहि णाहिं । प्रालिंगिउ अवरहिं गोवियाहिं ।। कृष्ण की इस कृतज्ञता की अनुध्वनि 'सूर सो सुयरहिं कि रण पउण्णबंछ । सागर' में भी सुनाई पडती है, जब वे उद्धव से सन्देश ले जाने की बात कहते हैं : संकेय कुडण्गुड्डीरण-रिछ ।। पत्ता-कावि भणइ वासंतु । ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं । उद्धरिवि खीर भिंगारउ ।। प्रात समय माता जसुमति अरु । कि बीसरियउ अज्जु । नन्द देखि सुख पावत ॥ जं मई सित भडारउ ।। माखन रोटी देही सजायौ । अति हित साथ खबावत ॥ अर्थात्, हे प्रभु, तुमने कुछ दिनों तक रतिक्रीडा अनगन भांति करी बहुलीला । के निमित्त हम गोपियों को अपने पास बुलाया था। जसुदा नन्द निबाहीं ॥ हे माधव तुमने यमुना किनारे हमारे कटिवस्त्रों का अपहरण किया था और अब मथुरा की स्त्रियों पर । पुष्पदन्त ने बाल-लीलाओं का ही प्रत्यक्ष वर्णन तुम अनुरक्त हो, हमसे तुम्हारा मन विरक्त हो किया है, किन्तु यौवन-लीलाओं का जान-बूझकर गया है। कोई कहती है: मैंने दही मथते तुम्हें पकड वर्णन नहीं किया है। पुष्पदन्त कृष्ण की बाल- लिया था और मक्खन से लिपटा तुम्हारा हाथ मुझे लीलाओं के बाद की शृगार-लीलाओं के वर्णन के लग गया था। कोई कहती है : तुम मेरा मार्ग विषय में स्पष्टतया मुखर नहीं है। लेकिन, उन्हें देखो, रात तुम सो नहीं सके; क्योंकि दूसरी गार-लीलाओं की जानकारी नहीं थी, ऐसी गोपियों ने तम्हारा ग्रालिंगन किया है। तम्हारा बात नहीं है । ऊपर कहा गया है कृष्ण गोपीजनों रतिसूख से मन नहीं भरा और तम संकेत-निटप की बातें सुनकर कुछ मुस्कराते रहे (दर हसंतु)। के पास जाने को उत्सुक हो। कोई कहती है : वास्तव में पुष्पदन्त ने इन बातों के ब्याज से बड़ी क्या तुम भूल गये, जब मैंने तम्हें दुध की भारी से कुशलतापूर्वक संयोग-लीलाओं का आभास दे दिया भिगो दिया था। है। मथुरा-प्रवास के समय ही कुछ दिनों तक कृष्ण के साथ रति क्रीड़ा करने वाली गोपियां उनसे सोपालम्भ कहना अनपेक्षित न होगा कि सूर ने भी अपनी कृष्ण शृगार-लीला के वर्णन-क्रम में उक्त प्रकार कहती हैं : के भाव परिप्रेक्ष्य में अनेक रसमय प्रसंगों की कइवइ दियहहिं रइकीलरीहि । अवतारणा की है। हालांकि, पुष्पदन्त के भावबोल्लाविउ पइ गोवालिणीहि ।। विनियोग से सूरदास की भावपंगुत्तउ पइ माधव सुहिल्लु । तन्मयता का विन्यास अधिक मर्मबेधक बन पड़ा है, कालिंदी तीरि मेरउं कडिल्लु ।। जो पुष्पदन्त का ही बीजरूप रसमाधुरी की परंपरा एवहिं महुरा-कासिरिणहि रत्त । का चरमोत्कर्ष है। 2-14 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरदास पर पुष्पदन्त से इतर कवियों का केवल सुण्ण चरेइ ॥ प्रभाव : उड्डो वोहिन काउ जिमु । सूरदास पुष्पदन्त से इतर अपभ्रंस-कवियों से पलुटिअ तह वि पडेइ ॥ भी प्रभावित थे, ऐसी सम्भावना सूर के कतिपय सूरदास ने अपने काव्य में भक्ति-परवश मन पदों से दृढ होती है। सूर ने सिद्ध कवियों की के लिए इसी उपमा का कई रूपों में प्रयोग उपमानों और अपभ्रश-कवियों के पद्यों को धार्मिक किया है : परिवेश प्रदान कर अपने भक्तिकाव्य का विषय बना लिया है । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत 1. जैसे उड़ि जहाज को पंछी । व्याकरण के अपभ्रंश-प्रकरण में 'क्त्वा' प्रत्यय के फिरि जहाज प प्रावै ॥ 'इव' आदेश के प्रसंग में एक अपभ्रंश-पद्य का (विनय-पद) उदाहरण उपस्थित किया है : 2. अब मन भया सिंध के खग ज्यों। फिरि फिरि सरत जहाजन ।। बाह विछोडवि जाहि तुहुँ । हउं ते वेंइ को दोसु ।। (भ्रमरगीत, 46) हिअय-ट्ठिय जइ नीसरहि । 3. थकित सिंध नौका के खग ज्यों। जाणउं मुज सरोसु ।। फिरि फिरि फेरि वहै गुन गावत ।। अर्थात्, हे मुज! तुम बाँह छुडाकर जा रहे ___ (भ्र० गीत, 60) हो, तुम्हें क्या दोष दू । यदि मेरे हृदय से निकल 4. भटकि फिर्यो वोहित के खग ज्यों। जानोगे, तो जानूगी कि तुम सरोष हो । पुनि फिरि हरि पै आयो ।। (भ्र० गी०, 119) इस दोहे की शृंगार भावना को सूर ने भक्तिभावना में परिणत करते हुए इसका निबन्धन इस सूरदास के 'सूरसागर' में कतिपय दृष्ट कूट भी प्रकार किया है : मिलते हैं सूर के इन दृष्ट कूटों का बीज सिद्धों की अपभ्रंशबहुल सन्ध्या भाषा के अनेक पदों में भी बॉह छोड़ाये जात हो । उपलभ्य सम्भव है। न केवल सूर-साहित्य पर, निबल जानि के मोहि ।। अपितु हिन्दी-साहित्य के भिन्न-भिन्न कालों पर हिरदै तें जब जाहुगे । अपभ्रश-साहित्य की परम्परा का प्रभाव स्पष्ट सबल जानुगो तोहि ।। परिलक्षित होता है। इससे यह तथ्य उद्भावित सिद्धों ने बार-बार विषयों की अोर प्रभावित होता है कि वैदिक साहित्य से हिन्दी-साहित्य तक एक अखण्ड भावधारा प्रवाहित होती आ रही है, होने वाले मन की तुलना जहाज पर बैठे पंछी से विशेषकर आध्यात्मिक और उपदेशात्मक भावधारा की है। सूर ने उसी उपमा का प्रयोग बार-बार की गति तो प्रायः समानान्तर रही है । समय-समय कृष्ण की अोर दौड़ने वाले गोपियों के मन को इस धारा के बाह्य रूप में परिवर्तन अवश्य होता लक्ष्य कर किया है। विषयरलिप्सु मन के संबंध रहा, किन्तु मूलभावना अपनी सनातनता के साथ में सरह का एक दोहा है : सुरक्षित है। विसप विसुद्ध णउ रमइ । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-15 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य के धरातल पर दो क्षणिकाएं श्री शर्मन लाल "सरस" सकरार (भांसी) एक जमाना था, जब गाय सिंह एक घाट पानी पीते थे, अब - गाय सिंह तो दूर, एक प्रांत के दो भाई एक साथ, पानी नहीं पीते हैं, वे - द्वेष से भरे, प्यार से रीते हैं अब - दुर्बल हो या बलवान, निर्धन हो या धनवान, बुद्धू हो या विद्वान, आदमी में इतनी कटुता होने लगी है, कि - पशुता तक रोने लगी है, आज हाँ पाजएक चादर में दो कुत्ते एक साथ सो सकते हैं, पर - दो- इन्सान एक साथ नहीं सो पायेंगे, वे चीखेंगे चिल्लायेंगे और दाव लगते ही काट खायेंगे। (२) हमारी प्राचरणहीनता को, महावीर का नाम नहीं पाट सकता है, सोचिए तो सही कहीं पंगु पहाड लांघ सकता है, हम भले ही विधान करें, विमान निकालें, मंदिरों के नगर गढ़ें, प्रतिमाओं के प्रम्बार लगालें, सुन्दर बोलें अच्छा समझायें झांकी जलूसों से जमाने पर छाजाए पर - जब तक हमारे जीवन में, भाचरण के निशान नहीं हैं, देव होने की तो बात दूर, हम इन्सान नहीं हैं। 2-16 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भारतीय इतिहास में खारवेल के हाथी गुफा वाले शिलालेख का बहुत बड़ा महत्व है । विद्वानों को इस लेख के पढ़ने में सौ वर्ष से भी अधिक का समय लगा । ऐसे महत्वपूर्ण लेख को संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद लेखक द्वय ने बड़े परिश्रम से तैयार किया जो स्मारिका के सन् 1976 के अंक में प्रकाशित हुआ। इसके पश्चात् सन् 1977 को स्मारिका में उन्होंने कई तर्कों के आधार से खारवेल की राज्यारोहण तिथि ईसा पूर्व प्रथम शती का अन्तिम चरण निश्चित की । उसी क्रम में विद्वान् लेखकों का यह चौथा निबन्ध है जिसमें उक्त शिलालेख के आधार पर खारवेल के प्रारम्भिक जीवन की कुछ घटनाओं का वर्णन किया गया है। स्मारिका के इस अंक में भी यह प्रकरण समाप्त नहीं हुआ है । ऐसे श्रमसाध्य कार्य के लिए लेखक द्वय अभिनन्दन के पात्र हैं। -पोल्याका खारवेल का प्रारम्भिक जीवन नीरज जैन एम० ए०, ) डा० कन्हैयालाल अग्रवाल, सतना दो हजार वर्ष प्राचीन हाथीगुम्फा अभिलेख के प्रतिवर्ष की घटनाओं का उल्लेख है, जिसके खण्डगिरि-उदयगिरि पर्वत के दक्षिण की ओर आधार पर हम स्मारिका के 1975, 76 और 77 लाल-बलुवे पत्थर की एक चौड़ी प्राकृतिक गुहा में के अंकों में तीन लेख प्रकाशित करा चुके हैं । लेख उत्कीर्ण है । इसमें सत्रह पंक्तियां हैं । प्रस्तुत लेख शृंखला की चौथी किश्त के रूप में प्रस्तुत हैपहली बार स्टर्लिंग द्वारा 1820 ई० में प्रकाश में 'खारवेल का प्रारम्भिक जीवन'। पाया। तब से 1927 ई० तक इसके संशोधित पाठ समय-समय पर प्रकाशित होते रहे । इस प्रकार महामेघवाहन विवेच्य अभिलेख पढ़ने और समझने में लगभग एक हाथीगुम्फा अभिलेख में खारवेल को शती (1820 ई० से 1917 ई०) का दीर्घकाल 'महामेघवाहनेन' कहा गया है । एक अन्य अभिलेख लगा । इस अभिलेख में कलिंग चक्रवर्ती जैन सम्राट में उसके पुत्र और उत्तराधिकारी राजा वक्रदेव को खारवेल के व्यक्तित्व और प्रशासनकाल की घटनाओं 'महामेघवाहनस्य' कहा गया है। इन सन्दर्भो से का विस्तृत परिचय दिया गया है । इसकी एक स्पष्ट होता है कि खारवेल 'महामेघवाहन' उपाधि प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें खारवेल के शासन धारण करता था और उसके उत्तराधिकारी भी महाबीर जयन्ती स्मारिका 78 2-17 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस उपाधि का प्रयोग गौरवपूर्वक करते थे। करते हैं और एक जातक कथा के आधार पर व्युत्पत्ति सम्बन्धी नियम से 'महामेघवाहन' का अर्थ इसका अर्थ 'स्वामी' बताते हैं । डा० सुकुमार सेन16 है : 'वह व्यक्ति जिसका वाहन महामेघ अर्थात् इसे वैदिक 'इर' से निष्पन्न परवर्ती वैदिककाल के बादल के समान महान् राजहस्ति हो ।'3 मेघों के ऐर' का पर्याय बताते हैं और इसका अर्थ 'जल, अतिरिक्त इस शब्द का अर्थ 'हाथी' भी होता है। जलपान, भोजन, आराम और मनोरंजन' करते हैं। अर्थशास्त्र से विदित होता है कि कलिंगदेश में इस अर्थ के आधार पर डा० सेन इसे वैदिक 'इर्य' उत्तम कोटि के हाथी होते थे। कुरुधम्म और का पर्याय स्वीकार करते हैं जिसका तात्पर्य ऐसे वेस्सन्तर जातक कथानों से प्रकट होता है कि स्वामी से है जो फुर्तीला, शक्तिवान और प्रबल हो । राजहस्ति से प्रजा की धार्मिक भावनायें सम्बद्ध थी। डा० काशीप्रसाद जायसवाल का मत है कि राज कीय उपाधि का पहला शब्द 'ऐर' है जिसका प्रयोग चूकि इन्द्र का वाहन हाथी है, अतः महा एक सातवाहन अभिलेख में भी हुआ है। सेनार ने मेघवाहन इन्द्र का पर्याय हो सकता है। वह मेघों इसका अनुवाद 'आर्य' किया है । डा० जायसवाल का देवता कहा जाता है। इसलिये जलवृष्टि का का कथन है कि खारवेल की अधिकांश प्रजा द्रविण भी उससे सम्बन्ध है । वह देवों का देव है, अतः या आर्य द्रविणों की थी, अतः यहां खारवेल द्वारा महेन्द्र कहा जाता है । यहाँ भी महामेघवाहन विरुद ऐर' शब्द का प्रयोग अपनी रक्त श्रेष्ठता सिद्ध से कुछ इसी तरह का अर्थ ध्वनित होता है। डा० करने के लिये किया गया है। चूंकि खारवेल एक बरुग्रा' का मत है कि अभिलेख की सोलहवीं पंक्ति प्रादर्श और लोकप्रिय शासक था, अतः डा० में 'इन्द्रराज' शब्द के प्रयोग से स्पष्ट मालूम होता है जायसवाल का उक्त मत सन्देह से परे नहीं है। कि खारवेल की तुलना इन्द्र से की गयी है । तो भी, डा० राखालदास बनर्जी18 का मत है कि 'र' 'ऐड' डा० बरुपा का 'इन्द्रराज' शब्द डा० जायसवाल अथवा 'ऐल' का पर्याय है जिसका अर्थ है 'ईला' या और डा० सरकार द्वारा भिक्षुराज पढ़ा गया है। 'इला की सन्तान' । डा० दिनेशचन्द्र सरकार भी अतः डा० बरुग्रा का पाठ स्वीकार नहीं किया जा , उपर्युक्त मत को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि सकता । 'ऐल' चन्द्रवंशी थे । यही मत उपयुक्त प्रतीत होता है। प्राचीन भारत में मेघवाहन शब्द का प्रयोग व्यक्तिगत और राजवंशीय नामों के लिये हा है चेदिवंश जिसकी पुष्टि महाभारत, राजतरंगिणी1 और खारवेल स्वयं को चेदिराज के वंश 0 का जैन साहित्य से होती है । डा० जायसवाल13 का बताता है । इतना ही नहीं अपने अभिलेख की मत है कि पुराणों में वरिणत मेघ शब्द महामेघवाहन सत्रहवीं पंक्ति में अपने कथन को स्पष्ट करते हुए का संक्षिप्त रूप है । मेघ अथवा मघl4 एक ही हैं : स्वयं को चेदिनरेश वसु का वंशज कहता है । जिन्होंने तीसरी शती ई० तक दक्षिण कोसल में ऋग्वेद-1 में चेदि देश के निवासियों के साथ वहां शासन किया। के राजा कसू चैद्य का उल्लेख मिलता है। प्रो० रैप्सन ने इस कसु चैद्य को महाभारत में उल्लिखित इस विरुद् का अर्थ स्पष्ट नहीं है । डा. वसु बताया है। यह वसु चेदिदेश (प्राधुनिक बरुपा। इसे 'वेर' पढ़ते हैं और वीर का पर्याय बुन्देलखण्ड) का शासक था। उसकी राजधानी स्वीकार करते हैं । वे इसके 'ऐर' पाठ को भी मान्य शुक्तिमतीपुरी थी ।23 चेतिय जातक के अनुसार 2-18 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पांच वसु थे जिन्होंने हत्थिपुर ( हस्तिनापुर ) पुत्र अस्सपुर (रंग जनपद, सीहपुर (लाल राष्ट्र में, उत्तरी पंजाब में भी ), उत्तर पंचाल और दद्दपुर (हिमवन्त प्रदेश ) नामक पांच नगर बसाये । चेतिय जातक के समान महाभारत में वसु के पांच पुत्र बताये गये हैं जो महापराक्रमी और प्रोजस्वी थे । राजा ने विभिन्न राज्यों में अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया। इन पुत्रों में वृहद्रथ मगध का महाप्रतापी राजा हुआ। दूसरे पुत्र का नाम प्रत्यग्रह, तीसरे का कुशाम्ब (मरिणवाहन), चौथे का मल्ल और पांचवे का यदु था। ऐसा प्रतीत होता है कि चेदियों की एक शाखा कलिंग में बस गयी जिसका उल्लेख खारवेल अपने अभिलेख में करता है । खारवेल खारवेल के प्रारम्भिक जीवन पर विचार करने से पहले 'खारवेल' शब्द का अर्थ जान लेना ग्रावश्यक है । डा०जायसवाल 27 का कथन है कि खारवेल खार + वेल शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है खारी लहरों वाला अर्थात् समुद्र । डा० सुनीतिकुमार चटर्जी खारवेल के स्थान पर काड़- विल्व पाठ अधिक उपयुक्त मानते हैं । 'काड़ - विल्व' का अर्थ है काला भाला धारण करने वाला' । डा० सरकार उपर्युक्त मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि क्षार + वेल का तात्पर्य समुद्री तट पर शासन करने वाला है । हाथीगुम्फा अभिलेख की पहली और दूसरी पंक्ति में खारवेल के बाल्यकाल का वर्णन इस प्रकार किया गया है - 'पसथ - सुभ- लखनेन चतुरंतलुठण - गुण- उपितेन x x x सीरि कडार - सरीर-वता कीडिता कुमार कीडिका ।' पसथ शुभ लखनेन का अर्थ प्रशस्त और शुभ लक्षण वाला है । उक्त प्रशस्त और शुभ लक्षण भविष्यवक्ताओं और हस्तरेखा विशेषज्ञों के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं । बोधिसत्त्व के लक्षण संपत् देखकर दैवज्ञ ब्राह्मणों ने महावीर जयन्ती स्मारिका 78 भविष्यवाणी की थी कि 'ऐसे लक्षणों वाला पुरुष यदि गृहस्थ रहे, तो चक्रवर्ती राजा होता है; और प्रव्रजित होने पर बुद्ध | 30 हाथीगुम्फा अभिलेख में उसके लिये प्रयुक्त इस विशेषरण से ज्ञात होता है कि वह सर्वसत्ता सम्पन्न शासक था। उसकी प्रग्रमहिषि के लेख 31 में भी उसे कलिंग चक्रवर्ती कहा गया है। प्रतीत होता है कि बोधिसत्व के समान ही खारवेल के शुभ लक्षणों और चिह्नों को देखकर यह भविष्यवाणी कर दी गयी थी कि वह चक्रवर्ती शासक होगा । दूसरे पद चतुरंतलुठरण गुण उपितेन का अर्थ 'चतुरंत (चतुर्दिक) व्याप्त गुणों वाला' है । अर्थशास्त्र " से ज्ञात होता है कि चतुरंत का तात्पर्य 'समुद्र-क्षिति' है । बौद्ध साहित्य से प्रकट होता हैं कि चारों समुद्रों से घिरी हुई पृथ्वी की धर्म विजय करने वाला शासक चक्रवर्ती कहलाता है । पालि साहित्य में चक्रवर्तियों के तीन प्रकार बताये गये हैं- ( 1 ) चक्रवाल चक्रवर्ती (चारों महाद्वीपों का शासक ), ( 2 ) द्वीप - चक्रवर्ती ( एक द्वीप का शासक) और (3) प्रदेश चक्रवर्ती ( एक द्वीप के कुछ (भाग का शासक ) । कौटिल्य 35 कहता है कि हिमालय से लेकर समुद्र पर्यन्त, पूर्व-पश्चिम दिशाओं में एक हजार योजन तक फैला हुआ और पूर्व - पश्चिम की सीमाओं के बीच का भू-भाग चक्रवर्ती क्षेत्र कहलाता है; अर्थात् इतनी पृथ्वी पर शासन करने वाला राजा चक्रवर्ती होता है । राजशेखर का कथन है कि यह भारतवर्ष है । उसके नौ भेद हैं- 1. इन्द्रद्वीप, 2. कसेरुमान, 3. ताम्रप 4. गभस्तिमान् 5. नागद्वीप, 6 सौम्य, 7. गन्धर्व 8. वरुणद्वीप और 9. कुमारी द्वीप । इन नौ द्वीपों का पांच भाग जल और पाँच भाग स्थल है । इस प्रकार प्रत्येक द्वीप की सीमा एक सहस्र योजन है । वे दक्षिण से हिमालय तक फैले हुए हैं और परस्पर अगम्य हैं । इन सभी द्वीपों पर जो विजय प्राप्त करत 2-19 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह सम्राट (चक्रवर्ती) कहा जाता है।6 का प्रेमी' कृष्ण के स्थान पर विष्णु को मानते हैं । राजेश्वर पुनः कहता है कि 'कुमारी द्वीप से विन्दुसर डा० बरुग्रा45 का कथन है कि कुमार खारवेल इतना तक एक सहस्र योजन का भाग चक्रवर्ती क्षेत्र सुन्दर था मानों विष्णु ने ही मानव रूप में अवतार कहा जाता है । इस समूचे क्षेत्र पर विजय लिया हो। अमरकोश16 में कड़ार का अर्थ 'भूरे रंग करने वाला राजा चक्रवर्ती कहा जाता है ।'37 वाला' किया गया है । यही अर्थ अधिक तर्कसंगत इस प्रकार हम देखते हैं कि एक साम्राज्य- प्रतीत होता है। वादी शासक का प्रभाव क्षेत्र पौराणिक38 भारतवर्ष होता था । मानियर विलियम्स चक्रवर्ती शिक्षा शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं-'वह शासक जिसके रथ के पहिये (चक्र बिना अवरोध के सर्वत्र अच्छे शासक का शिक्षित होना अनिवार्य प्रवर्तित होते हैं' या 'एक चक्र' अर्थात समुद्र से है। उसकी शिक्षा के सम्बन्ध में पहले से ही राजलेकर समुद्र पर्यन्त भूभाग का शासक ।'39 विष्णा- शास्त्र प्रणेताओं ने नियम बना रखे हैं । हाथीगुम्फा पुराण40 में कहा गया है कि 'सभी चक्रवतियों के अभिलेख की द्वितीय पंक्ति में कहा गया है कि हाथों पर (अन्य चिह्नों के साथ भगवान् विष्ण का खारवेल ने पन्द्रह वर्षों तक गौर वर्ण वाले शरीर चिह्न पाया जाता है); और वह ऐसा शासक होता से बाल्यकाल की क्रीडायें की। तत्पश्चात् लेख, रूप है जिसकी शक्ति का सामना देवता भी नहीं कर गणना, व्यवहार और धर्म में निष्णात होकर सब सकते ।' इस प्रकार चक्रवर्ती शब्द का अर्थ है 'सार्व- विद्यानों से परिशुद्ध उन्होंने नौ वर्षों तक युवराज भौम शासक' । यह सार्वभौम प्रभुसत्ता की परि- पद सुशोभित किया ।' कौटिल्य राजकुमारों के चायक उपाधियों में से एक है । उपर्युक्त विवेचन अध्ययन क्रम का वर्णन इस प्रकार करता है । से ज्ञात होता है कि खारवेल एक चक्रवर्ती शासक 'मुण्डन संस्कार के बाद वर्णमाला और अकमाला था। उसके लेख में बताया गया है कि उसने का अभ्यास करे ।'47 मनु कहते हैं कि 'सभी सम्पूर्ण भारतवर्ष के विरुद्ध एक सैनिक अभियान द्विजाति बालकों का चूड़ाकरण संस्कार वेद के किया था। उसके रथ के पहिये अविराम गति से अनुसार पहले या तीसरे वर्ष (या कुलपरम्परानुसार) प्रवर्तित हुए थे और उसे सर्वत्र विजय ही प्राप्त करना चाहिये ।'43 इसका तात्पर्य यह हुआ कि हुई थी। राजकुमार की शिक्षा तीन वर्ष की आयु पूर्ण कर लेने पर प्रारम्भ करना चाहिये । वर्णमाला और पंक्ति का अगला पद 'सिरि-कडार-सरीर' गणित की यह शिक्षा उपनयन संस्कार के पूर्व तक है। डा० सरकार1 इसका संस्कृत पाठ 'श्रीमत् चलती थी। ग्यारहवें वर्ष में19 उपनयन संस्कार पिंगलदेहभाजा' (श्वेत-पीतवर्ण शरीर वाला) करते सम्पन्न होने पर उसे सदाचारी विद्वान् प्राचार्यों से हैं। चाइल्डर्स12 कलार या कड़ार का अर्थ 'पीले त्रयी (तीन वेद) तथा प्रान्वीक्षकी, विभागीय अध्यक्षों बादामी रंग का' बताते हैं । स्टेनकोनो43 का मत है से वार्ता और वक्ता-प्रयोक्ता विशेषज्ञों (संधि, कि 'सिरि-कड़ार' और 'सिरि-कटार' एक हैं। विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव आदि के प्राचार्य) शब्दमाला के अनुसार इसका तात्पर्य नागर या से दण्डनीति की शिक्षा ग्रहण करना चाहिये ।50 कामी से है । अतः 'सिरि-कड़ार' का अर्थ 'श्री का सोलह वर्ष की आयु पूर्ण कर लेने पर समावर्तन प्रेमी' या भगवान् कृष्ण है । डा० जायसवाल14 और विवाह संस्कार होना चाहिये । वह दिन का उपर्युक्त मत को स्वीकार तो करते हैं किन्तु वे 'श्री पहला भाग हाथी, घोड़ा, रथ, अस्त्र-शस्त्र प्रादि -2-20 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यानों को शिक्षा में, दिन का दूसरा भाग इतिहास (4) लिंग, वचन, काल और कारक का अर्थात् पुराण, इतिवृत, आख्यायिका, उदाहरण विपरीत प्रयोग करना अपशब्द दोष है। (मीमांसा), धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र सुनने में और (5) लेख विराम आदि चिह्नों की, अर्थशेष समय नवीन ज्ञान के अर्जन और अधीन ज्ञान क्रम के अनुसार योजना न करना संप्लव दोष है। के चिन्तन-मनन में व्यतीत करे ।।1 पत्रलेख के छह गुण-अर्थक्रम, सम्बन्ध, लेख परिपूर्णता, माधुर्य, औदार्य और स्पष्टता हैं-53 (1) प्रधान अर्थ और अप्रधान अर्थ को ___ खारवेल की शिक्षा के सम्बन्ध में प्रयुक्त लेख, पूर्वापर यथानुक्रम में रखना ही अर्थक्रम कहलाता रूप और गणना असाधारण महत्व रखते हैं । अतः 'लेख' शब्द का प्रयोग मात्र अक्षर ज्ञान या लिपि (2) लेख की समाप्ति पर्यन्त अगला अर्थ, ज्ञान के लिये नहीं हुआ । अर्थशास्त्र के अनुसार प्रस्तुत अर्थ का बाधक न होने पर अर्थ सम्बन्ध किसी राजकुमार को अक्षरों का ज्ञान तीन से पांच कहलाता है। वर्ष की आयु में करा दिया जाता था। अभिलेख में कहा गया है कि खारवेल ने जीवन के प्रथम (3) अर्थपद तथा अक्षरों का न्यूनाधिक्य न पन्द्रह वर्ष बालकोचित क्रीड़ानों में और पन्द्रह से होना, हेतु उदाहरण तथा दृष्टान्त सहित अर्थ का चौबीस वर्ष की आयु का समय युवराज के रूप में निरीक्षण और प्रभावहीन शब्दों का प्रयोग न करना व्यतीत किया। अतः यह तर्कसंगत नहीं प्रतीत परिपूर्णता कहलाता है। होता कि खारवेल ने पन्द्रह वर्ष की आयु पूरी कर (4) सरल, सुबोध शब्दों का प्रयोग करना खा होगा। अभिलेख से प्रमा- माधुर्य है। रिणत होता है कि 'लेख-विशारद' (लेखन कला में (5) शिष्ट शब्दों का प्रयोग करना औदार्य निपुण) होने के बाद ही उसने युवराज पद का कहलाता है। दायित्व सम्भाला था । कौटिल्य इस सन्दर्भ में (6) प्रचलित शब्दों का प्रयोग करना ही महत्वपूर्ण जानकारी देता है । वह कहता है कि स्पष्टता है। पत्र लेख के पांच दोष-अकान्ति, व्याघात, पुनरुक्त, प्रस्तुत अभिलेख में खारवेल के लिये प्रयुक्त अपशब्द, संप्लव बताये गये हैं। 'लेख विशारद' विशेषण का अर्थ इस व्याख्या से (1) स्याही पड़े कागज पर लिखना,मलिन बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है । युवराज पद ग्रहण कागज पर लिखना, भद्दे अक्षर लिखना, छोटे बड़े करते समय तक वह राजकीय शासन लिखने में अक्षर लिखना और फीकी स्याही से लिखना अत्यधिक निपुण हो गया था। इसी कारण उसके कान्ति नामक दोष है। लिये प्रयुक्त यह विशेषण सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है। (2) नवीन लेख से पिछले लेख का विरोध हो जाना या नवीन लेव का पिछले लेख से बाधित रूप हो जाना व्याघात दोष है। लेख के समान 'रूप' शब्द का व्यवहार भी (3) पूर्वोक्त कथन को दुहरा देना पुनरुक्त विस्तृत अर्थ में हुप्रा है। इसके अन्तर्गत मुद्रा से दोष है। सम्बन्धित सभी प्रकार की समस्यायें सम्मिलित हैं । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-21 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राखालदास बनर्जी की अवधारणा है कि रूप, रूप्य या रुपया का समानवाची है । हाथीगुम्फा अभिलेख में इस शब्द का प्रयोग इस प्रकार किया गया है कि उससे दूसरा अर्थ निकालना सम्भव नहीं हैं । अतः यह कहना कि यहां 'रूप' का तात्पर्य 'अभिनय' है, सर्वथा अनुपयुक्त होगा। जोगेश्वरी गुहालेख में 'लुगदर वे' शब्द का उल्लेख है जिसका अर्थ 'मुद्रा अधिकारी' है । 55 महावग्ग 56 में 'रूप' का अर्थ और स्पष्ट कर दिया गया है । बुद्धघोष कहता है कि जो व्यक्ति रूपशास्त्र का अध्ययन करता है उसे बहुत से कार्षापणों को बार-बार पलटना पड़ता है । अर्थशास्त्र में उल्लिखित 'रूपदर्शक' का अर्थ भी मुद्राओं की परीक्षा करने वाला अधिकारी है । अतः प्रतीत होता है कि 'रूप' का प्रयोग मुद्राशास्त्र के लिये किया गया है । गरणना 'गरणना' शब्द का उल्लेख अशोक के तीसरे शिलालेख और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है | राखालदास बनर्जी "" उसका अर्थ 'लेखाकर्म ' करते हैं। डा० जायसवाल 1 का अभिमत है कि गणना का अर्थ शासकीय लेखा-जोखा है । यह मत समीचीन प्रतीत होता है । विधि डा० बरु ? का कथन है कि विधि से तात्पर्य 'नियम' से है जैसे लेखविधि ( शासन लिखने के नियम, रूपविधि ( मुद्रा सम्बन्धी नियम ) आदि । विधि को एक स्वतन्त्र शब्द मानते हुए डा० जायसवाल 63 इसका अर्थ धर्मशास्त्र या धर्म संबंधी नियम करते हैं । डा० बरुप्रा 04 उपर्युक्त अर्थ को अनुपयुक्त बताते हुए कहते हैं कि विधि का प्रयोग अर्थशास्त्र में क्रिया - विधि के रूप में हुआ है जिसका तात्पर्य है न्याय करने के नियम । लेकिन व्यवहार का भी यही अर्थ है । फिर भी इन दोनों शब्दों में 2-22 कुछ अन्तर है । विधि का प्रयोग मानव चरित्र और कर्त्तव्यों के स्वीकृत नियमों के लिये होता है जब कि व्यवहार का प्रचलित परम्पराओं के लिये । डा. बरु का मत है कि खारवेल के अभिलेख में प्रयुक्त विधि नियम, चरित्र, संस्था या धर्मशास्त्र का पर्यायवाची है । व्यवहार हाथीगुम्फा अभिलेख का 'व्यवहार' अशोक का 'वियोहाल' प्रतीत होता है । 65 डा० बरुआ 6 का मत है कि हम डा० देवदत्त रामकृष्ण भण्डारकर द्वारा की गयी वियोहाल - समता की व्यवहार-समता व्याख्या से पूर्वरूपेण सहमत है, किन्तु हम डा० भण्डारकर और बुलर के इस मत से कि 'वियोहाल' अभिहाल (पाली अभिहार) का पर्यायवाची है, सहमत नहीं हैं । तो भी, 'अभिहाले वा दण्डे वा' की बुलर द्वारा की गयी 'पारितोषिक और दण्ड देने' की व्याख्या उपयुक्त प्रतीत होती है । सव - विजा अभिलेख में खारवेल को 'सब विद्याथों से परिशुद्ध' (सव - विजावदातेन ) कहा गया है । यहां सव - विजा के अन्तर्गत कौन-कौन सी विद्यायें या विषय सम्मिलित थे, यह प्रश्न विवादास्पद है । प्राचीन समय में राजकुमारों को प्राप्त पुरुषों के चरित्रों को ध्यान में रखकर मनोवृत्तियों पर नियन्त्रण रखना आवश्यक था। लेकिन खारवेल अपने अभिलेख में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं करता । मिलिन्दपञह में राजकुमारों की शिक्षा के सम्बन्ध में कुछ निर्देश मिलते हैं । उनके लिए लेखनकला, गणना, हथियारों का चलाना, सैन्यसंचालन, नीतिशास्त्र, श्रुति, स्मृति, युद्ध और युद्धकला में निपुणता प्राप्त करना आवश्यक था । उपर्युक्त ग्रन्थ में बताया गया है कि मिलिन्द (हिन्दयूनानी शासक मीनेण्डर ) उन्नीस विद्याओं का ज्ञाता महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था । ये विद्यायें---श्रुति, लौकिक नियम (सम्मुति), परम्परा रही है कि प्रतिष्ठित राजवंशोंके उत्तरासांख्य, योग, नीति, वैशेषिक, दर्शन, गणित, संगीत, धिकारियों को शिक्षा-दीक्षा सम्पन्न बनाने के लिए चिकित्सा, चार वेद, पुराण-इतिहास, ज्योतिष, सारी व्यवस्थायें महलों में ही उपलब्ध करायी जाती इन्द्रजाल, जादू, तर्कशास्त्र, युद्धकला और काव्य- थीं। प्रत्येक विषय के निष्णात विद्वान इस कार्य के शास्त्र हैं 167 जूनागढ़ अभिलेख68 में रुद्रदामा को लिये नियोजित किये जाते थे। राजवंशों की मर्या. शब्द, अर्थ, गन्धर्व और न्याय शास्त्रों में प्रवीण दारों की दृष्टि से और कुल-दीपक शिक्षार्थियों की बताया गया है । हाथीगुम्फा अभिलेख में इस तथ्य सुरक्षा को दृष्टि से यह व्यवस्था अधिक सुविधाका उद्घाटन नहीं किया गया कि खारवेल ने 'सर्व- जनक भी थी। विद्या' कहां पढ़ी। प्रतीत होता है कि वह अध्ययन खण्डगिरि के इस अभिलेख का थोड़ा सा के लिए कलिंग से बाहर नहीं गया । सम्भवतः प्रारम्भिक भाग ही हम इस लेख में ला पाये हैं । महलों में ही उसके लिए योग्य शिक्षक या शिक्षकों शेष अंश पर अगले लेखों में विचार किया की व्यवस्था की गयी थी। यह एक प्रचलित जायेगा। 1. से. इ., खण्ड 1 पृ. 214, पं. 1. 2. लूडर्स सूची, कं. 1347. 3. प्रो. ग्रा. ई. पृ. 40. 4. कलिंगांगगजाः श्रेष्ठाः प्राच्याश्चेति करूषजाः 2.2.15. 5. फासबाल, कं. 276. 6. वही, क्र. 547. 7. प्रो. बा. ई., पृ. 39. 8. ज. बि. उ. रि सो., खण्ड 4, पृ. 402. १ से. इ., खण्ड 1, पृ. 211. 10. 2.14.13 11. ए. ई.यू., पृ. 211 12 हेमचन्द्र, सूत्रवृत्ति, 2.2.3; दे. तिलकमजरी. 13. ज. वि. उ रि. सो. खंड 3, पृ. 483-84. 14. डा. अग्रवाल, कौशाम्बी और बान्धवगढ़ के मघ शासक', पुराकल्प, जून 1975, पृ. 42-47. 15. प्रो. बा. इ., पृ. 266. 16. ई.हि. कां., (वाल्टेयर अधिवेशन) 1953, पृ......... 17. ज. बि. उ. रि. सो., खण्ड 3, पृ. 434. 18. हिस्ट्री ऑफ उड़ीसा, खण्ड 1, पृ. 72. 19. से. इ., खण्ड 1, पृ. 219, टि. 5. 20. वही, पृ. 214, पं. 1. 21. 7.5. 37-39. महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. के. हि. इ., खण्ड 1, पृ. 75. 23. अग्रवाल, बिन्ध्यक्षेत्र का ऐतिहासिक भूगोल (अप्रकाशित), पृ. 95-96. 24. हिन्दी अनुवाद, चतुर्थ खण्ड, पृ. 120. 25. प्रा. मा. रा. इ., पृ. 118. 26. 1.57. 28-29. 27. ज. बि. उ. रि. सो. खण्ड 3, पृ. 434 28. से. इ., खण्ड 1, पृ. 214, टिप्पणी. 29. वही, पृ. 214, टिप्पणी. 30. बुद्धचर्या, पृ. 5. 31. लूडर्स की सूची, क्र. 1346; से. इ., खण्ड 1, पृ. 213-14. 32. 3.2.50. 33. महाबोधिवंश, पृ. 73-74; बुद्धवंश अठ्ठकथा, पृ. 113; दे. प्रो. बा. इं में उद्धृत, पृ. 232, टि. 1. 34. ज्यॉ. ऐ मे. इ., पृ. 5 टि. 1. 35.9.1. 36. काव्य मीमांसा, (पटना); पृ. 233-34. 37. काव्यमीमांसा, पृ. 234. 38. दक्षिणापरतो ह्यस्य पूर्वेण च महोदधि । हिमवानुत्तरेणास्य कामुकस्य यथा गुणः ।। माकण्डेयपुराण,, LVII. 59. उत्तरं यत्समुद्रस्य' हिमवद्दक्षिणं च यत् । वर्ष तद्भारतं नाम यत्रयं भारती प्रजा ।। वायु., XLV, 75-76. 39. कार्पस, खण्ड 3, पृ. 183, टि. 4. 40. विल्सन, खण्ड 1, पृ. 183, टि. 1. 41. से. ई, खण्ड 1, पृ. 219. 42. प्रो. बा. ई., पृ. 40, टि. 9; विलियम्स, संस्कृत-इंग्लिश डिक्सनरी, पृ. 245. 43. वही. 44. प्रो. बा. ई., पृ. 40, 209. 45. प्रो. बा. ई., पृ. 240. 46. 1.5.16. 47. वृत्तचौलकर्मा लिपि संख्यानं चोपयुजीत । (गैरोला) 1.2.4 48. चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः । प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं श्रुतिचोदनात् ।। मनुस्मृति, 2.35. 49. वही, 2.36. 50. अर्थशास्त्र (गैरोला) 1.2.4. 51. (गैरोला), 1.2.4. 2-24 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52. वहीं, 2.26.10 53. 2.26.10 (गैरोला) 54. हिस्ट्री ऑफ उड़ीसा, खण्ड 1, पृ. 72. 55. प्रा. स. इं, 1903-4, पृ. 120 तथा आगे; इं. ऐं, खण्ड 48, पृ. 131. 56. से. बु. ई., खण्ड 13, पृ. 201, टि. 1. 57. शामशास्त्री संस्करण, पृ. 95. 58. से. इं., खण्ड 1. पृ. 19 59. 2.7.75 60. हिस्ट्री ऑफ उड़ीसा, खण्ड 1, पृ 73; ए. ई., खण्ड 20, पृ. 71 तथा आगे, 61. ना. प्र. प., खण्ड 8, पृ. 19. 62. श्री. बा. इ., पृ. 245. 63. वही, पृ. 245 पर उद्धृत. 64. वही, पृ. 245. 65. से. इ, खण्ड 1, पृ. 57. 66. प्रो. बा. इं, पृ. 245. 67. रिज डेविड्स संस्करण, पृ. 3.4. 68. से. इं., खण्ड 1, पृ. 180. दुःख कोई नहीं बंटाता संसारी मनुष्य अपने प्रिय कुटुम्बियों के लिए बुरे से बुरे कर्म भी कर डालता है, पर जब उनके दुष्कर्म भोगने का समय श्राता है तब वह अकेला ही दुःख भोगता है । कोई भी भाई बन्धु उसका दुःख बाँटने वाला, सहायता पहुंचाने वाला नहीं होता । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 - भ. महावीर 2-25 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :: प्रभु से विनम्र प्रश्न : .श्री मंगल जैन 'प्रेमी' ३१६, हनुमानताल, जबलपुर ज्ञान की लहर, अज्ञान के तट, थककर, तुम्हारा पथ पूछती है. हर दिशा में, भुजायें बढ़ाते रहे, सोये देव, बेमतलब जगाते रहे, अहं को नाव पर, बहे जा रहे, वेदना को यू ही, सहे जा रहे. अंजली भर चुकी है, प्रांसुओं से, प्रांख ये तेरा, तथ पूछती है ॥ BIB88888888 भारती को सजाया, हर थाल में, प्रार्थना को गाया, हर ताल में, पीत वसनों को, सदा पहनता रहा, अभिषेक नीलामी करता रहा. साधना भावों में बिककर हा, अाराधना तेरा, विगत पूछती है। ज्योति वसन, नहिं मन पर है, युवा साधना, नहिं तन पर है, स्नेह बूद में, कहां चेतना, कहते हो ये है, सुजन वेदना. मुस्कराते हुये, गुनगुनाते हयेप्रात्मा तुम्हारा अथ पूछती है ॥ ज्ञान की धारा अज्ञान के तट, थककर, तुम्हारा पथ पूछती है ।। 2-26 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो प्रतिमाएँ चारों दिशाओं से देखी जा सकें वे प्रतिमाएं सर्वतोभद्र कहलाती हैं । ये कई प्रकार की होती हैं यथा - एक ही प्रतिमा के चार मुख, प्रत्येक दिशा में एक तीर्थंकर की चार प्रतिमाएँ, प्रत्येक दिशा में चार भिन्नfra area की मूर्तियाँ श्रादि । ये मूर्तियाँ खड्गासन अथवा पद्मासन दोनों ही प्रकार की होती हैं। प्रायः मानस्तंभों पर इस प्रकार की मूर्तियों के विराजमान करने का प्रचलन था । तीर्थकरों के समवसरण में ऐसे हो मानस्तंभ होने का विश्ररण जैन शास्त्रों में प्राप्य है । लेखक ने जिस प्रतिमा का वर्णन दिया है वह 'प्रतिमालेख में विजयसिंह नाम के कारण हो श्वेताम्बर प्रतिमा सिद्ध नहीं होती जैसा कि लेखक ने माना है अपितु इस कारण भी वह श्वेताम्बरीय है कि फूलों पर वस्त्र नीचे झूलता बताया गया है। प्रतिमालेख में मूर्ति घडने वाले दो कारीगरों के नाम (1) वनक तथा (2) पपक भी हैं । ---पोल्याका सर्वतोभद्र प्रतिमा प्रतिमा सर्वतोभद्र, सर्वतोमंगल को जन-भाषा में चौमुखी कहते हैं---जो चौकोर स्तम्भ के चारों तरफ तप में चार जिन बैठे या खड़े बनाये जाते हैं। विद्वानों के बीच यह विवाद का विषय है कि इस प्रकार की प्रतिमाओं के गढ़ने की प्राचीनतम परम्परा जैन है अथवा ब्राह्मरण, 1 क्योंकि शिव की चतुर्मुखी मूर्तियाँ बनती ही थीं ।" छोट से एक लघु स्तूप मिला है जिस पर चारों तरफ बुद्ध की मूर्तियों का अंकन है । 3 जैन कला के अन्तर्गत चौमुखी प्रतिमाओं की परम्परा का ज्ञान कुषारण सं० 5+78 = 83 ई० से ही होने लगता है 14 लखनऊ में सं० 5 की महावीर जयन्ती स्मारिका 78 श्री शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी, एम.ए. (इतिहास, पुरातत्व) पुरातत्व संग्रहालय, लखनऊ प्राचीनतम चौमुखी है । लखनऊ संग्रहालय सर्वतोभद्र प्रतिमानों की कुल संख्या 19 थी जिनमें से एक शिमला संग्रहालय को दे दी गई । संग्रह में 16 प्रतिमाएँ कंकाली टीले मथुरा से ही प्राप्त हुई थीं ।" शेष तीन फैजाबाद, अहिच्छत्रा (रामनगर, वरेली) व सराय औघट जिला एटा की हैं । इनमें प्रथम व अन्तिम 9 वीं 10 वीं शती ई० की हैं । तथा मध्य की कुषाण कालीन । इन प्रतिमाओं पर चारों ओर अर्हतों का अंकन होता था । कुषाणकालीन चौमुखी मूर्तियों के ऊपर गोल या चौकोर छेद पाये जाते तथा कुछ में नीचे खूंट निकली रहती हैं जिससे यह प्रतीत होता है कि स्तम्भ पर इन्हें कस दिया जाता होगा 17 2-27 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिरों के बाहर इनकी पूजा होती थी । दूर से ही पंक्ति - 1- श्रीं श्री जिनदेव श्रुतिस्थानु श्री भावदेव मंदिर का पता लगता था । 8 नामाभूताचार्य विजयसिंह मानस्तम्भ देवगढ़ व केहोन देवरिया उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध ही हैं किन्तु वे एक ही पत्थर के बने हैं । उन पर चौमुखियों को लगा देते होंगे जिससे चतुर्दिक् लोग इनके दर्शनों से लाभ उठा सकें । वैसे समवशरण के अवसर पर भी इस प्रकार की मूर्तियों का होना समुपस्थित देव, किन्नरों, मानव, पशु, पक्षियों सभी की सुविधा के लिए आवश्यक था । राज्य संग्रहालय लखनऊ की चौमुखी प्रतिमाओं पर एक ही या चार तीर्थंकरों कान पाते हैं । इनमें 8 पर तो लेख उत्कीरिणत हैं । कुछ के ऊपरी भाग (धड़) मात्र ही शेष हैं । संग्रह की मध्यकालीन ग्रभिलिखित, एक मात्र बैठी सर्वतोभद्रप्रतिमा का साक्षात्कार यहां प्रस्तुत है । आलोच्य प्रतिमा लाल बलुए चित्तीदार पत्थर की बनी है । प्रतिमा का ऊपरी भाग टूटा है । दो बैठी प्रतिमाओं के मुखं भी क्षतिग्रस्त हैं। ऊपर कहीं त्रिछत्र, नीचे कैवल्य वृक्ष का विलेखन शेष है । चारों ओर एक जैसी ही ग्रह प्रतिमा बनी है । कहीं भी सर्पफरण या, कंधों पर लटों का कन नहीं है | ( साथ के चित्रों से देखें) अर्हन् पद्मासन में ध्यानस्थ हैं । वक्ष पर श्रीवत्स है । जिनके मुख सुरक्षित हैं । उन पर घुंघराले बालों को दर्शाया है । शारीरिक सौष्ठव तरुण एवं रूपवान बनाया गया है । बैठकी पर चार ओर तीन बड़े फूलों का अलंकरण है जिस पर वस्त्र नोचे झूल रहा है। दोनों श्रोर सिंह बैठे हैं तथा उनके पास खम्भा बना है । इस प्रतिमा का आधार पीठ तीन ओर तो बिल्कुल सादा है । किन्तु एक श्रोर देवनागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में लेख इस प्रकार ख़ुदा है 2-28 2. तच्चिष्यस्तेन च प्रोक्तः ॥ सुश्राव - करिन नवग्रामस्थानादिस्थ स्वसकीत्तिः । चतुर्विम्ब: सभक्तिभिः संवत्सरे 1080 वनकप 4. पकाभ्यां घटितः ।। ओ ।। 3. वर्द्ध मानस्य कारितोयं अर्थात् विजयसिंह के शिष्य की प्रेरणा से सुश्रावक ने सम्वत् 1080 (अर्थात् 1023 ई०) में इस वर्द्धमान के चतुबिम्ब को बनवाया । मथुरा में इस प्रतिमा का उस समय स्थापित किया जाना विशेष महत्व रखता है जिस क्षण चारों प्रोर लूट खसोट एवं प्रतिमाओं को विनष्ट करने तोड़ने-फोड़ने का सुनियोजित अभियान समाप्त ही हुआ हो क्योंकि सन् 1018 में मोहम्मद गजनी की क्रूर दृष्टि का शिकार मथुरा भी हो चुका था । श्राक्रमण से शान्ति पाते ही इसे गढ़ा गया था। चूँकि प्रतिमा बैठी है इस कारण निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि दिगम्बरी प्रतिमा है अथवा श्वेताम्बरी क्योंकि कंकाली टीले से पहले तो दिगम्बर प्रतिमाएँ मिली थीं किन्तु मध्यकाल की श्वेताम्बरी तीन प्रतिमाएँ संग्रह में हैं तथा अभिलेख का विजयसिंहसूरि शब्द भी इसका श्वेताम्बर होना ही सिद्ध करता है । यहाँ इतना तो स्पष्ट होता है कि सर्वतोभद्र सर्वमंगला चौमुखी का पर्यायवाची चतुबिम्ब भी प्रचलित था और यहाँ वर्द्धमान भगवान का ही चतुर्दिक दर्शनाङ्कन है । महावीर जयन्ती स्मारिका 78. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रीय संग्रहालय लखनऊ की कुषाणकालोन तीन चौमुखी प्रतिमाएं J239 चौमुखी पार्श्वनाथ कुषाणकालीन, (सामने से) मथुरा चौमुखी ऋषभनाथ कुषाणकालीन, (बांई ओर) मथुरा भ० महावीर (सं १०८०) कंकाली टीला, मथुरा सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय, लखनऊ ] [ छाया शिल्पी: श्री रज्जन खां Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1- पाण्डेय दीनबन्धु-सर्वतोभद्रप्रतिमा, यू० पी० म्यू० वुलेटिन वाल्यूम 9 । 2- भरतपुर, उदयपुर, कौशाम्बी, भीटा का यक्ष० ल० संग्र० शुङ्ग । 3- शाह यू० पी० 'जन अनुश्र ति एण्ड समरिसेंट डिस्कवरी इ7 जैन आर्ट डा० मोतीचन्द्र __ मेमोरियल लेक्चर दिस० 1977 म्यू० एशो० ग्राफ बंगलोर इण्डिया । 4- शर्मा, रमेशचन्द्र-~-'मथुरासंग्रहालय की कुषाणकालीन जैन मूर्तियाँ, जैननिबन्धमाला पृ० 22 अानन्द संस्थान रामपुर 1977 । 5-- जे--230 रा० संग्र० ल० । 6-- जोशी नीलकण्ठ पुरुषोत्तम तथा रस्तोगी शैलेन्द्रकुमार 'कंकाली की पुरा सम्पदा' ___ जैननिबंधमाला पृ० 83 प्रानन्द संस्थान रामपुर 1977 । 7-- शाह यू० पी० जैन • अनुध ति एण्ड समरिसेंट डिस्कवरी इन जैन पार्ट-वही संदर्भ-3 । 8- मुनि कान्तिसागर, खण्डरों का वैभव पृ० 82 । 9- जे-236 कंकाली टीला मथुरा। 10- स्मिथ, बी. ए. 'जैन स्तूप एण्ड अदर एन्टीक्वटीज एट मथुरा । मक्तक मुसीबत में मित्र और मेजबान बदल जाते हैं, खाना बदल जाता है खानदान बदल जाते हैं, बात इतने पर भी खतम नहीं होती काकाभाई बन्द ही क्या भगवान बदल जाते हैं, - काका बुन्देलखण्डी महावीर जयन्ती स्मारिका 78 . 2-29. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादमी कल्पवृक्षों की छांहों तले, सुख के उपहार बंटते रहे, लक्ष्य से होन-गंतव्य पर, कल्प के कल्प कटते रहे, काल का चक्र रुकने लगा, युग के पौरुष ने अंगड़ाई ली, देवता बन गया प्रादमी, और दानव हुमा प्रादमी, __एक रोता हुआ आदमी, एक गाता हुआ आदमी। जन्म से मत्यु के द्वार तक, कर्म करता हुआ आदमी, जिन्दगी के सुबह-शाम में, रंग भरता हुआ प्रादमी, संस्कृति के सुमेरू गढ़े, मंच से वेद का पाठ है, एक पढ़ता हुआ आदमी, एक सुनता हुमा प्रादमी, एक रोता हुआ आदमी, एक गाता हुआ आदमी। गांव के गांव दुख के चले, सुख के संयोजनों के लिये, जिस डगर पर बढ़े थे चरण, उस डगर के बुझे थे दिये, मन का चिन्तन बहुत भीरू था, कल्पना के महल गढ़ लिये, सुख में जीता हुआ आदमी, दर्द पीता हुमा प्रादमी, ___ एक रोता हुआ पादमी, एक गाता हुआ आदमी। वर्ग में बंट गया आदमी, जाति में कट गया प्रादमी, शब्द सा बन गया प्रादमी, अर्थ सा छन गया प्रादमी, प्रादमी के इसी ज्ञान के, सर्ग के सर्ग खुवते रहे, एक शासक हुअा अादमी, एक शासित हुया प्रादमी, ___एक रोता हुआ आदमी, एक गाता हुआ आदमी। पोस्ट प्रॉफिस रोड, श्री मगनलाल 'कमल' गुना (म.प्र.) 2-30 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने उद्देश्य सिद्धि के लिये जिस कार्य प्रणाली का अवलम्बन किया जाता है उसे नीति कहते हैं । जिस कार्य-पद्धति का अवलंबन कर शासन सुद्दढ़ और स्थायी बने और संविधान में बताए उद्देश्यों की पूर्ति कर सके वह राजनीति के नाम से अभिहित की जाती है । प्राचीन काल में राजतन्त्र था अतः इनमें राजाओं के जानने योग्य बातों का समावेश मुख्य रूप से उस काल के लेखकों ने किया जैसे चाणक्य, विदुर, व्यास, भागुरी, सोमदेव आदि । जैन पुराणकारों ने भी प्रसंगानुसार राजनीति का वर्णन किया है। विद्वान लेखक ने प्राचार्य गुणभद्र के उत्तरपुराण में प्रतिपादित राजनीति का दिग्दर्शन अपने इस निबन्ध में कराया है। धर्मनीति श्रौर राजनीति के इस मुख्य भेद को पाठकों को ध्यान में रखना चाहिये कि धर्मनीति में मन, वचन और काय की प्रवृत्ति में कोई भेद नहीं होता किन्तु राजनीति में मनसि अन्यत्, वचसि अन्यत् कार्ये अन्यत् क्षम्य है । आवश्यक नहीं कि राजनीतिज्ञ का मुखौटा वही हो जो उसके मन में हो। शासन की सफलता के लिए श्राज भी इन सिद्धान्तों का महत्व कम नहीं हुआ है । - पोल्याका उत्तरपुराण में प्रतिबिम्बित राजनीति डॉ० रमेशचन्द जैन वर्धमान डिग्री कॉलेज, बिजनौर | राज्य - राज्यों में राज्य वही जो प्रजा को सुख देने वाला हो । उत्तरपुराण में देश के जो विशेषण दिए गए हैं उनमें दुर्ग, वन, खानें, प्रकृष्टपच्य सस्य " ( बिना बोए होने वाले धान्य ) त्रिव (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ) में विभक्त प्रजायें, तपस्वियों पर प्रतिक्रमण करने वाले कृषक, सुस्वच्छ जलाशय, 5 अनाज से परिपूर्ण, सबको तृप्त करने वाले राजा के भण्डार के समान खेत तथा धन धान्यादि से परिपूर्ण पास पास में बसे हुए ग्राम' प्रमुख हैं । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 राजा का महत्व - स्वामिसम्पत् ( राजसंम्पत्ति) से युक्त राजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों का आश्रय है । उसके सत्य से मेघ किसानों की इच्छानुसार बरसते हैं और वर्ष के श्रादि, मध्य तथा अन्त में बोए जाने वाले सभी धान्य फल । प्रदान करते हैं राजा के पृथ्वी का पालन करते समय जब सुराज्य होता है तो प्रजा उसे ब्रह्मा मानकर वृद्धि को प्राप्त होती है 10 । जिस प्रकार कोई गोपाल अपनी गाय का अच्छा भरण पोषण कर उसकी रक्षा करता और गाय प्रसन्नता से उसे 2-31 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूध देकर सन्तुष्ट करती है उसी प्रकार राजा भी हार करना और तीसरे के लिए भेद और दण्ड का पृथ्वी का भरणपोषण कर उसकी रक्षा करता है और प्रयोग करना यही ठीक उपाय बतलाते हैं । पृथ्वी भी उसे अपने रत्नादि सार पदार्थ देती है। राजाओं का एक अन्य विभाग23 भी मिलता हैगुणवान राजा देव, बुद्धि और उद्यम के द्वारा स्वयं (1) शत्रु राजा (2) मित्र राजा (3) उदासीन लक्ष्मी का उपार्जन कर उसे सर्वसाधारण के उपभोग राजा । महासामन्त(७१।१५६)सामन्त , युवराज करने योग्य बना देता है, साथ ही स्वयं उसका मुकुटबद्ध राजा, विद्याधर, पट्टबंधराजा27, भूगोचर उपभोग करता है । राजा जव न्यायपूर्वक प्रजा अर्द्ध चक्री, चक्री (६४।३०) अधिराज ,६८।३८२) का पालन करता है और स्नेहपूर्ण पृथिवी को माण्डलिक (६४।२६) तथा मद्रामाण्डलिक माण्डलिक (६४।२६) तथा महामाण्डलिक (४८।७४) मर्यादा में स्थित रखता है तभी उसका भूभृत्पना के रूप में राजाओं के अनेक भेद मिलते हैं। सार्थक होता है। जिस प्रकार मेंढकों द्वारा प्रास्वादन करने योग्य अर्थात् सजल क्षेत्र अठारह राजा के अधिकार और कर्तव्य-राजा प्रकार के इष्ट धान्यों की वृद्धि का कारण होता है कोश, दुर्ग, सेना प्रादि का उपभोग करता है । वह उसी प्रकार श्रेष्ठ राजा गुणों की वृद्धि का किसी महाभय के समय प्रजा की रक्षा करने के कारण होता है14 । वह कल्पवृक्ष के समान इच्छित लिए धन संचय करता है और प्रजा को सन्मार्ग में फल को देता है15। चूकि वह दुर्जनों का निग्रह चलाने के लिए योग्य दण्ड देता है ।28 प्रजा राजा और सज्जनों का अनुग्रह द्वेष अथवा इच्छा के वश के प्रति प्रेम रखती है, इसके बदले वह उसका नहीं करता है किन्तु गुण और दोष की अपेक्षा पालन करता है, इस प्रकार उसके परोपकार में करता है अतः निग्रह करते हुए भी वह प्रजा का स्वोपकार भी निहित रहता है ।29 पूज्य है । जिस प्रकार मरिणयों का प्राकर समुद्र है, उसी प्रकार वह गुणी मनुष्यों का प्राकर है17। राजा के गुरग-१. त्रिवर्ग की वृद्धि-राजा परस्पर की अनुकूलता से धर्म, अथं और काम रूप राज्याभिषेक-सामान्यतया बड़े पुत्र को राजा त्रिवर्ग की वृद्धि करता है । 30 राज्य का भार दे देता था18। दो पुत्र होने की स्थिति में बड़े को राज्य देकर छोटे को युवराज २. शत्र का विजेता-राजा को वाह्य और बनाया जाता था । स्नेहवश कभी भाई के पुत्र आन्तरिक शत्रुओं का विजेता होना चाहिए ।31 अथवा अन्य सम्बन्धी को भी उत्तराधिकारी बना श्रेष्ठ राजा कुटिल (वक्र) मनुष्यों को अपने पराक्रम दिया जाता था। (६६।१०३)। राज्याभिषेक के से ही जीत लेता है, ऐसे राजा की सप्ताङ्ग सेना समय इष्टदेव की पूजा की जाती थी और राजा को केवल प्राडम्बर मात्र होती है ।32 राजा का राज्य सिंहासन पर बैठाकर स्वर्णमय कलशों से उसका दूसरे के द्वारा तिरस्कृत न हो और न वह दूसरों राज्याभिषेक किया जाता था20 । का तिरस्कार करे ।33 प्रावश्यकता पड़ने पर राजा . राजानों के भेद-राजा तीन प्रकार के अपने मुजदण्डों से शत्रुओं के समूह को खण्डित कर होते हैं दे । वह किसी पुराने मार्ग को अपने आचरण के ..(1) लोभविजय (2) धर्मविजय द्वारा नया कर दे और पश्चाद्वर्ती लोगों के लिए (3) असुरविजय। वही मार्ग फिर पुराना हो जाय 134 राजा को ... नीतिविद् अपना कार्य सिद्ध करने के लिए प्रताप रूपी वडवानल की चंचल ज्वालाओं के पहले को दान देना, दूसरे के साथ शान्ति का व्यव- समूह से देदीप्यमान होना चाहिए 135 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-32 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजापालन --- राजा के राज्य में चारों वर्णों और आश्रमों के लोग उत्तम धर्म के कार्यों में इच्छानुसार सुखपूर्वक प्रवृत्ति करें । वह अपने राज्य का भाइयों में विभाजन कर सुखपूर्वक राज्य का उपभोग करे 136 जिस प्रकार कुम्भकार के हाथ में लगी हुई मिट्टी उसके वश में रहती है, उसी प्रकार बड़े बड़े गुरणों से शोभायमान राजा की समस्त पृथ्वी उसके वश में रहती है । 37 प्रजा के अनुराग से राजा को अचित्य महिमा प्राप्त होती है 138 अन्य गुरण - राजा को प्रान्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्ड इन चार विद्याओं में पारङ्गत होना चाहिए। जिसकी प्रजा दण्ड के मार्ग में नहीं जाती और इस कारण जो राजा दण्ड का प्रयोग नहीं करता, वह श्रेष्ठ माना जाता है ।" राजा को दानी होना चाहिए। श्रेष्ठ राजा की दानशीलता से पहले के दरिद्र मनुष्य भी कुबेर के समान प्राच ररण करते हैं । 40 राजा सन्धिविग्रहादि छह गुणों से सुशोभित हो और छह गुण उससे सुशोभित हों 141 पुण्यवान् राजा का शरीर और राज्य विना वैद्य और मन्त्री के ही कुशल रहते हैं । 42 राजा का धन दान देने में, बुद्धि धार्मिक कार्यों में, शूरवीरता प्राणियों की रक्षा करने में, प्रायु सुख में और शरीर भोगोपभोग में वृद्धि को प्राप्त होता रहता है । 43 राजा के पुण्य की वृद्धि दूसरे के प्राधीन न हो । राजा तृष्णा रहित होकर गुणों का पोषण करता हुग्रा सुख से रहे 144 जिस राजा के वचन में सत्यता, चित्त में दया, धार्मिक कार्यों में निर्मलता हो तथा जो प्रजा की अपने गुणों के समान रक्षा करे, वह राज है । 45 सुजनता राजा का स्वाभाविक गुण हो, प्राण हरण करने वाले शत्रु पर भी वह विकार को प्राप्त न हो । 46 बुद्धिमान राजा सब लोगों को गुणों के द्वारा अपने में अनुरक्त बनाए ताकि सब लोग उसे प्रसन्न रखें 147 जिस प्रकार मुनियों में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार महावीर जयन्ती स्मारिका 78 सदाचारी और शास्त्रज्ञान से सुशोभित राजा में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं तथा जिस प्रकार संस्कार किए हुए मरिण सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार राजा में अनेक गुरण सुशोभित होते हैं 148 नीति को जानने वाले राजा को इन्द्र और यम के समान कहते हैं, किन्तु इन्द्र के समान राजा श्रेष्ठ है, क्योंकि उसकी प्रजा गुणवती होती है और राज्य में कोई दण्ड देने के योग्य नहीं होता है । 19 राजा न्यायोपार्जित धन के द्वारा याचकों के समूह को सन्तुष्ट करे 150 समीचीन मार्ग में चलने वाले राजा के अर्थ और काम भी धर्मयुक्त होते हैं, अतः वह धर्ममय होता है | 51 उत्तम राजा के वचनों में शान्ति, चित्त में दया, शरीर में तेज, बुद्धि में नीति दान में धन, जिनेन्द्र भगवान में भक्ति तथा शत्रुओं में प्रताप रहता है 1 52 जिस प्रकार संसार का हित करने वाले सब प्रकार के धान्य समा नाम की इच्छित वर्षा को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं, उसी प्रकार समस्त गुण राजा की बुद्धि को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं । 53 राजा का मानभङ्ग नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार दांत का टूट जाना हाथी की महिमा को छिपा लेता है. दाढ़ का टूट जाना सिंह की महिमा को तिरोहित कर देता है, उसी प्रकार मानभङ्ग राजा की महिमा को छिपा लेता है । 54 नीतिशास्त्र सम्बन्धी अर्थ का निश्चय करने में राजा का चरित्र उदाहरण रूप होना चाहिए | 55 उत्तम राजा के राज्य में प्रजा कभी न्याय का उल्लंघन नहीं करती है, राजा प्रजा का उल्लंघन नहीं करता है, धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग राजा का उल्लंघन नहीं करता है और परस्पर दूसरे एक का भी त्रिवर्ग उल्लंघन नहीं करता है । 56 जिस प्रकार वर्षा से लतायें बढ़ती हैं, उसी प्रकार राजा की नीति से प्रजा सफल होकर बढ़ती है 157 जिस प्रकार आगे की संख्या पिछली संख्याओं से बढ़ी होती है, उसी प्रकार श्रेष्ठ राजा पिछले समस्त राजाओं को अपने गुणों और स्थानों से जीतकर बढ़ा होता है |58 उसक 2-33 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त ऋद्धियां देव और पुरुषार्थ दोनों के प्राधीन अत्यासक्ति के कारण न स्नान करता है, न भोजन रहती हैं, वह मन्त्री आदि मूल प्रकृति तथा प्रजा करता है, न सोता है और इन अावश्यक कार्यों का आदि वाह्य प्रकृति के क्रोध से रहित होकर स्व- रोध हो जाने से रोगी हो जाता है । जुना खेलने से राष्ट्र तथा पर राष्ट्र का विचार करे। तीन शक्तियों धन प्राप्त होता है, यह बात भी नहीं है। जारी और सिद्धियों से उसे सदा योग ओर क्षेम का व्यक्ति व्यर्थ ही क्लेश उठाता है, अनेक दोष उत्पन्न समागम होता रहे साथ ही वह सन्धि, विग्रह आदि करने वाले पाप का संचय करता है, निन्द्य कार्य कर छह गूगों की अनुकूलता रखे ।। अच्छे राजा के बैठता है, सबका शत्रु बन जाता है, दूसरे लोगों से राज्य में प्रजा की अयुक्ति प्रादि पांच प्रकार की याचना करने लगता है और धन के लिए नहीं बाधानों में से किसी प्रकार की बाधा नहीं रहती करने योग्य कामों में प्रवत्ति करने लगता है। है ।60 उत्तम राजा का नित्य उदय होता रहता है, बन्धुजन उसे छोड़ देते हैं एवं राजा की ओर से उसे उसका मण्डल विशुद्ध (शत्रु रहित) और अखण्ड अनेक कष्ट प्राप्त होते हैं ।68 राजा सुकेतु इसका होता है तथा प्रताप निरन्तर बढ़ता है। ऐसे दृष्टान्त है । वह जुमा के द्वारा अपना राज्य भी राजा की रूपादि सम्पत्ति उसे अन्य मनुष्यों के हार बैठा था। इसलिए उभयलोक का कल्याण समान कुमार्ग में नहीं ले जाती है ।62 चाहने वाला व्यक्ति जुना को दूर से ही छोड़ दे ।69 राजा के दोष-दोषी या अन्यायी राजा राजकुमार-राजा को चाहिए कि वह सबको सन्ताप देने वाला, कठोर कर लगाने वाला, उपयोग तथा क्षमा आदि सब गुरगों की पूर्णता हो कर, अनवस्थित तथा पृथ्वी मण्डल को नष्ट करने जाने पर राजकुमार को व्रत देकर विद्यागृह में वाला होता है ।63 उसके फलस्वरूप वह अनेक प्रवेश कराए 170 विद्याध्ययन करते समय उसका प्रकार के दण्डों को पाता है। राजा को आभिजात्य वर्ग से सम्पर्क हो । दास, हस्तिपक अहंकार छोड देना चाहिए, अहंकारी लोग अादि को वह अपने सम्पर्क से दूर करे ।1 राजक्या नहीं करते ? 65 प्रशभकर्म के उदय से कोई कुमार इन्द्रियों के समूह को इस प्रकार जीते कि वे कोई राजा द्य त जैसे व्यसनों में प्रासक्त हो जाता इन्द्रियां सब प्रकार अपने विषयों के द्वारा केवल है। मन्त्रिवों और कूटम्बियों के रोकने पर भी वह आत्मा के साथ प्रेम बढ़ायें ।2 बुद्धिमान राजकुमार उनसे प्रेरित हए के समान उन व्यसनों में आसक्त विनय की वृद्धि के लिए सदा वृद्धजनों की संगति रहता है, फलस्वरूप अपना देश, धन, बल, रानी करे । शास्त्रों से निर्णय कर विनय करना कृत्रिम सब कुछ हार जाता है 166 क्रोध से उत्पन्न होने वाले विनय और स्वभाव से ही विनय करना स्वाभाविक मद्य, मांस और शिकार इन तीन व्यसनों में तथा विनय है । 73 जिस प्रकार पूर्ण चन्द्रमा को पाकर काम से उत्पन्न होने वाले जुश्रा, चोरी, वेश्या और गुरु और शुक्र ग्रह अत्यन्त सुशोभित होते हैं, उसी परस्त्री सेवन इन चार व्यसनों में जुना खेलने के प्रकार सम्पूर्ण कलानों को धारण करने वाले सुन्दर समान नीच व्यसन नहीं है ।67 सत्य जैसे महान् राजकुमार को पाकर स्वाभाविक और कृत्रिम दोनों गुण को जुना खेलने में आसक्त मनुष्य सबसे पहले प्रकार के विनय अतिशय सुशोभित होते हैं । हारता है, पीछे लज्जा, अभिमान, कुल, सुख, राजकुमार कलावान् हों पर किसी को ठगें नहीं, सज्जनता, बन्धुवर्ग, धर्म, द्रव्य, क्षेत्र, घर, यश, प्रताप सहित हों, परन्तु किसी को दाह नहीं पहुंचावें? माता-पिता, बाल बच्चे, स्त्रियां और स्वयं अपने जो राजपुत्र विरुद्ध शत्रुओं को जीतना चाहते हैं प्रापको नष्ट करता है । जुना खेलने वाला मनुष्य उन्हें बुद्धि, शक्ति, उपाय, विजय, गुणों का विकल्प 2-34 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और प्रजा अथवा प्रकृति ( मन्त्री प्रादि) के भेदों को जानकर महान् उद्योग करना चाहिए। इनमें से बुद्धि दो प्रकार की होती है एक स्वभाव से उत्पन्न हुई और दूसरी विनय से उत्पन्न 176 जिस प्रकार फल और फूलों से रहित आम के वृक्ष को पक्षी छोड़ देते हैं और विवेकी मनुष्य उपदिष्ट मिथ्या आगम को छोड़ देते हैं, उसी प्रकार उत्साहहीन राजपुत्र को विशाल लक्ष्मी छोड़ देती है । यहां तक कि अपने योद्धा, सामन्त और महामात्य (महामन्त्री ) प्रादि भी उसे छोड़ देते हैं । मन्त्रि परिषद् का महत्त्व - मन्त्रिपरिषद् राजा के प्रत्येक कार्य में सलाह देती है । राजा प्रजा का रक्षक है, इसलिए जब तक प्रजा की रक्षा करने में समर्थ होता है, तभी तक राजा रहता है । यदि राजा इससे विपरीत आचरण करता है तो सचिवादि उसे त्याग देते हैं | 78 राजा मन्त्रियों से मिल कर किसी समस्या के समाधान का उपाय खोज लेता है । बुद्धिमान व्यक्ति उपाय के द्वारा बड़े से बड़े पुरुष की भी लक्ष्मी का हरण कर लेते हैं । 79 विश्वस्त अपने मन्त्रियों पर राजा तन्त्र (स्वराष्ट्र ) तथा प्रवाद ( परराष्ट्र ) की चिन्ता रख स्वयं शास्त्रोक्त मार्ग से धर्म तथा काम में लीन हो जाता है 180 मन्त्रियों की नियुक्ति-रा - राजा मन्त्रियों की नियुक्ति करता है और उन्हें बढ़ाता है। मन्त्री अपने उपकारों से राजा को बढ़ाते हैं । 81 प्रावश्यकता पड़ने पर राजा अपने राज्य का पूर्ण भार मन्त्रियों पर रख देता है । 82 जो राजा अपने को सर्वशक्तिमान मानकर मन्त्रियों के साथ कार्य का विचार नहीं करता है, वह मृत्यु को प्राप्त करने के लिए प्रस्थान करता है 183 मन्त्रियों की योग्यता - मन्त्रियों की योग्यता की परीक्षा चार प्रकार की उपधाओं (गुप्त उपायों) तथा जाति आदि गुणों से करने का निर्देश उत्तरमहावीर जयन्ती स्मारिका 78 पुराण में किया गया है। चार उपधायें ये हैं(1) धर्मोपधा (2) प्रथपधा ( 3 ) कामोपधा (4) भयोपधा । कौटिलीय अर्थशास्त्र में इनका विस्तृत वर्णन किया गया है । मन्त्रियों के कर्त्तव्य - हितकारी कार्य में प्रवृत्त करना और ग्रहितकारी कार्य का निषेध करना ये मन्त्री के दो कार्य हैं 185 86 अन्य अधिकारी - मन्त्रियों के अतिरिक्त अन्य राजकीय अधिकारियों में नैमित्तिक, 88 सेनापति, 87 महामात्र 88 पुरोहित, श्रेष्ठी, 89 रक्षि० (कोतवाल), अन्तःपुररक्षक (शुद्धान्तरक्षि ) 91 तथा अन्तर्वशिक92 के नाम उत्तरपुराण में प्राप्त होते हैं । ६२ वें पर्व में शतविन्दु नामक निमित्तज्ञानी को ग्रष्टाङ्ग निमित्तज्ञान में निपुण बतलाया गया है । 23 अठारह श्रेणियों का उल्लेख भी उत्तरपुराण में मिलता है 194 कोष -राजा निरन्तर अनेक उपायों से कोष का वर्द्धन करता रहे। अर्जन, रक्षण, वर्द्धन और व्यय ये चार धन संचय के उपाय हैं । इन चार उपायों का प्रयोग करते समय अर्थ और धर्म पुरुषार्थ को काम की अपेक्षा अधिक माने 195 राजकीय प्राय के साधन बड़े राजा छोटे राजाओंों से कर लेते थे । इसके अतिरिक्त कृषकों से कर लिया जाता था। ब्राह्मण कर दान से मुक्त थे 196 व्यापारी जब धन कमाकर दूसरे द्वीपों आदि से लौटते थे तो उन्हें कमाए हुए धन पर शुल्क देना पड़ता था । ग्राजकल की भांति उस समय भी लोग शुल्क देने से कतराते थे और कर की चोरी करने का प्रयास करते थे । राजकुमार प्रायात और निर्यात दोनों प्रकार के करों से थे 198 मुक्त दुर्ग - प्राचीनकाल में दुर्ग राजाओं की सुरक्षा के सुदृढ़ साधन थे, जो यथास्थान रखे हुए यन्त्र, शस्त्र, जल, जौ, घोड़े और रक्षकों से भरे रहते थे 199 2-35 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेना और युद्धः-उत्तरपुराण में षडङ्ग बल सद्व्यय करने वाले हों।110 जिसके पुण्य के उदय (छह प्रकार की सेना) का उल्लेख किया गया से वस्तुयें प्रतिदिन बढ़ती रहें उसका तादात्विक है ।100 इस सब सेना की शोभा स्वामी से होती रहना ही उचित है ।111 राजा को चाहिए कि उसके थी।101 स्वामी की सफलता असफलता की नीति पार्श्ववर्ती (समीपवर्ती) लोग घूसखोर न हों। यदि पर बहुत कुछ सेना की सफलता असफलता निर्भर पार्श्ववर्ती रिश्तेदार हों तो दूसरे व्यक्ति वेष बदलथी। सैनिक लोग कूट युद्ध करने में निपुण होते कर आसानी से घुसपैठ कर सकते हैं। राजा थे।102 सैनिकों का यह विश्वास था कि युद्ध करने श्रेणिक ने चेटक के समीपवर्ती लोगों को धूस दे में एक तो सेवक का कर्तव्य पूरा हो जाता है, दूसरे उन्हें वश में कर स्वयं बोद्रक नामक व्यापारी वनयश की प्राप्ति होती है और तीसरे शूरवीरों की कर चेटक के घर में प्रवेश कर लिया था ।112 गति प्राप्त होती है ।103 मन्त्रिगण अभ्युदय प्राप्त अनेक मित्रों से युक्त होने के कारण महान और अजेय दूत113.-दूसरे राजा के पान सन्देश ले जाने पराक्रम के धारक राजा से युद्ध करना श्रेष्ठ नहीं के लिए दूत का प्रयोग किया जाता था। दूत कई समझते थे; क्योंकि बलवान के साथ युद्ध करने प्रकार के होते थे। दूसरे राजा को अनुकूल करने का कोई कारण नहीं है । ' 01 के लिए चित्त को हरण करने वाले114 तथा दूसरे के साथ विग्रह करने के लिए कलहप्रिय दुर्वचन बोलने न्याय व्यवस्था:-दुष्टों का विग्रह करना और वाला दूत भेजा जाता था |115 शिष्टों का पालन करना यह राजाओं का धर्म नीति शास्त्रों में बतलाया गया है। स्नेह, मोह, आसक्ति । तीन शक्तियों-शक्ति तीन प्रकार की कही गई तथा भय आदि कारणों से यदि राजा ही नीतिमार्ग " है-प्रभुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साह शक्ति । अनुसार, का उल्लंघन करता है तो प्रजा भी उसकी प्रवृत्ति मन्त्रशक्ति---पञ्चाङ्गमन्त्र (सहाय, साधनोपाय करने लगेगी। अतः राजा को चाहिए कि उसका देश विभाग, काल विभाग और बाधक कारणों का दायां हाथ भी यदि दुष्ट हो तो उसे काट दे ।105 प्रतीकार) के द्वारा मन्त्र का निर्णय करना मन्त्र उसके पृथ्वी की रक्षा करते समय अन्याय यह शब्द शक्ति है। राजा को नित्य पालोचित मन्त्र शक्ति ही सुनाई न दे और प्रजा बिना किसी प्रतिबन्ध के से युक्त होना चाहिए ।18 अपने अपने मार्ग में प्रवृत्ति करे ।106 राजा को उत्साह शक्ति-शूरवीरता से उत्पन्न हुए नीतिपूर्वक आचरण करना चाहिए, क्योंकि नीति उत्साह को उत्साह शक्ति कहते हैं। महान् उदय को जन्म देती है ।107 प्रभुशक्ति-राजा के पास कोश और दण्ड शासन व्यस्वथाः-राजा को चाहिए कि वह (सेना) की जो अधिकता है, उसे प्रभुशक्ति कहते अपने वंश के सब लोगों के साथ राज्य का विभाग 117 कर उपभोग करे। ऐसा करने पर परिवार वाले उसके शत्रु नही रहेंगे108 और वह अखण्ड रूप से उपर्युक्त तीन शक्ति रूप सम्पत्ति के द्वारा राजा चिरकाल तक अपनी राजलक्ष्मी का उपभोग करेगा। समस्त शत्रुओं को जीत लेता है, युद्ध शान्त कर सज्जनों की दष्टि में लक्ष्मी सर्वसाधारण के उपभोग देता है और धर्म तथा अर्थ के द्वारा भोगों का के योग्य है ।109 राजा के राज्य में कोई मलहर उपभोग करता है ।118 ये तीनों शक्तियां धर्मानुबन्धी (मलपजी को खाने वाला) कदर्य (कंजूस) और सिद्धि को फलीभूत करती हैं । यथार्थ में शक्तियां तादात्विक (वर्तमान में ही रत) न हो, किन्तु सभी वही हैं जो दोनों लोकों में हित करने वाली हैं ।119 2-36 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन सिद्धियाँ-राजा को उत्साहसिद्धि मंत्र साम-प्रिय तथा हितकारी वचन बोलना और सिद्धि और फलसिद्धि 20 इन तीन सिद्धियों सहित शरीर से आलिङ्गन आदि करना साम कहलाता होना चाहिए। है ।130 पाड्गुण्य सिद्धान्त--मन्धि, विग्रह, आसन उपप्रदान-हाथी, अश्व (घोड़ा), देश तथा यान, संश्रय और द्वधीभाव ये राजा के छह गुण रत्न आदि का देना उपप्रदान कहलाता है ।131 होते हैं । ये छहों गुण लक्ष्मी के स्नेही हैं ।।३।। भेद-उपजाप (परस्पर फूट डालकर) के द्वारा सन्धि-युद्ध करने वाले दो राजाओं का पीछे अपना कार्य सिद्ध करना भेद कहलाता है ।132 किमी कारण से जो मैत्रीभाव हो जाता है, उसे दण्ड----शत्रु के घास आदि आवश्यक सामग्री सन्धि कहते हैं । यह सन्धि दो प्रकार की होती है की चोरी करा लेना, उनका वध करा देना, किसी अवधि सहित और अवधिरहित 1122 वस्तु को छिपा देना अथवा नष्ट कर देना इत्यादि विग्रह शत्रु तथा उसे जीतने का इच्छुक राजा शत्रुओं का क्षय करने वाले जितने कार्य हैं, उन्हें ये दोनों परस्पर में एक दूसरे का उपकार करते हैं, दण्ड कहते हैं । 133 उसे विग्रह कहते हैं । 123 उपर्युक्त उपायों का ठीक ठीक विचार कर प्रासन-इस समय मुझे कोई दूसरा और मैं यथास्थान प्रयोग करने पर ये दाता (समाहर्ता) के किसी दूसरे को नष्ट करने में समर्थ नहीं हूं, ऐसा समान फल प्रदान करते हैं 1134 अथवा जिस प्रकार विचारकर जो राजा चुप बैठा रहता है, उसे प्रासन यथास्थान यथा समय बोए हुए धान उत्तम फल देते कहते हैं । यह प्रासन नामक गुण राजाओं की वृद्धि हैं उसी प्रकार राजा द्वारा यथास्थान यथा समय का कारण है ।124 समय और साधन के बिना। प्रयोग किए हुए सामादि उपाय फल देते हैं ।135 प्रकट हुई शूरवीरता फल देने में समर्थ नहीं है अतः । __ सामादि उपायों के साथ शक्ति का प्रयोग करना धान्य की तरह उस काल की प्रतीक्षा करना चाहिए प्रधान कारण है। जिस प्रकार खोदने से पानी जो कार्य का साधक है। 125 और परस्पर की रगड़ से अग्नि उत्पन्न होती है, __यान--अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि होने उसी प्रकार उद्योग से जो उत्तम फल प्रदश्य है, पर दोनों का शत्रु के प्रति उद्यम (शत्रु पर प्राक्र- वह भी प्राप्त करने योग्य हो जाता है । 136 मण करने के लिए गमन) है, उसे यान कहते हैं । यह यान अपनी वृद्धि और शत्रु की हानि रूप फल अपराध और दण्ड-अपराध करने वालों को को देने वाला है । 126 प्राचीन समय में कड़ा दण्ड दिया जाता था। दूसरे की धरोहर का अपहरण करने पर तीन दण्ड137 संश्रय-जिसका कोई शरण नहीं है, उसे निश्चित थे। अपनी शरण में रखना संश्रय नाम का गुण है ।127 विजय की इच्छा रखने वाले राजा को (i) सर्वस्व हरण कर लेना । अच्छी तरह प्रयोग में लाए हुए सन्धि विग्रह ग्रादि (ii) मल्ल के तीस मुक्के लगवाना । छह गुरणों से सिद्धि मिल जाती है ।128 (iii) कांस्यपात्र में रखा हुआ नया गोबर खिलाना। चार उपाय-साम, उपप्रदान (दान) भेद और दण्ड ये चार उपाय हैं। इनके द्वारा राजा लोग राजा धर्माधिकारियों की संस्तुति पर दण्ड अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं।129 देता था।138 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-37 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. तदेव राज्यं राज्येषु प्रजानां यत्सुखावहम् । उ० पु० 5240 2. उत्तरपुराण 54 10 3. वही 54 / 11 4. वही 54 / 12 5. वही 54 / 13 6. वही 54 / 14 7. वही 54 / 15-16 8. वही 50 / 3 9. वही 52/5 10. वही 54 / 117 11. उत्तरपुराण 55/5 12. वही 56 / 6 13. वही 57 5 14. वही 58 / 25 15. वही 59 / 3 16. वही 61/ 26 17. वही 62/30 18. उत्तरपुराण 68 /5, 48/36, 68273 19. बही 62/5, 68/79 20. वही 62 / 225--226 21. वही 68 / 383 22. वही 68 / 384 23. वही 68/445 24. उ० पु० 68 / 86 25. वही 68/706 26. वही 57/91 27. वही 68 / 658 28. 66/4-5, 67/341 29. वही 59/65 30. वही 51 /8 31. वही 52/3 32. वही 52 /4 33. उ० पु० 52/6 34. उ० पु० 55/4 35. वही 56/5 2-38 36. 37. वही 66/3 38. वही 57/3 39. उत्तरपुराण 51 / 5 40. वही 52/6 41. वही 52/9 42. वही 53/4 43. वही 54 / 112 70/215-216 44. वही 54 / 113 45. वही 54 / 14 46. बही 54 / 115 47. वही 55/6 48. उ० पु० 55/8 49. वही 55/10 50. वही 56/17 51. वही 57/6 52. वही 57/4 53. वही 58 / 26 54. उ० पु० 58/74 55. वही 59/4 56. वही 59/6 57. वही 62/31 58. agt 62/33 59. उत्तरपुराण 62 / 34-35 60. वही 66/69 61. वही 76/112 62. वह 52 18 63. वही 76 / 111 64. वही 74/62 65. वही 48 / 117 66. वही 59/73 67. उत्तरपुराण 59 75 68. वही 59/76-80 69. वही 54 / 132 70. उ० पु० 54 / 132 71. वही 54 / 133 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72. वही 54/134 73. वही 54/135 74. वही 54/136 75-76. वहो 621417 77. उत्तरपुराण 68/75-76 78. वही 621208 79. वही 68/212 80. उ०पु० 70, 17 81. वहीं 55.7 82. वही 62 461 83. वही 58. 109 84. वही 59:156 85. उ०यु० 68/115 86. वही 62 61 87,88,89 वही 68 382 90. वही 75/149 91. वहीं 76/97 92. वही 62/404 93. वही 62 61 94. वहीं 76 113 95. वही 51,7 96. वही 58/98-1100 97. उ० पु० 70, 128 98. वही 62 417 99. वही 54/24 100. वही 58 110, 64:29 101. वहीं 74:34 102. वही 58 72 103. वही 68/587 104. वही 75 639-642 105. वही 67/109--111 106. वही 504 107. वही 48/25 108. बही 62/450 109. वही 559 110. वही 54/116 111. उ० पु० 62/379 112. वही 75/28-29 113. वही 58/70 114. वही 58 65 115-116 वही 58/102 117. उ० पु० 68 61 118. वही 66/70 119. वही 50/37 1 20. उ० पु० 48/6 121. वही 68/66, 67 122. वही 68/67-68 123. वही 68/68 124. उ० पु० 68 69 125. दही 75/580 126. वही 68/70 127. वही 68/71 128. वही 58/55 129. वही 68/62 130. वही 68 63 131. उ० पु. 68/63 132. वही 68 64 133. वही 64/65 134. वही 54/38 135. वही 62/32 136. वही 68/73-74 137. वही 59, 175-176 138. वही 59/174. महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-39 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहूंगा अपना सपना .पं० उदयचन्द्र शास्त्री जंवरीबाग, नसिया, इन्दौर अपने प्रांगन में आज तुझे देखा था स्मृति पटल पर बनी हुई रेखा मैं निथ पड़ा हूं सड़कों पर तू निर्ग्रन्थ मदिर, मस्जिद, गिरजानों में, मौज उड़ाता। घर में रहकर दिगम्बर भी कहलाता मैं अम्बर के साये में सुख से दिन-रात बिताता मैं भक्तों के बीच खड़ा पैसे हो पाता तेरे भक्त, तेरे दरवाजे पर, अंगुष्ठ दिखाते, कुछ नहीं मिला तुझसे गुस्से से आँख दिखाते, पौ फटते ही हम सबको एकत्रित करवाते सोचोगे मेरे जीवन को प्रांसू झरनों से निकलेंगे माँ की ममता का स्नेह भरा चाहूंगा अपना सपना होकर जिस पथ से निसार उस पथ को ही मैं खोजूगा जिस रस को पी तू बना अमर उस रस को ही मैं पीऊगा। 2-40 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जिस प्रकार मानते हैं कि यह अवसर्पिणी चक्र का पांचवा श्रारा है अर्थात् मानव शरीर, बल, श्रायु आदि की दृष्टि से धीरे धीरे हास की ओर जा रहा है, धार्मिक दृष्टि से भी धीरे धीरे उसका पतन हो रहा है। उसी प्रकार वैदिक संस्कृति में भी यह कहा जाता है कि यह कलिकाल है, और प्रत्येक दृष्टि से मावन पतनोन्मुख है। दोनों में भेद मात्र यह है कि जहां जैन हासोन्मुख काल के छह भाग करते हें वहां वैदिक सत्, त्रेता, द्वापर एवं कलि, ये चार ही भाग करते हैं । प्रस्तु, जैनों द्वारा मान्य मानवसभ्यता के विकास की कहानी वैज्ञानिक और तर्कपूर्ण अधिक है । इतिहास की दृष्टि से भी दोनों ही संस्कृतियों की पौराणिक काल की घटनाए बहुत कुछ मिलती हैं तो इसमें श्राश्चर्य क्या है क्योंकि दोनों एक ही धरा पर साथ साथ पल्लवित हुई हैं। इतिहास के प्रादि काल से लेकर श्राज तक श्रमण सभ्यता और संस्कृति के विकास की कहानी श्राप इस खोजपूर्ण लेख में पढ़िये और देखिये कि श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति से भी किस प्रकार प्राचीनतर है और दोनों ने ही एक दूसरे से क्या और कितना लिया दिया है । - पोल्याका कुलकर और श्रमरण संस्कृति यद्यपि काल एक और अखण्ड है, किन्तु व्यावहारिक सुविधा के लिए उसको घण्टा-मिनट सैकिण्ड, दिन-रात, मास-वर्ष और अयन - संवत्सर आदि में विभक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त आचार्यों ने एक दूसरी दृष्टि से भी काल का विभाजन किया है उत्सर्पिणी और अवसरणी । एक समय ऐसा प्राता है, जब जगत सतत उन्नति की ओर ही अग्रसर होता है और एक समय वह होता है, जब वह अवनति की प्रोर दुलकता महावीर जयन्ती स्मारिका 78 डा० प्रेमसागर जैन अध्यक्ष हिन्दी विभाग, दि० जैन कॉलेज, बड़ौत जाता है । इस दृष्टि से एक को उत्सर्पिणी काल और दूसरे को अवसर्पिणी काल कहते हैं । एक में मनुष्यों का बल, आयु, शरीर का प्रमाण और सुख-सुविधा बढ़ती है, तो दूसरे में घटती है । यह काल-चक्र घड़ी के समान होता है। जैसे घड़ी की सुई छः तक नीचे की ओर फिर छः तक ऊपर की ओर चलती है, इसी भांति दोनों काल -- सुषमा- सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा- सुषमा, दुषमा और दुषमा-दुषमा के छः-छः चत्रों में 2-41 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नति-अवनति के मध्य घूमते रहते हैं। दोनों को किन्तु अब धीरे-धीरे ज्योतिरंग कल्पवृक्षों का मिलाकर एक कल्प बनता है, जिसे आज की प्रकाश म्लान होता जा रहा है, इसलिए ये सूर्य भाषा में युग भी कहते हैं । और चन्द्र ज्योतिर्वन्त, चमकते हुए स्पष्ट दिखाई पड़ने लगे हैं। इनसे तुम्हें कोई भय नहीं है।" उपक्त अवसर्पिणी के छः में से प्रारम्भ के सुनकर. सब प्राश्वस्त हो गये । सूर्य और चन्द्र तीन कालों में यहां भोगभूमि थी। तब लोगों की सौर जगत के दो ग्रह हैं, यह एक नया विज्ञान आवश्यकताए बिना श्रम किये ही, कल्पवृक्षों से उन्हें ज्ञात हुआ। पूर्ण हो जाती थीं। ये कल्पवृक्ष दस प्रकार के होते थे-मद्यांग, तूर्या ग, विभूषणांग, स्रगंग, तारों को देख कर भय-त्रस्त जनता को, ज्योतिरंग, दीपांग, गृहांग, भोजनाङ्ग, पात्राङ्ग सन्मति नाम के कुलकर ने ज्योतिर्विज्ञान से और वस्त्राङ्ग । नामानुकूल ही अपना-अपना फल परिचित कराया। उन्होंने समझाते हुए कहा कि देने में वे सक्षम थे। शनैः शनैः उनकी संख्या ये तारागण, नक्षत्रों का समूह है। बाद में, उन्होंने और प्रभाव क्षीण होता गया तो धरा. दिन-रात का विभाग, सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, वासियों के सम्मुख समस्याएं अभिनव रूप लेकर ग्रहों का एक राशि से दूसरी राशि पर जाना आदि आने लगी-ऐसी समस्याए जो न कभी देखी बतलाया । क्षेमकर कुलकर ने सिंह, व्याघ्र आदि गई थीं, और न सुनी गई थीं। उन्हें सुलझाकर की गर्जना और उत्पात से बचने के लिये, उन्हें जिन्होंने जनता को सही समाधान दिया. वे जंगलों में छुड़वा दिया। क्षेमंधर ने उन हिंस्र, कुलकर संज्ञा से अभिहित किये गये। कुलकर व्याघ्र आदि भय कर पशुगों से रक्षा का उपाय युग के निर्माता थे-असाधारण प्रतिभा के धनी, बताते हुए लाठी आदि के प्रयोग से अवगत अप्रतिम और अनुपम । ऐसे 14 कुलकर हुए। कराया । सीमंकर कुलकर ने कल्पवृक्षों की न्यूनता उनके नाम थे--प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमकर, होने के कारण, उपस्थित विवादों को 'सीमांकन' क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, के सिद्धान्त से शान्त किया। सीमंधर कुल कर के यशस्वान, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुद्देव, प्रसेनजित समय में, कल्पवृक्षों को लेकर विवाद और भी और नाभिराय ।' अनेक स्थलों पर नाभिराय के उग्र होने लगा, तब उन्होंने वृक्ष, झाड़ियों आदि पुत्र ऋषभदेव को भी उनके महान व्यक्तित्व के के द्वारा पुन: सीमांकन किया। विमलवाहन ने कारण कुलकर कहा गया है । हाथी, घोड़ा आदि पशुओं पर सवारी करने की शिक्षा दी। __ जब तीसरे काल की समाप्ति में कुछ समय शेष था और कल्पवृक्षों का प्रभाव क्रमशः क्षीण पहले युगल पुत्र-पुत्री उत्पन्न होते थे। उन्हें होता जा रहा था, तब एक दिन उदय होते हुए 'युगलिया' अथवा 'जुगलिया' कहा जाता था। चन्द्र और अस्त होते हुए सूर्य को देखकर लोग प्राकृतिक नियम था कि उत्पन्न होते ही माताभयभीत हो उठे। उस समय प्रतिश्रुति नामक पिता दिवंगत हो जाते थे। कल्पवृक्षों के नीचे प्रथम कुलकर ने उनका समाधान किया- "ये अगूठा चूसते हुए वे स्वतः बड़े हो जाते थे । चन्द्र और सूर्य ग्रह हैं। पहले ज्योतिरङ्ग जाति के शायद कल्पवृक्षों की सुगन्धित वायु उनके स्वतः कल्पवृक्षों के प्रकाश के कारण ये धूमिल से मालूम पोषरण का मुख्य कारण बनती होगी। अब समय पड़ते थे । अतः इनकी ओर ध्यान नहीं जाता था, बदला और माता-पिता पुत्र का मुह देखने के 2-42 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाद ही मृत्यु को प्राप्त होने लगे। इस अजूबे से इन सबमें नाभिराय से हम सब विशेष रूप से जनता भयभीत हुई तो कुलकर चक्षुष्मान ने उन्हें परिचित हैं । उनका नाम वैदिक और श्रमण दोनों प्राश्वस्त किया। परम्पराओं के ग्रन्थों में समान रूप से प्राप्त होता है। वे अत्यधिक प्रतापशाली थे। उनके नाम पर समय बीतता गया और माता-पिता सन्ता- इस देश को अजनाभवर्ष कहते थे। 'शाश्वत कोष' नोत्पति के बाद, कुछ अधिक काल तक जीवित में लिखा है "प्राण्यंगे छत्रिये नाभिः प्रधाननृप. रहने लगे। इससे जन-मानस शंकाकुल हो उठा। तावपि". अर्थात जिस प्रकार प्राणी के अगों यशस्वान कुलकर ने उन्हें उपदेश दिया और वे में नाभि मुख्य होती है, इसी प्रकार मब राजाओं लोग अपनी संतान को आशीर्वाद देने लगे। में नाभिराज मुख्य थे। 'मेदिनी कोष में इसका अर्थात् यशस्वान् ने उन्हें प्राशीर्वाद देना सिखाया। समर्थन मिलता है, "नाभि नुख्यनृपे चक्रमध्यकलकर अभिचन्द्र ने इसमें वृद्धि की। उन्होंने क्षत्रिययोरपि''4 इसका अर्थ है कि चक्र के मध्य माता-पिता को बालकों के लालन-पालन का ढंग में जिस प्रकार नाभि कीली) मुख्य होती है, इसी बताया। अतः वे बालकों को चन्द्रमा दिखला- प्रकार क्षत्रिय राजाओं में नाभि मुख्य थे। दिखला कर, उनके साथ क्रीड़ा करने लगे । चन्द्राभ भागवत कार ने नाभि के नाम पर इस देश के कलकर के काल में माता-पिता अपनी सन्तान के नामकरण की बात कही है, "अजनाभं नामैतवर्षसाथ कुछ अधिक समय तक जीवित रहने लगे भारतमिति यत् आरभ्य व्यपदिशन्ति ।' 5 अर्थात और सन्तान-सुख का अनुभव भी करने लगे। इस देश का नाम पहले अजनाभवर्ष था, किन्तु चक्रवर्ती भरत के नाम पर इसे भारतवर्ष कहने ___ मरुद्दे व कुलकर के समय में वर्षा होनी लगे। स्कन्दपुराण में भी “हिमाद्रिजलधेरन्त - प्रारम्भ हो गई, नदियां बन गई और कुछ पर्वत भिखण्डमिति स्मृतम् ।" आया है । इस पंक्ति को भी निकल आये । तब उन्होंने जल-संतरण प्राधार बनाकर डॉ० अवधबिहारीलाल अवस्थी के लिए नाव और पर्वतारोहण के लिए सीढ़ियों ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'प्राचीन भारत का भौगोलिक का प्राविष्कार किया तथा जनता को उसमें दक्ष इतिहास' में लिखा है, "जम्बूद्वीप के नौ वर्षों में से बनाया। हिमालय और समुद्र के बीच में स्थित भूखण्ड को काल-क्रम से प्रसेनजित के काल में बालक प्राग्नीध्र के पुत्र नाभि के नाम पर ही नाभिखण्ड जरायू में लिपटे हुए उत्पन्न होने लगे, तब उन्होंने कहा गया ।"' नाभि का दूसरा नाम अजनाभ था. जरायू को फाड़ने की विधि बतलाई । नाभिराय इसी कारण उसे अजनाभवर्ष भी कहते थे। कुलकर के समय में, उत्पन्न होते समय बालक की डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ने 'मार्कण्डेयपुराण: नाभि में नाल दिखाई देने लगा। उन्होंने नाल सांस्कृतिक अध्ययन' के एक पाद-टिप्पण में लिखा काटने की विधि सिखाई, इसीलिये वे नाभिराय है, “नाभि को अजनाभ भी कहते थे, जो अत्यन्त कहलाये । महापुराण में लिखा है : “तस्य काले प्रतापी थे और जिनके नाम पर यह देश सुतोत्पत्तौ नाभिनालमदृश्यत् । स तन्निकत नोपाय- अजनाभवर्ष कहलाता था।"8 मादिशन्नाभिरित्यभूत् ॥इस प्रकार चौदह ही कलकरों ने अपने-अपने काल में जनोपयोगी कार्य नाभिराय का युग एक संक्रान्तिकाल था। किये। जब वे सिंहासन पर बैठे भारत भोगभूमि थी। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-43 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पवृक्ष फलते थे। अपराध-वृत्ति का अभाव था। नाभिराजाज्ञया स्रस्टुस्ततोऽन्तिकमुपाययुः । सभी में पारस्परिक सद्भाव था। प्रत्येक का प्रजाः प्रणतमू नो जीवितोपायालप्सया ॥" मनोवांछित फल कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाता था, -महापुराण, 16/133-34 तो असद्वृत्ति का प्रश्न ही नहीं उठता था। किन्तु, मोहन-जो-दरो के 1927--28 के उत्खनन में उनके जीवनकाल में ही भोगभूमि समाप्त हो गई। कल्पवृक्ष निःशेषप्रायः हो गये । कर्मभूमि का प्रारम्भ एक ऐसी मानव-मूत्ति प्राप्त हुई है, जो अभी तक हुमा । नये प्रश्न थे, नये हल चाहिए थे । नाभिराय की पुरातात्विक खोजों में अत्यधिक महत्वपूर्ण है । चे धैर्यपूर्वक उनका समाधान दिया। वे स्वयं वह सील नं० 88 पर रखी हुई है । विद्वानों का त्राणसह बने । उन्हें क्षत्रिय कहा गया। 'क्षत्रिय अनुमान है कि वह नाभिराय की मूर्ति है। स्त्रारणसहः' उन पर चरितार्थ होता था। आगे उसका वेश-विन्यास एवं प्रशस्त वस्त्र तत्कालीन चलकर, क्षत्रिय शब्द नाभि अर्थ में रूढ़ हो गया। राजपरिच्छद का मानांक उपस्थित करते हैं । सिर अमरकोषकार ने 'क्षत्रिये नाभिः' लिखकर सन्तोष पर मुकुट नहीं है । सम्भवतः वह ऋषभदेव को किया। आचार्य हेमचन्द्र ने भी 'अभिधानचिता. राजमुकुट पहनाने के पश्चात् का चित्र है। मणि, 1/36 में "नाभिश्च क्षत्रिये" लिखा है। भगवज्जिनसेनाचार्य के महापुराण में एक स्थान उन्होंने अपने पुरुषार्थ से सयुग को जन्म दिया। पर लिखा हैप्रजा सुखी बनी और भोगभूमि के समान ही उसे सब नाभिराजः स्वहस्तेन मौलिमारोपयत् प्रभोः । सुख-सुविधाएं प्राप्त हुई। महाराजा नाभिराय महामुकुटबद्धानामधिराड् भगवानिति ॥ स्वयं कल्पवृक्ष हो गये। भगवज्जिनसेनाचार्य ने -महापुराण, 16/232 महापुराण में लिखा है, "चन्द्र के समान वे अनेक कलाओं की आधारभूमि थे, सूर्य के समान तेजवान यह चित्र 'सूरसागर' में भी देखने को मिलता थे, इन्द्र के समान वैभव-सम्पन्न थे और कल्पवृक्ष है। ऋषभदेव के प्रसंग में, एक स्थल पर सूरदास के समान मनोवांछित फलों के प्रदाता थे। ने लिखा हैशशीव स कलाधारः तेजस्वी भानुमानिव । "बहुरो रिसभ बड़े जब भये । प्रभु शक्र इवाभीष्ट: फलदः कल्पशाखिवत् ॥ नाभि, राज दे वन को गये ।। -महापुराण, 12/11 रिसभ-राज परजा सुख पायो। भोगभूमि के अवशिष्ट नाभिराय ने, कर्मभूमि जस ताको सब जग में छायो ।"10 की उठने वाली नयी-नयी समस्याओं को बहुत नाभिराय के पुत्र ऋषभदेव, जिन्हें जैन आदि सुलझाया, किन्तु नयी-नयी शंकाएं उठती ही जा तीर्थकर मानते हैं, एक युग पुरुष थे। उनका रही थीं। जब उन्होंने इन सबके समाधान में उल्लेख ऋग्वेद से लेकर श्रीमद्भागवत् तक में अपने पुत्र ऋषभदेव को पूर्ण समर्थ देखा तो तथा सभी जैन ग्रन्थों में श्रद्धा-पूर्वक लिया गया है। प्रजा को उन्हीं के पास भेजना प्रारम्भ कर सत्य यह है कि उनकी प्रतिभा सूविस्तृत थी, तो दिया-- हृदय भी महान् था। उनमें दोनों का अद्भुत सम"तत्प्रहाणान्मनोवृत्ति दधाना व्याकुलीकृताम्। न्वय हुआ था। उन्होंने कर्मभूमि की आदि प्रजा नाभिराजमुपासेदुः प्रजा जीवितकाम्यया ॥ को जीने का मार्ग दिखाया, तो अपने त्याग और 2-44 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुद्धर्ष तप के द्वारा मोक्षमार्ग भी प्रशस्त किया। हुए, उन्होंने काल के अनुसार धर्म का प्राचरण कर उन्होंने लोक और परलोक दोनों के प्रादर्श प्रस्तुत के, उसका तत्व न जानने वालों को, उसकी शिक्षा किये । शायद इसी कारण श्रीमद्भागवत् में उन्हें ___ दी। साथ ही, सम, शान्त, सुहृद् एवं कारुणिक भगवान् कहा गया है-- रह कर धर्म-अर्थ-यश-सन्तानरूप भोग-सुख तथा मोक्ष-सुख का अनुभव करते हुए गृहस्थाश्रम में "महर्षिः तस्मिन्नेव विष्णुदत्तः भगवान् परम- लोगों को नियमित किया। षिभिः प्रसादितः नाभेः प्रिचिकीर्षया तदवरोधायने मरदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमरणा- यह सत्य है कि उनके सुन्दर और सुडौल नामृषीणामूर्ध्वमंथिनांशुक्लया तनुवावततार ।'11 शरीर, विपुलकीत्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, परा. इसका अर्थ है-हे परीक्षित ! उस यज्ञ में मह- क्रम और शौर्य प्रादि गुणों के कारण, महाराजा र्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर भग- नाभिराय ने उनका नाम ऋषभ रक्खा था। ऋषभ वान्, महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए, उनके का एक अर्थ है-धर्म । ऋषभदेव साक्षात् धर्म ही अन्तःपुर में, महारानी मरुदेवी के गर्भ से, दिगम्बर थे। उन्होंने स्वयं कहा-मेरा यह शरीर दुर्विभाव्य श्रमणों और ऊर्ध्वगामी मुनियों का धर्म प्रकट है, अर्थात् मेरी शारीरिक प्राचार क्रियाए सब की करने के लिए शुद्ध सत्वमय शरीर से प्रकट हुए। समझ में सहज नहीं पातीं । मेरे हृदय में सत्व का निवास है, वही धर्म की स्थिति है । मैंने धर्म-स्व. श्रीमद् भागवत्कार ने ही अन्यत्र एक स्थान रूप होकर अधर्म को पीछे धकेल रिया है, अतएव पर लिखा है कि यद्यपि वे परमानन्द स्वरूप थे, मुझे आर्य लोग 'ऋषभ' कहते हैंस्वयं भगवान् थे, फिर भी उन्होंने गृहस्थाश्रम में नियमित आचरण किया । उनका यह प्राचरण इदं शरीरं मम दुर्विभाव्यं मोक्षसहिता के विपरीतवत् लगता है, किन्तु वैसा था सत्वं हि मे हृदयं यत्र धर्मः । नहीं । मोक्ष वही पा सकता है जो सही अर्थों में पृष्ठे कृतो मे यदधर्म पारादतोः, मानव हो, उसमें मानवीय गुण हों। उन्हें चरितार्थ हि मां ऋषभं प्राहुरार्याः ॥18 करने में ऋषमदेव ने अपना जीवन खपा दिया। विपरीतता कैसी ! भागवत का वह उद्धरण है एक स्थान पर परीक्षित ने कहा-हे धर्मतत्व को जानने वाले ऋषभदेव ! आप धर्म का उपदेश "भगवान ऋषभसज्ञः प्रात्मतंत्रः स्वयं नित्य- कर रहे हैं । अवश्य ही आप वृषभ रूप से स्वयं निवृत्तानर्थपरम्परः केवलानन्दानुभवः ईश्वर एवं धर्म हैं । अधर्भ करने वाले को जो नरकादि स्थान विपरीतवत् कर्मारण्यारभ्यमाणः कालेनानुगत धर्म- प्राप्त होते हैं, वे ही स्थान प्रापकी निन्दा करने माचारेणोपंशिक्षयन्नतद्विदां सम उपशान्तो मैत्रः वाले को मिलते हैंकारुणिको धर्मार्थयश: प्रजानन्दामृतावरोधेन गृहेषु धर्म वृवीषि धर्मज्ञ धर्मोऽसि वषरूपधृक् । लोक नियमयत् ॥"12 इसका अर्थ है-भगवान् यदधर्मकृतः स्थानं सूचकस्यापि तद्भवेत् ॥14 ऋषभदेव यद्यपि परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही, सब प्रकार की अनर्थ-परम्परा से रहित 'पुरुदेवचम्पू' एक प्रसिद्ध ग्रन्य है । जैन पाठकों केवल प्रानन्दानुभव स्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही के बीच उसकी ख्याति रही है। इसमें पुरदेव थे, तो भी विपरीतवत् प्रतीत होने वाले कर्म करते (ऋषभदेव) का जीवन चरित्र साहित्यिक साँचे में महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-45 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत किया गया है। एक स्थान पर लिखा हैवृष शब्द धर्मवाचक है और त्रिभुवनगुरु ! आप उस धर्म से शोभायमान हैं, इसलिये इन्द्र ने वृषभ नाम रक्खा - वृषो धर्मस्तेन त्रिभुवनगुरुर्भाति यदयं । ततो नाकाधीशो वृषभ इति नामास्य विदधे ॥15 'सुप्रभात स्तोत्र' में भगवान ऋषभदेव की वन्दना करते हुए भक्त कवि का कथन है कि है प्रभो ! महान आत्मस्वरूप प्राप वृषभ के स्मरण से ही प्रभात सुप्रभात बन जाता है । आपने भव्य प्राणियों को सुख देने वाले तीर्थ की प्रवृत्ति की है— सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मनः । येन प्रवर्तितं तीर्थं भव्य सत्व सुखावहम् ॥16 भगवान ने धर्म का उपदेश दिया क्योंकि व स्वयं धर्मरूप थे, तीर्थ का प्रवर्तन किया, क्योंकि स्वयं तीर्थंकर थे, यह सब कुछ सत्य है, किन्तु उन्होंने प्रजा को ससार में जीने का उपाय भी बताया। उन्होंने सब से पहले क्षात्रधर्म की शिक्षा दी। महाभारत के शान्तिपर्व में लिखा है- क्षात्रधर्म भगवान आदिनाथ से प्रवृत्त हुआ और शेषधर्म इसके पश्चात् प्रचलित हुए क्षात्रो धर्मो ह्यादिदेवात् प्रवृत्तः 1 पश्चादन्ये शेषभूताश्च धर्माः 1117 8 भगवज्जिनसेनाचार्य के महापुराण में भी 'आद्य ेन वेधसा सृष्टः सर्गाऽयं क्षत्रपूर्वक:' लिखा हुआ है। ब्रह्माण्ड पुराण में पार्थिवश्रेष्ठ ऋषभदेव को सब क्षत्रियों का पूर्वज कहा है- "ऋषभं पार्थिवश्रेष्ठ सर्वक्षत्रस्य पूर्वजम् ॥ प्रजानों का रक्षण क्षात्र धर्म है । अनिष्ट से रक्षा तथा जीवनीय उपायों से प्रतिपालन, ये दोनों गुण प्रजापति ऋष 2-46 भदेव में विद्यमान थे । उन्होंने स्वयं दोनों हाथों में शस्त्र धारण कर जिन लोगों को शस्त्रविद्या सिखाई, उन्हें क्षत्रिय नाम भी प्रदान किया । क्षत्रिय संज्ञा का अन्तर्निहित भाव यही था कि जो हाथों में शस्त्र लेकर दुष्टों और सबल शत्रुओं से निर्बलों की रक्षा करते हैं वे क्षत्रिय हैं । उन्होंने शस्त्रविद्या की शिक्षा ही नहीं दी, अपितु सर्वप्रथम क्षत्रियवर्ण की स्थापना भी की ''स्वदोर्भ्यां धारयन् शस्त्रं क्षत्रियानसृजद् विभुः । क्षतत्रारणे नियुक्ता हि क्षत्रियाः शस्त्रपारणवः ॥ ४० ऋषभदेव का यह कथन अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि केवल शत्रुओं और दुष्टों से युद्ध करना ही क्षात्र धर्म नहीं है, अपितु विषय-वासना, तृष्णा और मोह प्रादि जीतना क्षात्रधर्म है। उन्होंने दोनों काम किये । शायद इसी कारण आज क्षत्रियों को अध्यात्मविद्या का पुरस्कर्त्ता माना जाता है । जितना और जैसा युद्ध पृथ्वी जीतने के लिए प्रावश्यक है, उतना ही, उससे भी अधिक मोहादिक जीतने के लिए श्रनिवार्य है । ऋषभदेव ने सागरपर्यन्त पृथ्वी जीती, व्यवस्थित की, और फिर मोहादि शत्रु का विनाश करने में भी विलम्ब नहीं किया । इस सन्दर्भ में प्राचार्य समन्तभद्र ने भावभीना संस्कृत श्लोक लिखा है "विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधां वधू सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकु कुलादिरात्मवान् प्रभु प्रवव्राज सहिष्णरच्युतः ॥ 21 इसका अर्थ है कि सागर वारि ( समुद्र जल ) ही है दुकूल जिसका (समुद्र पर्यन्त विस्तृत), ऐसी वसुधा रूपी सती वधू को छोड़ कर, मोक्ष की इच्छा रखने वाले, इक्ष्वाकुवंशीय, श्रात्मवान्, सहिष्णु और अच्युत प्रभु ने दीक्षा ले ली । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने अपने दोषों को अपने समाधि तेज से भव के एक स्मरण से , श्रेयांसकुमार ने अपने भाई भस्म कर दिया। फिर, जगत को सही तत्व का और भावज के साथ भगवान को इक्षु के प्रासुक उपदेश दिया और ब्रह्मपद से सुशोभित हए । तीर्थ- रस का आहार दिया । यही भगवान् का व्रत था। कर पार्श्वनाथ ने राज-पद भोगा और फिर, उन्होंने पाहार लिया। इस अाहार दान की महिमा "स्वयोगनिस्त्रिशनिशातधारया, निशात्य यो दुर्जय- सभी प्राचीन ग्रन्थों में सुरक्षित है । मैं इसे इस मोह विद्विषं । अवापदामचिन्त्यऽऽहन्त्यप्रभिनयमद्- प्रकार मानता हूँ कि भगवान् ने जिस इक्ष दण्ड से भुत, प्रिलोकपूजातिशया, स्पदं पदम् ॥' अर्थात् रस निकालने की विधि बताई थी, उसे प्राध्याअपने योग रूपी खड्ग की पैनी धार से मोह रूपी त्मिक उपयोग में प्रतिष्ठित कर, प्रजात्रों के मस्तिशत्रु को काट कर, अचिन्त्य और तीनों लोको की ष्क में उसकी महिमा और भी बढ़ा दी। बढ़ाई ही पूजा के स्थान स्वरूप प्रार्हन्त्य पद को प्राप्त कर नहीं, स्थायी कर दी। आज इक्षुदण्ड और उसके लिया । तात्पर्य है कि क्षत्रिय का अर्थ केवल सांसा- रस का विश्व प्राभारी है। रिक जीत ही नहीं, अपितु प्राध्यात्मिक जीत है। प्राकृतिक अवरोध कि कल्पवृक्षों से भोजन की उसके दो दुश्मन हैं-एक बाह्य है तो दूसरा प्रान्त व्यवस्था निःशेषप्रायः हो गई । तब भगवान् ने रिक । एक स्थूल है तो दूसरा सूक्ष्म । एक आसान प्रजाओं को कृषि की शिक्षा दी। कृषि का अर्थ है दूसरा मुश्किल । दोनों का विजेता ही सच्चा क्षत्रिय है। है-कृषिः भूकर्षणे प्रोक्ता । पृथ्वी के विलेखन को कृषि कहते हैं। जैसे अनार को चीरने से उसमें से भगवान् ऋषभदेव के समय में इक्षुदण्ड स्वयं रस पूर्ण दाने निकलते हैं, उसी प्रकार हल मुख से संभूत थे, किन्तु लोग उनका उपयोग करना नहीं विदीर्ण करने पर प्राण रक्षक अन्न प्राप्त होता है । जानते थे । ऋषभदेव ने उनके रस निकालने की उन्होंने खेती करने का ढंग बताया और उसमें विधि बताई । शायद इसी कारण वे इक्ष्वाकु कह- प्रजात्रों को निष्णात किया । वे खेती के पहले उप. लाये । महापुराण में लिखा है "प्रावनाच्च तदि- देशक थे। प्राचार्य समन्तभद्र ने लिखा हैक्षूणां रससंग्रहणे नृणाम् । इक्ष्वाकुरित्यभूद् देवो "प्रजापतिर्यः प्रथम जिजीविषुः । जगतामभिसम्मतः ।।": अावश्यकचूरिण में 'अक्खु शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः ।।"26 भक्खणे, 4 कहा गया है इस प्रकार 'इक्खु' और 'अकु' मिल कर 'इक्खागो' प्राकृत में और 'इक्ष्वाकु उस समय खेती का मुख्य साधन था वृषभ । संस्कृत में बनता है । आवश्यक नियुक्ति में 'सक्को उन्होंने उस पर बल दिया। उसे महत्वपूर्ण घोषित वसद्ववणे इक्बु अगू तेण हुन्ति इक्खागो ।"25 किया, यहां तक कि इस आधार पर उन्होंने अपना लिखा है। नाम वृषभदेव कहलाना गौरवास्पद समझा। भगवान को एक वर्ष से पाहार नहीं मिला उन्होंने वृषभ को अपना मुख्य चिन्ह बनाया । था। उन्होंने अपने मन में एक व्रत लिया था, तद वे वृषभलाच्छन कहलाये। ग्राज भारतीय पुरातत्व नुरूप आहार उपलब्ध नहीं होता था। एक दिन में वृषभदेव की मूर्तियां वृषभ चिन्ह से ही पहचानी हस्तिनापुर पहुंचे। वहां के महाराजा सोमप्रभ, जाती हैं । आगे चलकर वृषभ शब्द 'श्रेष्ठ' अर्थ उनकी महारानी लक्ष्मीमती और छोटे भाई श्रेयांस का द्योतक हो गया, शायद वह वृषभदेव के द्वारा कुमार ने पूजा अर्चा पूर्वक स्वागत किया । पूर्व चिह्नरूप में धारण किये जाने के कारण ही । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-47 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्न पाठक स्वप्न में वृषभ को शुभ फलदायी मानते हैं । वृषभदेव ने हल और बैल के द्वारा केवल कृषि करना ही नहीं सिखाया, अपितु उत्पन्न अन्न से भोजन की विधि भी बताई । अतः कोई व्यक्ति ऐसा नहीं था, जो अन्नाभाव से पीड़ित रहा हो। ऋषभदेव ने लिपि और गणित की शिक्षा अपनी पुत्रियों को दी। ब्राह्मी को भाषा और लिपि का ज्ञान कराया। उसी के नाम पर भारत की प्राचीन लिपि को ब्राह्मी लिपि कहते हैं । भाषाविज्ञानवेत्ताओं का कथन है कि ब्राह्मीलिपि पूर्ण और सर्वग्राह्य थी। आगे चलकर इस लिपि से अनेक लिपियों का विकास हुआ। आज की देवनागरी लिपि उसी का विकसित रूप है । ब्राह्मीदेवी का एक मन्दिर, चम्बाघाटी के भरभौर नामक स्थान पर प्राप्त हुआ है । मन्दिर प्राचीन काल का अवशेष है । हो सकता है कि ऋषभदेव ने अपनी पुत्री को उधर का राज्य दिया हो प्रौर उसके अच्छे कार्यों ने उसे देवी के रूप में प्रसिद्ध कर दिया हो, अथवा दीक्षा धारण कर उसने वहां रूप किया हो और शताब्दियों तक किसी दिव्यशक्ति के रूप में पूजी जाती रही हो । ब्राह्मी के दीक्षा धारण करने की बात जिनसेन के हरिवंश पुराण से प्रमाणित है। 27 ऋषभदेव ने अपनी दूसरी पुत्री सुन्दरी को प्रांकों का ज्ञान करवाया । उससे गणित विद्या का प्रसार समूचे जगत में हुआ । श्राज जैनाचार्यों के लिखे गरिणत-सम्बन्धी महत्वपूर्ण ग्रन्थ मिलते हैं। लिपि और ग्रांक शिक्षा के सन्दर्भ में महापुराण का उद्धरण है " तद्विद्याग्रहणे यत्नं पुत्रिके कुरुतं युवाम् | तत्संग्रहणकालोऽयम् वयोर्वर्ततेऽधुना ॥ इत्युक्त्वा मुहुराशाम्य विस्तीर्णे हेमपट्टके । अधिवास्थ स्वचित्तस्थां श्रुतदवी सपर्यया ॥ विभुः करद्वयेनाभ्यां लिखन्नक्षरमालिकाम् । 2-48 उपादिशतिलपि संख्यास्थानं चाङ्क रनुक्रमात् ॥ ततो भगवतो वक्त्रान्निः सृतामक्षरावलीम् । सिद्ध' नम इति व्यक्तमङ्गलां सिद्धमातृकाम् ॥ प्रकारादि हकारान्तां शुद्धां मुक्तावलीमिव । स्वरव्यञ्जनभेदेन द्विधा भेदमुपेयुषीम् ॥ प्रयोगवाहपर्यान्तां सर्वविद्यासु सन्तताम् । संयोगाक्षर सम्भूति नैकबीजाक्षरेश्चिताम् ॥ समवादीधरद् ब्राह्मी मेधाविन्यति सुन्दरी । सुन्दरी गणितं स्थानत्रमैः सम्यगधारयत् ।। 28 इसका अर्थ है - तुम दोनों के विद्याग्रहण का यही समय है, अतः विद्या प्राप्ति में प्रयत्न करो । भगवान् वृषभदेव ने ऐसा कह कर, बार-बार उन्हें आशीर्वाद दिया तथा स्वर्ण के विस्तृत पट्ट पर, अपने चित्त में स्थित श्रतदेवता का पूजन कर स्थापित किया । फिर दोनों हाथों से - दाहिने हाथ से अक्षरमालिका रूप लिपि का और बायें हाथ से संख्या का ज्ञान कराया। जो भगवान् के मुख से निकली हुई है, जिसमें 'सिद्ध' नमः ' इस प्रकार का मंगलाचरण अत्यन्त स्पष्ट है, जिसका नाम सिद्धमातृका है, जो स्वर- व्यञ्जन के भेद से दो भेदों को प्राप्त है और शुद्ध मोतियों की माला के समान है, ऐसी प्रकार को आदि लेकर हकार- पर्यन्त तथा विसर्ग, अनुस्वार, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय इन प्रयोगवाह पर्यन्त समस्त शुद्ध अक्षरावली को बुद्धिमती ब्राह्मी पुत्री ने धारण किया और सुन्दरी ने इकाई-दहाई आदि स्थानों के क्रम से गणितशास्त्र को भलीभांति अवग्रहण किया। जगद्गुरु वृषभदेव ने अपने पुत्रों को भी अनेक शास्त्र पढ़ाये । भरत को अर्थशास्त्र, वृषभसेन को गन्धर्वशास्त्र, अनन्तविजय को चित्रकला आदि कलाओं का ज्ञान, बाहुबली को कामशास्त्र, श्रायुर्वेद, धनुर्वेद, रत्नपरीक्षा श्रादि की जानकारी का निरूपण किया । लोकोपकारक सभी शास्त्र महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने अपने पुत्रों को सिखाये । उनका युगपुरुष नाम सार्थक था । इसी कारण और परमार्थ के अभिलाषी थे। वे श्रमण मुनि हो गये, वे अनशन आदि तप करते थे। वृषभदेव ने एक सुनियोजित व्यवस्थित रूप में ___ यहां श्रमण से अभिप्राय है. श्राम्यति तपः प्रजाओं को अनुशासित किया। उन्होंने कर्म के क्लेशं सहते इति श्रमणः ।" अर्थात् जो तपश्चरण आधार पर वर्गीकरण किया । वे चतुर्वर्णी व्यवस्था करते हैं, वे श्रमण हैं। श्री हरिभद्रसूरि ने दशके सूत्रधार बने । 1 चाणक्य की अर्थनीति में जिस वैकालिक सूत्र (13) में लिखा है, ''श्राम्यन्तीति चतुर्वर्ण व्यवस्था पर अधिकाधिक बल दिया गया श्रमणाः तपस्यन्तीत्यर्थः ।" इसका अर्थ है कि जो है, वह वृषभदेव से प्रारम्भ हो चुकी थी। प्राचार्य श्रम करता है, कष्ट सहता है अर्थात् तप करता सोमदेव के नीतिवाक्यामृत में वरिणत चतुर्वर्ण है, वह तपस्वी श्रमण है । रविषेणाचार्य के व्यवस्था चाणक्य की अर्थनीति से प्रभावित न पदमचरित (6/212) में कथन है. "परित्यज्य होकर, अपनी ही पूर्वपरम्परा, अर्थात् वृषभदेव की नृपो राज्यं श्रमणो जायते महान् । तपसा प्राप्य व्यवस्था से प्रभावित थी। कुछ अनुसन्धित्सु इस सम्बन्धं तपोहि श्रम उच्यते ।" सम्बन्ध में भ्रम मूलक मान्यताएं स्थापित कर डालते हैं। उन्हें उपक्त बात पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। तैत्तिरीयारण्यक 2/7 में श्रमणों की परिभाषा दी है, "वातरशनानां श्रमणा नामृषीणामूर्ध्वमंभोगभूमि के बाद कर्म भूमि के प्रारम्भ में, थिनः ।" सायणाचार्य ने इसकी व्याख्या की है, धरा और धरावासियों की आवश्यकताओं के "वातरशमाख्या: ऋषयः श्रमणा - ऊर्ध्वमंथिनो समाधान में वृषभदेव ने जिस घोर श्रम का परिचय वभूवुः ।" इसका अर्थ है कि दिगम्बर श्रमण दिया, वही अात्मविद्या के पुरस्कर्ता होने में भी ऋषि तप से सम्पूर्ण कर्म नष्ट करके ऊर्ध्वगमन किया । वे श्रमणधारा के प्रादि प्रवर्तक कहे जाते करने वाले हुए हैं। ऊर्ध्वगमन जीव का स्वभाव है, हैं। भागवतकार ने ऋषभदेव को नाना योग- वह सदा से इसके लिए प्रयत्न करता रहा है, किन्तु चर्यानों का आचरण करने वाले "कैवल्यपति' की कर्मों का भार उसे अधिक ऊंचाई तक नहीं जाने संज्ञा तो दी ही हैं, साथ ही उन्हें दिगम्बर श्रमणों देता । जब जीव कर्म-बन्धन से नितांत मुक्त हो और ऊर्ध्वगामी मुनियों के धर्म का ग्रादि प्रतिष्ठाता जाता है, तब अपने स्वाभावानुसार लोक के अन्त और श्रमणधर्म का प्रवर्तयिता माना है। उनके तक ऊर्ध्वगमन करता है, जैसा कि तत्वार्थरात्र का सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमण मुनि बने, भागवत में कथन है, "तदन्तरमूर्ध्व गच्छन्त्यालोकान्तात 134 यह भी उल्लेख मिलता है---- जैन शास्त्रों में जहां भी मोक्षतत्व का वर्णन आया है. वहां पर इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। "नवाभवन महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसितः। इसी सन्दर्भ में वैदिक ऋषियों ने वातरशना श्रमण श्रमणा वातरशना प्रात्मविद्याविशारदाः ॥" मुनियों के लिए ऊर्ध्वपंथी. ऊवं रेता आदि शब्दों -श्रीमद्भागवत्, 11/2/20 का प्रयोग किया है। इसका अर्थ है-ऋषभदेव के सौ पुत्रों में से लोक के अन्त तक ऊर्ध्वगमन कर पाना श्रमण नौ पुत्र बड़े भाग्यवान थे, प्रात्म-ज्ञान में निपुण थे की साधना का मुख्य लक्ष्य होता है। 'वृहदारण्य महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-49 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीपनिषद' में लिखा है कि उस समय श्रमण अ- अतदिलासः स्त्रयमन्ये नाभिनाः सुपीवसः सुबलाः श्रमण हो जाता है और तापस प्रतापस, अर्थात् अतषिताः तपारहिता. अतृष्णज: निस्पृहा भवथ" इसके साथ नाम की कोई बाह्य उपाधि नहीं रह इसका हिन्दी अर्थ है-पाप श्रमण-रहित, दूसरों के जाती। वह श्रमण-अश्रमण, तापस अतापस से द्वारा शिथिल न किये जा सकने वाले, बलवान, ऊपर उठ जाता है । न पाप रहते हैं और न पुण्य, तृष्णा-रहित और निर्मोह हो । यहाँ श्रमण-रहित का दोनों से छुटकारा पा लेता है । हृदय में भरे शोक अर्थ है कि आप श्रमण की उपाधि से मुक्त हो जायें, स्वयं चुक जाते हैं। वह उद्धरण है , "श्रमणोऽश्र- अर्थात् आपको तप-रूपी श्रम करने की आवश्यकता मणस्तापसीऽ तापसोऽनन्वागतं पुण्येनानन्वागतं पापेन न रह जाये, अर्थात् आपको कैवल्य प्राप्त होजाये । तीर्णो हि तदा सर्वाञ्छोकान् हृदयस्य भवति" । 'श्रमण' शब्द का अधिकाधिक महत्व रहा है । इस कथन की पुष्टि शांकरभाष्य से भी हो जाती वैय्याकरण अत्यन्त अनिवार्य स्थिति में ही किसी है, "श्रमण परिव्राट्, यत्कर्मनिमित्तो भवति, स तेन किसी शब्द-विशेष के लिए नियम बनाते हैं, अन्यथा विनिमुक्तत्त्वादश्रमणः"36 अर्थात् जिस कर्म-भार नहीं। किन्तु श्रमण शब्द के सम्बन्ध में व्याकरणको चुकाने के लिए पुरुष श्रमण परिव्राट् बनता है, ग्रन्थों में विशेष नियम उपलब्ध हैं। शाकटायन ने उसके चुक जाने पर वह प्रश्रमण हो जाता है, लिखा है-"कुमारः श्रमणादिना" (शाकटायन तात्पर्य है कि उसे फिर तप-रूपी श्रम करने की 2/1/78) 'श्रमण' के साथ कुमार और कुमारी आवश्यकता नहीं रह जाती। जैन शास्त्रों के अनु- शब्द की सिद्धि के सम्बन्ध में यह सूत्र है । उस समय सार भी क्षपणक श्रेणी प्रारोहण करने वाला श्रमण किमारश्रमणा' जैसे पद लोक-प्रचलित थे। यह मुनि पाप और पूण्य दोनों से रहित हो जाता है उस तापसी को कहते थे, जो कुमारी अवस्था में और कषाय तथा धाति चतुष्क का नाश करके श्रमणा बन जाती थी। श्रमणादि-गणपाठ' के कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है। ब्रह्मोपनिषद् में अन्तर्गत 'कुमार प्रव्रजिता', 'कुमार तापसी'--जैसे भी परब्रह्म का अनुभव करने वाले की जिस दशा निष्पन्न शब्दों से यह सिद्ध होता है कि उस समय का वर्णन किया गया है, वह हू-बहू ऐसी ही है--- कुमारियां प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं, यह लोक"श्रमणो न श्रमणंस्तापसो न तापस: एकमेव विश्रु त था । भगवान् ऋषभदेव की दोनों पुत्रियों तत् परं ब्रह्म विभाति निर्वाणम् ।।"37 ने कुमारी-अवस्था में ही 'श्रमणा' पद ग्रहण किया श्रमण शब्द सर्व प्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल था । प्राचार्य जिनसेन ने 'हरिवंशपुराण' में लिखा में उपलब्ध होता है । इस ऋचा में भी 'वृहदारण्य- है, "ब्राह्मी च सुन्दरी चोभे कुमायौं धैर्यसंगते । कोपनिषद्' की तरह ध्यान की उत्कृष्ट स्थिति का प्रव्रज्य बहनारीभिरार्याणां प्रभुतां गते ।"39 अर्थात् वर्णन किया गया है धैर्य से युक्त ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों कुमारियां तृदिला अतृदिलासो अद्रयोऽश्रमणा अशृथिता अमृत्यवः अनेक स्त्रियों के साथ दीक्षा ले ायिकाओं की अनातुरा अजराः स्थामविष्णव: सुपविसो अतृषिता स्वामिनी बन गई। इसी पुराण में एक दूसरे अतृष्णज: ।। 8 स्थान पर लिखा है, 'ब्राह्मीयं' सुन्दरीयं च समस्ताइस पर सायणाचार्य ने लिखा है-"प्रश्रमणाः गिरणागणीः । कुमारीभ्यां प्रिये ताभ्यां मारभङ्गः श्रमणवजिता: अशृथिताः अन्यरशिथिलीकृता: अ- स्फुटीकृतः ।10 इसका अर्थ है-हे प्रिये ! यह मृत्यवः अमारिताः अनातुराः अरोगाः अजराः जरार- समस्त आर्यानों की अग्रणी ब्राह्मी है और यह हिताः स्थ भवथ । किञ्च प्रभविष्णवः उत्क्षेपणाव- सुन्दरी है, इन दोनों ने कुमारी अवस्था में कामदेव क्षेपणगत्युपेताः हे प्रावाणः तृदिलाः अन्येषां भेदकाः को पराजित कर दिया है । नेमिनाथ विवाह-द्वार से 2-50 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो दीक्षा ले तप करने चले गये थे, अत: राजुल जहां श्रमणधारा पूर्णरूप में अहिंसक रही-द्रव्य का विवाह न हो सका और वह भी कुमारी अवस्था रूप से भी, भाव रूप से भी, बाह्य रूप से भी और में ही दीक्षा ले अजिका हो गई थी। शाकटायन स्वयं अन्तः रूप से भी, वहाँ 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' श्रमण-संघ के प्राचार्य थे-"महाश्रमणसंघाधिप- को अपना कर वैदिक धारा उत्तरोत्तर हिंसा-परक तिर्यः शाकटायन: ।"11 अतः श्रमरगों के सम्बन्ध में होती गई। उसके यज्ञों में बलि को प्रमुखता मिली। उनकी जानकारी प्रामाणिक कही जा सकती है। कर्मकाण्ड बढ़ा और आडम्बर धर्म कहे जाने लगे। पाणिनीय ने भी अष्टाध्यायी (2/170) में 'कुमारः इसी कारण, उनमें असहिष्णुता बढ़ी तो बढ़ती ही श्रमणादिभिः' लिख कर शाकटायन का समर्थन ही गई । डाँ. मंगलदेव शास्त्री का कथन है, "ऋषि या किया है। वैदिकी संस्कृति में कर्मकाण्ड की प्रधानता और किन्तु पाणिनीय के उपर्युक्त मूत्र पर पात असहिष्णुता की प्रवृत्ति बढ़ी तो श्रमरण-संस्कृति या जलि के महाभाग्य 3/419, येषां च विरोधः मुनि संस्कृति में अहिंसा, निरामिषता तथा विचारशाश्वतिकः इत्यस्यावकाश: श्रमणः ब्राह्मणम् ।” सहिष्णुता की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी ।" श्रमणों का स्पष्टीकरण आवश्यक प्रतीत होता है । यहां के उदारता-परक दृष्टिकोण का उत्तम निदर्शन हैशाश्वतिक शब्द ध्यान देने योग्य है। श्रमण और अनेकांत । इसे सापेक्ष दृष्टि कहें तो उचित ही ब्राह्मणों में विरोध था और वह भी ऐसा-वैसा होगा। इससे वस्तु स्वभाव सही रूप में समझा जा नहीं, शाश्वतिक । जो विरोध हेतु या विरोध जन्य सका । इसमें हठ या आग्रह को कोई स्थान नहीं। होता है, वह उस हेतु के दूर होने पर समाप्त हो इससे तटस्थ और निष्पक्ष मूल्यांकन हो पाता है। जाता है, किन्तु यह तो शाश्वतिक है। शाश्वतिक यह दृष्टि वही अपना पाता है जो सहिष्ण और वही हो सकता है, जिसके मूल सिद्धान्त में उदार हो। दूसरी ओर ऐकान्तिक दृष्टि होने से विरोध हो । अर्थात् यह विरोध सैद्धा- हठ और प्राग्रह स्वतः प्रविष्ट हो गये। न्तिक है किसी निमित्त से उत्पन्न नहीं हुआ । एक में निवृत्ति-मूलकता थी, तो दूसरी में ब्राह्मण वैदिक धारा का प्रतिनिधि था और श्रमण प्रवृत्ति प्रधान थी। निवृत्ति के ही कारण श्रमण श्रमणधारा का। जहां वैदिकधारा एकेश्वरवादी विशुद्ध अध्यात्मवादी रहे । श्रीमद्भागवत् का यह थी, वहाँ श्रमणधारा अनेकेश्वरवादी। श्रमणों का कथन सत्य है कि-'श्रमणा वातरशना आत्मविचार था कि राग-द्वेष का समूल नाश करके विद्या विशारदाः ।' अनन्त शक्तियों की स्रोत प्रत्येक व्यक्ति ब्रह्म बन सकता है, वह केवल अपनी आत्मा को ही उन्होंने ब्रह्म माना, उसी की ज्ञाता और द्रष्टा होता है, कर्ता, भर्ता और हर्ता भक्ति की और उसे ही प्राप्त करने का प्रयत्न किया नहीं । इस प्रकार उन्होंने प्रत्येक जीव में, अपने ही उससे बड़ा किसी को नहीं माना, न राजा को, न तप-समाधि-रूप श्रम से ईश्वरत्व प्राप्त कर लेने की सम्राट को । यही कारण है कि वे किसी के सामने सम्भावना पर बल दिया । ऋषभदेव ईश्वर के कभी नहीं झुके । सम्राट सिकन्दर के पास जाने से अवतार नहीं थे. अपितु उन्होंने अपने ही समाधि- श्रमण प्राचार्य दोलामस ने स्पष्ट इनकार कर तेज से, अपने कर्मों को भस्म करके ब्रह्म पद प्राप्त दिया था, तब सिकन्दर को स्वयं उनके पास आना किया था 142 पार्श्वनाथ भी अपने योग रूपी खड्ग पड़ा। वह उनकी आध्यात्मिकता से अत्यधिक की तीखी धार से मोह-शत्रु को नष्ट करके प्रभावित हुआ। उनमें से एक कल्याण मुनि को पार्हन्त्यलक्ष्मी को प्राप्त कर सके थे ।43 सभी तीर्थ- वह अपने साथ यूनान ले गया था। फिर, युनान करों और मोक्षगामियों के साथ यही बात थी। जो कि भोग-प्रधान देश था, प्राध्यात्मिकता की महावीर जयन्ती रमारिका 78 2-51 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओर खिंचने लगा। पं० सुन्दरलाल ने 'हजरत था । उनका व्यक्तित्व सर्वमान्य, सार्वजनिक, अखण्ड ईसा और ईसाई धर्म' में लिखा है, "उस जमाने और अबाधित था । यही कारण है कि जैन, की तवारीख से पता चलता है कि पश्चिमी वैदिक, वैष्णव आदि सभी सम्प्रदायों के ग्रन्थों में एशिया, यूनान, मिश्र और इथोपिया के पहाड़ों उनका समभाव से स्मरण किया गया है । सम्राट और जंगलों में उन दिनों हजारों जैन संत महात्मा भरत-जो ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे, के साथ जा-जा कर जगह-जगह बसे हुए थे। ये लोग वहाँ भी यही बात थी। सभी प्राचार्यों-जैन और अजैन बिलकुल साधुओं की तरह रहते और अपने त्याग दोनों ने उन्हें मनु की संज्ञा से विभूषित किया है। और अपनी विद्या के लिए वहाँ मशहर थे।45 भगवज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण (३ २३२) में डॉ. नीलकंठदास ने अपने ग्रन्थ 'उड़ीसा में जैन धर्म' लिखा है, "वृषभौ भरतेशश्च तीर्थचक्रभृतो मनुः ।" में लिखा है, "जैन धर्म संसार के सारे धर्म तथा मैं पहले ही कह चुका हूं कि दोनों ने यदि एक ओर मानविक आत्मविकास के मूल में है। कहा जा जगत् को साधा तो दूसरी ओर निःश्रेयस को भी सकता है कि इसी के ऊपर मानव-समाज के विकास प्राप्त किया । एक ओर भौतिकवाद को व्यवस्थित की प्रतिष्ठा आधारित है ।"46 किया तो दूसरी ओर अध्यात्मवाद को भी चरमो त्कर्ष पर पहुंचाया। उन्होंने ऐसा रास्ता बताया जो इस भाँति महर्षि पतञ्जलि दोनों में शाश्वतिक दोनों तत्वों की प्राप्ति का सुगम उपाय था। यह विरोध स्वीकार करते हैं, किन्तु यह विरोध की शताब्दियों चला । दोनों धाराओं में कोई वैमनस्य बात बहुत आगे चल कर प्रारम्भ हुई । गीता के और मनमुटाव नहीं हुआ। समय तक दोनों में मैत्रीभाव था और दोनों एकदूसरे की पूरक थीं । गीता में मुनि का प्रशंसा- इस सन्दर्भ में बाबू गुलाबरायजी का कथन मूलक एक श्लोक है दृष्टव्य है, "वैदिक और श्रम, संस्कृति में साम जस्य की भावना के आधार पर आदान-प्रदान दुःखेष्वनुद्विग्नमनः सुखेषु विगतस्पृहः । हुआ और इन्होंने भारतवर्ष की बौद्धिक एकता बनाये वीतरागमयक्रोधः स्थितधी मुनिरुच्यते ।।17 रखने का महत्वपूर्ण कार्य किया ।"49 यह साम गौता में ही नहीं, ऋग्वेद में भी मनिधर्म का ञस्य की भावना स्वयं ऋषभदेव और भरत ने अच्छा विवेचन मिलता है । इस सम्बन्ध में अपने जीवन के द्वारा प्रस्तुत की थी, अतः वह बहुत डॉ० मंगलदेब शास्त्री का एक कथन दृष्टव्य है, समय तक प्राणवन्त बनी रही । श्री वाचस्पति "ऋग्वेद के एक सूक्त (१०/१३६) में मुनियों का गैरोला ने भी अपने 'प्राचीन भारतीय दर्शन' नाम अनोखो वर्णन मिलता है । उनको वातरशना के ग्रन्थ में दोनों धाराओं के पूरक और समन्वय दिगम्बर पिशंगा वसतेमला- मत्तिका को धारण की बात कही है । उनका कथन है, “पहली विचारकरते हये पिंगल वर्ण और केशी-प्रकीर्ग केश इत्यादि धारा परम्परा-मूलक, ब्राह्मण या ब्रह्मवादी रही कहा गया है। यह श्रीमद्भागवत् (पंचमस्कंध) में है, जिसका विकास वैदिक साहित्य के वृहत् स्वरूप दिये हए जैनियों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के में प्रकट हुआ । दूसरी विचारधारा पुरुषार्थमूलक, वर्णन से अत्यन्त समानता रखता है। वहाँ स्पष्ट प्रगतिशील, श्रामण्य या श्रमण-प्रधान रही है, जिसमें शब्दों में कहा गया है कि ऋषभदेव ने वातरशना आचरण को प्रमुखता दी गई । ये दोनों विचारश्रमण मुनियों के धर्मों को प्रगट करने की इच्छा धाराएं एक-दूसरे की प्रपूरक रही हैं । इस राष्ट्र की से अवतार लिया था ।''48 ऋषभदेव दोनों धारागों बौद्धिक एकता को बनाये रखने में उन दोनों का के सन्धिस्थल थे। उनका व्यक्तित्व समन्वयकारी समानतः महत्वपूर्ण स्थान है ।"50 2-52 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात रह जाती है प्राचीन होने की। इस "स्व-दोष-मूलं स्व-समाधि तेजसा सम्बन्ध में विद्वानों का अभिमत है कि श्रमण निनाय यो निर्दय-भस्मसात्क्रियाम् । संस्कृति वैदिक ही नहीं, प्राग्वैदिक थी। भारतरत्न जगाद् तत्वं जगतेऽथिनेऽञ्जसा लोकमान्य तिलक ने १३ दिस०, सन् १९०४ के बभूव च ब्रह्मपदामृतेश्वरः ।।" केसरी में लिखा था, "ग्रन्थों तथा सामाजिक -स्वयम्भूस्तोत्रं, १४ व्याख्यानों से जाना जाता है कि जैनधर्म अनादि इसका अर्थ है-जिन्होंने अपने प्रात्म-दोषों के है । यह विषय निर्विवाद तथा मतभेद रहित है। मूलकारण को अपने समाधि-तेज से निर्दयता-पूर्वक सुतरां इस विषय में इतिहास के दृढ़ सबूत हैं ।” पूर्णतया भस्मीभूत करदिया, तथा जिन्होंने तत्त्वाभिडॉ० विशुद्धानन्द पाठक ने अपने ग्रन्थ 'भारतीय लाषी जगत को तत्त्व का सम्यक् उपदेश दिया और इतिहास और संस्कृति' में लिखा है, “विद्वानों का जो ब्रह्म पद रूपी अमृत के ईश्वर हुए। अभिमत है कि यह धर्म प्रागैतिहासिक और ऋषभदेव की भाँति ही अन्य तेईस तीर्थकरों ने प्राग्वैदिक है । सिन्धुघाटी की सभ्यता से मिली भी इस अहिंसारूप-ब्रह्मपद को प्राप्त किया था । योगमूर्ति तथा ऋग्वेद के कतिपय मन्त्रों में ऋषभ उन्होंने अहिंसा के गीत ही नहीं गाये, अपितु उसे तथा अरिष्टनेमि जैसे तोर्थंकरों के नाम इस विचार अपने जीवन में प्रतिफलित कर दिखाया । इसका के मुख्य आधार हैं। भागवत और विष्ण पुराण प्रभाव पडा। वह भारतीय इतिहास और संस्कृति के में मिलने वाली जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की कथा शताब्दियों के पृष्ठों पर देखा जा सकता है । वेदों भी जैनधर्म की प्राचीनता को व्यक्त करती है।"51 के ऋषि इन्द्र से प्रार्थना करते ही रह गये कि इन श्री रामधारीसिंह दिनकर का 'संस्कृति के चार नग्न देवों से हमारे यज्ञों की रक्षा करो, किन्तु रक्षा अध्याय' में कथन है, "कई विद्वानों का यह मानना न हो सकी। शनैः शनैः इन्द्र का देव-पद और अयुक्ति-युक्त नहीं दीखता कि ऋषभदेव, वेदोल्लिखित पाराध्य-पद समाप्त हो गया । कृष्ण ने इन्द्र के होने पर भी, वेदपूर्व हैं।"52 मेजर जनरल फरलांग विरुद्ध क्रांति की और उसे समूल नष्ट कर दिया । ने तो 'Studies in Science of Comparative जैन साहित्य में वह जीवित तो रहा, किन्तु नग्नदेव Religions' में यहां तक लिखा है, "It is का भक्त बन कर। उसे जिनेन्द्र की गर्भावस्था से impossible to find a biginning for निर्वाण-पर्यन्त जै-जै के गीत गाने पड़े। समयJainism. Jainism thus appears an समय पर समारोहों का आयोजन करना पड़ा । earliest faith of India." महामहोपा- अाज भारतीय धरा पर यज्ञ और उनमें होने वाली ध्याय सतीशचन्द का अभिमत है, "जैनमत तब से पशु-बलि और नर-बलि का समूलोच्छेद हो प्रचलित हुआ है, जब से संसार में सृष्टि का गया है। प्रारम्भ हुआ है। मुझे इसमें किसी प्रकार उजू मध्यकाल में एक वैष्णव आन्दोलन चला, नहीं है कि जैनधर्म वेदों से पूर्व का है ।"54 जो अत्यधिक सामर्थ्यवान और व्यापक था। उसने जातिवाद को चुनौती दी तो हिंसा को भी निरर्थक श्रमण-परम्परा का मूलमंत्र था-'अहिंसा प्रमाणित किया। अहिंसा उसका मूलमन्त्र बना। परमोधर्मः ।' अहिंसा ब्रह्म है, ऐसी उनकी मान्यता केवल हिन्दुनों ने ही नहीं, मुसलमानों ने भी थी। ऋषभदेव ने अपनी साधना से वह ब्रह्मपद समवेत स्वर में अहिंसा को मान्यता दी। उनका प्राप्त किया था। प्राचार्य समन्तभद्र ने एक चित्र साहित्य इसका. साक्षी है । सभी मुसलमान भक्त खींचा है कवि अहिंसक थे । क्या रसखान, क्या कबीर और महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-53 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायसी । इन्होंने हिंसक शाक्तों को तो बुरा कहा देश की संस्कृति का अनिवार्य तत्त्व था। यह ही, उन अहिंसकों को भी फटकारा, जिन्होंने श्रमणधारा की एक महत्वपूर्ण देन थी। अहिंसा के नाम पर कर्माडम्बरों का घटाटोप रच रक्खा था। इस प्रकार अहिंसा का रथ जो चला अनेकांत समन्वय का प्रतीक है-श्रमण तो चलता ही रहा, रुका नहीं। बाधाए पायीं, प्राचार्यों के तटस्थ हृदय का द्योतक है। उसमें रुकावटें समुपस्थित हुई, किन्तु वह शान के साथ पक्ष-विपक्ष नहीं । हठ-दुराग्रह नहीं। विरोध नहीं, चलता रहा । फिर पाये गान्धीजी। उन्होंने इस रथ विरोधाभास नहीं । सभी दृष्टियों से विचार खुला को राजनीति की टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों पर घुमा है । कुछ ने ऐकान्तिक दृष्टिकोण से सोचा, तो दिया । वहां भी वह खरा प्रमाणित हुआ। उन्हें वह दोष-पूर्ण लगा, उपहासास्पद प्रतीत गान्धीजी को सफलता मिली और राजनीति को हुा । यह उनका भ्रम ही था, जो बाद में ठीक नई परिभाषा । राजनीतिज्ञों ने उसे समझा, हो गया । सिद्धान्त ऐसा जो विरोधों में भी अविरोध वैज्ञानिकों ने सराहा और गणपतियों ने उसकी की, अनेकांत में एकता की और वैषम्य में साम्य प्रशंसा की। माज अहिंसा समूचे जगत का प्रिय की स्थापना करता है। अत: यह ही धर्म की विषय है। परिभाषा की कसौटी पर खरा उतरता है । धर्म वह है जो अविरोधी हो। यदि एक धर्म में दूसरे डॉ. मंगलदेवशास्त्री ने 'जैन दर्शन' के धर्म का विरोधी तत्व है, तो वह परमसत्य रूप नहीं प्राक्कथन में लिखा है, "भारतीय विचारधारा में है, उसमें कहीं कमी है, यह स्पष्ट ही है। महाअहिंसावाद के रूप में अथवा परमत-सहिष्णुता के भारत के वनपर्व में लिखा है, 'धर्म यो बाधते रूप में अथवा समन्वयात्मक भावना के रूप में धर्मो न स धर्मः कुवर्त्म तत् । अविरोधात्तु यो धर्मः जैन-दर्शन और जैन-विचारधारा की जो देन है, स धर्मः सत्यविक्रम ।।'' 57 इसका अर्थ है-जो धर्म उसको समझे बिना वास्तव में भारतीय संस्कृति के दूसरे धर्म को बाधा पहुंचावे, दूसरे धर्म से रगड़ विकास को नहीं समझा जा सकता।' 55 डॉ० पैदा करे, वह धर्म नहीं, वह तो कुमार्ग है। धर्म कालिदास नाग का कथन है, “यदि किसी ने आज तो वह होता है, जो अन्य धर्म विरोधी न हो। महान परिवर्तन करके दिया है तो वह अहिंसा सिद्धान्त ही है। अहिंसा सिद्धान्त की खोज और इस विश्व में अनेक धर्म हैं। उन्हें मिटाकर प्राप्ति संसार की समस्त खोजों और प्राप्तियों से एक नहीं किया जा सकता। यह कथन उचित महान् है । मनुष्य का स्वभाव है नीचे की पोर नहीं है कि जब परमसत्य एक है, तो धर्म भी एक जाना, किन्तु जैन तीर्थ करों ने सर्व प्रथम यह होना चाहिए । फिर तो, परमब्रह्म एक है तो जीव बताया कि अहिंसा का सिद्धान्त मनुष्य को भी एक ही होना चाहिए। ऐसा होता नहीं। ऊपर उठाता है। दोनो ही भारत के प्रसिद्ध अथर्ववेद में ठीक ही लिखा है, 'जन विभृती विद्वान् हैं। उन्होंने हलके ढंग से नहीं लिख दिया बहुधा विवाचसं, नाना धर्माणं पृथिवरौ यर्थहै और न अभ्यास-वशात् ही लिखा है। उनके कसम ॥58 इसका अर्थ है--पृथ्वी बहुत से जनों कथन में सार्थकता है। यह सच है कि भारतीय को धारण करती है जो पृथक धर्मों के मानने वाले संस्कृति के विकास को समझने के पहले अहिंसा और भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले हैं । जगत ही को समझना अनिवार्य है। अर्थात् अहिंसा इस नहीं वस्तु तक नाना धर्मात्मक होती है। पदार्थ 2-54 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकधर्मात्मक है, एक धर्म रूप प्रमाणित नहीं लिखा कि सारे नैतिक समुत्थान में गक्तित्व का होता। तो, जगत और पदार्थों के नानात्व को समादर एक मौलिक महत्व रखता है। जैन दर्शन मिटाया नहीं जा सकता। के अनकांत का महत्व इसी आधार पर है कि उसमें व्यक्तित्व का सम्मान निहित है। जहां नाना धर्म रहेंगे और नाना जन रहेंगे। व्यक्तित्व का समादर होता है, वहां स्वभावतः अावश्यकता इस बात की है कि उनमें आपस में साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं रह सकती। प्रेमभाव हो । वह सहिष्णुता से उत्पन्न होता है। इस सदर्भ में महात्मा गान्धी का कथन इष्टव्य है, अन्यत्र उनका विचार है कि अनेकान्त और "इस समय अावश्यकता इस बात की नहीं है कि अहिंसा में कोई अन्तर नहीं है। उन्होंने लिखा, सबका धर्म एक बना दिया जाये, बल्कि इस बात "विचार-जगत् का अनेकांत दर्शन ही नैतिक जगत् की है कि भिन्न-भिन्न धर्म के अनुयायी और प्रमी में प्राकर अहिंसा के व्यापक सिद्धान्त का रूप परस्पर आदरभाव और सहिष्णुता रक्खें। हम धारण कर लेता है । इसीलिये जहाँ अन्य दर्शनों सब धर्मों को मृतवत् एक सतह पर लाना नहीं में परमत-खण्डन पर बड़ा बल दिया गया है, वहाँ चाहते बल्कि चाहते हैं कि विविधता में एकता जैन दर्शन का मुख्य ध्येय अनेकांत सिद्धान्त के हो। हमें सब धर्मों के प्रति समभाव रखना प्राधार पर वस्तुस्थिति-मूलक विभिन्न मतों का चाहिए। इससे अपने धर्म के प्रति उदासीनता नहीं समन्वय रहा है।"61 उत्पन्न होती, परन्तु स्वधर्म-विषयक प्रेम अन्धप्रेम न रहकर ज्ञानमय हो जाता है। सब धर्मो के अपरिग्रहवाद श्रमण संस्कृति का ऐसा सिद्धान्त प्रति समभाव पाने पर ही हमारे दिव्य चक्षु खुल है, जो आज के युग के लिये भी अनिवार्य है। सकते हैं। धर्मान्धता और दिव्य-दर्शन में उत्तर- जहाँ कालंमास का साम्यवाद मानव की विषमदक्षिण जितना अन्तर है ।''59 किन्तु यह समभाव तानों का भौतिकवादी समाधान है; वहां और सहिष्णुता कैसे उत्पन्न हो ? उसका एकमात्र अपरिग्रहवाद प्राध्यात्मिकता के आधार पर विषउत्तर है - अनेकांत । आज उसकी बहुत अधिक मतानों को सहज स्वाभाविक ढंग से नकार देता अावश्यकता है। उसे समय के अनुरूप रचनात्मक है। एक बाह्य है, दूसरा प्रान्तरिक । एक हलका रूप दिया जा सकता है, किन्तु शास्त्रीय परिवेश से है, दूसरा ठोस । एक में पूजीपतियों को कोई स्थान निकाल कर ही। नहीं, दूसरे में है । दूसरा मानव के प्रत्येक वर्ग और उसके स्वतन्त्र विचारों का समादर करता अनेकांत के सम्बन्ध में डॉ० मंगलदेवशास्त्री है । उसमें सबको स्थान है। वह साम्यवाद और का कथन है, "प्रत्येक तत्व में अनेकरूपता स्व. साम्यवादियों की भाँति दूसरों के विचारों पर भावतः होनी चाहिए और कोई भी दृष्टि उन । लदता नहीं। सबका एक साथ तात्विक प्रतिपादन नहीं कर . सकती। इसी सिद्धान्त को जैन दर्शन की परिभाषा अपरिग्रहवाद, अ+परिग्रह से बना है। परिमें अनेकांत कहा गया है। जैन दर्शन का तो यह ग्रह न करना इसका अर्थ है । परिग्रह का अर्थ है आधार स्तम्भ है ही, परन्तु वास्तव में प्रत्येक धन, जमीन और विभिन्न भौतिकवादी वस्तुओं का दार्शनिक विचारधारा के लिए भी इसको आवश्यक संग्रह । तीर्थकर पार्श्वनाथ ने स्त्री को भी परिग्रह मानना चाहिए।"60 एक दूसरे स्थान पर उन्होंने माना था । इसी कारण अपरिग्रहवाद में स्त्री-त्याग महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-55 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावश्यक था। अर्थात् अपरिग्रह में ब्रह्मचर्य नहीं कहलायेगा। भरत के सहस्रशः सुन्दर रानियां अन्तर्मुक्त था। किन्तु उसे समझदार ही समझ और सागर-पर्यन्त पृथ्वी का राज्य था, किन्तु पाते थे। महावीर के युग तक आते- प्राते यह उनके प्रति नितांत अनासक्त होने के कारण वे समझदारी नितांत समाप्त हो चली थी अतः घर में ही वैरागी कहलाते थे। जैन इतिहास में समय देख कर ही महावीर ने ब्रह्मचर्य का स्पष्ट ऐसे सहस्रशः दृष्टान्त हैं, जबकि कोई राजा-महाराजा और पृथक उपदेश दिया। अर्थात् पार्श्वनाथ के अपने भरे वैभव, भरे परिवार और भरे सैन्यबल अपरिग्रह का ही एक अश आगे चलकर ब्रह्मचर्य को तृणवत् त्याग कर जंगल की राह लेता था । के नाम से प्रसिद्ध हना। यहाँ उसके जीवन-भर के संकलन-संग्रह के प्रति अनासक्त भाव ही था । धन-सम्पत्ति हो और किन्तु, प्रश्न तो यह है कि जिस आदमी के उसके प्रति गहरी आसक्ति तथा चिपकन हो तो, पास जितनी अधिक स्त्रियाँ, धन-दौलत और वह संघर्षों को जन्म देगी और वैषम्य तथा राज्य-साम्राज्य होता था, वह उतना ही अधिक वर्गभेद उत्पन्न करेगी ही। कोई रोक नहीं पुण्यवान माना जाता था, सम्मानास्पद होता था- सकता । यदि ऐसा न हो, अर्थात् आसक्ति न हो जैसे 'चक्रवर्ती' । दूसरी ओर जैन धर्म का कथन है तो विषमताए जन्म ही न ले पायेंगीं। फिर वर्ग: कि अपरिग्रह के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। भेद का प्रश्न ही नहीं उठता । भेद तो रहता पाया फिर इस विरोधाभास का समाधान क्या है? है, आगे भी रहेगा, मिटाया नहीं जा सकता, वास्तविकता यह है कि संग्रह और संग्रह की भावना किन्तु सुख-दुख बराबर बांटे जा सकते हैं और दो भिन्न बातें हैं । यदि परिग्रह करते हुए भी कोई उन्हीं का बांटा जाना मुख्य है। अपरिग्रहवाद का उसके प्रति अनासक्त रहता है तो वह परिग्रही मूल रहस्य यही है। 1. देखिए त्रिलोकसार 792-793, 2. महापुराण, भगवज्जिनसेनाचार्य, 3/164. 3. शाश्वतकोष, 508. 4. मेंदिनीकोश, भ वर्ग 5. 5. देखिए श्रीमद्भागवत् 5/7/3. 6. स्कन्दपुराण, 1/2/37/55. 7. 'प्राचीन भारत का भौगोलिक स्वरूप', डा० अवधबिहारीलाल अवस्थी, कैलाश प्रकाशन, लखनऊ, सन् 1964, पृष्ट 123, परिशिष्ट 2. 8. मार्कण्डेयपुराणः साँस्कृतिक अध्ययन, डाँ० वासुदेवशरण अग्रवाल, पाद-टिप्परग संख्या 1, पृष्ठ 138. 9. अमरकोष 3/5/20. 10. सूरसागर, पंचम स्कंध, पृष्ठ 150-51. 2-56 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. श्रीमद्भागवत्, 5/3/20. 12. वही, 5/4/14. 13. श्रीमद्भागवत्, 5115/19. 14. वह', 1/17/22. 15. पुरुदेवचम्पू, 5131. 16. सुप्रभातस्तोत्र 17. महाभारत, शान्तिपर्व, 12/64/20. 18. महापुराण, 42/6. 19. ब्रह्माण्डपुराण, 2/14. 20. आदिपुराण, 16/243. 21. स्वयम्भू स्तोत्र, 1/3. 22. स्वयम्भू स्तोत्र, 23/3. 23. महापुराए, 161254. 24. आवश्यकचूरि, पृष्ठ 152. 25. आवश्यक नियुक्ति, गा० 186. 26. स्वयम्भू स्तो, 1/2. 27. ब्राह्मी च सुन्दरी चोभे कुमायौं धैर्यसङ गते । प्रव्रज्य बहुनारीभिरार्याणां प्रभुतां गते ।। हरिवंशपुराण, 9/217. 28. महापुराण, 16/104-109. 29. महापुराण, 16/118. 30. महापुराण, 16/119-25. 31. महापुराण, 16/242-46. 32. “इति नानायोगचर्यांचरणो भगवान् कैवल्यपतिः ऋषभः" -श्रीमद्भागवत्, 516164. 33. "वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमंथिनां ।” -श्रीमद्भागवत्, 513/20. 34. तत्वार्थसूत्र, 10/5. 35. बृहदारण्यकोपनिषद् 4/3/32. 36. शांकरभाष्य (बृहदा० 4/3/32). महावीर जयन्ती रमारिका 78 2-57 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. ब्रह्मोपनिषद्, चतुर्थ संस्करण, पृष्ठ 151, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई 38. ऋग्वेद, 10/8/94/11 39. हरिवंशपुराण, प्राचार्य जिनसेन, 9/217. 40. हरिवंशपुराण, आचार्य जिनसेन, 12142. 41. शाकटायनव्याकरण, चिंतामरिणटीका 1. 42. स्वयम्भू स्तोत्र, प्राचार्य समन्तभद्र, 1/4 43. स्वयम्भू स्तोत्र, प्राचार्य समन्तभद्र, 23/3. 44. 'भारतीय संस्कृति का विकास; औपनिषद्धारा', डॉ० मंगलदेव शास्त्री, पृष्ठ 180. 45. 'हजरत ईसा और ईसाई धर्म', पं० सुन्दरलाल, पृष्ठ 22. 46. 'उड़ीसा में जैनधर्म', ग्रन्थ प्रवेश, डा. नीलकंठदास, पृष्ठ 6. 47. भगवद्गीता 2/56. 48. 'भारतीय संस्कृति का विकासः औपनिषद् धारा', पृष्ठ 180. 49. 'भारतीय संस्कृति की परम्परा', बाबू गुलाबराय जौ, पृष्ठ 66. 50. 'भारतीय दर्शन', बाचस्पति गैरोला, पृष्ठ 86. 51. 'भारतीय इतिहास और संस्कृति', विशुद्धानन्द पाठक, पृष्ठ 199-200. 52. 'संस्कृति के चार अध्याय', रामधारी सिंह दिनकर, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 39. 53. Studies in Science of Comparative Religic ns', Page 13-15... 54. 'जैनधर्म की प्राचीनता पर महत्वपूर्ण सम्मतियाँ', पृष्ठ 1. 55. 'जैनदर्शन', पं० महेन्द्र कुमार जैन, बर्णी जैनग्रंथमाला, काशी, प्राक्क यन, डॉ. मंगलदेव शास्त्री लिखित, पृष्ठ 16. 56. 'जैन इतिहास पर लोकमत', मुनिश्री विद्यानन्द जी सम्पादित, पृष्ठ 31 57. महाभारत, वनपर्व, 131/11. 58. देखिए अथर्ववेद, 12/1/45. 59. गांधीवाणी, पृष्ठ 100-101. 60. जैनदर्शन, द्वि०स० 1966, प्राक्कथन, पृष्ठ 14, 61. वही, पृष्ठ 15. 2-58 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु के पश्चात् क्या घटित होता है यह एक रहस्य है । ब्रह्मवादी सबको ब्रह्म स्वरूप और ब्रह्म में लीन होना ही प्राप्य समझते हैं तो कुछ इसे बहा और माया के खेल मानते हैं । कोई प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति को ही अपना लक्ष्य निर्धारित करते हैं। कोई इस सृष्टि का नियन्ता ईश्वर को भानते हैं तो कोई उसका खण्डन करते हैं । फलस्वरूप सबके रहस्य अलगअलग हैं किन्तु इस अनेकता में भी एक अद्भुत एकता है । सभी इस जन्ममरण के चक्कर से छूट मुक्तिलाम करना चाहते हैं। सभी मानव जन्म को दुर्लभ मानते हुए अपने इष्ट की प्राप्ति के प्रयत्न में इसे लगा देने की सलाह देते हैं । रहस्यवादी कवि प्रायः प्रत्येक सम्प्रदाय में हुए हैं। जैन कवि भी किसी हालत में उनसे पीछे नहीं हैं । किन्तु हिन्दी संसार के सामने आज भी उनका मूल्यांकन होना बाकी है । वास्तव में जैनों की अवस्था उस व्यक्ति की सी है जिसके पल्ले में लाल है मगर वह उसका मूल्य और महत्व नहीं जानता। -पोल्याका - सगुण भक्तों की रहस्यभावना ● डा० पुष्पलता जैन ए. ए. (हिन्दी व भाषा विज्ञान), Ph. D. न्यू एक्सटेन्सन एरिया सदर, नागपुर सगुण साधकों में मीरा, सूर और तुलसी का न कोई" अथवा "गिरधर से नवल ठाकूर मीरां सी नाम विशेष उल्लेखनीय है । मीरा का प्रेम नारी दासी" जैसे उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि उन्होंने सुलभ समर्पण की कोमल भावना गभित 'माधुर्य गिरधर कृष्ण को ही अपना परम साध्य और भाव' का है जिसमें अपने इष्टदेव की प्रियतम प्रियतम स्वीकार किया है । सूर, नन्ददास आदि के के रूप में उपासना की जाती है। उनका कोई समान उन्हें किसी राधा की आवश्यकता नहीं सम्प्रदाय विशेष नहीं, वे तो मात्र भक्ति की साकार हुई । वे स्वयं राधा बनकर प्रात्मसमर्पण करती हुई भावना की प्रतीक हैं, जिसमें चिरन्तन प्रियतम के दिखाई देती हैं। इसलिए मीरा की प्रेमाभक्ति पाने के लिए मधुर प्राय का मार्मिक स्पन्दन पराभक्ति है जहां सारी इच्छायें मात्र प्रियतम हा है। "म्हारो तो गिरधर गोपाल और दूसरा गिरधर में केन्द्रित हैं । सख्यभाव को छोड़कर नवधा बहाबीर जयन्ती स्मारिका 78 2-59 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ति के सभी मंग भी उनके काव्य में मिलते हैं। मीरा विरहरिण सीतल होई, एकादश प्रासक्तियों में से कान्तासक्ति, रूपासक्ति दुख दुन्द दूर नसाया जी ।। मौर तन्मयासक्ति विशेष दृष्टव्य है । प्रयत्त भावना मीरा की तन्मयता और एकाकारता के दर्शन उनमें कूट-कूटकर भरी हुई है । उनकी आत्मा 'लगी मोहि राम खमारी हो' में मिलते हैं जहां वह दीपक की उस लौ के समान है जो अनन्त प्रकाश सदा लीन प्रानन्द' में रह कर ब्रह्मरस का पान में मिलने के लिए जल रही है । करती हैं। उनका ज्ञान और अज्ञान, प्रानन्द और सूफी कवियों ने परमात्मा की उपासना प्रिय विषाद एक में ही लीन हो जाता है । इसी के लिए तमा के रूप में की है। उनके प्रदतवाद में निजी तो उन्होंने पचरंगी चोला पहिनकर झिरमिट में सत्ता को परमसत्ता में मिला देनी की भावना आंख मिचौनी खेली है और मनमोहन से सोने में गभित है । कबीर ने परमात्मा की उपासना प्रिय- सुहागा-सी प्रीति लगायी है । बड़े भाग से मीरा के तम के रूप में की पर उसमें उतनी भाव-व्यञ्जना प्रभु गिरिधर नागर मीरा पर रीझे हैं । नहीं दिखाई देती जो मीरा के स्वर में निहित है। इसी माधर्य भाव में मीरा की चुनरिया प्रेममीरा के रंग-रंग में पिया का प्रेम भरा हुअा है रस की बूंदों से भीगती रही और आरती सजाकर जबकि कबीर समाज सुधार की ओर अधिक अग्र- सहागिन प्रिय को खोजने निकल पड़ी। उसे वर्षात सर हुए हैं। और बिजली भी नहीं रोक सकी। प्रिय को खोजने ___ मीरा की भावुकता चीरहरण और रास की में उसकी नींद भी हराम हो गई, अग-अंग व्यालीलाओं में देखी जा सकती है जहां वे “अाज कुल हो गये पर प्रिय की वाणी की स्मृति से अनारी ले गयी सारी, बैठी कदम की डारी, म्हारे "अन्तर वेदन विरह की वह पीड़ न जानी" गई । गेल पड़यो गिरधारी" कहती हैं । प्रियतम के मिलन जैसे चातक घन के बिना और मछली पानी के हो जाने पर मीरा के तन की ताप मिट जाती है बिना व्याकुल रहती है वैसे ही मीरा "व्याकुल और सारा शरीर हर्ष से रोमाञ्चित हो उठता है- विरहणी सुध बुध विसरानी” बन गई । उसकी पिया सूनी सेज भयावन लगने लगी, विरह से म्हाँरी अोलगिया घर आया जी, जलने लगी । यह निगुण की सेज एक ऊंची तनकी ताप मिटी सुख पाया, अटारी पर है, उसमें लाल किवाड़ लगे हैं, पंचरंगी हिलमिल मंगल गाया जी । झालर लगी है, मांग में सिन्दूर भरकर सुमिरण घन की धुनि सुनि मोर मगन भया, का थाल हाथ में लेकर प्रिया प्रियतम के मिलन यू प्राणन्द आया जी । की बाट जोह रही है-- मगन भई मिली प्रभु अपणाँसू, भौ का दरद मिटाया जी ॥ ऊची अटरिया लाल क्विड़िया, चंद को देखि कमोदरिण फूल, निर्गुन सेज बिछी। हरखि भया मेरी काया जी । पंचरंगी झालर सुभ सोहे, रग रग सीतल भई मेरी सजनी, फूलन फूल कली। हरि मेरे महल सिधाया जी ।। बाजूबंद कडूला सोहै. सब भगतन का कारज कीन्हा, मांग में सिन्दूर भरी । सोई प्रभु मैं पाया जी । सुमिरण थाल हाथ में लीन्हा, 2-60 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोभा अधिक भली । भिन्न नहीं है। डॉ. मुन्शीराम शर्मा ने वेद, सेज सुखमणां मीरा सोवै, पुराण, तन्त्र और प्राधुनिक विज्ञान के आधार सुभ है प्राज घड़ी। पर यही निष्कर्ष निकाला है कि 'हरि लीला आत्म शक्ति की विभिन्न क्रीड़ानों का चित्रण है । 4 राधा, जिनका प्रियतम परदेश में रहता है उन्हें कृष्ण, गोपी आदि सब अन्तः शक्तियों के प्रतीक पत्रादि के माध्यम की आवश्यकता होती है पर हैं। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी के अध्ययन का मीरा का प्रिय तो उसके अन्तःकरण में ही वसता है, उसे पत्रादि लिखने की आवश्यकता ही नहीं । निष्कर्ष है कि "रहस्यवादी कविता का केन्द्रबिन्दु है। वह वस्तु हैं जिसे भक्ति साहित्य में 'लीला' कहते रहती । सूर्य, चन्द्र आदि सब कुछ विनाशीक है । यद्यपि रहस्यवादी भक्तों की भांति पद-पद पर यदि कुछ अविनाशी है तो वह है प्रिय परमात्मा, भगवान का नाम लेकर भाव-विह्वल नहीं हो जाता सुरति और निरति के दीपक में मन की वाती परन्तु वह मूलतः है भक्त ही। ......"ये भगवान और प्रेम-हटी के तेल से उत्पन्न होने वाली ज्योति अगम अगोचर तो हैं ही, वाणी और मन के भी अक्षण्ण रहेगी-- अतीत हैं, फिर भी रहस्यवादी कवि उनको प्रतिजिनका पिया परदेश वसत है, दिन प्रतिक्षरण देखता रहता है ""संसार में जो लिख लिख भेजें पाती । कुछ घट रहा है और घटना सम्भव है, वह सब मेरा पिया मेरे हीय वसत है, उस प्रेममय की लीला है " भगवान के साथ यह ना कहूं आती जाती ॥ निरन्तर चलने वाली प्रेम केलि ही रहस्यवादी चन्दा जायगा सूरज जायगा, कविता का केन्द्रबिन्दु' है । अतः मीरा की प्रेमजायगा धरणि अकासी। भावना में 'लीला' के इस निगुणत्व-निराकारत्व पवन पानी दोनों हूं जायगे, तक और कदाचित् उससे परे भी प्रसारित सरस अटल रहै अविनाशी ।। रूप का स्फूरण होना अस्वाभाविक नहीं है। सुरत निरत का दिवला संजोले, आध्यात्मिक सत्ता में विश्वास करने वाले की दृष्टि मनसा की कर ले बाती। से यह यथार्थ है, सत्य है । पश्चिम के विद्वानों के प्रेम हटी का तेल मंगाले, अनुकरण पर इसे 'मिस्टिसिज्म' या रहस्यवाद जग रह्या दिन से राती ।। कहना अनुचित है । यह केवल रहस् (प्रानन्दमयी सतगुरु मिलिया संसा भाग्या, लीला) है और मीरां की भक्ति-भावना में इसी सैन बताई सांची। 'रहस्' का स्वर है । ना घर तेरा ना घर मेरा, गावै मीरा दासी ॥ सूर और तुलसी दोनों सगुणोपासक हैं पर अन्तर यह है कि सूर की भक्ति सख्य भाव की डॉ० प्रभात ने मीरा की रहस्य भावना के है और तुलसी की भक्ति दास्य भाव की। सन्दर्भ में डॉ. शर्मा और डॉ. द्विवेदी के कथनों का इसी तरह मीरा की भक्ति भी सूर और तुलसी, उल्लेख करते हुए अपना निष्कर्ष दिया है। निगुण दोनों से पृथक् है। मीरा ने कान्ताभाव को अपभक्त बिना बाती, बिना तेल के दीप के प्रकाश में नाया है। इन सभी कवियों की अपेक्षा रहस्यपारब्रह्म के जिम खेल की चर्चा करता है, वह भावना की जो व्यापकता और अनुभूतिपरकता मूलत: सगुण भक्तों की हरि लीला' से विशेष जायसी में है वह अन्यत्र नहीं मिलती। कबीर को महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-61 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्गुण अथवा सगुण के घेरे में नहीं रखा जा सकता। उन्होंने यद्यपि निगुणोपासना अधिक की है पर सगुणोपासना की ओर भी उनकी दृष्टि गई हैं । उनका उद्देश्य परिपूर्ण ज्योति रूप सत्पुरुष को प्राप्त करना रहा है। सूर की मधुर भक्ति के सम्बन्ध में डॉ० हरवंशलाल शर्मा के विचार दृष्टव्य हैं---"हम भक्त सूरदास की अन्तरात्मा का अन्तर्भाव राधा में देखते हैं । उन्होंने स्त्रीभाव को तो प्रधानता दी है परन्तु परकीया की अपेक्षा स्वकीया भाव को अधिक प्रश्रय दिया है और उसी भाव से कृष्ण के साथ घनिष्टता का सम्बन्ध स्थापित किया है । कृष्ण के प्रति गोपियों का ग्राकर्षण ऐन्द्रिय है, इसीलिए उनकी प्रीति को काम रूपा माना है । सूर की भक्ति का उद्देश्य भक्त को संसार के ऐन्द्रिय प्रलोभनों से बचाना है, यही कारण है कि उनकी भक्ति भावना स्त्री- भाव से ओतप्रोत है जिसका प्रतिनिधित्व गोपियां करती हैं। वे कृष्ण में इतनी तल्लीन हैं कि उनकी कामरूपा प्रीति भी निष्काम है । इसलिए संयोग-वियोग दोनों ही अवस्थात्रों में गोपियों का प्रेम एक रूप है । प्रात्मसमर्पण और अनन्यभाव मधुर भक्ति के लिए आवश्यक है जो सूरसागर की दान लोला, चीरहरण और रास लीला में पूर्णता को प्राप्त हुए हैं। सगुणोपासना में रहस्यात्मक तत्वों की अभिव्यक्ति इष्ट के साकार होने के कारण उतनी स्पष्ट नहीं हो पाती । कहीं-कहीं रहस्यात्मक अनुभूति के दर्शन अवश्य मिल जाते हैं। सूर ने प्र ेम की व्यंजना के लिए प्रतीक रूप में प्रकृति का वर्णन रहस्यात्मक ढंग से किया है । जो उल्लेखनीय है- चल सखि तिहि सरोवर जाहि । जिहिं सरोवर कमल कमला रवि बिना विकसाहि । हंस उज्ज्वल पंख निर्मल, अॅग मलि मलि न्हाहिं । 2-62 मुक्ति-मुक्ता अनगिने फल, तहां चुनि त्रुनि खांहि । 9 सूर की अन्योक्तियों में कहीं कहीं रहस्यात्मक अनुभूति के दर्शन होते हैं चकई री चल चरन सरोवर, जहां न मिलन विछोह । एक अन्य स्थान पर भी सूर ने सूरसागर की भूमिका में अपने इष्टदेव के साकार होते हुए भी उसका निराकार ब्रह्म जैसा वर्णन किया है विगत गति कछु कहत न आवै । ज्यों गू गे मीठे फल को, रस अन्तरगत ही भावै ॥ परम स्वाद सबहीं सु निरन्तर, अमित तोष उपजावै । मन वानी को अगम अगोचर, सो जाने जो पावै ॥ रूप रेख गुन जाति जुगति बिन निरालंब मन धावं । सब विधि अगम विचारहि ताते सूर सगुन पद पावें ॥30 सूर के गोपाल पूर्ण ब्रह्म हैं। मूल रूप में वे निर्गुण हैं पर सूर ने उन्हें सगुण के रूप में ही प्रस्तुत किया है । यद्यपि सगुण और निर्गुण, दोनों का आभास मिल जाता है । तुलसी भी सगुणोपासक हैं पर सूर के समान उन्होंने भी निर्गुण रूप को महत्व दिया है । उनको भी केशव का रूप अकथनीय लगता है- केशव ! कहि न जाइ का कहिये । देखत तव रचना विचित्र हरि ! समुझि मनहिं मन रहिये || सून्य भीति पर चित्र, रंग नहि, तमु बिनु लिखा चितेरे । धोये मिटइ न मरइ भीति, महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुख पाइन एहि तनु हेरे । कि सूर और तुलसी का साध्य प्रत्यक्ष और साकार रविकर-नीर बस अति दारुन, रहा । मीरा का भी, परन्तु सगुण भक्तों में कान्ता मकर रूप तेहि माहीं। भाव मीरा में ही देखा जाता है इसलिए प्रेम की बदन-हीन सो ग्रस चराचर, दीवानी मीरा में जो मादकता है वह न तो सूर पान करन जे जाहीं। में है और न तुलसी में और न जैन कवियों में । कोऊ कह सत्य, भूठ कह कोउ, यह अवश्य है कि जैन कवियों ने अपने परमात्मा जुगल प्रबल कोउ मान । की निगुण और सगुण, दोनों रूपों की विरहतुलसीदास परिहर तीन भ्रम, वेदना को सहा है। एक यह बात भी है कि सो आपन पहिचान ।11 मध्यकालीन जैनेतर कवियों के समान हिन्दी जैन कवियों के बीच-निर्गुण अथवा सगुण भक्ति तुलसी जैसे सगुणोपासक भक्त भी अपने शाखा की सीमा-रेखा नहीं खिवी। वे दोनों आराध्य को किसी निणोपासक रहस्यवादी साधक अवस्थाओं के पुजारी रहे हैं क्योंकि ये दोनों से कम रहस्यमय नहीं बतलाते । रामचरित मानस में उन्होंने लिखा है ---- अवस्थायें एक ही आत्मा की मानी गई हैं। उन्हें ही जैन पारिभाषिक शब्दों में सिद्ध और अर्हन्त "प्रादि अन्त कोउ जासु न पावा । कहा गया है। मति अनुमानि निमम जस गावा ।। बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। ___ मौरा की तन्मयता और एकाकारता कर बिनु करम करइ विधि नाना ॥" बनारसीदास और आनन्दवन में अच्छी तरह से देखी जाती है । रहस्य साधना के बाधक तत्वों में इस प्रकार सगुणोपासक कवियों में मीरां को माया, मोह प्रादि को भी दोनों परम्पराओं ने छोड़कर प्रायः अन्य कवियों में रहस्यात्मक तत्वों समान रूप से स्वीकार किया है। साधक तत्वों में की उतनी गहरी अनुभूति नहीं दिखाई देती। से इन भक्तों में भक्ति तत्व की प्रधानता अधिक इसका कारण स्पष्ट है कि दाम्पत्यभाव में प्रेम रही है। भक्ति के द्वारा ही उन्होंने अपने आराध्य की जो प्रकर्षता देखी जा सकती है वह दास्य भाव को प्राप्त करने का प्रयत्न किया है । यही उनकी अथवा सख्य भाव में संभव कहाँ ? इसके बावजूद मुक्ति का साधन रहा है। उनमें किसी न किसी तरह साध्य की प्राप्ति में उनकी भक्ति सक्षम हुई है और उन्होंने परम ब्रह्म साधना का पथ सुगम बनाने और सुझाने के की अनिर्वचनीयता का अनुभव किया है। सन्दर्भ में जैन एवं जैनेतर सभी सन्तों और भक्तों ने गुरु की महिमा का गान किया है। मीरा के सगुण रहस्य भावना और जैन रहस्य भावना--- हृदय में कृष्ण प्रेम की चिनगारी बचपन से ही जैसा हम पीछे देख चुके हैं सगुण भक्तों ने विद्यमान थी। उसको प्रज्ज्वलित करने का श्रेय भी ब्रह्म को प्रियतम मानकर उसकी साधना की उनके गुरु रैदाम को है जो एक भावुक भक्त है । जैन भक्तों ने भी सकल परमात्मा का वर्णन एवं प्रेमी सन्त थे । मीरां के गुरु रैदास होने में किया है जो सगुण ब्रह्म का समानार्थक कहा जा कुछ समालोचक सन्देह व्यक्त करते हैं। जो भी हो, सकता है। मीरा में सूर और तुलसी की अपेक्षा मीरा के कुछ पदों में जोगी का उल्लेख मिलता है रहस्यानुभूति अधिक मिलती है। इसका कारण है जिसने मीरा के हृदय में प्रेम की चिनगारी महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-63 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 बोई । 12 - जैन साधकों ने भी मीरां के समान गुरु(सद्गुरु की महत्ता को साधना का मार्ग प्रशस्त बनाने के सन्दर्भ में अभिव्यंजित किया है । अन्तर मात्र प्रेम की चिनगारी प्रज्ज्वलित करने का है। मीरा का प्रेम माधुर्य भाव का है जिसमें कृष्ण की उपासना प्रियतम के रूप में की है । इससे अधिक सुन्दर सम्बन्ध की कल्पना हो भी नहीं सकती । विरह और मिलन की जो अनुभूति और अभिव्यक्ति इस माधुर्य भाव में खिली है वह सख्य और दास्य भाव में कहाँ । इसलिए मीरां के समान ही जैन कवियों ने दाम्पत्यमूल भाव को ही अपनाया है । मीरा प्रियतम के प्रेम रस में भीगी चुनरिया को प्रोड़कर साज शृंगार करके प्रियतम ढूंढने जाती हैं उसके विरह में तड़पती है । इस सन्दर्भ बारहमासे का चित्रण भी किया गया है । सारी सृष्टि मिलन की उत्कण्ठा में साज सजा रही है परन्तु मीरां को प्रियतम का वियोग खल रहा है । प्राखिर प्रियतम से मिलन होता है । वह तो उसके हृदय में ही बसा हुआ है वह क्यों यहां वहां भटके | यह दृढ़ विश्वास उसे हो जाता है । उस अगम देश का भी मीरा ने मोहक वर्णन किया है । जैन साधकों की आत्मा भी मीरां के समान अपने प्रियतम के विरह में तड़पती है । 14 भूधरदास की राजुल रूप आत्मा अपने प्रियतम नेमिश्वर के के विरह में मीरां के समान ही तड़पती है । 15 इसी सन्दर्भ में मीरा के समान बारहमासों की भी 2-64 2- वही, पृ० 222 3. मीरा पदावली, पृ० 20 सर्जना हुई है । 10 प्रियतम से मिलन होता है और उस आनन्दोपलब्धि की व्यंजना मीरां से कहीं अधिक सरल बन पड़ी है ।17 सूर और तुलसी यद्यपि मूलतः रहस्यवादी कवि नहीं हैं फिर भी उनके कुछ पदों में रहस्यभावनात्मक अनुभूति झलकती है जिनका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं । 1. भीजें चुनरिया प्रेमरस बून्दन । आरत साजकै चली है सुहागिन पिय पिय अपने को ढूढ़न ॥ मीरा की प्रेम साधना, पृ० 218 इस प्रकार सगुण भक्तों की रहस्य भावना जैन धर्म की रहस्य भावना से बहुत कुछ मिलतीजुलती है । जो अन्तर भी है, वह दार्शनिक पक्ष की पृष्ठभूमि पर आधारित है । साधारणतः मुक्ति के साधक और बाधक तत्वों को समान रूप से सभी ने स्वीकार किया है। संसार की असारता और मानव जन्म को दुर्लभता से भी किसी को इन्कार नहीं । प्रपत्ति भावना गर्भित दाम्पत्यमूलक प्रेम को भी सभी कवियों ने हीनाधिक रूप से अपनाया है । परन्तु जैन कवियों का दृष्टिकोण सिद्धान्तों के निरूपण के साथ ही भक्तिभाव को प्रदर्शित करता रहा है। इसलिए जैनेतर कवियों की तुलना में उनमें भावुकता के दर्शन उतने अधिक नहीं हो पाते । फिर भी रहस्य भावना के सभी तत्व उनके काव्य में दिखाई देते हैं । तथ्य तो यह है कि दर्शन और अध्यात्म की रहस्य - भावना का जितना सुन्दर समन्वय मध्यकालीन हिन्दी जैन कवियों के काव्य में मिलता है उतना अन्यत्र नहीं । साहित्य-क्षेत्र के लिए उनकी यह एक अनुपम देन मानी जानी चाहिये । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. भारतीय साधना और सूरदास, पृ० 208 5. साहित्य का साथी, पृ० 64 6. मीराबाई, पृ० 405 7. वेद कहे सरगुन के आगे निरगुरण का बिसराम । सरगुन-निरगुन तजहु सोहागिन, देख सबहिं निजधाम सुख दुख वहा कछू नहीं व्याप, दरसन पाठों जाम । नूरै ग्रोहन नूरै डासन, नूरै का सिरहान । कहै कबीर सुनो भई साधो सतगुरु नूर तमाम ॥ कबीर- डॉ हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ० 275 8. सूर और उनका साहित्य, पृ० 245 9. सूरसागर, 339 10. वही, स्कन्द 1, पद 2 11. विनयपत्रिका, 111वां पद 12. जोगिया कहां गया नेहड़ी लगाय । छोड़ गया बिसवास संघाती प्रेम की बाती बराय । मीरा के प्र' कब रे मिलोगे तुम बिन रह्यो न जाई ॥ मीरा की प्रेम साधना, पृ. 168 13. दिन दिन महोत्सव अति घृणा, श्री संध भगति सुहाइ । ___ मन सुद्धि श्री गुरुसेवी यह, जिणि सेव्यइ शिव सुख पाइ ।। जैन ऐतिहासिक काव्य संग्रह -कुशल लाम-53वां पद । 14. अध्यात्म गीत, बनारसी विलास, पृ० 159-60 15. भूधरयिलास, 45वां पद पृ० 25 16. कवि विनोदीलाल-बारहमासा संग्रह, कलकत्ता, 42वां पद्य, पृ० 24; लक्ष्मीबल्लभ नेमि-राजुल बारहमासा, पहला पद्य 17. अानन्दधन पद संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल बम्बई, चौथा पद, पू० 7 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-65 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्म शान्ति को छू न सकेंगी नभ छूती उल्काएँ कविवर श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' रामपुर । रत्न जड़ित, चन्दन मण्डित, सिंहासन भटकाते हैं जो इनके स्वामी हैं, पात्मिक-शान्ति वही पाते हैं चिर प्रसृप्त तृष्णा के पथ पर चरण फिसल जाते हैं यही जन्म जन्मातर, भव भव में चक्कर खाते हैं इन माया-मरीचिकाओं में गभित दुर्घटनाएं सन्मति के सन्देशों में, बहती सुख को सरिताएँ (2) निर्धन धन की चमक देखकर, धन पर ललचाता है किन्तु न धन का कुटिल, भीतरी रूप समझ पाता है धन का चक्र-व्यूह, ईर्ष्या, तृष्णा को जन्माता है शान्ति, प्रेम, विश्वास, धनी से दूर चला जाता है मन पर जमे कोहरों को, परते तत्काल हटाएँ सन्मति के सन्देशों में बहती सुख की सरिताएँ (3) दर्प, श्रेष्ठता घमण्ड, संतुलन नहीं देते हैं चचित-मानवीयता को, यह बरबस हर लेते हैं जो एकाधिकार पर रीझे कभी नहीं चेते हैं वही सफल हैं जो असफल की नैया को खेते हैं मानवता को अपनाएं भेड़ियावाद ठुकरायें सन्मति के सन्देशों में बहती सुख की सरिताएँ shootcho त्याग-तपस्या मय जीवन के पथ में शूल नहीं है राजनीति का ताण्डव, आत्मा के अनुकूल नहीं है काम वासनानों में मिलता, शिव का कूल नहीं है फल, वह वृक्ष नहीं देता, जिसका जड़मूल नहीं है अात्म शान्ति छू को न सकेंगो नभ छूती उल्काएँ सन्मति के सन्देशों में बहती सुख की सरिताएं 2-66 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- * * ** ** ॐ** लेखक इतिहास का विद्वान् नहीं हैं। अपने सीमित ज्ञान और साधनों के बल पर उसने इसे बहुत कम समय में तैयार किया है । लेखक खण्डेलवाल है और अपनी जाति के इतिहास से परिचित होने की उसकी स्वाभाविक इच्छा है। लेखक की दृष्टि में खण्डेलवालों से सम्बन्धित ऐसी सामग्री है जिसका प्रयोग करके 20X30/8 के आकार के कम से कम 2000 पृष्ठों का इतिहास तो तैयार किया ही जा सकता है लेकिन सहयोग और प्रेरणा शर्त है । जयपुर के कई मन्दिरों में पैसा है और ऐसे क्षेत्रों के कार्यालय हैं जो खण्डेलवालों के हाथ में हैं, जिनकी लाखों रुपया वार्षिक की प्राय है, लेकिन वे या तो मन्दिरों में सोना मढवाते हैं या अनावश्यक इमारतें बनाते हैं । ऐसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए उनके पास पैसा नहीं है । वे या तो इसका महत्व नहीं जानते या उन्हें प्रापसी झगड़ों से ही फुरसत नहीं है। प्रस्तु, विद्वानों से हमारा निवेदन है कि वे लेखक का त्रुटियों की ओर ध्यान दिलावें । एतदर्थ उनका प्राभार और सुझावों का स्वागत होगा इसी पवित्र भावना के साथ -पोल्याका *** ** ** ** - खण्डेलवाल श्रावकों की उत्पत्ति * भंवरलाल पोल्याका, जैनदर्शनाचार्य, साहित्य शास्त्री, जयपुर। खण्डेलवाल श्रावक जिन्हें 'सरावगी' के नाम कोई प्रयत्न नहीं किया गया। जाति के इतिहास से भी अभिहित किया जाता है, जैनों की एक बहुत का अपना एक महत्व है। वह घटनाओं द्वारा महत्वपूर्ण जाति है, न केवल संख्या की दृष्टि से हमारे में हेयोपादेय का भेदविज्ञान जागृत करता ही इसका महत्व है अपितु, बड़े बड़े त्यागी तपस्वी है । जैनों की अन्य जातियों ने अपने अपने छोटे श्रीमान् धीमान इस जाति में हुए हैं और वर्तमान बड़े इतिहास प्रकाशित किए हैं किन्तु खण्डेलवाल में हैं। राजनीतिज्ञों में भी संख्या की दृष्टि से श्रावक जाति का इस प्रोर कभी कोई प्रयत्न या इसका प्रतिशत अधिकतर ही निकलेगा। खेद है तो हुग्रा ही नहीं या हुआ तो सम्वत् प्रादि का कि ऐसी जाति के इतिहास लेखन का आज तक घटना विशेष से तारतम्य न बैठने के कारण उसे Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोड़ दिया गया । बड़े बड़े विद्वानों ने यहां तक लिखने का साहस किया कि पुराने गुटकों इत्यादि में जो खण्डेलवाल जैनों की उत्पति आदि के सम्बन्ध में सामग्री प्राप्त होती है इतिहास से वह प्रमाणित नहीं होती श्रतः प्रविश्वसनीय तथा कपोलकल्पित है । हमारे पास सम्वत् 1879 के साल में लिखा 5.8 x 5.8 की साइज की सांगानेरी कागज पर लिखी हुई एक पुस्तक है जिसके प्रत्येक पृष्ठ में 16 पंक्तियां हैं । पृष्ठ के दोनों ओर 7" का हासिया छोड़ा गया है । कुल 15 पृष्ठ हैं जिसमें प्रतिम पृष्ठ का बांयी ओर का भाग खाली है । इस पृष्ठ पर काली स्याही गिर गई है फिर भी अक्षर पड़ने श्राते हैं । इसके खण्डेलवालों के उत्पत्ति सम्बन्धी प्रारम्भिक प्रश इस प्रकार हैं खडेल. 'श्री वीतरागाय नमः अथ चोरासी जाति लिखते 1 सहर खेडेलो खंडेलगिर चोहान "न्याति मैं आधी मैं तो खंडेलवाल व्रीह्मण।। आधी मै खंडेलवाल महाजन । ती प्राधी में खंडेलवाल महश्री || आधी मैं खडेलवाल श्रावक ती श्रावका को बोरो क ् छु । सहर खंडेलो खंडेलगिर चोहान राज करैति सहर कोस 22 का फेर में बसें ॥ अर कोडी धज कोट मै बाईस हजार बसे 22000 पर नो से देहरा जैन का 900 कस्म मलवाइ धकल हूवो अधिको । तब राजा पण्डितां नै बुलाइ बुझो जो दिखल कदि मिटै । तदि पंडिता कही बारा बरस ताई रहसी । तब राजा कही प्रजा "छीजि जासी । कोइ पुन्य को उपाय करौ तदि ब्राह्मण कही ज नरमेद जग्य करो || राजा कही कुरण वह || तदि ब्रामरण कही ज येक सो येक 101 श्रादमी होमिजे ॥ तदि होम की तयारी करि राखी सौदई जोग करि जती 500 नगन मुद्रा धार्या न ॥ जया को अखाडो बाग मे श्राइ उतरी । तदि पंडितां राजा का बीना हूकम एक सोयेक 101 जती होया ।। तदि पाप करि सहर मैं मलवाइ घरणी हुई। गरीब धरणा छीज्या । सतरा 2-68 हजार तो 17000 कोडी धज मुवात्या को पाली देवो न रहौ ॥ तत्र भाग नगर सु भटारक अपराजित पदांकित नामा जसोभद्रजी जिनसेनजी चेला ने वीदा कीयो । जो खंडेले घरणो पाप हूवो || सहर खाली हंसी सो थे जाय पाप काटो सहर बचै || सो जिनसेनजी आदिपुराण का करता है । सो श्री भटारकजी का भेज्या जिन सेनजी खंडेले प्राय्या || सो म्हाजन सहर का छा त्याने जुदो ही गुढ़ौ करि दे श्रर देवी चक्रेश्वरी प्राराधि कार रछ्या दीनी ॥ यों करि जती म्हाजन छा सो सारा बच्या येता ही में खंडेलगिर चोहाण राजा छोती कै गोल नीकली || राजा मरवा समान हूवो || तब राजलोक रणवास छो त्या घरो ही जतन कीयो सो न लाग्यो | तब राजा ने जती नखे म्हाजना का गुढा में ले गया || सो जती को दरसरण करता ही नीका हूवो || सावधान हूवो ॥ अर जती न राजा बुझी जो येती प्रजा छीजी सो सबब काई तब जिनसेनजी कही जो जतीश्वा को होम हूवो छौतीको सारो बोरो कहाँ || जो पंडिता करि जग में मोटो पा हूवो मे राजा जाणो नहीं ॥ ती करि येतो सहर में दखल हूवो || तब राजा कही ग्रब असो उपदेस दो ती करि म्हारो पार कटै र सहर बसतो होय ॥ तत्र राजा ने जिनसेनजी जैन उपदेस दीयो राजा कबूलि कीयो राजपूत राह छोडि जैन राह पकड़ी जैनी हुवी र चौगडदा का प्रोर भाई बेटा 81 इक्याती गावाका स्वावद छा सो भी जैन राह पकड़ जैसी हूवा सो गावाक नाय गोत कहाय्या | खंडेला का धरणी साह हूबो श्रोर गाव का धरणी छा सो तिस तस पकड्या || चोहाण को राज छो सो गांव 81 मे रजपुत सरलाख 300000 धरम जैनी हूवा ॥ और जो चोहाण का भाई 14 ताकै जैवी हूवा ॥ गोत गह्या ताकि चक्रेश्वरी साहि करी ॥ सो चक्रेश्वरी कुलदेव्या भाई चोदा के हुई सौ महावीरजी सु. संवत 490 पार्छ जसोभद्र लघु सिष्य जिनसेनजी खंडेले प्राय जैनी कोया गोत्र महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............ 14 येकस महावीरजी सू बरस 490 विक्रम सीतांवर घणा दिन ताई वन मै ले जाइ प्रहार सु संवत् 2 प्रथम गोत्र साहै ॥ बंस सोम कुल कीयो पाछै भद्रभावजी दुरसीस दीनी ..........।' चौहाण उतन खंडेलगिर कुलदेव्या चक्रेश्वरी ।।१।। दुमरो गौत्र विक्रम सू संवत 3 गोत्र भाव- इतना ही अश यहां दिया जा रहा है। प्रागे सौ वंस सोम कुल चोहाण उतन भावसौ लेख के विस्तार भय से यहां नहीं दे रहे हैं । राज्ये श्री भावस्यंघ जी कुलदेव्या चक्रे सुरी ॥2॥ इसके संवत् प्रादि यद्यो गलत मालूम देते हैं किन्तु निम्न बातें सष्ट हैं। इस तरह आगे भी विक्रम संवत् 6 तक 1. खण्डेल में खंडेलगिर नामका चौहान राजा था। 14 गोत्र बताने के पश्चात् मागे लिखा है 2. उस समय वहां विदेशियों का दिखल (कब्जा) 'इ तरह जिनसेनजी या नै जैनी कीय्या ।। हो गया था। प्राग छ उतपत्ति जसोभद्र जी के बार सर्व एक छा। 3. चौहानों को जैनी आदिपराण के कर्ता जिनसो जसोभद्र जी जैन धरम को विदमारण जाणि सरब सेनजी ने बनाया था। सिद्धि जति जना मै कही जो खंडेले उतपात हमारे सामने जयपुर के साह परिवार वालों हवो सो अब कोई जावो तब सगला कही ज त्या की एक छपी हुई वंशावली है जिसमें इस प्रकार न श्री गुर आप पाग्या दे सो जाव सो श्री गुर लिखा है-- आग्या तो और ही न करी छी ।। पर जिनसेनजी उनमत थको होय कही जो खडेल ह जास्यौं । तब पुराने सरकारी रेकार्ड के आधार पर सबल पण आग्या बिना ही गमन कीयो ।। तदि खेडेले (खंडेले ?) जैनी हुग्रा ती को अहवाल सिखि छा त्या बोचारी जो उनमत होय करि गयौ संवत् 110 के साल खंडेलेगिर चौहाण जैनी हुमा सो जिनसेनजी खडेलं जाइ अर खडेलवाल म्हाजन जिनसेनाचार्यजी का उपदेश सू, राजा को गोत छा सरेष्ठी त्या मै प्राय वाकी रख्या करी ।। अर साह कहायो पाछे सम्वत् 782 की साल खंडेलो राजा खंडेलगीर की गोली मेटी ।। सो खडेलगिर छुट्यो, अभैरामजी हीरानन्द जी जात्रा गिरनारजी आदि भाइ 14 तो जैती कीय्या ।। तैठा पाछै जिन- रिखबदेवजी की कर चीतोड रावल रतनसीजी सू सेनजी काल वास हवा तैठा पाछै गोत्र नत्र धौ मिल्या, गांव इजारे कीयां पाछै सम्वत् 992 के खंडेल गिर आदि भाई चौदा तो जैनी कीय्या गोत साल ऊठां सू रायमलजी ऊठ्या, सो घटाली बांध्यौ ।। पाछै बाकी गो औरा औरा प्राचार्या पाया, कीलणदी वालणदेव सोलखी घंटाली का प्रतिवोध्या गोत्र 84 परजति खंडेला का गावयु ठाकूर त्यासू गांव इजारे लिया सो सं 1656 की श्रावका मटारक आपणा कीय्या ॥ जसोभद्र जी साल छाज साह जी घटाली सूचाटसू पाया, पर पाछै जिनसेनजी ही गाव मै रह्या। जसोभद्र जी राजा मानसिंहजी सूमिल्या । ताइतो वनवासी छा पाछै भद्रभावजी पाट बैठ्या ‘सगला जत्यां प्राग्या मानी पर प्राइ नम्पा परिण पुराने रेकार्ड के आधार पर जिनसेनजी पाग्या तो मानी पणि हजुरी न प्रथम साह उहडणजी तींको बेटो दूल्हजी गग्या ।। तैठा सुगछ विरोध ह्वता गम्या ।। पण तीको बेटो लाखो, तीकों बेटो खींवसी तीको भद्रभावजी ताई भी वनबासी रह्या ।। पर काल्हाजी तींको बेटो सरवण तीको बेटो बोपतजी महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2069 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीको बेटो छाजू साह घटावली सू विसर कियो उठकर घटाली आना लिखा है । उस समय उनके ती पाछै महाराजाधिराज श्री मानसिंहजी बुलाया पिता छाजू साह जीवित थे जिनको 1656 में तहि महाराजजी से मिल्या ती परि म्हेंला कोट मान सिह जी ने बुलाया। अमै रामजी हीरानन्दजी को चोक कस्बा चाकसू को काढ़ी कोटड़ी बंधाय चीत्तौड़ आए तब से लेकर घटाली या घटावली वास करायो और जमीन इनाम में दीघा 500 पाने तक का समय 295 वर्ष होता है । उहडणजी बक्सी, अर यो मुरातिब बकस्यो, जो थांने वा थांकी से रायमल तक नौ पीढ़ियां होती हैं जिनका औसत वस्ती का ने वाछ विराड फरो माफ कीयो फरो 33 वर्ष प्रति पीढ़ी आता है जो अधिक नहीं है । नहीं साबक माफ, पर थाँकी कोटड़ी खूनी अगर अभै राम हीरानन्द के पश्चात् और उहडण (कोणे?) तक सीदी आ जावे । तीने राज ल्यासी के बीच एक दो पीढियां और गायब हों तो यह नहीं, कस्बा चाकसू में इन्साफ होसी सो थांकी औसत और भी कम हो जायगा। वंशावली में कोटड़ी होसी, अर परगना का गांवा का होली रायमल के पोतों के पश्चात् उसके वंश का कुछ दसेरा की भेंट साहजी की करता रहसी ।। पता नहीं चलता । शायद यह वंश घटावली में ही रहता रहा या समाप्त हो गया । इसमें सम्वत् से पूर्व विक्रम नहीं लिखा है और यदि यह पता चल जावे कि ये कौन से संवत् हैं चौहानों का राज्य प्रारंभ में नागौर में था। तो आसानी से इसकी ऐतिहासिकता की जांच की वहां से शाकम्भरी (साँभर) और शाकम्भरी से जा सकती है। मानसिंहजी वाला संवत् 1656 अजमेर आया । विक्रमी है जो सही है क्योंकि संवत् 1647 से 1672 विक्रमी तदनुसार सन् 1590 से 1615 खण्डेला वर्तमान में शेखावाटी में है । इतिहासईस्वी महाराजा मानसिंहजी का समय जयपुर के कारों के अनुसार इस हिस्से में पहले सांभर के इतिहास से सिद्ध है। ये सम्राट अकबर के काल और फिर अजमेर के चौहानों की शाखामों का में हुए हैं तथा इतिहास प्रसिद्ध हैं ।1 राज्य रहा है। अजमेर बसने का काल विक्रम की सातवीं शताब्दी है। हर्ष संवत् और विक्रमी संवत् में 662 वर्ष का अन्तर इतिहासकार मानते हैं । रावल रतन सिंह अब प्रश्न है कि प्राचार्य जिनसेन ने यदि चौतोड़ का काल 1359 विक्रमी (697 हर्ष खण्डेलवाल जाति की स्थापाना की तो कौन से संवत्) है । खण्डेला टूटने का संवत् 782 जो छपा संवत् में ? जिनसेन ने अपने गुरु वीरसेन द्वारा है वह मुद्रण की या रेकार्ड से प्रतिलिपि की भूल अधूरी छोड़ी हुई जयधवला टीका को शक संवत् शात होती है । यह संवत् 682 होगा जिसका 759 वि. सं. 894 में पूर्ण की। इसके पश्चात् विक्रम संवत् 1344 होता है। 15 साल गिरनार उन्होंने महापुराण की रचना प्रारम्भ की। जैसा जी की यात्रा में लगे होंगे क्योंकि उस समय बैल- कि अनुमान किया जाता है प्रादि पुराण को पूर्ण गाड़ियों में यात्रा होती थी। इतना समय यात्रा करने में उन्हें 4-5 वर्ष का समय लगा हो तो वे में लगना अधिक नहीं है । अर्थात् विक्रम संवत् संवत् 899-900 तक अवश्य जीवित रहे थे। 1344 तक साह परिवार खण्डेले में रहा । वंशा- इसके आगे वे कहां गये, कब उनकी मृत्यु हुई बली के अनुसार रायमल छाजू साह के पुत्र थे आदि प्रश्नों पर इतिहास की पुस्तकें जो अब तक जिनका संवत् 992 (1654 वि०) में चीतोड़ से लिखी गई हैं, मौन हैं । किन्तु हमारी उक्त संवत् 2-70 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1879 में लिखी पुस्तक के अनुसार जिनसेनजी भी रही होगी। उनके पश्चात् अन्य प्राचार्यों द्वारा खण्डेले गये और वहां उन्होंने सम्बत् 6 तक 14 सम्वत् 1110-12 तक नए जैनी बनाने का कार्य गोत्रों की स्थापना की और तत्पश्चात् स्वर्गवासी चालू रहा और नए नए गोत्र बांधे जाते रहे । हो गये। जिनका विवरण इसी पुस्तक में है तथा और भी ऐतिहासिक घटनाए हैं जिन्हें यहां स्थानाभाव से प्रश्न यह रह जाता है कि इन वि. सं. 2-3 नहीं दिया जा रहा है। वंशावली में मुद्रण दोष प्रादि की संगति जिनसेनजी के साथ कैसे बैठे ? अथवा लिपि दोष से सम्वत् 110 छप गया है या ये संवत् यथार्थ में 901-902-903 आदि हैं लिखा गया है। और बोलने में इनको सम्वत् 1-2-3 आदि बोलते हैं । अाज भी सन् 1904 चार ही कहलाता है यह वंशावली लेखक के मामा श्री गेंदी और 1910 आदि को अन्त की दो संख्या जो हो लालजी साह एडवोकेट ने छपाई है जिसे देखकर तदनुसार कहते हैं जैसे 1910 संवत् या सन् को हमें सत्य जानने की प्रेरणा हुई । वे लेखक के मात्र 10 ही बोलेंगे और कभी कभी लिखेगे भी। पितृसम हैं । जो भी जैसा भी मैं प्राज हूँ उनके यह परिपाटी जैसे वर्तमान में है वैसे भूत काल में ही पाशीर्वाद और शुभकामनाओं का फल हे । 1. Thirty Decisive Battles of Jaipur by Thakur Narendra Singh, 1939 edition page 57. 2. ऐतिहासिक शोध संग्रह : रामवल्लभ सोमानी : जनवरी 1970 सं., पृ. 49 3. AJMER : Historical and Descriptive : by-SARDA Part II Chapter XVII (1941 edition) 4. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास, द्वितीय भाग : परमानन्द शास्त्री पृष्ठ 181-182. जगत के जीव सब सम हैं किसी को कम नहीं लेखो, सभी को प्राण प्यारे हैं किसी पर गम नही फेंको, श्री महावीर स्वामी की अहिंसा ये बताती हैइन्हें कुछ दे नहीं सकते तो केवल प्यार से देखो। -'काका' बुन्देलखण्डी महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-71 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम स्वयं महावीर हो हास्य कवि, श्री हजारीलाल 'काका' बुन्देलखण्डी पो० सकरार जिला, झांसी उ० प्र० कवटें बदलोगे कब तक विस्तरों पर, बहुत सोये अब खुमारी को हटा दो, खोल दो अवरुद्ध मन की अर्गलायें, तुम स्वयं महावीर हो जग को दिखा दो, लेकिन तुम्हें फुर्सत कहां इस राग रंग से, सांझ होने को हुई पर गा रहे अब भी प्रभाती, बज रहे हैं कूच के बेसुर नगाड़े, पर तुम्हें अब भी प्रणय सरगम सुहाती, छोड़ना होगा तुम्हें अब इस मकां को, इसलिए तुम स्वयं ही आसन हटा लो, खोल दो अवरुद्ध मन की अर्गलाये, तुम स्वयं महावीर हो जग को दिखा दो । बन चुके महमान कितने इस मकां के तुम समझते हो कि शायद हमीं पहले, क्रम न टूटा आज तक इस कारवां का आ चुके कितने यहां नहले पै दहले, इसलिये अध्यात्म की गंगा बहाकर नाम अपना मोक्ष सूची में लिखा लो, खोल दो अवरुद्ध मन की अर्गलायें तुम स्वयं महावीर हो जग को दिखा दो । प्रापको अभिमान होगा लक्ष्मी पर किन्तु प्रामित्क शांति दे सकता न ये धन, अर्थ के जल से भी किसकी पिपासा जब तलक वर्षा नहीं सम्यक्त्व का घन, इसलिये 'काका' जगत से दृष्टि फेरो वक्त है चारित्र की गंगा नहालो, खोल दो अवरुद्ध मन की अर्गलायें तुम स्वयं महावीर हो जग को दिखा दो, 2-72 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .kkk. पुराणों में सज्जन और दुर्जन, भले और बुरे, धार्मिक तथा पापी दोनों प्रकार के मनुष्यों के जीवन-वृत्त का चित्रण करने का उद्देश्य अच्छे और बुरे कार्यों का अच्छा बुरा फल बताना होता है। पशु यज्ञ, मांस भक्षण आदि सदाचार तथा धर्म विरुद्ध कार्यों का भी उनमें प्रसंगानुसार वर्णन पाता है किन्तु उनका पुराणों में वर्णन होने मात्र से ही ऐसे कार्य विहित कोटि में नहीं पाते। इस तथ्य को समझ कर ही पुराणों का स्वाध्याय करना चाहिये। हरिवंश पुराणकार जिनसेन पुन्नाट संघ के प्राचार्य थे और प्रादिपुराण के कर्ता जिनसेन से भिन्न थे किन्तु दोनों ही समसामयिक थे। हरिवंश पुराण की रचना शकसंवत् 705 में समाप्त हुई है। हरिवंश पुराण का महत्व इस दृष्टि से बहुत है कि उसमें वीर निर्वाण के बाद से वि० सं० 840 तक की अविच्छिन्न गुरु-परम्परा सुरक्षित है जो अन्य किसी भी पुराण अथवा ग्रंथ | में आज तक देखने में नहीं पाई। -पोल्याका "जैन" हरिवंशपुराण कालीन भारत की सांस्कृतिक झलक डा० प्रेमचन्द जैन, एम.ए., पीएच. डी., जैनदर्शनाचार्य, जनदर्शन विभाग, राजस्थान वि.वि., जयपुर प्रत्येक युग का सच्चा साहित्यकार, कवि या मनमाने रंग भर-भरकर नये-नये चित्र बनाती है। महाकवि स्वयं अपने समय की भौगोलिक, सामा- उसका जागरूक यत्न रहता है कि वह पाठक को जिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक परिस्थितियों के वर्तमान से उठाकर उसके मानस को अपने वर्ण परिप्रेक्ष्य में एवं पृष्ठभूमि के पट पर ही अपने काल के स्तर पर ले जाये और इस यल में उसे वर्ण्यविषय के काल की अमूक स्थिति के चित्र की जितनी सफलता मिलती है, वही उसके साहित्यिक रेखाए अकित करता है । चाहे वह किसी भी काल साफल्य का मापदण्ड बनती है। पर सम-सामयिक की स्थितियों का वर्णन करे, परन्तु उसके अनुमान युग की स्थितियों का सही सही चित्रण भी उसके का प्राधार तो उसका वर्तमान ही होता है । इसी साफल्य की उतनी ही महत्वपूर्ण कसौटी है जितनी वर्तमान के पट पर उसकी कल्पना-रूपी तूलिका कथा-वस्तुगत वर्ण्य काल के चित्रण की। इस दृष्टि महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-73 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 से जिनसेनाचार्य ने तत्कालीन भारत की भौगोलिक स्थिति, देश, प्रान्त और प्रमुख पर्वत, नगर, नदियाँ, वृक्ष, वनस्पतियां, पशु, पक्षी, दक्षिण से लगाकर उत्तर-पूर्व और उत्तर-पश्चिम के दक्षिण पथ के मार्ग और विध्य के उत्तर में उत्तर के प्रमुख महा जनपथों के सम्बन्ध में प्रभूत व प्रामाणिक जानकारी प्रदान की है । देश के तत्कालीन सामाजिक जीवन, व्यापार, कृषि, शिक्षा, साहित्य, सामाजिक रीतिरिवाज एवं धार्मिक विश्वासों तथा ग्रामीण व नागरिक जीवन का सटीक परिचय प्राप्त करने की दृष्टि से भी यहां प्रचुर सामग्री उपलब्ध होती है । देश की राजनैतिक अवस्था के सम्बन्ध में कवि ने प्रत्यक्ष तो नहीं परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से जो संकेत दिये हैं उनसे तत्कालीन समय की राजनैतिक अवस्था का अच्छा बोध हो जाता है । भौगोलिक स्थिति भारतवर्ष के भौगोलिक विभाजनों का कवि का ज्ञान विशद और प्रामाणिक था । इसकी अनुभूति हमें हरिवंशपुराण के ११ वें सर्ग में वरिंगत भगवान ऋषभदेव की दीक्षा के प्रकरण में चारों दिशाओं के अनेक नगरों के उल्लिखित होने से होती है— कुरूजांगाल, पांचाल, सुरसेन, पटॅचर, यवन, अभीर और भद्रक, क्वाथतोय, तुलिंग, काशी, कौशल्य, मंद्राकार, वृकार्थक, सोल्व, प्रावृष्ट, त्रिगर्त, कुशाग्र, आत्रेय, काम्बोज, शूर, बाटवाता कैकय, गान्धार, सिन्धु, सौवीर, भारद्वाज, दशरूक, प्रास्थाल और तीक ये देश उत्तर दिशा की और थे । खंग, अगारक, पौण्ड्र, मल्ल, युवक, मस्तक, प्राग्ज्योतिष, वंग, मगध, मानवर्तिक, मलद और भार्गव ये देश पूर्व दिशा में स्थित थे । वाणमुक्त, वैदर्भमाणव. कलिंग प्रांसिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिस्क, पुरुष और भौगवर्दन ये दक्षिण दिशा के देश थे । माल्य, कल्लीवनोपान्त, दुर्ग, सुप र्ट, कर्मुक, काशि, नासारिक, अगर्त, सारस्वत तापस, महिम भरूकच्छ, सुराष्ट्र और नर्मद ये पश्चिम दिशा के देश थे । 2-74 दशाक, किष्किन्ध, त्रिपुर, आवर्त, नंषध, नेपाल, उत्तमवर्ण, वंदिश, अन्तप, कौशल, पतन और विनिहात्र ये देश विन्ध्याचल के ऊपर स्थित थे । भद्र, वत्स, विदेश, कुश, मंग, सैतव और वज्रखंडिक ये देश मध्यदेश के प्राश्रित थे । 1 इनमें वत्स, अवन्ती, कौशल और मगध में राजतन्त्र था, बाकी गणतन्त्रात्मक थे । राजतन्त्रों का राजा निरंकुश नहीं होता था, वह मन्त्रिपरिषद की राय से कार्य करता था और प्रजा की भावना का समादर करता था । गणतन्त्र में कहीं एक मुख्य राजा होता था, कहीं गरणराजान की परिषद थी, कहीं मुख्य राजा होते हुए भी गणपरिषद् प्रधान थी और कहीं मुख्य-गरण बारी-बारी से राज्य करते थे । कुछेक महत्वाकांक्षी विस्तार लोलुप सम्राट भी थे । गणतन्त्रों से इनके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे और कभी कभी वे युद्ध तक कर बैठते थे । गणतन्त्रों के सम्बन्ध आपस में प्रायः अच्छे थे । कारण विशेष से कभी कभी कुछ विवाद भी उठते रहते थे । नदी, जल, परिवहन, ग्राम आदि के कारणों से विवाद उठना ही इनमें मुख्य था । कभी कभी किसी कन्या को लेकर भी झगड़े खड़े हो जाते थे । राजा का पद परम्परागत होता था । राजा के अपदस्थ होने पर उसका ज्येष्ठ पुत्र राज्याधिकारी होता था । 2 पुत्र विहीन राजा का उत्तराधिकारी उसकी पुत्री का पुत्र होता था । राज्यासन पर पदारूढ़ होने से पूर्व अभिषेक होने की परम्परा थी |३ इस काल का भारतीय समाज युद्ध विज्ञान में पर्याप्त उन्नति कर चुका था । स्वार्थसिद्धि के लिये देव, असुर, मानव और पशु सबका चरम साधन एक मात्र युद्ध ही था । पशुत्रों और मनुष्यों में भी युद्ध होने के उदाहरण दृष्टिगत होते हैं । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस काल में रथयुद्ध, पदातियुद्ध, मल्ल- समाज में ऊचे आदर्शों के बीच स्थान न मिलने पर युद्ध, दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध, प्रभृति विविध प्रकार भी गान्धर्व व राक्षस विधि का प्रसार था ।13 अन्य के युद्धों के उदाहरण मिलते हैं। युद्ध में प्रमुखतः विवाहों में वाग्दान से, भविष्यवाणी से, साटे से हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सैनिक, बैल, गान्धर्व और विवाह,14 विधवा-विवाह15 एवं विधुर-विवाह आदि नर्तकी ये सात अंग होते थे। व्यूहों में क्रोच गरुड भी प्रचलित थे। समाज में वहुपत्नी प्रथा16 प्रचलित चक्रादि के उल्लेख प्राप्त होते हैं। असि, उलखल, थी। मातुल कन्या से विवाह सम्भव था ।17 चारुदत्त कायत्राण, कामक, कौमुदगदा, खंग, खुर, गदा, का विवाह उसके मामा की लड़की से किया गया था। गाण्डिव, चक्र, जानु, तल, तोमर, त्रिशुल, दण्ड, 21 38 अर्जुन और सुभद्रा का सम्बन्ध भी ऐसा वाणादि अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्र थे। कतिपय ही था । विवाह दो विकसित व्यक्तियों का सम्बन्ध शस्त्रास्त्रों में अदभुत चमत्कृतिपूर्ण अलौकिक शक्ति था । कन्यायें पिता के घर में ही युवा हो जाया भी विद्यमान थी। गज, बोडे, रथ, ऊंट, खच्चर करती थीं। दहेज प्रथा का भी उल्लेख है। यद्यपि आदि भी युद्ध की सवारियां थीं। राजमहिषियाँ स्पष्ट रूप से 'दहेज' शब्द का न नाम आता है भी रण-कौशल में निष्णात होती थी और आव- और न उसकी मांग की जाती है । खुशी से लड़की श्यकता पड़ने पर युद्ध भी करती थीं। कभी कभी वाला लड़के को यथाशक्ति और यथेच्छ कुछ दे अपने पतियों की सहायतार्थ भी युद्ध में साथ-साथ देता था। जाती थीं।10 इस समय स्त्री जाति का समाज में कोई सामाजिक जीवन स्वतन्त्र स्थान नहीं था । स्त्रियां पुरुषों की इच्छा हरिवंशपुराण में एक संगठित समाज का स्व के अनुसार उसके उपभोग के उपकरण मात्र थीं। रूप मिलता है। समाज में चारों वर्णों (बाह्मण, स्त्रियों को चल सम्पत्ति के रूप में भी माना जाता था। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की स्थिति ज्ञात होती है पर उनके घेरे कठिन नहीं थे । चारों वर्गों के अति- हरिवंशकालीन व्यक्ति का जीवन सभ्य और रिक्त भी समाज में व्यावसायिक और प्रौद्योगिक सुसज्जित था। वह विविध परिधानों द्वारा शरीर वर्ग थे, इनमें राजक, चाण्डाल, चर्मकार, स्वर्ण- का अलंकरण करता था। उसके वस्त्रों में वासस्, कार, दारूशिल्पी आदि प्रमुख हैं। उपवासस्, नीवि,कम्बल आदि प्रमुख थे ।18 प्राभूषणों प्राचीनकाल से ही विवाह जीवन की सर्वोत्कृष्ट में मुकुट,19 कुण्डल,केयूर, चूड़ामणि, कटक, कंकण, मुद्रिका, हार, मेखला, कटिसूत्र, कंठक, रत्नावली, घटना मानी जाती है । उसका इस काल में ह्रास नूपुर, आदि का प्रचलन था (8/26 । प्रसाधन देखने को मिलता है । विवाह अव दैविक विधान न सामग्री भी अनेक विध थीं। साधारण से लेकर रहकर, योग्यता, पराक्रम और शक्ति का मापदण्ड बहुमूल्य सामग्रियाँ व्यवहृत होती थीं। चन्दन, रह गया था। इस काल में स्मृतियों में प्रतिपादित कु कुम, अंगराग, पालक्तक, अंजन, शतपाक, तेल, अाठ प्रकार के विवाहों में से अन्य विवाहों के प्रकार गंध आदि अनेक सुगन्धित द्रव्य मिश्रित लेप सिंदुर, (प्रासुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच) को निन्द कस्तुरी, माला, ताम्बूल आदि के प्रयोग का उल्लेख नीय या परित्याज्य माना जाता था।12 मिलता है (8वां सर्ग) । वृद्धायें प्रायः त्रिपुण्डाकार इस काल में उक्त पाठ विवाह विधियों में से तिलक लगाती थी। (22-47) कोई भी एक विशुद्ध रूप से प्रचलित नहीं थी। समाज में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-75 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही तरह के भोजन भोज्य होते थे । शाकाहारी भोजन में जौ, धान, गेहूं, तेल, शाक, उड़द, मूंग आदि मुख्य थे | 21 पशुओं का मांस मांसाहारियों के लिए भोजन में सम्मिलित होता था । 22 पेय पदार्थों में दूध, 23 सुरा, मधु 24 आदि उल्लेखनीय हैं। भोजन करने के बाद सुगंधित द्रव्यों से मिश्रित पानी से कुरला किया जाता था 125 बाद में पान सुपारी खिलाई जाती थी । पान को थूकने के लिये पीकदान भी रखा रहता था । 26 महाकवि वाण की कादम्बरी और हर्ष चरित्र में भी इनके उल्लेख प्राप्त होते हैं । विश्राम के लिए शय्या (प्रासन्दी) उपधान, पर्य कादि हुआ करते थे । मनोरंजन के लिए नाटक, गीत, वाद्य, चित्रकला, द्यूत-क्रीड़ा, 27 वनविहार, 28 जलक्रीड़ा 28 आदि का प्रमुखता से प्रचलन था । विशेष अवसरों पर अनेक सामूहिक महोत्सव भी होते थे । उन दिनों व्यायाम करने की प्रक्रिया आज जैसी ही थी । गोलाकार अखाड़ों में पहलवान लोग अपने अपने दावपेच दिखाते थे इस ग्रंथ को देखने से यह भी पता चलता है कि आजकल जो मुष्टियुद्ध प्रचलित है वह पाश्चात्य देशों की देन नहीं है । हमारे देश में प्राचीन काल में मुष्टियुद्ध का आम -रिवाज था | 30 श्रीकृष्ण और बलभद्र ने चारगुर और मुष्टिक पहलवान को मुष्टियुद्ध में पराजित किया था (३६/४५) । आर्थिक जीवन आर्थिक दृष्टि से भी तत्कालीन भारतवर्ष सम्पन्न था। कृषि, पशुपालन व्यापार, बाणिज्य, कला, कौशल में भी यह देश काफी प्रगति कर चुका था । श्रान्तरिक व्यापार, साथ ही विदेशों से जलपोतों के द्वारा व्यापार होता था । यहां से कपास श्रौर बहुमूल्य रत्नादि का व्यापार किया जाता था । दूर देशों या विदेशों से व्यापार के लिए कई व्यापारी समूह में जाते थे और मार्ग दिखाने के लिए सार्थ 2-76 होते थे जिनको मार्ग का पूरा ज्ञान होता था । सार्थ सम्पन्न भी होते थे । व्यापारियों को निश्चित शुल्क या भागीदारी के आधार पर ऋण भी देते थे । सार्थों के अपने यान, वाहन, चालक, वाहक, रक्षक आदि भी होते थे । प्राचीन भारत में साथ की भूमिका की विशेष जानकारी डा० मोतीचन्द्र की पुस्तक 'सार्थवाह' में मिलती है । व्यापार में लेने देने के लिए निष्क, शतमान, कार्षापण आदि का प्रचलन था । मुद्रानों पर जनपद श्रेणी अथवा धार्मिक चिह्न हुआ करते थे | वाणिज्य व्यापार पर राजकीय नियन्त्रण नहीं था । कर भाग आय के दसवें से छठे भाग तक सीमित था विशेष परिस्थितियों में युद्ध दुर्भिक्ष आदि के समय यह प्रवश्य ध्यान रखा जाता था कि कोई अनुचित लाभ न ले सके । जंगलों दुर्गम स्थानों में कहीं कहीं दस्युदल भी सक्रिय होते थे । थे । अपराध बहुत कम होते थे । धार्मिक जीवन यदि धर्म और विश्वास या समाज की संस्कृति की उत्कृष्टता का द्योतक है तो हरिवंशपुराण एक ऐसे व्यक्ति के धार्मिक जीबन का चित्र प्रस्तुत करता है जो तपः प्रधान था । इस युग में प्राचीन धार्मिक परम्परायें टूट रही थी । बलि यज्ञादि क्रिया काण्डों का स्थान भक्ति उपासना सत्कर्म और सदाचार ने ले लिया था। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों संस्कृतियां साथ साथ चल रही थीं । हरिवंश पुराण का समस्त वर्णन किसी न किसी प्रकार मुक्ति प्रादि कार्यों से सम्बद्ध है । तीर्थकरों, पंच परमेष्ठियों के स्तवन के साथ साथ विभिन्न श्राचारों और व्यवहारों का भी वर्णन किया गया है । पुराण में सर्वतोभद्र 32 महासर्वतोभद्र, 33 चान्द्रायण 34 आदि अनेक व्रत उपवासों की विधियों एवं उनके फलों का विस्तृत विवेचन किया गया है । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण 1. हरिवंशपुराण, 11/57-74 2. हरिवंशपुराण, 27/54, 21/122 3. हरिवंशपुराण, 27/47-60 4, तेवक का शोध प्रबन्ध पृ० 86 5. हरिवंशपुराण, 42180, 50/103-104, 42141 6. हरिवंशपुराण, 36130-34, 2418, 11/84. 36141-43. 36-45 7. हरिवंशपुराण, 11/80-82 8, हरिवंशपुराण, 11/83 9. हरिवंशपुराण 50/102-110 10. हरिवंशपुराण, 5215 11. हरिवंशपुराण, 9/39 12. पाटील, ड०के०के० कल्चरल हिस्ट्री फोम वायु पुराण-पूना, 1964, पृष्ठ 156 13. हरिवंशपुराण, 44/21-25. 43/171-176, 44129-32, 42174-97. 4419-19 14 हरिवंशपुराण, 33/10-29 15. (1) नारद स्मृति, 12197 (2) बाल्वलकर, हिन्दु सोसल इंस्टिट्यूशन्स बम्बई, 1939 (3) विवाह सम्बन्धी अध्याय-अल्टे कर पोजीशन आफ वुमन इन ऐनसियन्ट इण्डिया, पृष्ठ 181-183 16 हरिवंशपुराण, 12/32, 2419, 44/3-50, 59/116 17. हरिवंश पुराण, 33/11-24, 33/1-36, 21138 18. हरिवंशपुराण, 2617-17, 2/18--38 19. हरिवंशपुराण, 25130 20. हरिवंशपुराण, 47142 21. हरिवंशपुराण, 18/171, 11/116, 36127-28, 18/161-163 महाबीर जयन्ती स्मारिका 78 2-77 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. हरिवंशपुराण, 21/104-110 23. हरिवंशपुराण, 18/171 24. हरिवंशपुराण, 61/23, 61/51, 61/36, 61/25 25. हरिवंशपुराण, 36/27-28 26. हरिवंशपुराण, 8/50 27. हरिवंशपुराण, 48/14, 46/3, 21/54-62 28. हरिवंशपुराण, 55129, 14/21 29. हरिवंशपुराण, 55151-55 30. हरिवंशपुराण, 24/8, 11/84. 36/41-43 31. हरिवंशपुराण, 21/76 32. हरिवंशपुराण, 34/52-55 33. हरिवंशपुराण, 34157-58 34. हरिवंशपुराण, 34/90, इस व्रत में कृष्ण प्रतिपदा के दिन से चन्द्रमा घटने के साथ साथ प्रतिदिन एक एक ग्रास भोजन घटाते हुए अमावस्या के दिन पूर्ण निराहार रहा जाता है. और शुक्ल पतिपदा को एक ग्रास भोजन लेकर प्रतिदिन एक एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमा के दिन केवल १५ ग्रास पाहार लिया जाता है। इस प्रकार यह व्रत एक मास में पूर्ण होता है । 35. तत्वार्थ श्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम् तत्वार्थ सूत्र-1/2 2-78 महावीर जयन्ती स्मारिका Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** भारत में नाटकों के विकास का मूल मा'तीय ही है अथवा विदेशी प्रश्न अनुसन्धित्सुत्रों के मध्य चर्चा का विषय रहा है। भारतीय मूल बताने वाले वेदों में यम यमी के संवाद में इसे खोजते हैं तो दूसरे नाटकों में प्रयुक्त 'यवनिका' शब्द के कारण विदेशों में । सचाई कुछ भी हो किन्तु भारत । नाटको का इतिहास बहुत पुराना है और संस्कृत भाषा के नाटक किसी समय पर्याप्त लोकप्रिय रहे हैं और उनका मञ्चन भी हुवा है। संस्कृत नाटकों के निर्माण में जैनों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनके लिखे नाटक किसी भी दृष्टि से कम महत्त्व के नहीं हैं। जैन नाटककार हस्तिमल्ल ऐसे ही सिद्धहस्त नाटककारों में थे जिन्होंने जैन पुराणों से कथावस्तु ग्रहण कर अपने नाटकों की रचना की। उनकी कृत्तियों का मूल्याकन विद्वान् लेखक की इन पंक्तियों में पढ़िये । -पोल्याका -संस्कृत नाट्यसाहित्य में हस्तिमल्ल के नाटकों का स्थान डॉ० कन्छेदीलाल जैन गव० संस्कृत कालेज, कल्याणपुर शहडोल संस्कृत साहित्य में अनेक प्रशस्त नाटककारों में संस्कृत के नाटककारों ने अपने नाटकों के लिए हस्तिमल्ल और अनेक नाटकों में उनके नाटक कथावस्तु का चुनाव रामायण, महाभारत तथा स्मरणीय रहेंगे। दसवीं शताब्दी के बाद सशक्त लौकिक कथाओं से किया है, हस्तिमल्ल ने अपने नाटककारों द्वारा नाटक रचना में ह्रास दिखाई देता नाटकों की कथावस्तु को दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के है, उसका कारण यह था कि संस्कृत का कला पक्ष पुराणों से चुना है जिनको आधार बनाकर नाटक सबल होता जा रहा था जो नाटक की अपेक्षा लिखने की अोर किसी का ध्यान नहीं था । नाटकों महाकाव्य के अनुकूल होता है। जयदेव का के लिए कथावस्तु का नवीन स्रोत जैन पुराणों को प्रसन्नराधव ते रहवीं शताब्दी का माना जाता है हस्तिमल्ल ने ही चुना है। अश्वघोष ने शारिपुत्र उसमें भी नाटकीयत्व की अपेक्षा कवित्व की ही प्रकरण लिखकर नाटक निर्माणार्थ बौद्ध धर्म की सत्ता विशेष है । इस दृष्टि से तेरहवीं शती का यह कथानों को आधार बनाने का उपक्रम कर दिया सशक्त नाटककार संस्कृत साहित्य में महत्वपूर्ण था। मेरा आशय यह नहीं है कि सम्प्रदाय विशेष स्थान रखता है। की कथावस्तु चुनने के कारण नाटककार का महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-79 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्व हेना चाहिए किन्तु सरस तथा उदात्त नाटक लेखन की ओर जैसे काव्यकारों का ध्यान कथायें चाहे लौकिक हों चाहे किसी सम्प्रदाय नहीं था, उसकी पूर्ति के कारण हस्तिमल्ल दि. विशेष के ग्रन्थों की हों, उनके द्वारा यदि काव्य जैन समाज के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेंगे। रचना अपना स्वरूप सजा सकती है तो उनका उपयोग करने वाला भी एक नवीन मार्ग का संस्कृत नाटककार दक्षिण देश में नहीं के अन्वेषक है। शूद्रक का विशेष महत्व इस कारण है बराबर हुए हैं । दशम शताब्दी के शक्तिभद्र नाटककि उसने अपने मृच्छकटिक प्रकरण के लिए सामान्य कार का पाश्चर्य चूडामरिण नाटक है उसमें सूत्रधार जीवन की कथा को चुनकर नया मार्ग अपनाया था के मुख से नटी ने दक्षिणी देश के नाटक के और विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस के लिए राजनीति अभिनय की बात सुनकर कहा था कि दक्षिण देश में के दांव पेंच से सम्बन्धित कथा चुनी थी। इन्हीं नाटक का निर्माण हुअा है तो समझो आकाश में नवीनतानों के कारण से ये नाटककार संस्कृत फूल उग आये हैं और बालू से तेल निकल पाया नाटककारों में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना सके। है। इस प्रकार यदि दक्षिण को नाटककारों की स्व. मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत और द्वापर उत्पत्ति के लिए मरुस्थल माना जाता है तब लिखने के साथ म० बुद्ध की सहचारिणी यशोधरा हस्तिमल्ल का स्थान भी कम महत्व का नहीं है को सुनकर जो यशोधरा काव्य बनाया उससे उनकी क्योंकि ये दक्षिण के ही थे । इनके नाटकों की एक महिमा बढ़ी है, इसी कारण जैन ऐतिहासिक नवीनता यह है कि इन्होने स्वयंवर की घटनाओं कथानों को प्राधार बनाकर लिखने के कारण को अपने नाटकों में स्थान दिया। हस्तिमल्ल का भी अपना विशिष्ट स्थान है। जिन कथाओं को आधार बनाकर कई नाटक या काव्य नाट्यकला की दृष्टि से भी हस्तिमल्ल के नाटक बन चुके हों उन्हीं को न चुनकर नई कथानों को संस्कृत नाट्य साहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान चुनना विशेष महत्वपूर्ण है । यद्यपि इन कथाओं को बना सकेंगे, केवल विद्वानों की दृष्टि में आने का नाटक का आधार बनाने से हस्तिमल्ल का यश विलम्ब है। भास और कालिदास के न टक भोर नाम उतना व्यापक स्थान नहीं पा सका है सरलता, सरसता के कारण संस्कृत साहित्य में जितना व्यापक यश ये महाभारत, रामायण या अपना विशेष स्थान बना सके हैं। हर्षवर्धन में भी अन्य लौकिक कथाओं की कथा-वस्तु को चुनकर हम सरलता और सरसता पाते हैं। उसके बाद पा सकते थे, यही कारण है कि अधिकांश संस्कृत संस्कृत साहित्य में सरलता का वह रूप नहीं दिखाई के इतिहास लेखकों ने तो नाटककारों में उनके नाम देता है । हस्तिमल्ल हर्षवर्धन के बहुत बाद हुए हैं का भी उल्लेख नहीं किया है और अनेक सस्कृत के किन्तु उनकी सुभद्रा नाटिका और अंजना पवनंजय विद्वान उनका काम और नाम कम ही जानते हैं। नाटक में सरलता, समता और उदात्त भावभूमि के दर्शन होते हैं । इसलिए वाचस्पति गौरेला ने लिखा - दि. जैन साहित्य का पर्यावलोचन करें तो है कि जैन साहित्य के क्षेत्र में हस्ति मल्ल का उसमें धर्म, दर्शन, न्याय के महत्वपूर्ण ग्रन्थों के अनौखा व्यक्तित्व दृश्य काव्यों के प्रणयन में प्रकट अतिरिक्त धर्मशर्माभ्युदय, चन्द्रप्रभ चरित्र प्रादि महाकाव्य, यशस्तिलक और जीवन्धर जैसे चम्पू हुआ है और उन्होंने तेरहवीं शताब्दी का सर्वाधिक काव्य, गद्यचिन्तामणि जैसे गद्य काव्य हैं किन्तु प्रतिभाशाली नाटककार हस्तिमल्ल को माना है।' 2-80 महावीर जयन्ती स्मारिका 78. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्कर्ण रूप में यह कहा जा सकता है कि बुद्धि को विशिष्ट प्रतिभाशालिसी मानते हैं और नाटकीय शैली, भाव, भाषा, छन्द, अलंकार, अाने को सरस्वति द्वारा स्वयंवृत्त लिखते है ।। सुभद्रा चरित्रचित्रण, कथावरत प्रादि सभी दृष्टियों से तो उनकी नाटिका लिखने की क्षमता की कसौटी परीक्षण करने पर हस्ति मल्ल के नाटक खरे है। स । नाटकों में नायक नायिका परस्पर में एक उतरते हैं । उनके न टकों का कवित्व कर' न की दुसरे के प्रति अनुरक्त होते हैं। क्रमशः उनके अनुनवीन उद्भावनायें और सुन्दर सूक्तियां तो राग का विक स होता है । उनके परस्पर मिलन सहृदयों को अवश्य अाकर्षित करेंगी। में कुछ बाधायें पाती हैं, उन बाधाओं के दूर हो जाने पर नायक नायिका का स्थानी मिलन हो हस्तिमल्ल के चारों नाटकों को एक तुलना- जाना यही चारों नाटकों का क्रम है। फ्रांसिसी स्मक दृष्टि से देखें तो ऐसा प्रतीत होगा कि वे , ___ अलोचक बूनेलरे के अनुसार नाटक का आधार दो एक सी प्रक्रिया पर लिखे गये हों। उनमें से तीन इच्छा शक्तियों का द्वन्द्व है । ये दो इच्छा शक्तियां का मंगलाचरण मगण से प्रारम्भ हुमा है जो लक्ष्मी प्राप्ति की लिप्सा और विक्रांत कौरव का दो प्रकार की हो सकती हैं। किसी एक व्यक्ति की मंगलाचरण नगण से प्रारम्भ हुअा है जो आयु दो इच्छ। प्रों का द्वन्द्व हो सकता है जैसे सुभद्रा कामना का द्योतक है। इनके चारों नाटकों का नाटिका में राजा भरत रानी वैलाती को भी प्रगन्द मुख्य रस शृंगर है जिनमें अन्तिम कार्य नायक रखना चाहते हैं और सुभद्रा से भी स्नेह करना नायिका का वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा स्थायी मिलन चाहते हैं । विक्रान्त कौरव में जयकुम र और अर्कहै । प्रत्येक नाटक पैवाहिक कार्य के बाद पूर्ण हो कीर्ति दोनों सुलोचना को च हते हैं। यहां दो जाता है । केवल अजना पवगंजय नाटक में अजना व्यक्तियों की एक वस्तु की इच्छा शक्ति के कारण पवनं जय का विवाह प्रथम अक में ही हो जाता द्वन्द्व है । अंजना पवन जय में पवनंजय एक ओर है । उसमें उनका पुत्र सहित स्थायी मिलन हो संग्राम का कर्तव्य भी पालन करना चाहते हैं जाने पर नाटक की समाप्ति हो जाती है। उनमें दूसरी ओर स्वयं तथा पत्नी अंजना के एक भी विक्रांत कौरव में स्वयंवर विधि के पश्चात् दूसरे से विक्त रहने के कष्ट का प्रतिकार करना विवाह होता है । अजना पवनंजय में स्वयंवर की चाहते हैं । इस प्रकार एक ही व्यक्ति की दो इच्छ सूचना है और स्वयंवर का अभिनय ही मुख्य शक्तियों का द्वन्द्व है । मैथिली कल्याण नाटक में स्वयंवर का प्रतीक है, क्योंकि पुराण के अनुसार राम सीता को शीघ्र पाना चाहते हैं और सीता अंजना का स्वयंवर नहीं हुआ था । मैथिली राम को शीध्र प ना चाहती है जबकि पिता जनक कल्याण नाटक में धनुभंग का साहस दिखाने वाला सीता का पति होगा इसे प्रकारान्तर से यों कह सभा भूमि में धनुष के बल परीक्षण के पश्चात् सकते हैं सीता उस वर को वरण करेगी जो धनुभंग सीता प्रदान करने का नियम ले चुके हैं। इस करके अपना शौर्य प्रकट करेगा। इस प्रकार उनके प्रकार की अड़चन से टकराकर घटना में द्वन्द्व तीनों नाटक स्वयंबर से सम्बन्धित हैं जिनसे उत्पन्न हो जाता है । इस द्वन्द्व के केन्द्र पर पहुचने कन्यायों की अच्छी सामाजिक स्थिति प्रतीत होती पर सभी नटकों में उन बाधानों पर विजय प्राप्त है । उनको स्वयंवर इतना प्रिय है कि वे स्वयंवर हो जाती है और नायक नायिका का अभीष्ट मिलन का सूत्रपात करने वाले महाराजा अकम्पन की हो जाता है । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-81 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेम सिद्धान्त की दृष्टि से भी यही सरणी इस प्रकार समझना चाहिए कि प्रेमपरक या शृंगारपरक नाटकों में ऐसे दो पात्रों को जिन्हें श्रागे चलकर प्रेमी युगल बनाना अभिप्रेत होता है प्रथम दर्शन में प्रकृष्ट दिखाया जाता है। इस प्रकार अनुरागोदय का फल प्राधुनिक युग में मंगलमय और अमंगलमय दोनों तरह का माना जाता है किन्तु प्रादर्शवादी विचारधारा यह है किशुद्ध चरित्र वाला प्रेम जिसमें वासना की प्रबलता न समाई हो और पूर्व संस्कारों की आध्यात्मिक प्रेरणा हो तो प्रथम दर्शन का प्रेम क्रमशः विकसित होकर बाधाओं पर विजय पाकर अन्त में मंगलमय ही होगा । हस्तिमल्ल के चारों नाटकों में हम प्रेम के इसी उदय, विकास और मंगल को देखते हैं । मैथिली कल्याण में सीता और राम का अनुराग दोलागृह की भेंट में, विक्रान्त कौरव में सुलोचना और जयकुमार का प्रथम अनुराग नगर देवता यात्रा या गंगातीरोद्यान में, सुभद्रा नाटिका के भरत और सुभद्रा का अनुराग वेदीवन के परस्पर दर्शन के बाद तथा अंजना पवनंजय नाटक के नायक-नायिका का अनुरागोदय विवाह के पूर्व मन्दार वन में परस्पर दर्शन से हुवा था । राम के मिलन में धनुभंग की घटना निर्वाह, अंजना से मिलन में पवनंजय का रावण की सहायतार्थ युद्ध में व्यस्त रहना, युद्ध समाप्त हो जाने तक अंजना का निर्वासन, विक्रान्त कौरव में सुलोचना के इच्छुक राजानों द्वारा उपस्थित किये गये संग्राम और सुभद्रा नाटिका में देवी वैलाती की अनुकूलता का प्रभाव ये नायिका नायक के मिलन की बाधायें थीं । उन नाटकों के नायक अपने कार्यों द्वारा या सहायकों द्वारा बाधाओं पर विजय पाकर अभीष्ट लाभ करते हैं । इस प्रकार सूक्ष्म रीति से चारों नाटकों को एक मार्ग का अनुसरण करता हुआ पाते हैं । 2-82 मैथिली कल्याण नाटक के नायक राम, विक्रान्त कौरव के कौरवेश्वर जयकुमार, सुभद्रा के नायक भरत और अजना पवनंजय में विम्ब प्रति बिम्ब भाव एकसा पाते हैं । सी प्रकार उनकी नायिका सीता, सुलोचना, सुभद्रा और प्रजना भी चारित्रिक साम्य है। सीता की सखी विनीता, सुलोचना, की सखी नवमालिका, सुभद्रा की सखी मंदारिका और प्रजना की सखी बसन्तमाला के कार्यों की तुलना भली प्रकार हो सकती है । मैथिली कल्याण का विदूषक गागरण, विक्रान्त कौरव का विदूषक सौधातकि, सुभद्रा का विदूषक कार्त्यायन और अंजना पवनंजय के विदूषक प्रह सित में भी साम्य देख सकते हैं । सुभद्रा और मैथिली कल्याण के विदूषकों की कथन प्रणाली भी समान प्रतीत होती हैं । " त्रियोग वर्णन के लिए प्रकृति के वर्णन में श्रीजना पवनंजय ( पृष्ठ 41 ), विक्रान्त कौरव (पंचम क) मैथिली कल्याण (चतुर्थ प्र क ) में इस प्रकार सभी में चन्द्रोदय का वर्णन होने पर भी नवीन कल्पनाओं और नवीन शैली में है । अंजना पवनंजय नाटक में प्रथम भ्रंक में मधुकारिका श्रौर बसन्तमाला भविष्य में होने वाले स्वयंवर का अभिनय करती हैं इस प्रकार इसमें अभिनय के भीतर भी एक अभिनय है । इसी प्रकार मैथिली कल्याण नाटक में सीता विनीता राम और विदूषक की भूतकाल की एक घटना का अभिनय करती है । सुभद्रा नाटिका में बालाशोक को मालतीलता प्रदान करने की घटना को भरत को सुभद्रा का दान का अभिनय समझना चाहिए | विक्रान्त कौरव श्रोर मैथिली कल्याण दोनों नाटकों के भरत वाक्य रत्नत्रय (सम्यदर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र) धारण करने की प्रेरणा महावीय जयन्ती स्मारिका 78 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं । दूसरी ओर सुभद्रा नाटिका और विक्रान्त कौरव दोनों के मंगलाचरण में भगवान आदिनाथ को स्मरण किया गया है। चारों ही नाटकों में मनुष्यों के साथ विद्याधरों का भी उल्लेख है । इतना ही नहीं कतिपय छन्द एक दूसरे नाटकों में ही हैं ।" ये समान छन्द अपने अपने स्थान पर इस प्रकार के प्रसंगों में उल्लिखित हैं जिससे ऐसा प्रभाव नहीं होता है कि दूसरे नाटक से लेकर इसमें जोड़े गये हों । सभी नाटकों की कथा वस्तु जैन पुराणों से उद्धृत है और इन सभी नाटकों की कथा चरित कथा के अन्तर्गत आती है । 10 चारों नाटकों की इन अनेक पारस्परिक समानता के रहते हुए चारों की कथा वस्तु भिन्न-भिन्न हैं और उनके क्रमिक विकास का ढंग 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. संस्कृत साहित्य का इतिहास - बलदेव उपाध्याय पृष्ठ 601; 602 संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ 359 ख्यातः पूर्वं जगति समरो मत्कृते भूपतीनाम् । काञ्चित् कन्यां प्रति रणमिदं तद्यशो मे प्रमाष्टि ॥ इत्युद्भूतात् प्रकृति सुलभात् स्त्रीषु सापत्न्यवैरात् क्वाऽपि क्षोणी धनतिमिररजश्छद्मना गच्छतीव । विक्रान्त कौरव 84 / 32 सरस्वत्या देव्या श्रुति युगावतं सत्वमयते । सुध्या सत्री चीना त्रिजगति यदीया सुभणितिः ॥ कवीन्द्राणां चेतः कुवलय समुल्लासन विधौ ॥ कौरव नाम रूपकम् | पृष्ठ 3, 1 शरज्ज्योत्स्नालीलां कलयति मनोहारि रचना || विक्रान्त कौरव 3/5 अस्ति किल सरस्वती स्वयंवर वल्लभेन हस्तिमल्ल नाम्ना - महाकवितल्लजैन विरचितं विक्रान्त 2 अलग-अलग है | नाटकों के पढ़ते या देखते समय इन समानताओं की प्रोर ध्यान ही नहीं जाता है । नाटक की परख पृष्ठ 21 प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन पृष्ठ 259 1 (क) विक्रान्त कौरव 142 / 75, (ख) विक्रान्त कौरव 141 /74, 3 (ग) विक्रान्त कौरव 63 /53, 4 - (घ) विक्रान्त कौरव 140 / 73, 1 इनके नाटकों के अध्ययन से जैन धर्म के कतिपय सिद्धान्तों तथा अन्य बातों के परिचय के अतिरिक्त संस्कृत, इतिहास, भूगोल, संगीत ( वाद्य शस्त्र) वनस्पति आदि अनेक विषयों की जानकारी मिलती है । नाटक अपनी विविध प्रकार की सामग्री के कारण विविध प्रकार की रुचि वाले के लिए विनोदजनक होता ही है । इसलिए इनके नाटक भी रोचक कथावस्तु, प्रसादमयी भाषा, सरल शैली और काव्य सौष्ठव के कारण भिन्न-भिन्न रुचि के व्यक्तियों के लिए श्रवश्य ही रुचिकर होंगे | 10 - महावीर जयन्ती स्मारिका 78 सुभद्रा 15 / 33, सुभद्रा 62/17, सुभद्रा 84 / 27, मैथिली कल्याण 11 / 21, 2-83 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 - (ङ) विक्रान्त कौरव 19 / 36, मैथिली कल्याण 39 38, मैथिली कल्याण 45 / 10, 6 - (च) विक्रान्त कौरव 46, 6, साहित्य ( विहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना ) वर्ष 12 अंक 2, लेख-जैन आगमों में कथा साहित्य का वर्गीकरण ले. श्री ज्ञानचन्द, समवायांग सूत्र में कथायें दो प्रकार की बताई गई हैं । (1) चरित और (2) कल्पित । चरित से तांत्पर्य सच्ची कहानियों से है । 10. नाट्यं भिन्नरुचजनस्य बहुधाप्येकं समाराधनम् ( मालविकाग्निमित्र ) एक सत्य का हाथ बहुत है 9. 2-84 सौ-सौ पीड़ा-शर सहने को एक तुम्हारा प्यार बहुत है एक किरन हो, लाख अन्धेरा जीने का आधार बहुत है, 115, सराफा वार्ड जबलपुर - 2 (म. प्र. ) सारे जग को ठुकराने दो एक तुम्हारा द्वारा बहुत है हीरे मोती छल जाने दो फूलों वाला हार बहुत है ● श्री भवानीशंकर लगा रहे धरती पर पहरा उड़ने को श्राकाश बहुत है बन्द हवाएं हो जाने दो पंखों पर विश्वास बहुत है तीखे शूलों पर चलने को प्राण, तुम्हारा साथ बहुत है झूठी दुनिया से लड़ने को एक सत्य का हाथ बहुत है महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCC वैदिक सम्प्रदाय में जहां राम विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूज्य हैं वहां जैनों ने भी अपने ६३ महापुरुषों में उनकी नरगना की है तथा उन्हें सिद्ध माना है । एक आदर्श राजा के रूप में तो उनकी ख्याति भारत के जन-जन में है ही प्रतः प्रत्येक भारतीय धर्म के अनुयायियों द्वारा उनका जीवन चरित्र लिखा गया है। जैनों ने श्रीराम का यशोगान किया है: किन्तु जैनों के राम और वैदिक राम में मुख्य भेद यह है कि जहां वैदिकों के राम ने भगवान होकर मनुष्य रूप में अवतार ग्रहण किया वहां जैनों के राम सामान्य मानव के रूप में जन्मे और अपनी साधना के बल पर भगवान बने । दोनों द्वारा राम के चरित्र चित्रण में और भी कई दृष्टिभेद कुछ का तुलनात्मक अध्ययन विद्वान् लेखक ने किया है। हैं जिनमें से अपनी इस रचना में प्रस्तुत - पोल्याका वाल्मीकि रामायण और जैन रामकथा जैनों के त्रिपष्टिशलाका पुरुषों में चौबीस थंकरों के अलावा 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 सुदेव तथा 9 प्रतिवासुदेव होते हैं । जैन मान्यता मुताबिक राम प्रवरारिणी के 63 शलाका पुरुषों 18 वें बलदेव, लक्ष्मण अष्टम वासुदेव तथा रावण वासुदेव हैं । जैन धर्म भी रामकथा से श्रोतप्रोत है । जैन म्पस का श्रीगणेश विमलसूरि के प्राकृत ग्रन्थ हम चरिय' से होता है । परन्तु यह सर्वथा निश्चित कि विमलसूरि के समय हिन्दू रामकथा का रूप विकसित तथा सम्बद्धित हो चुका था । वस्तुतः म कथा को सुविकसित तथा सुस्थापित करने का वर्ण श्रेय आदि कवि वाल्मीकि को है । डा० (प्रान दी रामायण ) तथा दिनेशचन्द्र सेन (बंगाली रामायंस ) ने बौद्ध जातकों की राम वीर जयन्ती स्मारिका 78 डाक्टर लक्ष्मीनारायण दुबे सागर वि० वि०, सागर Far को वाल्मीकि से पूर्व माना था परन्तु अब इस अभिमत की निस्सारता प्रमाणित हो चुकी है । वाल्मीकि के आधार पर 'महाभारत' का रामोपाख्यान हुआ और तदनंतर जैन इस क्षेत्र में आये । जैन साधु-परम्परा में भी रामकथा का रूप विद्य मान था । विमलसूरि (वि०स० 60 ) तथा रविषेणाचार्य (वि० सं० 733 ) जैन रामकथा के दो महान् पुरोधा थे । स्वयम्भू ( ग्राठवीं शताब्दी ईसा ) भी रविषेणाचार्य से प्रभावित हुए थे । जैन रामकथा का एक प्रवाह गुणभद्राचार्य के 'उत्तर पुराण' में भी मिलता है । इस कथा में दशरथ वाराणसी के राजा थे । सीता मंदोदरी की पुत्री थी । लक्ष्मरण एक असाध्य रोग से ग्रसित होकर स्वर्गवासी हुए थे । स्वयम्भू के 'पउम चरिउ' में देवतानों को राम-लक्ष्मण 2-85 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के परस्पर प्रेम से ईर्ष्या होती है और लक्ष्मण की वाल्मीकि और तुलसी राम को वन यात्रामें कहीं, परीक्षा के लिए कोई देवता राम की मृत्यु की तैरते नहीं बताते परन्तु 'पउम चरिय' में राम बनघोषणा कर देता है जिसके कारण लक्ष्मण शरीर स्थित भयंकर नदी को तैर कर पार करते हैं । त्याग देते हैं । गुणभद्र में वाल्मीकि रामायण के चित्रकूट को जैन रामकथा में गरिमा नहीं मिली। धनुष यज्ञ, कैकयी हठ, राम-वनवास, पंचवटी, राम-लक्ष्मण तथा सीता का वनवास तथा क्रियाकदण्डक वन, जटायु, सूर्पणखा, खर दूषण, सीता लाप विमलसूरि में वाल्मीकि से सर्वथा वैभिन्न्य अपवाद आदि सन्दर्भो की चर्चा नहीं है। की स्थिति रखता है। वाल्मीकि रामायण का सीता हरण पंचवटी में होता है परन्तु जैन रामकथा में गुणभद्र की रामकथा दिगम्बर सम्प्रदाय की दण्डक वन में । बालि जैन दीक्षा लेता है । 'पउम शोभा है परन्तु विमलसूरि दिगम्बर- श्वेताम्बर चरिय' में राम-रावण युद्ध में सीता का भाई भामण्डल दोनों में मान्य है । स्वयम्भू विमल तथा रवि, दोनों भी राम की मदद के लिए वाहिनी सहित पाता है। की रामकथा को अपना आधार बनाते हैं। रावण का वध राम न करके लक्ष्मण के हाथों विमलसूरि ने वाल्मीकि की रामकथा में बड़ा उसका वध होता है। वहां के लवकुश यहां अनंगपरिवर्तन ला दिया है । कतिपय प्रसंग तथा पात्रों लवण तथा मदनांकुश हैं। नारद दोनों कथानों में का नामोनिशान नहीं मिलता । अनेक मौलिक तरो-ताजगी के साथ वर्तमान है । उद्भावनाएं तथा प्रसंग समाविष्ट हो गये हैं। विद्याधर, राक्षस तथा वानरों के प्रति जैन विमलसरि को हिन्दनों की पौराणिक कथानों, दृष्टिकोण हिन्दुनों की रामकथा की अपेक्षतया अधिक धार्मिक क्रियाकलापों तथा ऋषियों-मुनियों से सरो- उदार एवं सहानुभूतिपूर्ण है। 'पउम चरिय' के कार नहीं । उनमें वशिष्ठ, विश्वामित्र तथा ऋषि पच्चीसवें उद्देशक और 'पउम चरिउ' की बीसवीं शृग की चर्चा नहीं है । वाल्मीकि के राम मिथिला संधि में रामकथा का शुभारम्भ है। दोनों में विद्याके मार्ग में ताड़का का वध करते हैं परन्तु 'पउम। धर-राक्षस-वानर के वंशों के वर्णनों के विस्तारपूर्वक चरिय' में इसका कोई सत्र नहीं मिलता। राम- महत्व मिला है । 'रामायण' विद्याधर को देवयोनि परशुराम सम्वाद, श्रवण का आख्यान, मंथरा मानती है परन्तु 'पउम चरिय' मानव । जैनों ने कैकयी-सम्वाद, स्वर्णमग प्रसंग और सेतबंध के इनको एक मानव कुल की विविध प्रणाखानों के वर्णनों का यहां अभाव है । रूप में देखा परखा है। वाल्मीकि रामायण के कुछ सन्दर्भो को विमल- विमलसूरि की यह नवीन प्रसंगोद्भावना है सूरि थोड़े परिवर्द्धन के साथ स्वीकार करते हैं। कि राम-जन्म के पूर्व, दशरथ तथा जनक एक साथ वाल्मीकि के राम, कौशल्या तथा शूर्पणखा विमल- देशाटन करते हैं । विमलसूरि अनेक गौण कथाओं सूरि में आकर पद्म, अपराजिता तथा चन्द्रनखा को जन्म देते हैं यथा वज्रकर्ण, कपिल, अतिवीर्य, बन जाती हैं। वाल्मीकि नहीं अपितु विमलसूरि वनमाला, रामगिरि आदि। लक्ष्मण कोटिशिला उठा सीता स्वयंयर रचते हैं। विद्याधर राजानों ने वानरों में शक्ति का संचार करते हैं । राम-सुग्रीव लक्ष्मण को अट्ठारह कन्याओं से विवाहित किया। तथा बालि-सुग्रीव के प्रसंग में साहसगति विद्याधर जैन रामकथानों में राम की आठ हजार पत्नियों की कल्पना विमलसूरि का मौलिक सृजन है । तथा लक्ष्मण की सौलह हजार रानियों का विवरण मिलता है। अंत में सीता सर्वगुप्त नामक मुनि से दीक्षा महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहण करती है । डा०संकटाप्रसाद उपाध्याय ने लिखा है कि वाल्मीकीय रामकथा का प्रवाह इस प्रकार विमलसूरि के हाथों अनेक परिष्कारों- तिरस्कारों एवं ग्राविष्कारों के मार्ग से होता हुग्रा अपनी चरम परिरगति को प्राप्त होता है । ब्राह्मण परम्परा से प्रत्येक विलगाव साभिप्राय है और वह अभिप्राय है सभी मुख्य पात्रों का जैन होना दिखाना । इसके अतिरिक्त आधिकारिक कथा के बीच-बीच में जो जैन धर्म, शिक्षा, सृष्टि - व्याख्या, साधु-धर्म, वृत्तात, कर्म - सिद्धान्त, जैन- कर्मकाण्ड विवेचन मिलता है, वह सब विमल की प्रसूत नवीनता है । डा० हीरालाल जैन संस्कृति में जैन धर्म का योगदान) का विचारणीय है कि राम और लक्ष्मण तथा कृष्ण पूर्वभव महावीर जयन्ती स्मारिका 78 आदि का कल्पना से (भारतीय अभिमत और बलदेव के प्रति जनता का पूज्यभाव रहा है व उन्हें अवतार - पुरुष माना गया है। जैनियों ने तीर्थकरों के साथ-साथ इन्हें भी त्रेसठ शलाका पुरुषों में आदरणीय स्थान देकर अपने पुराणों में विस्तार से उनके जीवन-चरित का वर्णन किया है । जो लोग जैन -पुराणों को हलकी और उथली दृष्टि से देखते हैं, वे इस बात पर हंसते हैं कि इन पुराणों में महापुरुषों को जैन मतावलम्बी माना गया है व कथाओं में व्यर्थ हेरफेर किए गये हैं । उनकी दृष्टि इस बात पर नहीं जाती कि कितनी श्रात्मीयता से उन्हें अपने भी पूज्य बना लिया गया है और इस प्रकार अपने तथा अन्य धर्मो, देश भाइयों की भावना की रक्षा की है । 2-87 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओंकारं बिन्दु संयुक्त.... *श्री नन्दकिशोर जैन एम० ए० सम्पादक-"ज्ञानकीति" चौक, लखनऊ बिन्दु युक्त प्रोंकार जिसे, योगी जन नित प्रति ध्याते हैं । जिसकी भक्ति प्रसाद भव्यजन, काम मोक्ष सुख पाते हैं ।। जिसकी गुरु, गम्भीर, निरन्तर, ध्वनि सून पाप नसाते है। जग के अध-प्रक्षालक को हम, सविनय शीश नवाते हैं । (2) REE 888888888888888 जिसकी महिमा सुर, नर गाते, तीर्थ समान बखानी है । मुनीश्वरों से पूजित ऐसी, सरस्वती जिन बानी है ।। दूर करें अज्ञान अधेरी, प्रांजें ज्ञान सलाई ज्यों । मोहित, बन्द नयन जो खोलें, वंदन ऐसे गुरुवर को ।। (3) सकल कलुष विध्वंस करे जो, पथ कल्याण दिखाता है। धर्म समन्वित शास्त्र वही, मन भव्य-जनों के भाता है। वक्ता, श्रोता उभय पक्ष को, अरु जो शास्त्र प्रदाता है । पुण्य प्रकाशक, पाप प्रणाशक, जिन-वारगी सुखदाता है । गिरी सम श्री सर्वज्ञ देव मुख, मल रूप से आई है । गगाधर पुनि प्रति गणधरादि, ग्रन्थों की धार बहाई है ।। ऐसी पतित पावनी माता, सबको गले लगाती है । सावधान हो सुनिए प्रियवर, शान्ति हृदय सरस तो है ।। (5) मंगल कारक महावीर प्रभु, गौतम गणधर मलल रूप। करें कुदकुदादिक मंगल, मंगल दा जिन धर्म अनूप ।। यह मंगल चित लाते सत्वर, पाप सभी गल जाते हैं । करते हैं कल्याण जीव का, संकट सभी नशाते हैं । इसीलिए तो सब धर्मो में, सर्व प्रधान बखाना है । जयतु-जयतु जय जय जिन शासन, सुख अरु शाँति खजाना है ।। 2-88 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (NNISIS 奖奖姿心 __ प्रायः ऐसा समझा जाता है कि मुसलमान शासक मूर्तियों के और वह भी दिगम्बर जैन मूर्तियों तथा दिगम्बर साधुओं के विशेषकर कट्टर विरोधी थे। उन्होंने हजारों जैन मंदिरों और मूर्तियों का विध्वंस किया था, यह बात इतिहास से सिद्ध भी है किन्तु इसका दूसरा पक्ष भी है जो अब तक प्रायः अप्रचारित रहा है । प्रस्तुत रचना मुस्लिम शासकों द्वारा जैनों, उनके धर्म तथा प्रायतनों के प्रति बरती गई सहानुभूतियों और उन पर जैन धर्म के प्रभाव का ऐतिहासिक विवेचन प्रस्तुत करती है। धार्मिक सहिष्णुता के प्रचार प्रसार के लिए, जिसकी कि वर्तमानकाल में अतीव आवश्यकता है, ऐसी रचनाओं का महत्व स्वयंसिद्ध है। -पोल्याका मुस्लिम राज्य में जैन धर्म . श्री दिगम्बरदास जैन, एडवोकेट, सहारनपुर The Muslim Emperors, who are known for their cruel behaviour, were also influenced by the flowless nolle lives of Jaina Acharyas, Jain Saints and Jain teachings. Jain Acharyas by theii character, attainments and scholarship commanded respect of even Mohammac'en sovereigns like Allaudin and Aurangzeb. --Prof. Ramaswami Ayanger; Studies in South Indian Jainism, Vol. II, Page 132. 1. गौरी वंश (1175-1206 ई०) के 2. गुलाम बंण (1206-1290 ई०) के मोहम्मद गौरी के राज्य-काल में नग्न जैन साधु राज्य काल में मूलसंघ सेनगण के प्राचार्य दुर्लभभारी संख्या में बिना किसी रोक-टोक के भरे सेन आदि दिगम्बर जैन साधु विनयपूर्वक विहार बाजारों में विहार करते थे। उनकी नग्नता का करते थे। कुतबुद्दीन (1206-1210 ई०) पर मोहम्मद गौरी पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा था जैनाचार्य जिनप्रभसूरि की मधुर व प्रभावशाली कि उन की बेगम को भी नग्न जैन साधुओं के वाणी का बड़ा प्रभाव था । इतिहासरत्न श्री दर्शनों की अभिलाषा हुई । मोहम्मद गौरी ने नग्न अगरचन्द नाहटा के शब्दों में र्जनाचार्य जिनप्रभदिगम्बर जैनाचार्य को अपनी राज्य सभा में बुला सूरि ने कुतबुदीन को प्रतिबोध दिया । पाण्डु देश के कर उन का बड़ा सम्मान किया ।। जैन राजा समरसिंह को ससंघ जैन तीर्थों की यात्रा महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-89 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का राज्य-फरमान दिया और जब वह विशाल बड़ा आदर सत्कार करते थे। राज्य टकसाल का संघ यात्रा से वापस लौटा तो कुतुबुद्दीन ने अधिकारी भी जैन था ।15 जिस के प्रभाव से अलाइनका बड़ा आदर-सम्मान किया । नासिरुद्दीन उद्दीन ने 32 राज्य फरमानों द्वारा जैनधर्म की (1246-1266 ई०) के राज्यकाल में जैनाचार्य प्रभावना की।16 राजाज्ञा द्वारा अलाउद्दीन ने जैन पदमदेव की भविष्यवाणी से कि अगले 3 सालों में मुनियों को अनेक प्रकार की सुविधा दी और जैन भारत में अत्यन्त भयानक अकाल पड़ने वाला है, तीर्थ स्थानों पर जीव हत्या न करने के आदेश कच्छ देश के जैन सेठ जगडु शाह ने जनता के हित जारी किए 117 इन फरमानों की प्रतिलिपियां आज के लिए इतना अधिक अनाज करोड़ों रुपयों का भी नागोद और कोहलापुर के भट्टारकों के पास खरीदा कि समस्त भारत के 215 नगरों में बड़ी सुरक्षित है ।18 मेवाड़ के महाराणा हमीरसिंह जैन विशाल भोजन शालाएं खुलवाई जहां से प्रतिदिन 5 धर्म अपनाते थे । वे इतने योद्धा और वीर थे कि लाख व्यक्तियों को बिना जांत-पांत के भेद के विना अलाउद्दीन को उनके देश पर उन के जीवन काल मूल्य भोजन मिलता था । गुजरात, सिन्ध, मिवाड़, में आक्रमण करने की हिम्मत न पड़ सकी और कन्धार, मालवा, काशी आदि देशों के राजाओं को उनसे मित्रता कर ली। ही नहीं बल्कि दिल्ली के सम्राट् नासिरुद्दीन को 62 लाख 10 हजार मन अनाज दिया । वह उसका 4. तुगलक वंश के गयासुद्दीन तुगलक (1320मूल्य देने लगा तो इन्कार कर दिया। वलबन 1325 ई०) पर जैन सेठ हरू के पुत्र राय पति (1266-1290 ई०) के दो राज्य मन्त्री जैन थे। का जो एक उत्तम श्रावक व्रति जैन था, बड़ा जिनके नाम सुर और वीर थे। इस के राज्य-काल प्रभाव था, जिनको गयासुद्दीन ने समस्त भारत के में अनेक तीर्थकरों की मूर्तियां प्रतिष्ठित और जैन तीर्थों की ससंघ यात्रा का ही फरमान नहीं दिया मन्दिरों में बड़ी धूम-धाम से स्थापित हुई। बल्कि प्रान्त राज्यों को भी आदेश दिया कि जहां जहां जैन संघ जावे इनको पूरा सहयोग दिया जावे 3. खिलजी वंश का सुप्रसिद्ध सम्राट अला- और इस बात का ध्यान रखा जावे कि उनके संघ उद्दीन खिलजी (1296-1316 ई०) जैन साधुनों की यात्रा में किसी प्रकार का भंग न पड़ने पावे। के आचरण और ज्ञान से बड़ा प्रभावित था। गयासुद्दीन ने जैन भट्टारक मल्लिभूषण का अपनी दिगम्बर जैन आचार्य महासेन की सुप्रसिद्धि सुनकर राज्य - सभा में बुला कर बड़ा आदर सम्मान उसने उन्हें अपनी राज्य-सभा में बुलाया। उनके किया । मोहम्मद तुगलक (1325-1351 ई०) ज्ञान और आचरण से प्रभावित होकर अपना ने जैन प्राचार्य सिंह कीर्ति को अपनी राज्य सभा मस्तक नग्न प्राचार्य महासेन के चरणों में झुकाया। में बुलाकर बड़ा सम्मानित किया था। इन्होंने अलाउद्दीन ने श्वेताम्बर जैनाचार्य रामचन्द्र का भी उस की राज्य सभा में बौद्ध आदि अनेक धर्मों के बड़ा सम्मान किया ।10 सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी विद्वानों पर वाद में विजय प्राप्त की थी । डा. ने दिगम्बर आचार्य ध्रत वीर स्वामी के भी दर्शन वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार मोहम्मद तुगलक किए 11 अलाउद्दीन की राज्य-सभा में राघो चेतन के ने जैनियों को न केवल तीर्थों की यात्राओं बल्कि साथ नग्न प्राचार्य महासेन का वाद हुवा ।' अला- जैन नये मन्दिरों के23 बनवाने और प्राचीन उद्दीन के खजाञ्ची और रत्नपरीक्षक ठाकुर और मन्दिरों के जीर्णोद्धार की सहुलियतें दी। जैनाचार्य फेरू जैन अणुव्रती श्रावक थे ।1 अलाउद्दीन का नगर जिनप्रभ सूरि का सुल्तान पर बड़ा प्रभाव था । सेठ पूर्ण चन्द भी जैन धर्मी था जिसका सुल्तान इन्होंने अपना सुप्रसिद्ध इतिहास “विविध तीर्थ 2.90 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प" इन्हीं के राज्य-काल में रचा 24 | और इनको शाह (1421-1430 ई०) का राज्य मन्त्री साह जैन प्रभावना के अनेक फरमान दिये। जैनाचार्य हेमराज जैन धर्मी था जिस ने सम्राट की आज्ञा से प्रभाचन्द्र का भी मोहम्मद शाह तुगलक पर बड़ा एक भव्य जैन मन्दिर बनवाया और अनेक तीर्थप्रभाव था । इन्होंने भी इस के राज्य-काल में अनेक करों की जैन मूर्तियां प्रतिष्ठित कराकर उसमें बढ़ी महान प्रभावशाली जैन ग्रंथ रचे 26 | फिरोजशाह धूमधाम से विराजमान कराई। तथा समस्त 24 तुगलक (1351 - 1388 ई०) ने दिगम्बर जैन तीर्थंकरों के प्रतिविम्ब युक्त पाषाणपट्ट निर्माण साधुअों के तप-त्याग, ज्ञान तथा आचरण की कराये । हस्तिनापुर आदि अनेक तीर्थ यात्राओं के प्रसिद्धि सुनकर उन्हें न केवल अपनी राज्य-सभा में आज्ञा-पत्र जारी किये । जैन मुनि यशः कीर्ति आदि बल्कि अपने राजमहल में सादर बुलाया। इसकी ने स्थान-स्थान पर विहार कर के जैन धर्म का प्रचार बेगम ने भी जैन मुनि के दर्शन किये27 । देश, काल किया । पाण्डव पुराण आदि अनेक महान जैन और क्षेत्र का विचार करते हुये जैनाचार्य ने अपने ग्रन्थों की रचना और प्राचीन जैन मन्दिरों का एक शिष्य को लंगोटी लगाकर राज्य सभा में जाने जीर्णोद्धार समस्त भारतवर्ष में हुमा । का प्रादेश दिया और स्वयं तपस्यार्थ निर्जन बन में 6. लोधी वंश के सुप्रसिद्ध सम्राट बहलोल चले गये । इस प्रकार वह पहला भट्टारक हुवा । लोधी (1451-1489 ई०) पर दि० जैन आचार्य उसने इस का प्रायश्चित लिया फिर भी उस समय जिनचन्द्र (1450-1518 ई०) का बड़ा प्रभाव से भट्टारकों की एक नयी सम्प्रदाय प्रचलित हो गई28 । हालांकि वे सदा जैन धर्म की प्रभावना था जिन्होंने इसके राज्य-काल में अनेक तीर्थकरों और जैन सिद्धान्तों का पालन करते रहे। मो० की प्रतिमायें तथा समस्त 24 तीर्थकरों की मूर्तियों शाह तुगलक (1388-1394 ई०) पर भी जैना.. के पट निर्माण कराकर अनेक जैन मन्दिरों में विराजमान कराये35 । सिकन्दर लोधी पर दि. चार्य जिन प्रभसूरि का बड़ा प्रभाव था। उन के जैन प्राचार्य प्रभाचन्द्र का बड़ा प्रभाव था36 जिस राज्य-कोष में भ० महावीर की मूर्ति थी30 । वह के कारण इनके राज्यकाल में 24 तीर्थकरों की उसने प्राचार्य महाराज को भेंट की। इस विचार से कि सूरि जी महाराज को दूर से पैदल आने में मूर्तियां प्रतिष्ठित होकर जैन मन्दिरों में स्थापित हई और जैन धर्म प्रभावना के अनेक कार्य हए । कष्ट होता होगा सम्राट मो० शाह ने अपने महल दि० जैनाचार्य विशाल-कीर्ति का सिकन्दर लोधी ने के निकट सरकारी खर्चे से जैनियों के लिए भट्टारक बड़ा सम्मान किया। नग्न जैन38 साधु बिना किसी सराय नाम बस्ती बनवा कर तथा राज्य-भार पर रोक-टोक के इन के राज्य में विहार करते थे। ही जैन मन्दिर निर्माण करा कर भ० महावीर की सम्राट के हृदय पर जैन साधुओं के ज्ञान, तप और वह मूर्ति जो राज्य-कोष में थी विनयपूर्वक उस आचरण का बड़ा प्रभाव था । इब्राहीम लोधी मन्दिर में विराजमान करा दी1 तुगलक राज्य में (1517-1526 ई०) के राज्य काल में अनेक तीर्थअनेक तीर्थकरों की प्रतिमायें निर्मित और करों की मूर्तियाँ जैन मन्दिरों में स्थापित हुई। प्रतिष्ठित होकर विशाल पंच कल्याणक उत्सव चौधरी टोडरमल ने 1518 ई० में महापुराण सहित जैन मन्दिरों में विराजमान होती रही 32 । लिखा। वास्तव में तुगलक राज्य में जैन धर्म को बहुत अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त थी331 7. बाबर (1526-1530 ई०) जैन कवि महाचन्द्र का बड़ा सम्मान करता था। बाबर के 5. सैयद वंश के सुप्रसिद्ध सम्राट् मुबारिक नगर सेठ साहु, साधारण जैन थे जिन्होंने बाबर से महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-91 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा लेकर जैन मन्दिर बनवाया और हस्तिनापुर कार स्मिथ के शब्दों में जैन साधुओं ने निश्चित आदि जैन तीर्थों के लिए संघ चलाया1 | साहुजी रूप से अकबर को वर्षों तक जैनधर्म की शिक्षा दी के पुत्र सेठ नेमिदास ने बाबर की आज्ञा से तीर्थकरों जिसके कारण उसका आचरण इतना अधिक बदल की अगणित प्रतिमायें निर्माण कराकर पंच गया कि संसार यह समझने लगा कि अकबर जैनकल्याणक उत्सव द्वारा इनकी प्रतिष्ठा कराकर अनेक धर्मी हो गया । जैन त्यौहारों पर जीवहत्या करने जैन मन्दिरों में विराजमान कराई 42 । वाले अपराधी को मृत्यु दण्ड घोषित किया । सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा० ईश्वरी प्रसाद के अनु8. हुमायू (1530-1540 ई०) के राज्य सार अकबर द्वारा स्वयं मांस-भक्षण का त्याग और काल में इस युग के प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव प्राणियों को किसी प्रकार का दुःख देने पर रोक का प्रादि पुराण रचा गया जिसमें उनके जीवन से लगाना केवल जैन साधुओं के प्रभाव का फल था। सम्बन्धित 500 चित्र लगभग 450 वर्ष प्राचीन । स्वयं अकबर के विचार उस के राज्य मन्त्री अबूल चित्रकला के महत्व को सिद्ध करते हैं। इस सचित्र फजल ने प्राइना-ए-अकबरी में लिखते हुए बताया आप सप का एक भात आज मा जयपुर के है कि अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन और मिष्टान्न तेरापंथी दि० जैन मन्दिर में सुरक्षित है। सुप्रसिद्ध प्राप्त होने पर भी मनुष्य अपने पेट को पशुओं की जैन विद्वान पं० बनारसीदास के बाबा मूलचन्द कब्र बना रहा है52 । अकबर का आचरण देखकर जैन का हुमायू बड़ा आदर सत्कार करते थे और पुर्तगीज पादरी पीन हेरू ने जो अकबर के समय उनको जागीर प्रदान की थी43 । भारत की यात्रा को आया था, 3 सितम्बर 1595 ई० में अपने बादशाह को अपने पत्र में सूचित 9. शेर शाह सूरि (1540-1555 ई०) के किया कि अकबर जैन धर्म का अनुयायी है। राज में जहां भी चोरी आदि अपराध होते थे, वहां मुस्लिम बादशाहों के खजाञ्ची साधारण रूप से जैन के शासक द्वारा मुखिया और कोतवाल को भी धर्मी होते रहे परन्तु अकबर की टकसाल का महाउतना ही दण्ड दिया जाता था जितना अपराधी अधिकारी साह रनवीर भी जैन था जिस की को दिया जावे । इस लिए इसके राज्य में जनता ईमानदारी से प्रसन्न होकर अकबर ने उसे भूमि खुले किवाड़ सोती थी। पिशावर से कलकत्ते जागीर में दी जिस में उस ने एक नगर बसाया तक पक्की सड़क बनवाई जिसको आजकल G. T. और अपने नाम साह रनबीर पर उस नगर का Road कहते हैं । प्रत्येक वर्ष पौने दो लाख स्वर्ण नाम सहारनपुर रखा । अकवर की जैन-धर्म में मुद्राएं न केवल मसजिदों बल्कि मन्दिरों तक को अधिक श्रद्धा जानने के लिये प्राइना-ऐ-अकबरी के भेंट देता था और हिन्दुओं को भी बड़े बड़े पदों पर तीसरे भाग का 5 वां अध्याय देखिये जिसका हिन्दी नियुक्त कर रखा था। जैन नग्न साधु इसके अनुवाद जैन सन्देश के शोधांक दिनांक 10 अक्टूबर राज्य में बिना रोक-टोक विहार करते थे 46 । दि० 1963 के प० 218 से 233 देखिये। जैनाचार्य विशाल कीति का शेरशाह सूरि बड़ा सम्मान करता था। इस के राज्य काल में भी 11-जहांगीर (1605-1627 ई०) को जैन अनेक तीर्थकरों की मूर्तियां निर्मित, प्रतिष्ठित और साधुओं पर बड़ी श्रद्धा थी। वह अपनी राज्य मन्दिरों में विराजमान हुई । सभा में उनका बड़ा सम्मान करता था56 जिनके प्रभाव से उसने जैन धर्म की प्रभावना के अनेक .. 10. अकबर महान (1556-1605 ई०) पर फरमान जारी किये। जैन प्राचार्य जिनसेन जैन साधुओं का बड़ा प्रभाव था। सुप्रसिद्ध इतिहास को युग प्रधान की उपाधि प्रदान की । 2-92 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमदाबाद के नगर सेठ सेवा सोम ने जैन ले सकें। जब मुसलमोन नमाज जोर से पड़ सकते मन्दिर इसके राज्य काल में बनवाया59 जैन हैं तो हिन्दू जोर से भजन गाने में अपराधी कैसे ?. पर्व दशलक्षण के दसों दिन जीव हत्या बन्द शाहजहां को इस बात का दुःख हुआ कि हिन्दुओं रहती थी60 । शत्रुञ्जय में नगर सेठ शान्तिदास ने के पास कोई मन्दिर नहीं जिस के कारण उन्हें 10वें तीर्थकर शान्तिनाथ का मन्दिर जहांगीर के भगवान का नाम घर पर ही लेना पड़ता है। समय में बनवाया था। 1616 ई० में पंच उसने मसजिद के पास ही सरकारी भूमि पर राज्य कल्याणक उत्सव द्वारा तीर्थकरों की मतियों की भार से भगवान की पूजा के लिये एक मन्दिर प्रतिष्ठा और स्थापना हुई। बनवा दिया। शाहजहां जैन साधुओं और विद्वानों का भी बड़ा आदर करता था । जैन महार 12-शाहजहाँ ने (1627-1658 ई०) पक्का बनारसीदास का उसने राज्य सभा में मुसलमान होने पर भी अपने जैन सेनापति बुलाकर बड़ा सम्मान किया था। को 23 वें तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति अपने राज-तम्बुप्रों में रखने की आज्ञा दे रखी थी 13. औरंगजेब (1658-1707 ई०) अत्यन्त जिस की पूजा वह सैनिक कार्य प्रारम्भ करने मुस्लिम पक्षी बादशाह था परन्तु अपने तप, ज्ञान से पहले किया करता था । अहिंसा व्रती होने और आचरण से जैन साधुओं ने उसका कठोर पर भी यह सेनापति इतना योद्धा और वीर था कि हृदय भी जीत लिया था, इसलिये वह उनका शाहजहां ने अपने लाल किले के निकट ही दि० उपदेश सुनता था, उनका बड़ा सम्मान करता जैन लाल मन्दिर बनवाने की प्राज्ञा दी। वह जैन . था। डा० बीनयर औरंगजेब के राज्य काल मन्दिर तथा पार्श्वनाथ की वह मूर्ति जो उसके में भारत की यात्रा को आये थे उन्होंने नग्न तम्बुनों में बिराजमान थी इस मन्दिर की आज भी जैन साधुनों को बड़े बड़े बाजारों तक में बिना मूल नायक प्रतिमा है । यही कारण है कि लाल किसी रोक टोक के विहार करते देखा । स्त्रियाँ मन्दिर शाहजहां के समय का और पार्श्वनाथ मूर्ति तक उनकी भक्ति करती थी। चान्दखेडी में सिकन्दर लोधी के राज्यकाल की 1491 ई० की भगवान महावीर का मन्दिर, तीर्थकर- मूर्तियों प्रतिष्ठित है। की स्थापना तथा पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं औरंगजेब के राज्य काल में हुई68 ।। औरंगजेब जब युवक था तो उसने एक जैन मन्दिर को तुड़वा दिया। शाहजहां को पता चला लालमन्दिर में प्रतिदिन नकारा बजा करता तो उसने औरंगजेब को धमकाया और राज्यभार था । औरंगजेब का खयाल था कि उस की आवाज पर पहले जैसा ही शानदार मंदिर बनवा दिया और उस की निद्रा में बाधा डालती है क्योंकि लाल किला उसमें अनेक तीर्थकरों की मतियां स्थापित कराई631 लाल मन्दिर के निकट था। उसने यह बहाना बना शाहजहां ने जैन धर्म की प्रभावना में पूरा सहयोग कर कि राज्य कार्यों में नकारे की आवाज से बाधा दिया। कुछ मुसलमानों ने शाहजहाँ से फरियाद होती है उसके बन्द करने का आदेश दे दिया । की कि लालसिंह अपने घर में इतने जोर से अपने आदेशानुसार नकारा नहीं बजाया गया फिर भी भगवान के भजन गाता है कि निकट की मसजिद वह स्वयं बजता रहा । औरंगजेब ने पूछा-नकारा में नमाज पढ़ने बालों को बाधा होती है। शाहजहां क्यों बन्द नहीं हुआ ? कोतवाल ने कहा कि वजाने ने निर्णय दिया कि ऐसा कोई कानून नहीं है कि वालों ने तो बन्द कर दिया परन्तु वह स्वयं ही बज हिन्दू मसजिद के पास अपने भगनान का नाम न रहा है। औरंगजेब को विश्वास न आया। स्वयं महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2. 93 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिर में आया और बिना बजाये नकारा बजने को मोहले वालों के दुःख को अनुभव कर के वे तुरन्त उसने भगवान का अतिशय मान अपना आदेश देहली पहुंचे और बादशाह सलामत को सारा हाल वापस ले लिया और नकारा सदा की भांति बजाने सुनाया। बादशाह ने तुरन्त नवाब साहिब को का आदेश दिया 169 1 आदेश दिया कि मोहला संघियान में मस्जिद बन वाना तुरन्त बन्द कर दो। हमने यह भूमि जैनियों ... 14. मोहम्मद शाह (1729-1748 ई०) को प्रदान कर दी है इसलिये उस स्थान पर जैन के मौलवियों ने फतवा दे रखा था कि हदीस के मन्दिर सरकारी खर्च पर बनवाया जावे। मन्दिर अनुसार जीव हिंसा उचित नहीं है इसलिये सम्राट की नींव खोदते हुये भ० महावीर की हजारों वर्ष मोहम्मद शाह ने अपने राज्य में जीव-हिंसा बन्द प्राचीन अत्यन्त मनोज्ञ सातिशय मूर्ति भू-गर्भ से कर दी थी ।70 दि० जैन मन्दिर खजूरतला प्राप्त हुई जो अाज तक इसी मन्दिर में विराजमान मस्जिद दिल्ली इसी के राज्य काल में 1741 ई० हैं । यह विशाल मन्दिर 1745 में बनकर तैयार में निर्मित हआ था ।1 मोहम्मद शाह के कम- हवा था । सरियत विभाग के अधिकारी प्राज्ञामल जैन ने इसी के राज्य काल में दिगम्बर जैन पंचायती मन्दिर 15. आलमगीर द्वि० (1754-1764 ई०) 1743 ई० में बनवाया था । 72 सहारनपुर में ने हकूमतराय जैन की सुप्रसिद्धी सुन कर हिसार गुलाम वंशी मुस्लिम नवाब का राज्य था। यहां के (हरियाणा प्रान्त) से देहली बुलाकर नगर सेठ मोहला संघियान में जैन तो बहुत रहते थे परन्तु, ___ की पदवी प्रदान की। इनके सुपुत्र हरसुखराय जैन जैन मन्दिर कोई नहीं था। जैनियों के प्रतिनिधि को अपना खजाञ्ची बनाया। इनकी ईमानदारी मवाब से मिले और जैन मन्दिर बनवाने की और राष्ट्रीय सेवायों से प्रसन्न होकर प्रालमगीर ने प्राज्ञा मांगी। नवाब ने कहा कि वहाँ मस्जिद इनको "राजा" की उपाधि भेंट की और इनको अपनी राज्य सभा के नौ रलों में स्थान दिया। बनेगी। जैनियों ने कहा कि हमारे मोहले में एक .. लाल किले में बादशाह ने 9 रत्नों के भी मुसलमान नहीं रहता। नवाब ने उत्तर दिया कि इस से पाप को क्या मतलब ? जब सहारनपुर चित्र अंकित कराये थे उन में इनका भी चित्र है। धर्मपुरा देहली का ऐतिहासिक विशाल जैन मन्दिर के हर मोहले में मस्जिद बनी हुई है तो कोई इन्होंने इन के राज्यकाल में बादशाह की आज्ञा से कारण नहीं कि आपके मोहले में न बने । उसने बनवाया था । 74 मस्जिद बनवाना प्रारम्भ करा दिया। इसी मोहले में हकीम ठाकुरदास जैन रहते थे जो गरीब अमीर 16. हैदरअली दक्षिण भारत का अन्तिम सब का इलाज निःशुल्क करते थे। उनके इलाज बादशाह था। बड़ा कट्टर मुसलमान था परन्तु से मोहम्मद शाह की बेगम को आराम हो गया जैनियों की निष्पक्ष देश सेवामों से प्रभावित होकर था। बादशाह ने प्रसन्न होकर कई ग्राम उन्हें उसने तीर्थंकरों की मूर्तियों की पूजा के खर्च के लिये पुरस्कार में देना चाहा परन्तु उन्होंने नहीं लिये। अनेक ग्राम जैन मन्दिरों को भेंट किये ।75 1. It was nudity of Jain Saints, whom Sultan found in a good number in India (ELLIOT : History of India, Vol. I P. 6) which specially attracted the attention of Muslim Sulian Mohd. Gori, who at least entertained 2-94 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ one of them, since his wife desired to see the Chief of Digamberas.--- (i) Indian Antiquary Vol. XXI P. 361. (ii) New Indian Antiquary Vol. I. P. 517. 2. वीर, Vel. IX पृ० 153. 3. अगरचन्द नाहटा : ऐतिहासिक काव्य संग्रह पृ० 11-13. 4-5. जैन सिद्धान्त भास्कर, जनवरी 1941, पृ० 102. 6. विस्तार के लिये किस-किस प्रान्त के किस-किस राजा और बादशाहों को कितना अनाज विना मूल्य दिया देखो-कल्याण मार्च 1954, पृ० 105.. 7. Sur and Vir, the Jain Chiefs of Pragavator clan were the ministers of Ghyasudin (Balban)—Dr. B. A. Saletore : Karnataka Historical Review, Vol. VI Page 85 8. जैन सिद्धान्त भास्कर (बारा) भाग 1 अंक 4, पृ० 109. 9. Allaudin Khilji hearing fame of naked Jain Saints, called one Jain Acharya Maha Sen appeared in his Darbar and held religious discussions with his adversaries. THE SULTAN BENT his head before his profound learning and asceticism.-Jain Sidhant Bhaskar Vcl. I Part IV, P. 109. 10. Allaudin honoured Svetamber Jain Acharya Ram Chandra. --Per Jainismis (Berlin) P. 66. 11. Allaudin also meet with Digamber Saint Shruti Vir Swami-Jain Sidhant Bhaskar Vol. I Part II P. 5. 12. अनेकान्त, अप्रेल 1972, पृ० 46. 13-18. जैन सिद्धान्त भास्कर भाग 1 अंक 4, पृ० 109, 19. अगरचन्द नाहटा व भंवरलाल नाहटा : शंकरदान शुभ, पृ० 16. 20. भट्टारक सम्प्रदाय (शोलापुर) प्रस्तावना, पृ० 22. 21. It is evident from the Padmavati Basti Stone inscriptin & Humsa (Mysore) that Sultan Mohd. Tuglaq entertained Karnataka Jain Guru Sinh-Kirti,-Dr. Kamta Pd; The Religion of Tirthankaras (Aliganj) P. 511. 22. Jain Acharya Sinh--Kirti, the great logician won renown in the Court of Delhi Sultan Mohd. Tuglag. The Jain Teacher is expressly stated to have defeated Buddha & other speakers in the Delhi Court-Media evel Jain Page 371. 23. अगर चन्द नाहटा कृत "शासन प्रभावक श्री जिनप्रभ सूरि". 24. जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष 15, पृ० 29 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-95 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 (i) भट्टारक सम्प्रदाय (शोलापुर) प्रस्तावना : (ii) अनेकान्त, अप्रेल 1972, पृ० 46 । 26. प्रशस्ति (वीर सेवा मन्दिर) भाग 2 प्रस्तावना, पृ० 80. 27-28. Sultan Firoz Shah Tuglaq invited Digamber Jain Saints, and enter tained them at his Royal Court and Palace. Hearing the great fame and learning his quien desired to see Digamber Jain Saint. For her sake the Jaina Saint put on a piece of cloth to hide his nakedness, appeared before her. He took Prayeshchit for his undue liberty, the example set by him was soon adopted by his fallowers and a new sect. । of Bhattarkas with cloth yatis came into existence.-Bhattarka Mim. nsa (Surat) P. 2. 29. Bhattarkas were ever alert to kecp the tradition and glory of Jainism ...: and brought many social changes.--Der Jainism us (Berlin) P. 66. 30 जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष 13, पृ० 104. 31. The Sultan constructed a Jain temple and placed therein a Jain image.--- Progress Report of Archaeological Survey Western Circle, 1908-09 P. 550. 32. विस्तार के लिये श्री नाहटा कृत विशालकाय, सचित्र "बीकानेर मूर्तिलेख संग्रह।" 33. During the Tuglaq reign Jains enjoyed much freedom, Since many kings of this dynasty entertained Jain Saints. Karnataka Historical Review Vcl. VI Page 85. 34. प्रशस्ति संग्रह (वीर सेवा मन्दिर देहली) भाग 2 प्रस्तावना. 35. विस्तार के लिये श्री अगरचन्द नाहटा व भंवरलाल नाहटा का सम्पादित सचित्र ग्रन्थ “बीकानेर के मूर्तिलेख संग्रह। . 36. प्रात्म धर्म, मार्च 1969, पृ० 151. 37. महापुराण (माणकचन्द जैन ग्रन्थ माला) प्रस्तावना, पृ० 15. 38-40. मद्रास व मैशुर प्रान्त के प्राचीन जैन स्मारक पृ० 163-322, 41-42. दिल्ली जैन डाइरेक्टरी, पृ० 9.. 43. भट्टारक सम्प्रदाय (शोलापुर) पृ. 241 . 44-45. सामाजिक शिक्षा (स्कूलों में पढाई जाने वाली) पृ० 43-46. 146 Malik Mohd, Jayasi, an officer of Shershah Suri Govt. wrote a Classical 2. Poem Padmavati" in Hindi, in which he referred Naked Jain Saints - (2-607) quoted in "The Religion of Tirthankaras (Aliganj) 7 Suri honoure: The Jain GuruVishal Kirtif Karnataka"---Dr.Seletore Karnataka Historical Review, Vol. IV PP. 78-81. 46. विस्तार के लिये अगरचन्द नाहटा व भंवरलाल नाहटा कृत, बीकानेर के जैन मूर्तिलेख संग्रह । 2-96 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. Jain holy teachers, undoubtly gave Akbar prolonged re'igious instruct. ions for years, which influenced his actions to their doctrines so far he was reputed to have been converted into Jainism---V. Smith; Jain Teachers of Akbar. 50. Killing of animals on certain days of the year was made capital sen tence by Akbar for his contact with Jains on Jain Festivals Prof. A. N. Banerjee; Religion of Akbar. 51. Akbar's giving up meat and prohibition of injury to animal life were due to the influence of Jain Teachers. Dr. Ishwari Pd; Jain Journal (Calcutta) Oct., 1966, P. 58. 52. Akbar himself says, “It is indeed from ignorance and cruelty that although various kinds of food are obtainable, men are bent upon injury living creatures and lending, a ready hand making themselves a tomb for animals. Aina-i-Akbari, translated in English by H. Blockmann. Vol. I P. 61. 53. Pinheiro was Jesuis Missionary, who visited India during the reign of Akbar, experiencing the habits and association with Jains, wrote to his king, “He (Akbar) follows the sect of Jainism”-Smiths, Akbar, P. 2:1 54. (1) Delhi Jain I irectory (1st Edn.) P. 228. (ii) The city of Saharanpur was founded by a Digamber Jain Shah Ranbir, who got the locality in Jagir from Emperor Akbar. His son Gulab Rai mirged Delhi, where he built a Jain temple in Kucha Sukha Nand.-ef. No. 280 in the list of Mohammadan & Hindu Monuments. Vol. I. 55-56. 777 9977 9f7T WIT 2 ço 249. 57. Indian culture, Vol. IV No. 3, PP. 311-312. 58. Jahangir honoured Jain Acharya Jinsen, the disciple of Jin Chandra and conferred the title of Yug Pradhan-WORLD-CHIEF”. 59. Four-side-facing Jain temples of 1st Tirthankara Rsabha-Deo was built by Sewa Som of Ahmedabad in 1618 A. D. During the reign of Jahangir-Burgess notes of visit W. S. Hills, 1869 60. It is worthy to note that Jahangir had forbidden hunting, fishing & other slaughter of animals in his reign during the 10 days of Pajju Sane--Pt. Someru Chand Diwakar; Religion & Peace, II Edn. 1962 Iotrod P. XVIII. HETETT styret FairCAT 78 2-97 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61. Epigraphica India, Vol. II P. 72. 62. जैन शिलालेख संग्रह भाग 5, प्रस्तावना पृ० 33. 63. When Aurangzeb was a Prince, he destroyed Jain Temple built by Seth Shanti Das of Ahmedabad in 1638 A.D. When it came into the notice of Shah Jahan, he was very much displeased with the action of Aurangzeb and ordered for its conversion and reconstruction with the same prior attraction at the state cost; and also for installation of Tirthankaras' Jain images. Ancient Jain monuments: of Bombay Province, P. 6. 64. Some Muslims complained to Shah Jahan that Bala Singh disturbs their prayer in mosque by his loud voice of hymn. Shah Jahan ordered, "There is no law that a Hindu can not recite his prayer near mosque. It is pity that there is no temple for him for his prayer. So a temple be constructed at state cost near the mosque.-Din Duniya, Delhi, January 1960, P. 49. 65. Shah Jahan favoured and honoured Jain po.t Pt. Benarsi Das-Benarsi Villas (Bombay) Introduction. 66. Although Aurangzeb was famous for his bigotedness, yet the profound learning, unpolluted piousness, simplicity niture and vigorous feelings to do good to man kind of JAIN SAINTS so much affected the heart cf despotic Emperor that he was inclined to entertain and honour Jain Saints. Dr. Kamta Pd; Religion of Tirthankaras, P. 575. them more 67. "I have seen the naked Jaina Saints walking start naked through large towns, women and girls looking at without any emction. Females often bring them alms with devotion"-Dr. Eener's Travels in the Mugal Empire, P. 317. 68. In 1689 A. D. at Chand Khera Kota Rajasthan) during the reign of Aurangzeb, a Jain Temple of Mahavir was constructed and the installation ceremony of the temple as well as of the images of Tirthankaras took place.-Jainism in Rajasthan P. 36. 69. हिन्दी दैनिक "नवभारत टाइम्ज, नई देहली 10 अगस्त 1959 पृ० 3. : 70 जे० के० नारीमान उर्दू दैनिक मिलाप कृष्ण विशेषांक अगस्त 1939, पृ० 36. 71-72. List of the Mohammadan & Hindu Monuments, Govt. of India, Publication, Vol. I. 73. (i) We have goring account of individu influene upon Empe o Mohammad Shah in the case of Jain Temple of Mohala Sanghyan, महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-98 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Saharanpur. It so happened that the local Muslin Ruler of Saharanpur being of despotic nature wished to build a mosque in Jain Mohala, where not even a single Muslim lived at the place, where Jains wanted to built their temple, A Jain Physician, Thakurdas who had cured the Emperor's queen from an incurable disease did not accept anything inspite of repeated insisting by the Emperor for the acquintance of a right cause, ran Delhi and narroted the whole story to the Emperor Mohammad Shah, who not only stopped the construction of the mosque but ordered that the Jain Temple of 23rd Tirthankara Parsvanath be built there at the State Cost : Voice of Ahinsa, Vol. XII P. 92. (ii) qafa GTA 1960 q. 11. . (iii) atat ad 12 go 177. 74, Hf Tra!T TETT HITT, TT , 4977 1962, s. 26. 75. Jains were so humantarianists, not only to man-kind but to all living beings on the earth, without any (aste, colour or country distinction that even Hyder Ali the most bigoted Muslim king granted villages to the Jain temples for the worship of their Tirthankara's images installed there.-Prof. Rama Swami Ayanger : Studies in South Jainism, Vol. 1, Page 117. ugratt yurant chifrat 78 2-99 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्म-गीत *श्री भगवानस्वरूप जैन "जिज्ञासु" एम० डी० जैन इण्टर कालेज, मागरा। ★ooooooooo★ मैं पंछी उन्मुक्त गगन का, मुझे मुक्ति से प्यार है । मेरा घर अति दूर-दूर, भव-सागर के उस पार है ।। माना प्रष्ट कर्म बन्धन में, मैं अनादि से अटका हूं । और चतुर्गति-चक्र मध्य भी, मैं हर युग में भटका हूं ॥ माना लख चौरासी में मैं. अनगिन कष्ट उठाये हैं । जन्म-जरा-मरणादि अन्ते, क्लेश घनेरे पाये हैं।। किन्तु कुफल ये पर-परिणति के, मम सुख मम प्राधार है। मैरा घर अति दूर-दूर, भव-सागर के उस पार है ।। कस्तूरी मृग तुल्य सदा मैं, भव-वन में भरमाया हूं । पर विभाव की निज अादत से, बाज न अब तक आया हूं। निज सुख-शान्ति-बन्ध को पर में पाने की हठ ठान रहा। मात्म शान्ति-जल भूल भोग-लपटों को ही जल मान रहा ।। मृग मरीचिका प्यासे मृग को दारुण दुख दातार है । मेरा घर अति दूर-दूर, भव सागर के उस पार है । पर-परिणति रूपी विभाव का कुल प्रभाव प्रब करना है । निज परिणति रूपी नौका से भव-सागर को तरना है। स्व-पर-भेद विज्ञान सहारे, अद्भुत यान बनाना है । धर्म्य-शुक्ल शुभ ध्यान धार कर मुक्ति पुरी को जाना है । मुक्ति पुरी ही मंजिल अपनी, शाश्वत सुख-भंडार है । मेरा घर अति दूर-दूर, भव-सागर के उस पार है ।। 2-100 महावीर जयन्तिी स्मारिका 78 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जयपुर में भूतकाल में राजापों के शासन के समय जैनों और शवों में वाहे जितना विग्रह, द्वेष रहा हो किन्तु यहां के राजाओं ने कभी भी एक के प्रति पक्षपात और दूसरे के प्रति दुराव नहीं किया । यदि कभी किसी मिथ्या सूचना के आधार पर ऐसा हुआ मी तो सचाई के प्रकट होते ही तत्काल उसका परिमार्जन भी कर दिया गया। वे अपने धार्मिक ग्रन्थों के पठन के साथ-साथ जैन ग्रन्थों का अध्ययन भी करते थे । इसका प्रमाण है उनके वैयक्तिक संग्रहालय (पोथीखाना) में संग्रहीत सैकड़ों हस्तलिखित जैन ग्रन्य जिनमें से केवल कुछ का ही परिचय हमारे आग्रह पर विद्वान लेखक ने स्मारिका के पाठकों के लाभार्थ अपनी इन पंक्तियों में प्रस्तुत किया है। -- पोल्याका जयपुर पोथीखाने का हिन्दी जैन साहित्य -डॉ० प्रेमचन्द रांवका प्राध्यापक-राजकीय शास्त्री संस्कृत महाविद्यालय, पनोहरपुर (जयपुर) 'पोथीखाना', जयपुर राज्य के भूतपूर्व शासकों द्वारा अपने राज्य को प्रान्तरिक शासनव्यवस्था के सम्यक् संचालन की दृष्टि से विभिन्न विभागों के रूप में स्थापित 36 कारखानों में से एक है । इसमें प्रारम्बेर एवं जयपुर के शासकों द्वारा समय-समय पर संगृहीत विभिन्न भाषाओं में विभिन्न विषयों की पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं। वस्तुतः यह उन शासकों का निजी पुस्तकालय है; जिसमें उन्होंने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ज्ञान-वर्द्धन हेतु विशाल परिमाण में साहित्य का संरक्षण एवं सम्वर्द्धन किया है । यह पोथीखाना विगत सातसौ वर्षों में सृजित एवं लिपिबद्ध अमुल्य साहित्य को अपने में समाविष्ट करता है । जो उक्त शासकों के अनुपम साहित्यानुराग का प्रतीक है। इस में आम्वेर एवं जयपुर राज्य के भू० पू० राजारों में मिर्जा राजा जयसिंह (वि. सं 1678-1724) से लेकर अन्तिम महाराजा मानसिंह द्वितीय (वि० सं० 1979-20 27) तक के समय में रचित एवं लिपिबद्ध साहित्य सुरक्षित है। पोथीखाने के ग्रन्थागार को निम्न संग्रहों में विभक्त किया गया है-1. खास मोहर संग्रह 2. पोथीखाना संग्रह 3. पुण्डरीक संग्रह और 4. म्यूजियम संग्रह प्रकाशित संग्रह। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-101 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'खास मौहर संग्रह' में विभिन्न शासकों के समय में रचित एवं लिखित लगभग 8,000 पाण्डुलिपियां संगृहीत हैं । यह भण्डार राजाओं की खास मोहर या निजी सील में रहता था और यदा कदा ही खुलता था। महाराजा इसे खोलने का विशेष प्रादेश निकालते थे। उस समय या तो वे स्वयं अयवा उनके प्रतिनिधि और खास मोहर संग्रह के अधिकारी उपस्थित रहते थे । सील महाराजा के निजी अधिकार में रहती थी और प्रत्येक वस्तु के भीतर रखने एवं बाहर निकालने का लेखा-जोखा मुसरफ और तहसीलदार रखते थे । खाम मोहर अधिकारी अपने पंजीयन में प्रविष्टि-निविष्टि की काउन्टर एण्ट्री रखता था ।। ___ खास मोहर संग्रह के ग्रंथों के ढूढने के लिये पहले कोई पूर्ण और निश्चित सूची तैयार नहीं थी। इस विशाल संग्रह में सु क्षित पाण्डुलिपियों का मूल्यांकन सहज कार्य नहीं था। वस्तुस्थिति यह है कि सवाई माधोसिंह प्रथप (वि. सं 1807-1824) या उनसे पूर्व के शासकों से सम्बन्धित शासकीय वार्षिक विवरणों में मोटे रफ कागजों में इन ग्रंथों की प्रकीर्ण निविष्टियां मिलती हैं; जो अब बीकानेर में राजस्थान राज्य अभिलेखागार में संकलित है । सौभाग्य से अब इस संग्रह के ग्रन्थों की सूची श्रीयुत पं० गोपालनारायण बहराजी के सदप्रयत्नों से उन्हीं की पुस्तक "लिटरेरी हैरीटेज प्रॉफ दी रूलर्स अॉफ प्रामेर एण्ड जयपुर" में प्रकाशित हो चुकी है । राजाओं का निजी पुस्तकालय यही संग्रह है। दूसरी 'पोथीवाना सग्रह' है जिसमें 2,200 पाण्डुलिपिया हैं । इसके ये ग्रंथ, संग्रह की स्थापना के पश्चात् खास मोहर संग्रह से स्थानान्तरित हुये हैं। इस संग्रह में पोथीवाने के कर्मचारियों द्वारा लिखित एव लिपिबद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त विभिन्न समारोहिक अवसरों पर लेखकों, पंडितों, कवियों प्रादि द्वारा भेंट में प्राप्त एवं राजमाताओं, महारानियों, पड़दायतों एवं पासवान द्वारा क्रय किये गये ग्रंथ संग्रहीत हैं। तृतीय 'पुण्डरीक संग्रह' में' 2,300 पाण्डुलिपियां हैं, जो सवाई जयसिंह प्रथम (वि० सं० 1756-1800) के गुरु रत्नाकर पुण्डरीक और उसके विद्वान् उत्तराधिकारियों द्वारा संकलित हैं। पोथीखाने में यह संग्रह महारा ना सवाई माधोसिंह द्वितीय (वि० सं० 1937-1979) के शासनकाल में प्राप्त एवं सुरक्षित किया गया था। बाद के दोनों भडारों की वर्गीकृत सूची उपलब्ध है परन्त प्रन्थों का सत्यापन कार्य प्रभी अपूर्ण है। चतुर्थ 'म्यूजियम संग्रह' है जो सन् 1959 में महाराजा सवाई मानसिंह II द्वारा जनता के लिये खोला गया भण्डार है। इसमें प्राचीन प्रकाशित साहित्य एवं कलात्मक चित्र संगृहीत हैं जो दर्शनार्थ हैं। इस प्रकार पोथीखाने के विभिन्न संग्रहों में लगभग 15,000 ग्रन्थ है जो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, ब्रज, बगला, मराठी, राजस्थानी, गुजराती आदि भाषाओं में निबद्ध हैं तथा काव्य, न्याय, मीमांसा, व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, नाटक, चम्पू, संगीत, कामशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, धर्म, वेद, पुराण, इतिहास, तर्क, मन्त्र, भक्ति, जैन दर्शन, संग्रह, सुभाषित. योग, आदि विषयों से सम्बन्धित हैं। 2-102 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोथीखाने के खास मोहर संग्रह में 8,000 पाण्डुलिपियां हैं; उनमें 220 के लगभग जैन साहित्य के ग्रंथ हैं जो संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में निबद्ध हैं यहाँ मात्र !15 हिन्दी भाषा ग्रन्थों की चुची प्रस्तुत हैं:--- 1. अजितनाथ छन्द -बनारसीदास 2. अध्यात्म पैड़ी 3. अध्यात्म प्रकाश---सुख कवि 4 अध्यात्मफाग --बनारमीदाम 5. अध्यात्म बत्तीसी-- 6 अवस्थाष्टक7. आत्म ज्ञान कवित्त संग्रह 8 उत्तराध्ययन सज्भाय 9. कर्मछत्तीसी- बनारसीदास 10. कर्म प्रकृति विधान--, 11. कर्म विपाक भाषा 12. कल्याण मन्दिर स्तोत्र भाषा 13 कंवरपाल बत्तीसी, जोधराज गोदीका 14. कहरनामा : बनारसीदास 15, कुकर्म विंशतिका , 16. चतुष्पद यमक ॥ 17 चार वर्ण 18 चिन्तावरणी-दुलीचन्द साह 19. चौदह विद्या---बनारसीदास 20 चौबीस ठाणा तालिका 21. चौबीस तीर्थंकरों का खरड़ा 22. छत्तीस पवन-बनारसीदास 23. जम्बूद्वीप प्रमाण 24. जम्बू स्वामी कथा 25. जिन आचार 26 जिनकथा सुभाषित संग्रह 27. जिन तीर्थकर स्तुति 28 जिनदेव यंत्र 29. जैन चौवीसी 30. जैन स्तोत्र संग्रह 31. ज्ञान पच्चीसी---बनारसीदास 32. ठाणांग सुत्त (स्थानांग सूत्र) 33. तरेपन क्रिया 34. तरेसठ श्लाका पुरुष नाम--बनारसीदास 35. तिथि षोडशी ---बनारसीदास 36. तीर्थकर भट्टारक नामावली 37. तेरह काठियां -बनारसीदास 38. त्रिलोक दर्पण कथा 39 त्रिलोक सार 40. वेपन क्रिया-किशनसिंह 41. दशबोल-बनारसीदास 42 दशलक्षण पूजा-द्यानतराय 43. दानदशक-बनारसीदास 44. दहा पंच सहेलीरा-छीहल कवि 45. देव पूजादि संग्रह 46. देवाष्टक स्तोत्र 47. दोहा सवैयादि संग्रह, बनारसीदास 48. धर्म परीक्षा : मनोहर खण्डेलवाल 49. धर्म रासो, 50. धर्मोपदेश माला 51. ध्यान बतीसी, बनारसीदास 52. नगरस्थिति वर्णन 53. नव दुर्गा विधान , 54 नव सेना विधान 55 नाटक के कवित्त 56 नाम निर्णय 57. नित्यदेव पूजा विधि , 58. नित्य पूजा-चिन्तामणि स्तोत्र संग्रह 59 निर्वाण काण्ड 60. पंचपद विधान --बनारसीदास 61. पंचम गति की वेलि 62. पंच परमेष्ठी 24 गुरण महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-103 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63. पंचास्तिकाय बालावबोधा 64. पद संग्रह-बनारसीदास 65. पद्मपुराण भाषा-खुशाल कवि 66. पद्मावती पूजा 67. परमार्थ वचनिका 68. पार्श्वनाय पुराण भाषा-भूधर 69 पार्श्वनाथ पूजापद्धत्ति-बनारसीदास 70. पुण्याश्रव कथा बाल वबोध : दौलतराम 71. पुरुष लक्षण-बनारसीदास 72. पूजाष्टक , 73. प्रश्नोत्तरी नाममाला ,, 74. प्रश्नोत्तरी-सकलकीनि 75. तकी मोहम्मदखां छन्द-बनारसीदास 76. बाक्न -बनारसीदास 90. शिव पच्चीसी 91. शील सुदर्शन रास ---बनारसीदास 92. षट् दर्शनाष्टक 93. समयसार नाटक 94. सुमति देवी शतक । 95. साधु वन्दना 96. सिन्दूर प्रकर मुक्तावलि , 97. सामायिक प्रकरण 98. समाधि तन्त्र बालावबोध भाषा-पर्वत धर्मार्थी 99. सिद्ध केवली 100. सिद्ध मन्त्रादिक संग्रह 101. सीता चरित्र-बालक कवि 102. यात्रा प्रकाश-राघव सरावगी 103. रयण सार-कुन्दकुन्दाचार्य 104. वात चंदकंवर चौपई-छोहल 105. विनती के पद 106. षट् कर्मोपदेश माला सटीक - सकल भूषण प्राचार्य -लालचन्द, 107. श्रावकातिचार 108. श्रावकानुष्ठान विधि 109 श्रीपाल रास ! 10. हनुमत्कथा-ब्र. रायमल्ल 111. हरिवंश पुराण भाषा-खुशाल कवि 112. हरिवश स्वामी रास 113. पद संग्रह = 115,-स्फुट-पढ़ाईद्वीपनक्श? 114. विनती संग्रह 77. भक्तामर स्तोत्र भाषा-हेमराज 78. भक्तामर स्तोत्र भाषा-बनारसीदास 79. , , , टीकाराम वचनिका 80. भवसिन्धु चतुर्दशी - बनारसीदास, 81. मनका प्यारा गीत-, 82. मार्गणा विधान 83. मिथ्या वागी 84. मोख पड़ी 85. वाराणसी विलास . " 86. व्रत कथा कोष-श्रुतसागर सूरि 87. शालिभद्र चरित्र सतसई 88. शान्तिनाथ छन्द-बनारसीदास 89. शारदाष्टक उक्त सूची में कतिपय 'रचनाएं जैन रचनाएं न लगें ।' परन्तु प्रसिद्ध जैन कवियों की होने से उन्हें सम्मिलित किया गया है । सूची में115 तो रचनाएं है-उनमें कई रचनात्रों की अनेकों प्रतियां भी मिलती हैं जैसे-छीहल कविकृत दूहा पंचसहेलीरा, बनारसीदास का समयसार नाटक, भक्तामर स्तोत्र भाषा, पद्मपुराण भाषा, अध्यात्मक प्रकाश आदि । इस दृष्टि से पोथीखाने के खास मोहर संग्रह 1 में बैन पाण्डुलिपियों की संख्या-संस्कृत एवं भाषा की कुल 300 से अधिक हैं। इनमें सर्वाधिक रचनाए कविवर बनारसीदास द्वारा रचित हैं । उनकी 50 रचनाएं इस संग्रह में मिलती हैं । 2-104 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह हर्ष एवं विस्मय का विषय है कि 17वीं शता के प्रागरा निवासी बनारसीदास की सर्वाधिक पचास रचनाएं एक स थ एक वेष्ठन में इस संग्रह में सुरक्षित हैं। इनमें कई रचनाएं तो जैन भण्डारों में भी नहीं हैं । लेकिन इस कवि का प्रसिद्ध ग्रात्मवरित्र काव्य " अर्द्ध कथानक " जो प्रव प्रकाशित है, इस संग्रह में नहीं मिलता। कुछ भी हो बनारसीदास की सर्वाधिक संख्या में जो कृतियां यहां उपबन्ध हुई हैं - वे उनके व्यक्तिव एवं कृतित्व पर नयी दिशा एवं तथ्य देगी जबकि इस कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन का गो प्रवन्ध प्रकाशित हो चुका है। यह विचारणीय तथ्य है कि उक्त संग्रह में जहां प्रागरा के बनारसीदास एवं भूवरदास तक की कृतियां उपलब्ध होती हैं । वही ज्यपुर राज्य के अन्तर्गत 17वीं एवं 18वीं शता में होने वाले जयपुर के ही कई प्रसिद्ध जैन कवियों में केवल खुशाल कवि एवं दौतलराम ( बसवा ) के केवल हरिवंश पुराण भाषा ( वि सं 1780) पद्मपुराण भपा ( वि सं. 1783) और पुष्याश्रव कथा बालावबोध ( र. का. 1770 - लिका. 1816) ग्रंथ ही मिलते हैं । यद्यपि जोधराज गोत्रीका, दुलीचन्द साह, राघव पाटनी (खिन्दूका ) मनोहर खण्डेलव ल की भी एक-एक रचनाएं मिलती हैं, परन्तु टोडरमल, जयचन्द छाबड़ा, सदासुख कासलीवाल आदि कई ऐसे कवि प्रसिद्ध हैं जिनकी कृतियां खास मोहर संग्रह I में नहीं है। समय की दृष्टि से प्राचीन ग्रंथ छील कवि का -' -' दूहा पंच सहेलीरा' वि. सं. 1575 का मिलता है । इसकी संग्रह में 5-7 प्रतियां है। अधिकांस हिन्दी कृतियां 17वीं एवं 18वीं शताब्दी की हैं। जयपुर नगर की स्थापना (वि. सं. 1784 ) से चार वर्ग पूर्व सं हरिवंश पुराणा भाषा (ब्रह्मजिनदास के संस्कृत के हरिवंश पुराण यहां प्रस्तुत है - 1780 में रचित खुशाल कवि के पर आधारित) का अन्तिम भाग सहर जिहानाबाद में, जयसिंह पूरी सुधान । मैं बसिहो सुख सौं सदा, जिन सेऊ' चित श्रानि ॥ 691|| मेरी बात सुनी प्रबै भविजीवन मन लाय । 2 कालो जाति खुस्याल सुभ, सुन्दर सुत जिन पाय 1169211 देस ढूंढाहर जागो सार, ता धर्मतणो अधिकार | विनसिंह सुत जयसिंह राय, राज करें सबकु सुखदाय 116931 देस तरणी महिमा प्रति घणी, जिन गेहाकरि सुन्दर बी । जिन मन्दिर भवि पूजा करें केइक व्रत ले केइक धरै 16941 जिन मन्दिर करवावं नवा, सुरंग विमान लगि विरछा | रथयात्रादिक होत बहु जहां, पुण्य उपावै भविव तह ||6951 इत्यादिक महिमा जुन देश, कहि न सकू मैं और प्रसेस । जामैं पुर सांगात्रति जाति, धर्म उपार्जन को वर श्रांत ||696 | महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-105 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महमदसा पतिसाह, राज करि है सुचि कथौ । नीतिवंत बलवंत, न्याय बिन लेत न प्ररथी । ताके राज मारि, ग्रंथ प्रारम्भरु कीन्हो | परको दुख सोक, कभू हम कोई न लीन्हो || इह विचार राजा त', इतनी ही उपगार है । कोऊ दुष्ट पुरुष दण्डि न सकेँ, जिनमत को विस्तार है 11700 | सहर मध्य इक वणिक वर, साह् सुखानन्द जानि । ताका गेह विषै रहै, गोकुलचन्द सुजान 11701 तिन ढिंग मैं जाऊ सदा, पढू सुमाख सुभाष । जिनको वर उपदेश लै, मैं भाषा वरन बनाय 1170211 संवत् सतरास ग्ररू ग्रसी, सु बैसाख तीज वर लसी । शुक्रवार प्रति ही वर जोग, सार नखत्तर को संजोग ||7041 श्वेताम्बरो गोकुलचन्द्र नामा, महाविबेकी सगुणैर्गरिष्ठः । पर्वोपवासं कुरुते स्वभावात् तस्योपकण्ठं श्रुतवान् भूवर ||809 | इदं सुशास्त्रं सुरसेव्यमानं मया लिखित्वा धरितं प्रमोदं । समर्पितं गोकुलचन्द्र हस्ते अस्य प्रवृत्तिः करणाय नित्यम् ॥ - लि. मोहनराम संगहीजी श्री भगवानदासजी पठनार्थं मेवातिनई पंडमध्ये हर्षपूरे... दोहा : पूर्ण शासनकाल में की थी । कवि के अनुसार जयसिंह के थी, जिसके प्रभाव से कई किसी से पीड़ित नहीं था । 2. - खुशाल कवि ने यह रचना ढूंढार प्रदेश के महाराजा सवाई जयसिंह प्रथम के सुख-शान्तिशासन काल में जैन धर्म की अतिशय महिमा पोथीखाने का 'खासमोहर संग्रह' जो ग्राम्बेर एवं जयपुर के शासकों का निजी पुस्तकालय रहा है, जैन एवं जैनेतर सभी धर्मों के साहित्य का विपुल भण्डार है । यह वस्तुतः उन शासकों के सर्वधर्म अनुराग एवं समभाव, विद्याप्रेम और साहित्य - संरक्षण तथा संबर्द्धन की उत्कट विशुद्ध भावना का प्रतीक है । 106 पोथीखाने के इस 'खात मोहर संग्रह I के ग्रन्थों की सूची का प्रकाशन "लिटरेरी हेरीटेज ऑफ दी रूलर्स ऑफ ग्रम्बेर एवं जयपुर " नामक अपनी पुस्तक में पं. गोपालनारायण बहुरा ने किया है । अन्य संग्रहों का प्रकाशन अभी नहीं हो पाया है। उनकी सूचि प्रवश्य तैयार की जा रही है । उनका प्रकाशन एवं पोथीखाने के समग्र साहित्य भण्डार की वर्ण्य विषयक सूचियों का पुनरीक्षण प्राचीन अज्ञात ऐतिहासिक घटनाचकों के तथ्यान्वेषण के अध्ययन में महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सिद्ध होगा । 1. Literary of Heittage the Rulers of Amber and Jaipur by Shri G. N. Bhaura, ब्रह्मजिनदास : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, लेखक, लेखक का शोध प्रबन्ध महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर से करीब १० मील दूर मोहाना रोड प रनेक्टा ग्राम के निवासी पाटणी सवाई जयसिंह के राज्य काल में ही जयपुर मा बसे थे। अपने पूर्वज खिन्दू के नाम पर ये खिन्दूका कहलाते हैं। कहते हैं ये ६० भाई थे । आगे चल कर इसकी कई शाबा, प्रशा बाएं हुई यथा --नुशरफ, दीवाण, तोतुका प्रादि । यात्रा प्रकाश के रचयिता रावव पाटणी अपने पूर्वज साँगा' के नान पर सांगा का कहलाते हैं। इस पुस्तक में वारणा नरेश जगासह तृतीय है जो किसी षडयंत्र का शिर होकर काल कलित हए थे। यात्रा का स्थान फतह टीवा सांगानेर दरवाजे गहर मोती डूगरी रोड पर । राजा की खास पोशाक लिए सामने है आने वाले 'सिंघी' थाराम ज्ञात होते हैं जिनका विस्तृत वर्णन पाठक इसही स्मारिका में अन्यत्र पडेंगे। 'मनालाल' चारित्रसार, प्रवन चरित्र आदि प्रयों के रचनाकार मनालाल सांगाका खिन्दू का मालूम होते हैं । विद्वान निबंधकार ने महावीर तीर्थ क्षेत्र कमेटी को अपनी रचना में जो सुझाव दिया है हम उसकी पूर्ति को कामना तो करते हैं किन्तु वह सफल होगी ऐसी आशा कम ही है। . --पोल्याका राघव पाटनी रचित 'यात्रा प्रकाश' • श्री अगरचन्दजी नाहटा, (इतिहासरत्न, सिद्धान्ताचार्य, शोधमनीषी, विद्यावारिधि) बीकानेर । राजस्थान की राजधानी जयपुर जब से बसा, कासलीवाल का ग्रंथ प्रकाशित हुया है उसी तरह तभी से और उससे पहले बामेर में दिगम्बर समाज जयपुर राज्य या क्षेत्र में रचित जैन साहित्य का अच्छा प्रभाव रहा है । आमेर में दि० भट्टारको सम्बन्धी एक स्वतंत्र ग्रन्थ प्रकाशित होना चाहिए। की गद्दी थी। उनका शास्त्र-भण्डार अभी जैन जयपुर के कई राजानों के दीवान आदि कई साहित्य शोध संस्थान, महावीर तीर्थ क्षेत्र कमेटी के उच्च पदों पर दि० जैन बन्धु थे अतः राजनैतिक संग्रह में सुरक्षित है। उस शास्त्र-संग्रह में तथा क्षेत्र में भी उनका विशिष्ट स्थान रहा है । यद्यपि जय ,र के अन्य शास्त्र-भण्डारों में जयपुर क्षेत्र के जयपुर के जैन दीवानों सम्बन्धी एक छोटी पुस्तक जैन कवियों एवं विद्वानों के रचित गद्य-पद्यात्मक निकली है पर वह पर्याप्त नहीं है । वीर वाणी प्रचुर साहित्य उपलब्ध है । उस साहित्य का प्रमाण पत्रिका के प्रारम्भिक वर्षों में जयपुर के जैन दीवानों लाखों श्लोकों परिमित है अत: जिस प्रकार सांभर और साहित्यकारों सम्बन्धी काफी महत्वपूर्ण लेख प्रदेश एवं जनों के सम्बन्ध में डा० कस्तूरचन्द प्रकाशित हुए थे । इधर कुछ वर्षों में कोई नई महावीर जयन्ती स्मारिका 2-107 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानकारी प्रकाश में नहीं पायी । जबकि महावीर भूप भवन में जब गये, उच्छव भये अपार । जी तीर्थ के शोध संस्थान का तो यह पहला कवि 'राघव' साची कही, नैन देखि निरधार ॥ कत्तव्य था कि अज्ञात और अप्रकाशित सामग्री संवत 'अठार चुराधिका', सुक्ल पक्ष वैसाष । और जानकारी को 'बीर वाणी' प्रादि जैन पत्र- सुद्ध लगन प चांग के, भोम सु परथम भाप ।। पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित किया जाता जात स्त्रावगी पाटणी, खिद् हदै बंस । रहता । मनालाल के कथन सू कीनों ब्रथ प्रसंस ।। जयपुर के राजाओं के जैन दीवानों के It is a description of the यात्रा Perअतिरिक्त कुछ उनके आश्रित जैन साहित्यकार भी formed by Sawai Ji Singh ]I] थे। जिनमें दौलतरामजी तो बहुत ही उल्लेखनीय रहे हैं और उनके सम्बन्ध में स्वतन्त्र ग्रन्थ भी पोथी खाना में उपरोक्त सूची-नथ के पृष्ठ प्रकाशित हो चुका है। पर अन्य राज्याश्रित जैन 325 में राघव कवि सरावगी या जो विवरण साहित्यकारों सम्बन्धी जानकारी बहुत ही कम छपा है. वह इस प्रकार है :-- प्रकाश में आयी है । अभी-अभी जयपुर के सुप्रसिद्ध राघव कवि सरावगी--- राजकीय पोथी-खाने की हस्त लिखित प्रतियों का एक सूची ग्रंथ श्री गोपालनारायणजी बोहरा (1) यात्रा वर्णन 4573 (1854 V.S) सम्पादित देखने को मिला, जिसमें जयपुर के (2) रसवल्ली वनकेली 3261 (4) महाराजा जयसिंह तृतीय की यात्रा सम्बन्धी एक . इनमें से 'यात्रा प्रकाश' का वर्णन पृष्ठ 186 रचना का विवरण छपा है । इस ग्रंथ का नाम में इस प्रकार छपा है- यात्रा प्रकाश by राघव 'यात्रा प्रकाश' है। इसकी रचना कवि राघव कवि सरावगी। पाटनी ने सं0 1884 के वैशाख सुदी मे की। . a description of the pilgrimage by मन्नालाल के कथन से यह ग्रंथ रचा गया है। सूची S. Jai Singh II, Composed in 1884 V. प्रकाशित विवरण में यात्रा प्रकाश के अन्तिम पाच 5. 4573. दोहे ही उबूत हैं । उनले यात्रा का पूरा विवरण ज्ञात नहीं होता। ग्रन्थ की पद्य संख्या या ग्रंथा दोनों स्थानों में विवरणों से ऐसा लगता है कि पृष्ट 325 में 'यात्रा वर्ग,न' ग्रन्थ का नाम ग्रंथ परिमाण भी ज्ञात नहीं हो सका । न पत्र संख्या और लेखन संवत ही विवरण में दिया गया छपा है पर इसका वास्तविक न म 'य का प्रकाश' है। केवल एक नई उपलब्धि के रूप में प्राप्त है। और रचनाकाल 1854 छपा है, वहां 1884 होना चाहिए । कवि की दूसरी रचना 'रसवल्लि विवरण यहां प्रकाशित किया जा रहा है --- वन केली' का कोई विवरण नहीं दिया गया है - 4573. यात्रा प्रकाश by राघव कवि सरावगी अतः यह इसी नाम वाले किसी दूसरे कवि की रचना भी हो सकती है । प्रति नं. 3261 में यह Closing : रचना संख्या (चौथी) होने से यह छोटी सी ही घिी आये सामुहे, लिये खास पोसाख । लगती है। 'यात्रा प्रकाश में कवि के अांखों देखा गंगा को पूजन कियो, वेद शब्द मुख भाष ॥ वृतांत होने से यह तो एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पतं सुटीबे प्राइक, रहे अमावस राति । रचना है अतः उसे शीघ्र ही प्रकाश में लानी सकल सुखी जयसिंह नृप , पुर प्रवेश परभात ॥ चाहिये। 2-108 महावीर जयन्ती स्मारिका 28 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - मनुष्य जब होश संभालता है यह चिन्तामों से घिरा रहता है। कभी धनोपार्जन की चिन्ता, कभी अपने स्वास्थ्य की चिन्ता, कभी परिवार की, कभी किसी के विवाह की तो कभी किसी को पढ़ाने की। जब कभी भी उसे इन चिन्ताओं से छुटकारा प्राप्ति का अवसर प्राप्त होता है वह सुख शांति का अनुभव करता है। चारों ओर दुःखों से घिरे हुए मानव को मेले मनोरंजन का साधन उपलका करते हैं। वे हमारी संस्कृति के प्रतीक हैं और समाज के लोगों को मिल बैठकर हंसी खशी के कुछ क्षस विताने का अवसर प्रदान करते हैं। हाके सावधानिक अनुष्ठानादि के कार्यक्रम तो श्रद्धालु जनों को शाकृष्ट करने के लिए आयोजित होते हैं। जैन समाज, जयपुर भी विभिन्न अवसरों पर ऐसे छोटे बड़े प्रायोजन करता ही रहता है । कभी कभी यह आयोजन अविस्मरणीय भी होते हैं। ऐसे ही तीन मेलों का संक्षिप्त परिचय विद्वान् लेखक ने इन पंक्तियों में दिया है। -पोल्याका - जयपुर के जैन मैले पं० गुलाबचन्दजी जैनदर्शनाचार्य प्राचार्य-श्री दि. जैन आचार्य सं. कालेज, जयपुर। जयपुर मेलों के लिये प्रसिद्ध है। यहां के प्रायः ये मेले पास पास के स्थानों पर लगते लिये कहा जाता है "सात बार और नौ त्योहार"। हैं जैसे-घाट, खानियां, गलता, आमेर, मोहन यहां किसी न किसी प्रसंग को लेकर मेले हया ही बाड़ी, सांगानेर, कूकस, खोह, बगराणा, दैलास, करते हैं। क्या जैन और क्या अजैन सभी इनमें साइबाड़, वावड़ी, (जगों की बावड़ी) नींदड़, वैनाड़, भाग लेते हैं। स्त्री पुरुष, बच्चे वृद्ध, यूयक शिशु भाखरोटा, पदमपुरा, श्री महावीरजी, गोनेर, सभी मेले के शौकीन हैं। चारों वर्गों के लोग डिग्गी, चाकसू (शीलकी) इत्यादि। इनमें कुछ अपने अपने पृथक पृथक मेले मनाते हों ऐसी ही स्थान तो ऐसे हैं जहां विशेषतः जैन ही जाते हैं प्रथा नहीं है। यहां तो सभी वर्ग व जाति वाले और कुछ ऐसे हैं जहाँ इतर समाज ही जाती है अपने अपने ढंग से सामूहिक मेले मनाते आये हैं। जैन नहीं जाते किन्तु कुछ ऐसे हैं जहां सभी समाज के नर नारी मेले का आनन्द लूटते हैं। पदमपुरा इन मेलों का प्रारम्भ श्रावण मास से होता का मेला जब से पद्म प्रभु की प्रतिमा और श्री है और विशेष तौर पर प्रासोज तक रहता है किन्तु महावीर जी का मेला जब से महाबीर जी की मल्प संख्या में । प्रतिमा निकली तब से लगता है, गोनेर में जगदीश के महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-109 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण मेला लगता है और डिग्गी में श्रीकल्याणजी नहीं है। ये मेले धामिक अनुष्ठानों के कारण के कारण। अामेर में शिला देवी और काले अन्तर्देशीय ख्याति प्राप्त हैं । मैं इनमें से कुछ का महादेव के कारण, घाट में वैष्णवों के अवतारों संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहा हूं। की झाँकियां निकलने से, जिनको परिक्रमा कहा ___ जयपुर को बसे हुए 40 वर्ष भी पूरे नहीं हुए जाता है, मोहन बाड़ी में गलते के कारण और थे सम्वत् 1821 (सन् 1764) में जैन समाज में सांगानेर में सांगा बाबा के कारण मेले लगते हैं। एक अद्भुत मेले का आयोजन किया गया। यह शेष स्थानों पर लगने वाले मेले मात्र जैन धर्माव मेला शहर के बाहर फोहटीबे (मोतीडूगरी के लम्बियों द्वारा ही लगाये जाते हैं । हो सकता है घाट निकट) पर सम्पन्न हुना। जैसा यह मेला जैन खानियां मोहनबाड़ी और आमेर में इतर समाजों समाज में उस समय प्रायोजित हुप्रा न कभी के साथ जैन भी अपना धार्मिक मेला लगा लेते हों। भूतकाल में हुया था और न कभी भविष्य में होने किन्तु इनका वैशिष्ट्य नहीं के बराबर है । ये मेले की संभावना ही है। प्रति वर्ष निश्चित तिथियों में लगते हैं इसकी सूचना मेले कराने वाले बहुत पहले से ही कर देते उस समय जयपुर राज्य के श्री रतनचन्द एवम् हैं और सवारी आदि आवागमन के साधन भी जुटा बालचन्द ये दो जैन दीवान ये । इनका बड़ा प्रभाव देते हैं। सरकार भी अपना सहयोग देकर सुरक्षा था । महाराजा माधोसिंह प्र० उस समय जयपुर के का प्रबन्ध करती है, स्वयं सेवक और स्काउट्स भी राजा थे। उनका सब धर्मों के प्रति आदर भाव इन मेलों में सहयोग प्रदान करते हैं। एवं श्रद्धा भक्ति थी। उन्होंने प्राज्ञा प्रसारित कर दी थी कि मेले के लिये तथा पूजा के लिये जो भी ये मेले जयपुर की स्थापना से ही प्रारंभ हुए सामग्री चाहिए सरकारी खजाने से ले जाओ । इस समझना चाहिए । जयपुर के राजा धामिक विचारों लिये जो भी सामग्री मेले में अनुपलब्ध थी सरकार के थे। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। उन्होंने से ले ली गई थी। इस मेले में इन्द्र ध्वज विधान जयपुर बसाने में दूर दूर के नामी कामी व्यक्तियों कराया गया था । यह विधान फतेहटीवा के मैदान को यहां प्रश्रय दिया था। वे लोग वर्ष में एक बार में 64 गज वर्गाकार चबतरे पर तेरह द्वीप के अपनी अपनी जन्मभूमि में जाकर आमोद प्रमोद मण्डल की रचना रचकर किया गया था। मण्डल करने और धार्मिक प्रसंगों को बनाकर इतरजनों की रचना धन रूप थी प्रतर रूप नहीं अर्थात जैसे को भी प्रभावित करते थे इसी कारण इन मेलों की मण्डल रंगों से तथा रंगों से रंगे हए चावलों से परंपरा बन गई। अब ये मेले उसी परंपरा को अथवा खड़िया से मण्डते हैं वैसा यह मण्डल नहीं कायम रखने हेतु प्रतिवर्ष निश्चित तिथियों को था धन रूप अर्थात् पहाड़ नदी जंगल भवन नगरी मनाये जाते हैं। इनमें आमेर, सांगानेर, कूकस, कोट खाई पूष्प वाटिका सरोवर आदि साक्षात् रूप खोह, साइवाड़, बगराणा, भाखरोटा आदि स्थानों के में बनाये गये थे। बनाने के लिये 150 कारीगर, मेले प्रमुख हैं। शिलावट, चितेरे, दरजी, खरादी, खाती, सुनार जैन मेलों की अपनी स्वयं की विशेषता है। आदि दस दिन तक लगे थे । रचना पत्थर चूने के बने पे मेले किसी प्रतिमा विशेष के जमीन से निकलने चबूतरे पर बनी थी। कपड़े के कोट बीथियां के कारण नहीं और न किसी व्यक्ति विशेष की लगाई गई थीं, जो चित्र लगाये गये थे भोडल के जन्म भूमि होने के कारण ही हैं । ऋतुओं के कारण काम के लगे थे। चारों ओर चार दरवाजे लकड़ी तथा तिथियों के कारण भी इन मेलों की गणना के बनाये गये थे। चार हजार रेजे बिछायत के 2-110 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये और लाल चोल ध्वजा पताका निशान प्रादि यह मेला एक श्रावक द्वारा अछूत के साथ बनाने के लिये मंगाये गये थे। 200 चांदी के छत्र भोजन करने के प्रायश्चित स्वरूप लगाया गया था । झालरी सहित नये घड़े मंगाये थे। बाग बगीचे भट्रारक देवेन्द्रकीर्तिजी ने यह व्यवस्था दी थी। तथा पुष्प वाटिकायें बनाने के लिये 30 गड्डी उस समय भट्टारकजी का काफी दबदबा था और बारीक रंगीन कागज और तीस मण रद्दी कागज उनकी व्यवस्था मान्य होती थी। चारों मन्दिरों में का खर्चा हुआ था। इस मण्डल के ऊपर तनवाने तेरह द्वीप, अढाई द्वीप, समवसरण तथा सिद्ध चक्र हेतु सामियाना आगरे से मंगवाया गया था। इसके के मण्डल मंडवाये गये थे और पूर्णावसर पर रथ खड़े करने के लिये 200 प्रादमी लगे थे। मंडप के यात्रा निकाली गई थी । अपनी अपनी मान्यतानुसार एक एक तरफ 24, 24 दरवाजे बनाये गये थे। कलशाभिषेक हुए। किन्तु माल बीस पंथ आम्नाय कुल चारों तरफ 96 दरवाजे सजे धजे हए लगाये वाले मन्दिरों में ही हुई थी। तेरह पंथी मन्दिरों गये थे कि हाथी ऊपर चढ़े हए व्यक्ति आराम से में नहीं । पाटोदी के मन्दिर की माल कलकत्ता के भीतर प्रवेश कर सकें ऐसी व्यवस्था थी। यह सेठ श्री चुन्नीलाल ने 951 रुपयों में और शामियाना 20 गज की ऊंचाई का लगाया गया था चाकसू के मन्दिर की माल चौम् ग्राम के मंडप के चारों तरफ बड़े बडे दीवान राज दरवार निवासी श्री जयराम नामक श्रावक ने 651 रुपयों के लोग तथा अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों के डेरे लगे हुए में पहनी । इसकी सानी का मेला लगना भी अब थे। इनके आगे चोतरफा दर्शकों के डेरे लगाये गये दूभर ही समझना चाहिए । इसका विस्तृत विवरण थे जो कि सैकड़ों कोसों की दूरी पार कर मेले में श्री मौलिक्यचन्द्र साह द्वारा फाल्गुन शुक्ला 5 शरीक हुए थे। लाखों स्त्री पुरुषों ने दस दिन तक सं. 1917 में रचित रथ यात्रा प्रभाव नामक इस मेले को बड़ी भक्ति भाव से देखा तथा जन संस्कृत ग्रंथ से लगता है जो मंदिर पाटोदी में है। भजन में योगदान दिया। गीत नृत्य वा दिन संगीत समात तीसरा मेला आमेर में कीर्ति स्तम्भ की की प्यारी ध्वनि मन को बलात हरतीर्थ पं० टोडरमल जी शास्त्र प्रवचन करते थे। गोमट्ट नशिया का 1920 में हुआ। यहां पर सिद्ध चक्र सारका स्वाध्याय था। और तीन लोक के मण्डल मण्डे थे। और भगवान नेमिनाथ के मन्दिर से तथा नशियां से रथ यात्रा जैन समाज में जैसा यह अपूर्व मेला हुआ कभी का प्रारम्भ दो रथों में हुआ था एक में भगवान नहीं हुआ। इसके पश्चात् दूसरा मेला चारों रथों नेमिनाथ और दूसरे में भगवान चन्द्रप्रभु विराजमार का माघ शुक्ल सप्तमी रविवार सम्वत 1917 में थे। भट्रारक देवेन्द्रकीति का यहां पर भी बड़ा हुा । मन्दिरजी पाटोदी और मन्दिरजी चाकसू के भारी बोलवाला था । सरकार ने उनको वस्त्र प्रदान दो रथ वीस पंथ प्राम्नाय के गौर बड़ा मन्दिर कर सम्मानित किया था तथा श्री जी की भी भेंट तथा वधीचन्द जी का मन्दिर ऐसे दो तेरह पंथ चढाई थी। अलवर से रथ आया था। यह मेला आम्नाय के रथ निकाले गये। चारों रशों की बारह दिन चला था जिसमें भजन संगीत नृत्य के अद्भुत शोभा थी। दर्शकों की भीड़ ने जयपुर में अतिरिक्त नाटक भी हुया था। इसमें बाहर से अनोखा अवसर उपस्थित किया। शोभा यात्रा में बहत लोग मेला देखने आए थे। रथ आमेर से सरकारी लवाजमा तो था ही शहर में उपलब्ध नंदलाल हुकमचंद बज की नशियां होते हुए गंगा शोभा की सामग्री भी कम नहीं लगाई गई थी। दरवाजे से जयपुर नगर में प्रविष्ट होकर हवा जैन और जैनेतर सभी समाजों ने इन चारों रथों महल जौहरी बाजार में आए थे । तत्कालीन नरेश के मेले को देख कर अपना जन्म सफल किया था। रामसिंहजी ने एक आदेश द्वारा पूर्ण सहयोग दिया महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-111 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। इसका पूरा वर्णन एक 'मेला की लावणी' नामक हिन्दी रचना में प्राप्य है । इस प्रकार जैनों के मेले धर्म से जुड़े हुए होते थे और अब भी यह परंपरा कायम है | मंडल मांडना पूजन भजन नृत्य संगीत होना अभिषेक होना ही 2-112 जिनमें प्रमुख होता है । खान पान सम्मान गौण रीति से होते हैं । इनमें धर्म प्रभावना होती है । जैनेतर भी इससे प्रभावित होते हैं । केवल ग्रामोद प्रमोद के लिये मेने नहीं लगाये जाते धार्मिक भावना ही इनके मूल में समाविष्ट है । महावीर रा स्वर गंजे है ! श्री घनश्याम मुदगल रा० संस्कृत विद्यालय, मनोहरपुर । भारत मांही धरम ग्लांनिरो, समय जदां भी प्रायो है । ॐ ही समै भारत महतारी, धरम पूत निपजायो हं ॥1॥ महावीर स्वामी अवतर, हिंसा रो भूत भगायो है । जैन धर्म से तीर्थंकर, जीवांने सुख पहुंचायो ||2|| ज नहीं बचा सको जीवांनै, तो मारण ने क्यूं धावो हो । दूजारा धन से शोषण कर, क्यूं अनीत पनादो हो ॥3॥ क्यूं जीवां सूं भेद करो, क्यूं घृणा भाव बढावो हो ॥ सब परम पिता रा अंश, क्यूं विधन नयो उपजावी हो ||4|| परगां जीवन मैं धार अहिंसा, सत्यव्रती वो श्रागे आयो । सम्यक दर्शन ज्ञान चरित्र सू, स्व पर को भेद जतायो ||5|| वो ज्ञान प्रकाश रो पुजीभूत, जग सेवा सू' नेह लगायो । देश विदेश में शिष्य बरगाया, अर जैन धर्म नै पायो ||6|| जैन धर्म री घूम मची, अज्ञान हट्यो धरती पर सू । दे उपदेश ज्ञान रवि चमक्यो, हिंसा घटी धरा पर सं ॥7॥ महावीर रा स्वर गूं जै है, प्राणी मात्र रा कलेजर सं । एटम जया शस्त्र बध्या, जग दुखी हुया हिंला डर सू ॥8॥ पंचशील नेहरू रो देखो, जैन धर्म से सार धरयो । गांधी भी मारग वरणा, वसुधा पर परो नाम कर्यो ॥ 9॥ सगरा जीव जोवर चावै, के थारो नुकसान कर्यो । हिंसा छोड हिंसक होवो, क्यूं परपंच में पांत्र धर्यो ॥10॥ आखा जगरा बुद्धिजीवियो, जैन धर्म सू' शिक्षा ल्यो । स्व-पर उपगार करन्ता, आदर्श इसारी दिक्षा त्यो ॥11॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SORISM PORN COM S GOOO SORRO (Are) SPREAD वर्तमान राजस्थान राज्य में विलय होने वाली भू. पू. जयपुर रियासत में और चाहे किसी चीज की कमी रही हो लेकिन उपसनागृहों तथा ज्ञानालयों को यहाँ कभी कोई कमी नहीं रही। मन्दिरों के बाहुल्य के कारण जहां इसे मन्दिरों के नगर की संज्ञा से अभिहित किया गया वहां ज्ञान के क्षेत्र में यह दूसरी काशी कहलाई । उपासना और ज्ञानार्जन की इस दौड़ में जैनों ने भी कभी अपने आप को अन्यों से पीछे नहीं रखा। न केवल संख्या की दृष्टि से अपितु स्तर को दृष्टि से भी वे अन्यों की तुलना में किसी भी प्रकार पीछे नहीं रहेंगे ऐसा हमारा विश्वास है। जयपुर के ऐसे ज्ञानोपासकों में से कुछ का परिचय विद्वान् लेखक ने यहाँ प्रस्तुत किया है। लेखक ने बखतराम शाह को गोधा गोत्रीय बताया है जो विचारणीय है । -पोल्याका जयपुर की प्रथम डेढ़ शती के जैन साहित्यकार .डा. ज्योतिप्रसाद जैन ज्योति निकुञ्ज, चार बाग, लखनऊ-1 विश्वप्रसिद्ध गुलाबी नगरी जयपुर वर्तमान में नवीन राज्य की स्थापना की। पं० भंवरलाल भारतीय संघ के राजस्थान राज्य की राजधानी है, न्यायतीर्थ की सूचनानुसार स्थानीय किंवदंती है कि और देशी राज्यों के संघ में विलयन के पूर्व लगभग ढुढाहर के इस कछवाहा राज्य का प्रथम नरेश सवा-दोसौ वर्ष पर्यन्त कछवाहा राजपूतों की सोढदेव था जिसने वि. सं. 1023 (सन् 966 ई.) राजधानी रही थी। कछवाहा वंश को उस कच्छप- में दौसा अपरनाम धवलगिरि को राजधानी बनाकर घट वंश की ही एक शाखा अनुमान किया जाता अपना राज्यारंभ किया तथा यह कि उसका दीवान है जिसका शासन 10वीं शती ई० के मध्य के निरभैराम छाबड़ा नाम का एक जैन था। इस लगभग से 12वीं के प्रायः मध्य पर्यन्त मध्य प्रदेश अनुश्रु ति में असंभव कुछ नहीं है, सिवाय इसके कि के ग्वालियर तथा नरवर में रहा था, तथा घटना की तिथि संदिग्ध लगती है-उसके समर्थन जिसके नरेश जैन धर्मावलम्बी थे, जैसा कि में कोई पुष्ट प्रमाण है या नहीं, यह हमें ज्ञात नहीं उक्त क्षेत्र में उपलब्ध उनके शिलालेखों से प्रगट है। कहा जाता है कि कुछ समय बाद दौसा का है। ऐसा प्रतीत होता है कि 12वीं या त्याग करके खोह को, फिर रामगढ़ को और अन्त 13वीं शती ई० में किसी समय उसी वंश की एक में आमेर को राजधानी बनाया गया। किन्तु 16वीं शाखा ने पूर्वोत्तर राजस्थान के ढुढाहर (ढुढार या शती के मध्य पर्यन्त आमेर (या अम्बर) के ये ढ़ ढाड) प्रदेश के एक भाग पर अधिकार करके एक कछवाहे राजे अपेक्षाकृत गौण स्थिति के रहे। इस महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-113 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य के अभ्युदय का प्रारंभ 1562 ई० से हुआ मुनियों के भक्त अनेक श्रावक यहां निवास करते जब राजा भारमल (बिहारीमल) ने मुगल सम्राट थे। वस्तुतः, इस राज्य में प्रायः प्रारंभ से जैनों प्रकबर की अधीनता स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करली की अच्छी बस्ती एवं प्रभाव-प्रतिष्ठा रही है, और अपनी पुत्री का बादशाह के साथ विवाह कर राजधानी में ही नहीं, राज्य के अनेक कस्बों, ग्रामों दिया । फलस्वरूप भारमल के पुत्र राजा भगवान आदि में भी। अकबर द्वारा 1567 ई० में चित्तौड़ दास और पौत्र महाराज मानसिंह मुगल साम्राज्य का विध्वंस एवं उस पर अधिकार कर लेने के के प्रधान स्तम्भ और उसके विस्तार एवं शक्ति परिणामस्वरूप चित्तौड़ का नन्दीसंधी भट्टारकीय संवर्द्धन में सर्वाधिक सहायक बने। उनके उत्तराधि- पट्ट भी वहाँ से उठकर आमेर चला आया-उस कारियों, मिर्जा राजा जयसिंह और सवाई राजा समय पट्ट पर भट्टारक चन्द्रकीति (1565-1605 जयसिंह आदि ने भी इसी परम्परा का निर्वाह ई०) प्रामीन थे। कालान्तर में चाटसू, सांगानेर, किया, और साथ ही आमेर राज्य की शक्ति एवं महावीर जी आदि राज्य के अन्य कई स्थानों में समृद्धि में अभूतपूर्व उन्नति हुई और इस दृष्टि से भी शाखापट्ट स्थापित हुए। जयपुर राजधानी बन वह राजस्थान का सर्व प्रमुख राज्य बन गया। जाने पर तत्कालीन भट्टारक देवेन्द्रकीति (1713 1741 ई) ने भी अपनी गद्दी आमेर से हटाकर महाराज सवाई जयसिंह (1690-1743 ई.) अपने युग का प्रायः सर्वोपरि राजनीतिपटु, कुशल जयपुर में ही स्थापित करदी। विभिन्न समयों में लगभग पचास-साठ जैनों के इस राज्य के दीवान प्रशासक, विद्यारसिक, कलाप्रेमी एवं विद्वान राजपूत पद पर प्रतिष्ठित रहने का पता चलता है । अन्य नरेश था। गद्दी पर बैठने के कुछ ही वर्ष बाद उसने सुनियोजित ढंग से एक अति भव्य नगर का पदों पर, छोटे-बड़े राज्य कर्मचारियों के रूप में निर्माण प्रारम्भ कर दिया, उसे अनेक सुन्दर अनगिनत जैन राज्य की सेवा करते रहे हैं। राज्य तथा राजधानी के साहुकारा, महाजनी, विविध भवनों, उद्यानों, हाट-बाजारों आदि से अलङ्कृत व्यापार एवं उद्योग धन्धों में जैनों का प्रमुख भाग किया-प्रजा के धनीवर्ग ने भी सोत्साह सहयोग दिया । जब 1727 ई० में नगर का निर्माण कार्य रहता आया है। सैकड़ों भव्य एवं विशाल जिन समाप्त प्रायः हो गया तो राजधानी को भी प्रामेर मंदिर और अनेकों सांस्कृतिक, शिक्षा एवं सार्व जनिक जैन संस्थाएँ यहाँ विद्यमान हैं। और, जैन से स्थानान्तरित करके इसी दर्शनीय जयनगर में, जो कालान्तर में जयपुर नाम से विख्यात हुअा, साहित्य के निर्माण एवं प्रसार में जयपुर का जो स्थापित कर दिया। योग रहा है वह प्रायः अद्वितीय है। इस नगर के निवासी डा० कस्तूरचंद कासलीवाल इसे 'जैननगर' ढढाहर प्रदेश में जैनों का निवास अति की जो संज्ञा देते हैं उसमें अत्युक्ति नहीं है । प्राचीन काल से रहा आया लगता है । वैराट नगर के प्राचीन जैनपुरातत्त्व एवं अभिलेखों के अतिरिक्त जयपुर क्षेत्र को कम से कम सौ-सवासौ अच्छे जयपुर के पुराने घाट के निकट झामडोली में स्थित जैन विद्वानों, साहित्यकारों, कवियों आदि को जन्म एक प्राचीन शिवालय में, जो हनुमान मन्दिर के देने का श्रेय है, जिनमें से अधिकांश सन् 1727 एक भाग में स्थित है, सन् 1155 ई० का एक ई० में जयपुर नगर की स्थापना के बाद ही हुए हैं शिलालेख प्राप्त हुआ जिससे विदित होता है कि और इस महानगर से ही सम्बन्धित रहे हैं । जयपुर उसकाल में सेनसंघ के छत्रसेन, अम्बरसेन प्रादि नगर के गत अढ़ाई सौ वर्ष के इतिहास में भी 2-114 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसको प्राथमिक डेढ़ शती, लगभग 1725--1875 पदमपुराण, हरिवंशपुराण, श्रीपाल चरित्र, मल्लिई०, तो जयपुर के जैन साहित्यिक इतिहास का नाथ चरित्र, पुण्यास्रव कथाकोष (वि.सं 1777), स्वर्णयुग रहा है। इस युग की दिग्गज विद्वत्- परमात्मप्रकाश की हिन्दी गद्य वचनिकाएं; वसुचतुष्टयी-पं. दौलतराम कासलीवाल, प्राचार्यकल्प नंदि उपासकाध्ययन (टब्बा, वि. सं. 1808), पं. टोडरमल, पं. जयचन्द छाबड़ा और पं. सदासुख पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय (वि. सं 1827), और स्वामी दास जी-तो बहुचर्चित रहे हैं और सर्वप्रसिद्ध कीर्तिकेयानुपेक्षा (वि. सं. 1826) की हिन्दी हैं । किन्तु इनके अतिरिक्त जो लगभग पचास अन्य टीकाएँ'; क्रियाकोश (हि. गद्य, वि. सं. 1795); जैन साहित्यकार इस युग में जयपुर या उसके पास अध्यात्म बारह खड़ी (हि. पद्य.)। पास हुए, उनमें से स्यात् एक-डेढ़ दर्जन ही ऐसे हैं जिनकी कुछ चर्चा हुई हो, व.तिपय कृतियों के दीपचन्द शाह कासलीवाल - हिन्दी गद्य में फुटकर उल्लेख हुए हों, अथवा नामादि संक्षिप्त चिद्विलास (वि. सं. 1779), आत्मावलोकन, परपरिचय प्रकाशित हुए हों, शेष बहुभाग को तो मात्मपुराण और अनुभव प्रकाश; तथा हिन्दी पद्य अभी तक साहित्य के इतिहास में स्थान मिला हो, में-ज्ञानदर्पण, स्वरूपानंद, भावदीपिका और उपऐसा नहीं लगता। देशरत्नमाला। अस्तु, जयपुरीय जैन साहित्य के उक्त स्वर्ण खुशालचन्द काला-सांगानेर के निवासी थे, युग से सम्बन्धित ग्रन्थकारों और उनकी कृतियों का, ज्ञात तिथियों आदि सहित संक्षिप्त निर्देश कुछ समय जयपुर में भी रहे प्रतीत होते हैं, किन्तु प्रस्तुत किया जाता है-- इनकी साहित्यिक प्रवृत्तियाँ जयपुर के बाहर अन्य स्थानों में ही रहकर हुई प्रतीत होती हैं। इनकी भ. देवेन्द्र कीति, आमेर जयपुर के भट्टारक सात-आठ बड़ी कृतियाँ हैं जो 1717 और 1749 (1713-41 ई०), समयसार की पदार्थ दीपिका ई० के बीच रची गयीं। टीका (वि. सं. 1788), विद्यानुवाद, दीप्तिसुन्दर संहिता तीनों संस्कृत भाषा में। लिखमीदास पंडित सांगानेरी-ने सं. 1782 में हिन्दी पद्य में यशोधरचरित्र रचा था। नेमचन्द पंडित, भ. देवेन्द्र कीति के गुरुभाई और भ. जगत्कीति के शिष्य हरिवंशपुराण अपरनाम पर्वत धर्मार्थी-ने समाधितन्त्र सूत्र (प्राकृत) नेमीश्वररास, देवेन्द्रकीर्ति की जकड़ी, पखवाड़ा, और द्रव्य संग्रह की हिन्दी टीकाएं 1725 और कई पूजायें-सब हिन्दी में रचित, प्रथम का रचना- 1735 ई० के मध्य किसी समय रची थीं। काल सं. 1769 और द्वितीय का 1770 । किशनचन्द-कल्याणसिंह के पुत्र ने 1727 पन्नालाल संघहि-रत्नकरण्ड श्रावकाचार का ई० में क्रियाकोश भाषा की रचना की। हिन्दी पद्यानुवाद, तथा प्रश्नोत्तर सज्जन चित्तवल्लभ की हिन्दी टीका-प्रथम कृति का रचनाकाल वि.सं. किशनसिंह पंडित देवीचन्द के पुत्र-ने 1716 1770 है। और 1728 ई० के मध्य हिन्दी पद्य में अपन दौलतराम पंडित, कासलीवाल, बसवा निवासी क्रियाकोश, भद्रबाहु चरित्र, रात्रि भोजन कथा (ज्ञात रचनाकाल 1720-70 ई०) प्रादिपुराण, और किशन-पच्चीसी की रचना की थी। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-115 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ज्ञानचन्द्र संघी, भ. जगत्कीति के शिष्य-ने रामचन्द्र चौधरी-ने 1750 ई० के लगभग सं. 1798 (सन् 1741) में हिन्दी पद्य में चतुर्दशी- चतुर्विंशति, पार्श्वनाथ और महावीर पूजन की कथा की रचना की तथा एकीभावस्तोत्र की टीका रचना की थी। लिखी। टोडरमल्ल, प्राचार्यकल्प पंडितप्रवर का ग्रन्थ ___अजयराज पाटणी-ने सं.1792 में यशोधर रचनाकाल लगभग 1754 से 1768 ई० रहा चौपई की, 1793 में पार्श्वनाथ सालेट्टा तथा ज्ञात होता है-इन का महान ग्रन्थ है गोम्मटसार नेमिनाथ चरित की और 1797 में आदिपुराण की जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार एवं क्षपरणासार की रचना की थी। इनके अतिरिक्त कई फुटकर हिन्दी गद्य में वहद संयुक्त टीका सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका रचनाएँ पूजाएँ तथा पद-भजन आदि भी हैं। (45000 श्लोक परिमारण वि. सं. 1818), प्राथमिक रचनाएँ चारमित्रकथा (सं. 1781) और त्रिलोकसार वचनिका, अर्थसंदृष्टि अधिकार, प्रात्माकक्काबत्तीसी (सं. 1783) हैं। नुशासन और पुरुषार्थसिद्ध्युपाय (अपूर्ण) की वचनिबखतरामशाह-चाटसू निवासी, गोधागोत्रीय काए, मोक्षमार्गप्रकाशक, तथा आध्यात्मिक पत्र । खंडेलवाल, कही-कहीं चम्पावती निवासी लिखा है कुछ लोग ज्ञानानंदश्रावकाचार और गोम्मटसार जो चाटसू का ही अपरनाम प्रतीत होता है- पूजा भी इन्हीं के द्वारा रचित बताते हैं । इन्होंने 1743 और 1770 ई. के बीच हिन्दी पद्य में धर्मबुद्धि की कथा (सं. 1800), प्रतिमा बहत्तरी लालचंद कवि सांगानेरी-ने 1761-1785 ई० (सं. 1802), मिथ्यात्वखंडन नाटक वचनिका के बीच हिन्दी पद्य में विमलनाथ पुराण, वरांग(सं. 1821) और हिन्दी गद्य में बुद्धिविलास (सं. चरित, सम्यक्त्वकौमुदी, षट्कर्मोपदेशरत्नमाला 1827) की रचना की थी। (सं. 1818), शिखर विलास (सं.1842), तेरह महेन्द्रकोति भट्टारक (1741-58 ई०)-ने द्वीपविधान, कई अन्य पूजापाठ, आगमशतक और हिन्दी में नीरांजना काव्य की रचना की। त्रिवर्णाचार (हिन्दी-गद्य) की रचना की थी। रायमल, साधर्मी भाई का जयपुर में बहुधा . सुरेन्द्रकीति भट्टारक-(1765-1802 ई०) पुरन्द्रकात भट्टारक-( निवास रहा, पं. टोडरमल के प्ररक-प्रशंसक थे, ने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति संग्रह का संस्कृत रूपान्तर (वि. समय लगभग 1745-75 ई० है-रचना . सं. 1833), तथा संस्कृत में ही मुनिसुव्रतपराण, हिन्दी में ज्ञानानंद-निजरसनिर्भर-श्रावकाचार तथा श्रेयांसपुराण, समुदाय स्तोत्रवृत्ति, चतुर्विशति गोम्मटसार पूजा। जिन काव्य (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित), कल्याणक उद्यापन, सम्मेदशिखर पूजन, ज्ञानपंचविंशति उद्याकुंवर धर्मार्थो, सम्भवतया उपरोक्त पर्वत पन, शांतिचक्र पूजन और क्षेत्रपाल पूजा की, तथा धर्मार्थी के पुत्र थे-इन्होंने 1749 ई० के लगभग हिन्दी पद्य में ज्येष्ठजिनवर पूजाव्रत कथा एवं बन्धत्रिभंगी (सं. 1806). प्रास्रवत्रिभंगी, उदय- पंचमास चतुर्दशी व्रतोद्यापन की रचना की थी। त्रिभंगी और सत्तात्रिभंगी की हिन्दी गद्य वचनिकाएँ इनके लगभग 100 हिन्दी पदों का भी एक संग्रह लिखी थीं। 2-116 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवलराम खंडेलवाल बसवा निवासी-ने सं. अन्य कृतियाँ तत्त्वार्थसूत्र की संस्कृत टीका तथा 1829 (1772 ई०) में हिन्दी छन्दोबद्ध वर्द्ध मान. भाषा प्रतिष्ठा पाठ हैं। पुराण रची थी, एक विनती संग्रह भी है। बुधजन, अपरनाम बिरधीचन्द्र, पण्डित और लखमीदास पंडित भी संभवतया जयपुर क्षेत्र कवि, ज्ञात रचना तिथियाँ सन् 1802 से 1835 के ही निवासी थे-इन्होंने सं. 1829 (1772 ई०) ई० तक की हैं-छहढाला (सं. 1859), पंचास्तिमें हिन्दी हरिवंशपुराण लिखा था । काय हिन्दी पद्य में (सं.1891), तत्त्वार्थबोध (सं. 1871 या 1889), बुधजनसतसई (सं. टेकचन्द पंडित भी संभवतया जयपुर प्रदेश के 1879), बुधजन विलास (सं. 1892) और इष्ट ही निवासी थे-निश्चित ज्ञात नहीं है, भारी साहित्य- छत्तीसी'। वर्द्ध मान पुराण (हि. पद्य) भी इनकी कार थे-इनकी सर्वप्रसिद्ध रचना सुदृष्टितरंगिणी एक रचना रही बताई जाती है । वचनिका (वि. सं. 1838) है, उसके पूर्व तत्त्वार्थ सूत्र की श्रु तसागरी टीका की वचनिका सं. 1837 जयचन्द छाबड़ा, भारी साहित्यकार, 1804 से में तथा तीनलोक पजा में. 1828 में सीपी 1829 ई. के बीच अनेक पुरातन ग्रन्थों की हिन्दी गद्य इनके अतिरिक्त पद्मनंदिपंचविंशतिका टीका, षट्पा वचनिकाएँ लिखीं-सर्वार्थसिद्धि (सं.1861), परीक्षाहुड वचनिका, बुधप्रकाश छहढाला, ढालवाण, मुख (सं.1863), द्रव्यसंग्रह (सं.1863) तथा इसका कथाकोश छन्दोबद्ध, पंचमेरू, नन्दीश्वर विधान, हिन्दी पद्यानुवाद भी, आत्मख्याति समयसार की कर्मदहन, पंचपरमेष्ठी प्रादि कई पूजाएँ और संस्कृत परमाध्यात्मतरंगिणी वचनिका (सं. 1864), प्रश्नमाला इनकी अन्य कृतियाँ हैं । स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा (सं. 1866), अष्टपाहुड़ (सं. 1867), ज्ञानार्णव (सं. 1869 या 1865), जिनदास गोधा जयपुर निवासी ने-सं. 1852 प्रमेयरत्नमाला, पत्रपरीक्षा, देवागम स्तोत्र (सं. (1795 ई०) में हिन्दो पद्य में सुगुरुशतक रचा 1866 या 1886) चन्द्रप्रभचरित्र, (के द्वितीयसर्ग न्याय भाग की), पुण्यास्रवकथाकोश, सामायिकपाठ, था । मतसमुच्चय, भक्तामरचरित्र-हिन्दी पद्य (सं. सेवाराम शाह जयपुर निवासी ने-सं. 1854 1870), फुटकर पद आदि का संकलन में चौबीसी पजा पाठ तथा धर्मोपदेश छन्दोबट (स. 1874). जिनगुण सम्पत्ति कथा सं. 1845) की रचना की डालूराम अग्रवाल, माधवराजपुर निवासी नेथी। यह बखतराम शाह के पुत्र थे। गुरूपदेश श्रावकाचार (सं. 1867) सम्यक्त्वप्रकाश थानासह भी संभवतया जयपुर प्रदेश के ही थे (सं. 1871), पंचपरमेष्ठि पूजन प्रादि कई पुजाएँसं. 1847 में इन्होंने सुबुद्धिप्रकाश की रचना की सब रचनाएं हिन्दी पद्यमयी हैं । थी। जीवनराम गोधा ने-हिन्दी पद्य में अनन्तदेवीदास गोधा वसवा निवासी-ने सं. 1844- व्रतकथा (सं. 1871) एवं अष्टाह्निका कथा रची 45 में सिद्धान्तसार संग्रह वनिका लिखी थी। थी। महावीर जयन्ती स्मारिका 78. 2-117 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीलाल पाटनी ने—सं. 1870 में तेरहद्वीपपूजा और अकृत्रिम चैत्यालय पूजा लिखी हैं । इनकी एक रचना प्राप्तपरीक्षा भाषा है । मन्नालाल सांगा ने सं. 1871 में चारित्रसार की हि. गद्य वचनिका लिखी थी । अमरचन्द, जयपुर राज्य के दीवान थे, शास्त्रमर्मज्ञ और विद्वानों के प्रश्रयदाता थे, 19वीं शती ई० के पूर्वार्ध में हुए हैं- परमात्मप्रकाश की हिन्दी टीका लिखी । केशरीसिंह पंडित ने - वि. सं. 1873 में वर्द्धमानपुराण की हिन्दी वचनिका लिखी और संस्कृत में बृहद्ध्वजारोपण पूजन । सदासुखदास कासलीवाल पंडितप्रवर, पूर्णजीवन लगभग (1795-1867 ई०), रचनाओं से ज्ञात तिथियाँ 1821 से 1864 ई० तक की हैंभगवती श्राराधना वचनिका (सं. 1878), तत्त्वार्थ सूत्र की अर्थप्रकाशिका टीका (सं. 1914), समाधि 2-118 करण - मृत्युमहोत्सव (सं. 1919) रत्नकरण्डश्रावकाचार टीका (सं. 1920), नित्यनियम पूजा टीका (सं. 1921), नाटक समयसार वचनिका, पंचप्रतिक्रमणसूत्र वचनिका, प्रकलङ्काष्टक वचनिका, आदि । व्याकरण विषय की भी एक कृति इन्होंने रची बताई जाती है । नेमिचन्द पाटनी ने के बीच तीन भाषा पूजाएं रचीं । 1823 से 1864 ई० चम्पाराम दोवान ने स. 1882 ( सन् 1825 की । पन्नालाल चौधरी, भारी शास्त्रकार थे, 19वीं शती ई० के पूर्वार्ध में हुए, लगभग 35 ग्रन्थों की हिन्दी गद्य वचनिकाएँ लिखीं, यथा - वसुनंदि ई०) में जैन चैत्यस्तव की हि.-पद्य में रचना श्रावकाचार, सुभाषितार्णव तत्त्वसार, प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, निदत्तचरित्र, तत्त्वार्थसार, सद्भाषितावली, श्राराधनासार, धर्मपरीक्षा, योगसार, समाधिशतक, तत्त्वार्थसारदीपक, सुभाषित रत्न संदोह, भक्तामर कथा, पाण्डवपुराण, यशोधर चरित्र, जम्बुचरित्र, जीवंधर चरित्र, गौतमचरित्र, भविष्यदत्त चरित्र, प्रचारसार, नवतत्त्व, श्रावकप्रति*मरण, स्वाध्यायपाठ, विविध भक्तियाँ और विविध स्तोत्र । उदयचन्द लुहाड्या ने -- 1825 ई० के लगभग रत्नकरण्ड श्रावकाचार वचनिका लिखी । ताराचन्द ने इसी समय के लगभग तीसचौवीसी पूजा की रचना की । जवाहिरलाल पंडित ने इसी समय के लगभग तीस - चौबीसी पूजा त्रिलोकसार विधान, और सम्मेदशिखर महात्म्य एवं पूजाविधान की रचना की । ऋषभदास निगोत्या ने सं. 1888 में नन्दलाल छाबड़ा के सहयोग से मूलाचार की हिन्दी गद्य वचनिका लिखी। इनकी ग्रन्य रचनाएँ रत्नत्रय पूजा - जयमाल और व्रत विचार हैं । नंदलाल छाबड़ा ने --- ऋषभदास निगोत्या के सहयोग से ऋषि मंडल मन्त्रपूजा और तीस-चौबीसी पूजा समुच्चय की हिन्दी में रचना की । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमरचन्द लुहाड़ा ने-सं. 1891 में बीस- रत्नकरण्ड थावकाचार और सिद्धि प्रयस्तोत्र के विरहमानपूजा और चौबीसी पूजा की रचना की। हिन्दी पद्यानुवाद, तथा समाधितंत्र-वचनिका, इनकी अन्य कृतियाँ हैं बुद्धिप्रकाश, अमरचन्द्रिका सुकुमालचरित्र, महीपालचरित्र, रत्नत्रय कथा, और समयसार टीका भाषा, जो पन्नालाल षोडसकारणव्रत कथा, अष्टाह्निका कथा हिन्दी गद्य (चौधरी ?) के सहयोग से लिखी। में लिखी। सरूपजी बिलाला ने-इसी समय के लगभग पन्नालाल संघी दूनीवाले भी सदासुखजी के त्रिलोकसार का हिन्दी पद्यानुवाद किया तथा 12 प्रिय शिष्य थे---इन्होंने उत्तरपुराण वचनिका, तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थसारदीपक (सं. 1937), पूजाएँ रची। तत्त्वार्थराजबार्तिक, न्यायदीपिका, द्रव्य संग्रह, सर्वसुखराय पंडित ने---सं. 1896 में समो. रत्नकरंडश्रावका वार, इप्टोपदेश की हिन्दी टीकाएँ लिखीं, और जैन विवाह पद्धति (सं.), धर्मदशावसरणपूजा की रचना की। तार या धर्मप्रदीपक नाटक (सं.) बिम्बनिर्माण विधि (हि.) और विद्वज्जनबोधक इनके स्वतंत्र शिवजीलाल पंडित-अच्छे विद्वान थे, इनका ग्रन्थ हैं। कार्यकाल लगभग 1840 से 1885 ई० तक रहा प्रतीत होता है। रचनाएँ-भगवती आराधना ___ फतेहलाल-भी सदासुखजी के शिष्य और की भावार्थदीपिका संस्कृत टीका (सं. 1918), गजपन्थमण्डलपूजन विधान-संस्कृत (सं. 1939), 19390 पन्नालाल दूनीवालों के मित्र एवं साहित्यिक सहतथा बोधसार, दर्शनसार (सं. 1923), अध्यात्म- योगी थे---विवाह पद्धति, दशावतारनाटक, राजतरंगिणी, रत्नकरण्ड श्रावकाचार और उमास्वामि- वात्तिक, न्यायदीपिका आदि कृतियाँ इन दोनों की श्रावकाचार की हिन्दी टीकाएँ, और हिन्दी में संयुक्त रूप में हैं। चर्चासार, चर्चासंग्रह एवं तेरहपंथ खंडन । मन्नालाल बैनाड़ा ने---सं. 1916 में प्रद्युम्नचैन जी लुहाड्या ने-1850 ई० के लगभग चरित्र की हि. गद्य वनिका लिखी थी। प्रकृत्रिम चैत्यालय पूजा भाषा लिखी । दुलीचन्द बाबा ने जयपुर में 1869 ई० में पारसदास निगोत्या, ऋषभदास निगोत्या के जैन शास्त्रनाममाला नामक एक वृहत् जैन ग्रन्थ पुत्र और पं. सदासुख जी के शिष्य थे-इन्होंने । ___ सूची तैयार की थी। इन्होंने धर्मोपदेशरत्नमाला, सं. 1917 में ज्ञानसूर्योदय की भाषा टीका, 1918 में चतुविशतिका-वचनिका रची। इनके पद आदि सुभाषितार्णव, प्रतिष्ठासार, नित्यधर्मप्रक्रिया और का संग्रह पारस विलास है। जैनागर प्रक्रिया (सं. 1955) की हिन्दी टीकाएँ भी लिखी हैं। नाथूलाल दोसी भी सदासुख जी के शिष्य थे, इन्होंने-परमात्मप्रकाश वचनिका (सं. 1911), महाचन्द विबुध भी इसी समय के लगभग रत्नत्रयजयमाल वचनिका (सं. 1924), दर्शनसार हुए हैं, इन्होंने---संस्कृत, प्राकृत और भाषा में महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-119 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापुराण लिखी, जैनेन्द्रलघुवृत्ति, सामायिक पाठ विद्वान एवं साहित्यकार हुए, जिनकी कृतियों की भाषा, त्रिलोकसारपूजा, जिनस्तुतिपंचविंशतिका, संख्या दो अढाई सौ से ऊपर ही है। उपरोक्त 56 आदि की रचना की थी। साहित्यकारों के अतिरिक्त भी कुछ हुए हो सकते - पन्नालाल गोधा 'मरकत' ने -1876 ई० हैं, और संभव है कि उल्लेखित विद्वानों में से दो (सं. 1933) में मरकतमणि विलास वनिका चार का सम्बंध जयपुर के साथ रहा न पाया लिखी थी, मरकतविलास, सम्यग्दर्शनचंद्रिका, जाय । उपरिसूचित नाम, कृति नाम, कृति संख्या, पाक्षिक श्रावक चन्द्रिका तथा जैन बालबोधत्रिंशतिका । तिथियों आदि में भी कहीं-कहीं त्रुटियाँ रही हो इनकी अन्य रचनाएँ हैं। सकती है । तथापि जयपुर के तत्कालीन साहित्य ___ इस प्रकार जयपुर में उक्त डेढ सौ वर्ष (सं. सेवियों के प्रामाणिक इतिहास के निर्माण में यह 1725-1875 ई०) में पचास से अधिक श्रेष्ठ लेख प्रेरक हो सकता है । नारी नारी पुस्तक नहीं कविता है उसे पढ़ा नहीं जिया जाता है कवि होने के नाते मैं तुम पर दोहरी कविता जीने की * ममता मालपाणी ध्याख्याता : सी. पी. महिला कालेज 113, सराफा वार्ड, जबलपुर-2 मानसिकता नहीं थोपूगी पर इतना अनुरोध अवश्य करूंगीउसे दैनन्दिनी मत समझो जिस पर अपनी दिनचर्या का हिसाब लिख तुम पाराम से सो जाओं और वह रात भर करवटें बदलती रहे 2-120 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी साहित्य में वृन्द, रहीम श्रादि के दोहे सुभाषितों के रूप में पर्याप्त विख्यात रहे हैं। शायद ही कोई हो जिसे इन कवियों का एकाध दोहा याद न हो। जैन कवियों ने भी ऐसे दोह लिखे हैं जिनका यदि मूल्यांकन किया जाय तो वे इन कवियों के दोहों से किसी भी दृष्टि से कम नहीं उतरेंगे किन्तु आज कोई उन्हें जानता तक नहीं क्योंकि न तो उनका प्रकाशन होता है और न उन्हें पाठ्यक्रम आदि में रखाने का प्रयत्न । जो कुछ थोड़ा प्रयत्न हुवा भी है तो उसमें जैनों से अधिक हाथ जैनेतरों का ही है । यदि कुछ छपता भी है तो अत्यन्त सीमित संख्या में और उसके पीछे भी मिशनरी भावना के स्थान में कोई अन्य हो भावना काम करती है। जयपुर के ही कवि विरध चन्द जैन ने बुधजन उपनाम से एक सतसई की दोहा छन्दों में रचना की थी। उनके रचे और भी ग्रन्थ हैं किन्तु वे पूरे छपे नहीं या छपे तो अत्र प्राप्य नहीं, फिर उनके महत्व का पता विद्वानों को लगे तो कैसे ! बुधजन सतसई सात सौ एक दोहों की यह कृति कवि बुधजन ने, अन्त में दी गई कवि प्रशस्ति के अनुसार, ढूंढार प्रदेश के जैपुर नगर में नृप जयसिंह के राज्यकाल में संवत् 1879 में ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी रविवार को पूर्ण की थी । इस कृति, जिसे कवि ने ग्रन्थ की संज्ञा दी है, का सार स्वयं उनके शब्दों में निम्नवत् है : 'भूख सही दारिद सहौ, सहौ लोक अपकार । निंदकाम तुम मति करो, यहै ग्रंथको सार ॥ सदाचरण पर बल देने वाले इस सतसई के महावीर जयन्ती स्मारिका 78 पोल्याका श्री रमाकान्त जैन ज्योति निकुंज, चार बाग, लखनऊ सुगम सुभाषितों का गुरण, कवि की भाषा में, 'सुनत पढ़त समझैं सरब, हरें कुबुधि का फेर' है । इन सुभाषितों की रचना करने के पीछे जो प्र ेरक तत्व था उसे स्पष्ट करते हुए बुधजन ने लिखा है : 'ना काहू की प्रेरना, ना काहू को प्रास । अपनी मति तीखी करन, वन्यो वरनविलास || ' सिद्धों को नमस्कार कर ग्रन्थ ॐ नमः करते समय ही कवि ने अपनी कृति का नाम, आकार और उद्देश्य निश्चित कर लिया था यह प्रथम दोहे से स्पष्ट है 2-121 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सनम तिपद सनमतिकरण, बन्दौं मंगलकार । कवि ने अपने को दीन, अनाथ और अवगुणों बरनै बुधजन सतसई, निजपरहितकरतार ॥' का धाम माना है तथा अपने को बालक, वानर की कोटि में रखते हुए अपने दीनानाथ तारनतरन अपने इस ग्रन्थ को कवि ने देवानुरागशतक, प्राराध्य से भवसागर से तार लेने की बार-बार सुभाषित नीति, उपदेशाधिकार, विराग भावना विनती की है । भक्त कवि सूरदास के 'मेरे अौगुन और कवि प्रशस्ति नामक प्रकरणों में विभाजित चित्त न धरौ' पद की भांति ही बुधजन ने भी किया है। देवानु गिशतक में जैसा नाम से ही अपने आराध्य से मांग की हैस्पष्ट है देवभक्ति के 100 दोहे हैं। सुभाषित नीति अधिकार में नीति सम्बन्धी 200 दोहे हैं। मेरे प्रोगन जिन गिनौ, मैं अौगुनको धाम । उपदेशाधिकार में भी 122 दोहे तो नीति सुभा- पतित उधारक पाप हो, करौ पतित को काम ।। षित हैं शेष में से 15 विद्याप्रशंसा में, 14 मित्रता और संगति पर, 8 जुमा निषेध पर, 6 मांस और शिकायत की हैनिषेध पर, 6 मद्य निषेध पर, 6 वेश्या निषेध पर, सुनी नहीं अजौं कहूँ, बिपति रही है धेर । 6 शिकार की निन्दा में, 7 चोरी निन्दा में और औरनि के कारज सरे, ढील कहा मो बेर ।। 9 परस्त्रीसंग निषेध पर रचित हैं । विरागभावना में वैराग्य जागृत करने वाले 195 दोहे हैं और फिर अपने देव की कठिनाई को समझते हुए अन्त के सात दोहों में कवि ने अपनी प्रशस्ति कवि विनती करता हैलिखी है। हारि गये हो नाथ तुम, अधम अनेक उधारि । देवानुरागशतक में कवि अपने प्राराध्य का धीरे धीरै सहज मैं, लीजै मोहि उवारि ।। गुणगान करते हुए नहीं अघाया है और यह याचना करता हैतुम अनंतगुन मुखथकी, कैसे गाये जात । और नाहिं जाचू प्रभू, ये वर दीन मोहि । ईद मुनिद फनिंद हू, गान करत थकि जात ।। जौलौं सिव पहुंचू नहीं, तौलौँ सेऊ तोहि ॥ तुम अनंत महिमा अतुल, यौं मुख करहूं गान । सागर जल पीत न बनें, पीजे तृषा समान ।। ___ यद्यपि कवि ने अपने इष्ट देव का नामोल्लेख नहीं किया, किन्तु उनका जो गुणगान किया है आनंदधन तुम निरखिक, हरषत है मन मोर । उससे स्पष्ट है कि वे जिनेन्द्र के उपासक थे । दूर भयौ प्राताप सब, सुनिकै मुखकी धोर ॥ वीतराग जिनेन्द्र के प्रति यह दास्य भक्ति यद्यपि कुछ विचित्र सी लगती है, किन्तु उनकी यह प्रान थान अब ना रुचं, मन राच्यौ तुम नाथ । विनती-याचना तुलसी की विनयपत्रिका, सुर के रतन चिंतामनि पायकै, गहै काच को हाथ ।। विनय पद तथा अन्य पूर्ववती एव समकालीन भक्त जैसे भानु प्रतापते, तम नासै सब ओर। कवियों द्वारा अपने आराध्य के प्रति किये गये तैसे तुम्म निरखत नस्यौ, संशयविभ्रम मोर ॥ भक्तिगानों की श्रृंखला में की गई भावाभि व्यक्ति है। धन्य नैन तुम दरम लखि, धनि मस्तक लखि पाय । श्रवन धन्य वानी सुनै, रसना धनि गुन गाय ॥ सुभाषित खण्ड और उपदेशाधिकार प्रकरण 2-122 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कवि ने लोक.मर्यादा के संरक्षण हेतु अनेक जिनका मन आतुर भया, ते भूपति नहि रंक । हितकारी नीति की बातें बताई हैं । कबीर, तुलमी । जिनका मन संतोष मैं, ते नर इन्द्र निसंक ।। रहीम, वृद और बिहारी के नीति विषयक दोहों की परम्परा में रचित इस खण्ड के दोहों पर भींग पूछ बिन बैल हैं, मानुष बिना बिवेक । संस्कृत के सुभाषितों की भी छाप है। पं०व० भख्य अभब समझे नहीं, भगिनी भामिनी एक।। नमिचन्द शास्त्री के अनुसार 'कतिपय दोहे तो ना जाने कुलशीलके, ना कीजै विश्वास । पंचतंत्र और हितोपदेश के नीतिश्लोकों का अनुवाद तात मात जात दुखी, ताहि न रखिये पास ।। प्रतीत होते हैं । तुलसी. कबीर और रहीम के दोहों से भी कवि अनागित सा प्रतीत होला गनिका जोगी भूभिपति, वानर अहि मंजार । "किन हम दोनों में कवि की प्रपनी मौलि. इनत राखें मित्रता, परै प्रान उरझार ।। कता भी स्पष्ट है। पारिभाषिक जैन शब्दों के अधिक सरलता सुखद नहिं, देखो विपिन निहार । प्रयोग द्वारा कवि ने सम्यक्त्व की महिमा, मिथ्याल सीधे बिरवा कटि गये, बांके खरे हजार ।। की हानि एवं चारित्र की महत्ता प्रतिपादित की है। साथ ही लोकोक्तियों और मुहावरों का दुगुण क्षुधा लज चौगुनी, अष्ट गुनौ विवसाय । प्रचुर प्रयोग किया है । एक-एक दोहे में जीवन काम वसु गुनी नारिक, वरन्यौ सहज सुभाय । को प्रगतिशील बनाने वाले अमूल्य सन्देश सरल भाषा में भरे हुए हैं। जिन्हें देखकर बिहारी कुर कुरूपा कल हिनी, करकस वैन कठोर । सतसई के सम्बन्ध में कही जाने वाली उक्तियां ऐसी भूतनि भोगिबौ, बसिवौ नरकनि धोर ।। बरबस याद आ जाती हैं। वास्तव में बुधजन नृपति निपुन अन्याय पैं, लोभ निपुन परधान । सतसई भी गागर में सागर है। इसके दोहों के चाकर चोरी मैं निपुन, क्यौं न प्रजा की हान । पठन और भनन से हृदय पूत भावनाओं से भर जाता है। उपयुक्त खण्डों के दोहों की बानगी विरगभावना प्रकरण में बुधजन ने संसार निम्नलिखित दोहों में देखी जा सकती है ---- की असारता का रोचक और सजीव चित्रण किया एक चरन हूं नित पढे, तो काट अज्ञान । है और कटु सत्य को प्रकट किया है। इस प्रसंग में निम्नांकित दोहे दृष्टव्य हैं - पनिहारी की लेज सौं, सहज कटै पाषान ।। पर उपदेश करन निपुन, ते तौ लखै अनेक । केश पलटि पलट्या वपू, ना पलटी मन बाँक । करै समिक बोलै समिक, ते हजार में एक ।। भुजैन जरती झूपरी, ते जर चुके निसांक ।। जो कुदेव को पूजिकै, चाहै शुभ का मेल । को है सुत को है तिया, का को धन परिवार । सो बालू को पेलिकै, काढ्या चाहे तेल ॥ पाके मिले सराय में, बिछुरेंगे निरधार ॥ परका मन मैला निरखि, मन बन जाता सेर।। परी रहैगी संपदा, धरी रहैगी काय । जब मन मांगे पानते, तब मन का है सेर ॥ छलबलि करि क्यों हु न बवै, काल झपट ले जाय ।। गति गति मैं मरते फिर, मनमैं गया न फेर। नि स सूते संपतिसहित, प्रात हो गये रंक । फेर मिटै ते मनतना, मर न दूजी बेर ॥ सदा रहै नहिं एकसी, निभै न काकी बंक ॥ महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-123 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुछ स्थानप अति गाफिली, खोई आयु असार । ऊपर चचित सतसई के अतिरिक्त उन्होंने, डा. अब तो गाफिल मत रहौ, नीड़ा पात करार ॥ ज्योतिप्रसादजी के अनुसार, छहढाला (सं० 1859 देधारी बचता नहीं, सोच न करिये भ्रात । में), तत्वार्थबोध (सं० 1871 या 1889 में), तन तौ तजिगे रामसे, रावन की कहा बात ।। पञ्चास्तिकाय (हिन्दी पद्य में सं० 1891 में), बुधजन विलास (सं० 1892 में), इष्टछत्तीमी हिन्दी ब्रजभाषा में रचित इस सतसई में, और वर्तमानपुराण (हिन्दी पद्य में) की रचनाए जैसा कि ऊपर उद्धृत दोहों से भी प्रकट है की। यह आश्चर्य का विषय है कि बुधजन सतसई ढूंढारी बोली का प्रभाव है जो कि कवि के उस एक धर्मनिरपेक्ष नीतिपरक साहित्यिक कृति होते प्रदेश का होने के कारण स्वाभाविक है। अपभ्रश हुए भी हिन्दी जगत में अब तक उपेक्षित रही है, और उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी कवि ने किया साहित्यिक रसिकों ने इसका मूल्यांकन नहीं किया है । अनुप्रास, यमक और उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों है। यदि अनुसंवित्सु इस संक्षिप्त परिचय से प्रेरणा की छटा भी इस ग्रन्य में यत्र-तत्र छाई है। ले इस कृति का सही मूल्यांकन कराकर उसे हिन्दी 'करतार' शब्द का प्रयोग निम्न दोहे में दृष्टव्य है- साहित्य में उचित स्थान दिला सके तो क्या ही अच्छा हो। उपरोक्त विवेचन पिताजी (डा० परमधरमकरतार हैं, भविजनसुखकरतार । ज्योतिप्रसादजी के संग्रह में उपलब्ध बुधजन सतसई नित बन्दन करता रहूँ, मेरा गहि कर तार ॥ मत 1010 जीपीका के बुधजन कवि का उपनाम है। उनका मूल आधार पर किया गया है जिसे पं. नाथूराम प्रेमी नाम बिरधीचन्द था । वह जयपुर निवासी खण्डेल. ने संशोधित-सम्पादित कर अपने जैन ग्रन्थ वाल जैन थे । एक अच्छे पण्डित और कवि थे। रत्नाकर कार्यालय से प्रकाशित किया था। दुर्जन प्रदोषामपि दोषाक्ता पश्यन्ति रचना खलाः । रविमूर्ति मिवोलुकास्तमाल दल कालिकाम् ।। अर्थ- दुर्जन लोग निर्दोष रचना में भी दोष ही देखते हैं जैसे उल्ल सूरज को तमाल के पत्ते की तरह का काला देखता है । -रविषेणाचार्य 2-124 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार भगतसिंह ने फांसी पर झलने से पूर्व बड़े जोश से कहा था--'शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर वर्ष मेले, कौम पर मरने वालों का बाको यही निशां होगा, किन्तु उनका कथन कथन मात्र ही रह गया । चिताओं पर हर वर्ष मेले जुड़ने की बात तो दूर बहुत से शहीदों को तो प्राज बिलकुल भुला ही दिया गया। संघी झूथाराम एक ऐसे ही स्वतन्त्रता प्रेमी व्यक्ति थे । जैसा कि ऐसे व्यक्तियों के साथ प्रायः होता पाया है इतिहासकारों ने उनके साथ न्याय नहीं किया । अग्रजसम भाई भंवरलालजी ने जयपुर के जैन दीवानों पर बहुत काम किया है। लेकिन वह सब प्रकाशन की बाट जोह रहा है। दिगम्बर समाज के कर्ता धर्ता श्रीमान धीमान पता नहीं क्यों इस महत्वपूर्ण कार्य की ओर से उदासीन हैं ? पूर्वजों के प्रेरणास्पद गौरवशाली व्यक्तित्वों को प्रकाश में लाने में उनके सामने न माजूम क्या बाधा है ? अाज खण्डेलवाल जैन (सरावगी) समाज को जो वर्तमान अवस्था है उसका एक सबसे बड़ा कारण यह भी है कि वे अपनी जाति के पूर्व प्रेरणास्पद गौरव से अपरिचित हैं। -पोल्याका संघी झूताराम और उनके पूर्वज समाजरत्न पं० भंवरलाल न्यायतीर्थ सपादक-वीरवाणी (जयपुर) राजस्थान के इतिहास में जैनों का साहित्य, अपार साहित्य द्वारा प्रतिभासित हो रहा है कला, शौर्य, शासन, राजनीति प्रादि सभी क्षेत्रों में वहां जैन मन्दिरों की स्थापत्य कृतियां उनके कला महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन संस्कृति की रक्षा प्रेम को प्रदर्शित कर रही हैं। इसी प्रकार प्रान्त करते हुए इस प्रान्त की उनने अपार सेवा की की शासन व्यवस्था और राजनीति में भी जैनों का है । जहां साहित्य निर्माण एवं उसके संरक्षण का बहुत हाथ रहा है । प्रस्तुत निबन्ध में हमने ऐसे कार्य प्रत्येक मन्दिरों के शास्त्र भंडारों में स्थित ही एक व्यक्ति और उनके पूर्वजों के बारे में पाठकों महावीर जयन्त स्मारिका 2-125 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को जानकारी देने का प्रयत्न किया है जिसे महान में एक पद्य प्रचलित हैहोते हुए भी इतिहासकारों ने अन्यथा चित्रित किया है। वह व्यक्ति है संघी झूताराम । राज दण्ड भरघो डालू मालू को डूबी द्यानतदारी। नैतिक विरोध के कारण जिसे काफी बदनाम किया चाकर होकर चोरी कीज, नातर होसीख्वारी। गया है। प्रान्त में अग्रेजों का प्राधिपत्य न जमने देने के कारण जिसे बागी माना गया- देश भक्तों ___ संघी डालू के पुत्र खेतसी थे और खेतसी के का जोस्थिति हुई वह ही उस स्वतन्त्रता की पुत्र मोहनदास थे जो मिर्जा राजा जयसिंह के महामन्त्री थे । सं. 1714-16 में मोहनदास द्वारा बनाये गये प्रामेर के जैन मन्दिर-(जो अव जैन मन्दिर नही है) के शिलालेख जो म्यूजियम में संघी भूताराम के पूर्वजों ने ढूढाहड राज्य रखे हैं-उनमें 'मोहनदासो महामन्त्री जयसिहकी बहुत सेवायें की हैं । इस वंश में कई दीवान- महीभतः' का तथा 'महाराजाधिराज श्री जयसिह प्रधानमंत्री हुए हैं। सर्व प्रथम जिस व्यक्ति का स्तस्य मुख्य प्रधान अम्बावती नगराधिकारी, उल्लेख मिलता है वह है संधी मल्लिदास जिसका निजयशः-सुधा-धवलीकृतविश्वः सार्थकनामधेयः' चौधरी माला या माली जै भौंसा या मालु आदि अादि शब्दों का उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट नामों से उल्लेख मिलता है। संवत् 1650 में है कि ये महामन्त्री थे। आषाढ़ कृष्णादशमी रविवार को प्रतिष्ठित कालाडेरा कस्बे के दिगम्बर मन्दिर में विराजमान मूर्ति के लेख इसी वंश में मोहनदास के बड़े पुत्र कल्याणमें इस वंश का परिचय है। मोजमाबाद वास्तव्ये दास भी दीवान थे। औरंगजेब के दरबार में लिखा है । भौंसा-बडजात्या गोत्रीय प्रायः अधिक शिवाजी को लाने में जयपुर राजाओं का हाथ परिवार चोरू मोजमाबाद में ही हैं। सं. 1658 था-सागरा से प्रतिदिन का पत्र व्यवहार इन्हीं "ला ज भासा ने बिम्ब प्रतिष्ठा कराई थी। संघी कल्याणदासजी से होता था। मोहनदास के आमेर एवं कई स्थानों के जैन मन्दिरों में इस तृतीय पुत्र अजीतदास भी दीवान थे। सं. 1770 संवत् की प्रतिष्ठित मूर्तियां उपलब्ध हैं । माली जै लाज में भट्टारक देवेन्द्रकीति के पट्टासीन होते समय भौंसा ने उस समय चोरू, दूदू, बोदरसींदरी, ये उपस्थित थे-ऐसा कवि नेमिचन्द्र कृत जकड़ी साखण और अरांई इन पांच स्थानों पर विशाल भोलतः उल्लेख है। सं. 1788 में इनने मन्दिर बनवाये थे जो आज भी मौजूद हैं । सं० जसपर में दो चोक का विशाल मन्दिर बनवाया 1663 में लिखित करकण्ड' चरित्र की प्रशस्ति था जो संघीजी के मन्दिर के नाम से ग्राज भी में इनके पिता का नाम ऊदा मिलता है । उसमें विख्यात है। मन्दिर के सामने ही इनकी विशाल इनके लिए संघभार धुरन्धर लिखा है। इनके हवेली थी। सबसे बड़े पुत्र डालू थे जिनके लिये संघभार धुरन्धर, जिन पूजा पुरन्दर, जिन चैत्यालये प्रतिष्ठा संघी अजीतदास के वंश में संघी हुकमचन्द कारणोक तत्पर शब्दों का प्रयोग किया गया है। और संघी झूताराम हुए । संघी हुकमचन्द फौज सं. माली जे के पुत्र संघी डाल थे वे राज्य में के इंचार्ज थे, दीवान थे। सं. 1881 से 1891 उच्च पद पर थे-बड़े ईमानदार थे-झूठी तक इनका कार्यकाल था। इन्हें राय बहादुर का शिकायत पर दण्ड भुगतना पड़ा था। उनके संबंध खिताब था । वे बड़े बहादुर और वीर थे । राजा के 2-126 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये संरक्षक थे। वंश भास्कर के पृष्ठ 4260 पर नीचा कर लिया और कर देना स्वीकार किया।" लिखा है-“जहं हुकमचन्द भूताग्रजात । नृप सन् 1803 के सन्धि पत्र में कोई कर देना तय पिठ्ठि खवासी तिनि निभात ।" वे बड़े धर्मात्मा भी नहीं हुआ था। थे । जयपुर शहर के बाहर उत्तर पूर्व कोने में इनने एक नसियां बनाई थी जो संघी हुकमचन्द राजा जगतसिंह का निस्संतान सं. 1875 की नसियां के नाम से प्राज विख्यात है। इनके (21-12-1818) में स्वर्गवास हो गया। अतः पुत्र विरधीचन्द भी 1886-88 में दीवान रहे। राज्य में कई दावेदार बनने लगे। जगतसिंह जी की द्वितीय रानी भटियानी जी ने बताया कि वे इस वंश में वहुचवित व्यक्ति संघी भूताराम गर्भवती हैं । इसकी जांच हुई । दि. 25-4-1819 हुए हैं । वे विचक्षण व्यक्ति थे। इनका जन्म सं. को उनके पुत्र जन्मा जिनका नाम द्वि.जयसिंह रखा 1832 के आसपास माघ कृष्णा 14 को हुआ था गया । पटरागी राठोड़ जी के बजाय पुत्र जन्मइनका दीवान पद पर कार्यकाल सं. 1884 से दात्री भटियारणी रानी राजमाता हो गई। अतः 1891 माना जाता है। सं. 1877 से पहले भी दोनों रानियों में अनबन रहने लगी। नाबालगी के ये राज्य में उच्च पद पर थे। इनका सारा जीवन इस काल में रावल वैरीसाल मंत्री थे। 12 मई, संघर्षमय रहा है ये बड़े जीवट के व्यक्ति थे। 1819 को राज्य के ठाकुरों, मुत्सद्दियों और प्रमुख संघी भूताराम के सम्बन्ध में लिखने से पूर्व कार्यकर्ताओं की ओर से राजमाता को एक शपथपत्र कुछ तत्कालीन जयपुर की परिस्थितियों पर भी प्रस्तुत किया गया कि नाबालगी के समय हम पुरी एक दृष्टि डालना आवश्यक है। जयपुर के सतर्कता से कार्य करेंगे। इसमें कई जैन अधिकारी तत्कालीन राजा जगतसिंह (सं. 1860 से 1875) थे। राजमाता स्वाधीनता प्रमी थी, वह अंग्रेजों का समय जयपुर के इतिहास में एक अशान्ति का का दखल कतई नहीं चाहती थी। रावल वैरीसाल समय रहा है। जयपूर का युद्धरत रहना, राजा राज्य कार्य में राजमाता का दखल नहीं चाहते का ऐय्याशी जीवन, राजनैतिक उथल पुथल, थे। रावल को अग्रेजों का संरक्षण था। फलत: अंग्रेजों का रियासत में जमाव आदि ऐसी घटनाएं राजमाता और मंत्री में मतैक्य नहीं रहा । परस्पर हैं जिससे जयपुर जनजीवन एवं राज्य व्यवस्था अनबन रहती थी। राजमाता को संघी भूताराम अस्त व्यस्त रही। जयपुर राज्य के साथ अंग्रेजों का पूरा विश्वास था। क्योंकि संधी अग्रेजों के की संधि सन् 1803 में हुई पर वह स्थिर नहीं दखल के विरुद्ध था-स्वतन्त्रता प्रमी था। वह रही। सन् 18 13 में फिर प्रग्रेजों ने दखल चाहा सूझ बूझ वाला, दूरदर्शक, शासन पटु था। राजपर उन्हें सफलता नहीं मिली, सन् 1817 में भी माता ने प्राय के विभाग का मंत्री संघी को बनाया कामयाबी नहीं मिली। अन्त में रावल वैरीसाल के रावल को संघी का हस्तक्षेप पसन्द न पाया। मंत्रित्व काल में सन् 1818 में सन्धि हुई जिसमें राजमाता ने दोनों को मिलकर काम करने की चार लाख से आठ लाख तक सालाना कर अंग्रेजों सलाह दी। को देने का वायदा हुमा फलतः रावल वैरीसाल को अग्रेजों का संरक्षण मिला। बलदेव प्रसाद सन् 1821 में जयपुर में पोलिटिकल एजेन्सी मिश्र ने राजस्थान के इतिहास पृष्ठ 633-634 कायम हुई। एजेन्ट ने रावल को सारा काम में लिखा है कि 'इस संधि से जयपुर राज्य ने संभलवाने, राज कार्य में से राजमाता को हाथ चिरकाल के लिए अपने स्वाधीन ऊचे मस्तक को खेंचने और राज्य के अन्दरूनी हिसाब किताब के महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-121 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोमलों में अंग्रेजों के अधिकार की तजबीज की की लहर भी बढ़ी । रावल के खिलाफ चार्ज लगाइससे राजमाता नाराज हुई । संघी झूताराम, कर राजमाता ने एक सर्कुलर घुमाया जिस पर दीवान अमरचन्द प्रादि राज्य के उच्चाधिकारियों ने अनेक ठाकुरों आदि के हस्ताक्षर थे । उधर पोलिभी इसका समर्थन नहीं किया । फलतः राज्य में टिकल एजेण्ट ने रावल के पक्षकारों के हस्ताक्षर दो राजनैतिक पार्टियां बन गईं । एक तरफ अंग्रेज कराये । संघी यात्रार्थ बाहर चले गये और ठाकुर और रावल बेरीसाल सिंह आदि, दूसरी ओर स्व- मेघसिंह डिग्गी चले गये। रावल को अग्रेजों का तन्त्रता प्रमी राजमाता, संघी भूताराम और संरक्षण मिला। उनके सहयोगी कई मुत्सद्दी राजपूत सरदार आदि। राज्य में राजनैतिक उथल पुथल होने लगी। कभी सन् 1824 में राजमाता ने राज्य की विभिन्न रावल का प्राबल्य और कभी संधी का। रावल । बटेलियन्स को तथा समस्त ठाकुरों को शेखावतों ने पोलिटिकल एजेन्ट को दरखास्त दी कि संघी और उसके साथियों को हटाया जाय और अंग्रेज को एकत्र किया और पराधीनता को उखाड़ फेंकना चाहा । अंग्रेजों ने नसीराबाद से फौजें बुलाकर फोर्स की मदद चाही-पर अग्रेज नीतिज्ञ थे। विद्रोह को दबाने का प्रयत्न किया पर फौजें हटी उनने इसके लिए मना किया । उनने भेद नीति ही अपनाई । लाचार रावल जी को संघी को साथ नहीं । रावल शहर छोड़कर अंग्रेजों की शरण में लेकर कार्य करना स्वीकार करना पड़ा। गया और उसे संरक्षण दिया गया। रेजीडेन्ट प्राक्टरलोनी ने प्राकर राजमाता से बात की और उनकी शर्ते मानी। रावल जी को हटाकर डिग्गी राजमाता रावल से और नाराज रहने लगी। ठाकुर को मुखिया बनाया। संधी हुकमचन्द को फरवरी सन् 1823 में रेजीडेन्ट के आगमन से उनका नायब और दीवान अमरचन्द को रेवेन्यू पूर्व राजमाता ने रावल को दरबार में शामिल का अधिकारी बनाया। होने के लिए इन्कार किया और कौंसिल में मेघसिंह डिग्गी वालों को लिया। रावल ने उस समय जो दीवान पद पर था—इससे अपना अपमान संघी भूताराम की योग्यता के सब कायल माना । उसने पोलिटिकल एजेण्ट के द्वारा भूता थे । राजमाता ने उसे बुलाना चाहा पर पोलिटि. राम एवं मेघसिंह को हटाने के लिए राजमाता पर कल एजेण्ट सहमत नहीं हुप्रा । वह संघी को दबाव डाला। जब राजमाता इससे सहमत न । 1 खतरनाक व्यक्ति मानता था। वह जानता था कि हुई तो संघी को स्तीफा देने के लिए अंग्रेजों ने शासनपटु, निर्भाक और आजादी का दीवाना संघी बाध्य किया। निदान संघी ने त्यागपत्र दिया। यदि आ जाएगा तो हमारे पंजे उखाड़ फेंकेगा । स्वतन्त्रता प्रेमियों को समाप्त करने के लिए इसलिए उसे जिलावतनी का आदेश दिया गया । दूसरा प्रहार ठा. मेघसिंह पर किया गया । लेकिन जब पो. एजेण्ट का तबादला हुआ तो उसने उनका लाम्बा का किला हस्तगत करने के लिखा कि भूताराम के न पाने की कैद हटा ली लिए नसीराबाद स्थित ब्रिटिश ब्रिगेड बुलाकर, जावे तो ठीक है क्योंकि राज्य का कार्य अब भी लडाई लड़कर खाली कराया गया। इससे जहां उसकी सलाह से होता है और वह यहां रहे तो राज्य में अंग्रेजों का दबदबा बढ़ा वहां स्वतन्त्रता उत्तरदायी तो रहेगा। 2-128 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् 1825 में कैप्टिन रेपर के स्थान पर रानी चन्द्रावत जी के साथ 1832 में हो गया था। कैप्टिन लौ आये । रावल ने नाबालिग राजा को पर राजमाता का स्वर्गवास हो गया । होनहार बाहर लाने और माजी को बे अख्तियार करने के की बात कि 1835में नवयुवक राजा जयसिंह का लिए एजेन्ट पर दबाव डाला। अक्टबर 1826 स्वर्गवास हो गया। लोगों को मौका मिला दीवान में दोनों पाटियों की तरफ से पांच-छ हजार संघी झूताराम दीवान अमरचन्द प्रादि न्याधिकाव्यक्ति एकत्र हए पर नतीजा कुछ नहीं। चार्ल्स रियों को बदनाम करने का। उन पर राजा को मेटकाफ ने राज्य के सरदारों की मीटिंग बलाई। 50 मारने का दोषारोपण किया गया। सांप्रदायिकता में से 28 राजमाता के पक्ष में और 22 रावल के उमारी गई । जैनों के साथ बुरा बर्ताव हुआ। पक्ष में रहे। माजी सफल हुई । कैप्टन लौ के समय में अंग्रेजी हुकूमत ने संघी झूताराम को बुलाया। . जयसिंहजी के स्वर्गवास पर उनकी रानी संघी ने कई दिन बाद काम सम्भाला । के.लौ के बाद चन्द्रावत जी माजी मुख्तार हुई । वह स्वतन्त्रता सर जार्ज क्लार्क आये और उसने संघी को दीवान प्रभी थी। अग्रेजों का आधिपत्य इन्हें भी अपनी बनाया। दि.25-4-1828 को गवर्नर जनरल कौंसिल अमित सास की तरह पसन्द न था । फलतः ये भी रावल ने सरक्लार्क ब्रक को लिखा कि रानी के पक्षकारों जी के खिलाफ और संघी झूताराम के मुत्राफिक के बिना मिनीस्टरी चल नहीं सकती, उससे थी। कई इतिहासकारों ने संघी को हत्यारा आदि मुल्क की बरबादी हो रही है और हमारा खिराज शब्दों से व्यवहृत किया है पर साथ ही यह भी भी नहीं मिल रहा है। झूताराम की योग्यता के । लिखा है कि इसका कोई सबूत नहीं । यदि संघी सम्बन्ध में कोई शक नहीं है और यह भी उम्मीद जयसिंह का हत्यारा होता तो उनकी रानी चन्द्राहै कि वह जनता की भलाई एवं हमारी हुकूमत वतजी इनके पक्ष में कैसे होती? के हक में कार्य करेगा। राजा के मरने के बाद संघी ने स्तीफा पेश ___ संघी ने प्रधानमंत्री का कार्य संभालते ही किया और राज्य कार्य छोड़ धार्मिक जीवन व्यतीत समस्त राजपूत सरदारों से जो बिखरे हुए थे- करने की इच्छा व्यक्त की पर महारानियों ने इसे नाराज थे-संपर्क स्थापित किया। तीन वर्ष में स्वीकार नहीं किया। विपक्षी और अंग्रेज यह केवल रावल बैरीसाल के अतिरिक्त समस्त ठाकुरों चाहते ही थे। कर्नल पाल्स एजेन्ट गर्वनर जनरल को रजामन्द कर लिया । रावल को भी समझाया राजपूताना ने ऊपर से आज्ञा प्राप्त कर संघी को कि मिलकर कार्य करे। संघी ने राज्य का सारा जयपुर से चले जाने के लिए कहा । वे प्रामेर में कर्जा चुकाया, अग्रजों का खिराज भी चुकता अपने मकान में रहने लगे। सत्ता से हट जाने पर किया। शेखावाटी का सुप्रबन्ध करने हैतु कर्नल विरोधियों की काफी बन पड़ी । संघी को पामेर लाकेट को भेजा । फलतः लूट खसोट बन्द हुई। में उनके घर से बलदेवजी के मन्दिर में भेजा गया संघी का प्रभाव और राज्य संचालन पद्धता देख और फिर दौसा में नजरबन्द कर दिया। उनके विरोधियों ने सन् 1831 में उसे मारने तक का भाई हुकमचन्द को आगरा जाने की अनुमति दे दी षड्यन्त्र किया पर वे सफल नहीं हुए। गई। पर धन दौलत-मार्ग व्यय तक नहीं ले जाने दिया। उनके परिवार वाले काफी परेशान हुये। जयपुर नरेश युवा हो गए थे। विवाह भी वे प्रागरा जाकर रहने लगे जिनके गंशज महावीर .... महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-129 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेस वाले स्वः श्री कपूरचन्दजी जैन एवं उनके पुत्र आदि हैं। रावल श्योसिंह को रियासत का काम सुपुर्द करने के लिए अग्रेज गवर्नमेंट के प्रदेश लेकर 4 जून 1835 ( ज्येष्ठ शुक्ला 8 सं. 1892 ) को मि. श्रास प्रौर उनका सहायक मि. ब्लैक तथा दो अन्य राजमाता के महलों में गये और उक्त प्रदेश सबको बताया । वहां बहुत लोग एकत्र थे । भीड़ में से एक व्यक्ति ने मि. ग्राम्स पर तलवार से हमला कर दिया । मि. ब्लैक ने तलवार छीन ली और उसे जेल भेज दिया। दोनों अंग्रेज भी चले गए । मि. ब्लैक थोड़ी देर बाद हाथी पर चढकर वह तलवार लिए बाहर आये । उनके कपड़ों पर खून के छींटे थे। इतनी देर में शहर • में बात फैल गई कि महलों में खून खराबी हुई है । जब ब्लैक के हाथी पर तलवार और खूनदार कपड़े देखे तो यह अफवाह फैल गई कि ये बालक राजा का खून करके आए हैं । बस, जनता पीछे पड़ गई और जिसके हाथ में जो प्राया मारने लगे। हाथी पर बैठा चपरासी मारा गया, महावत जख्मी हुआ । हाथी को किशनपोल बाजार में अजबघर के सामने मन्दिर के बरामदे के सहारे लेकर ब्लैक मंदिर पर चढ़ गए पर जनता ने उन्हें पकड़ और मार कर सड़क पर फेंक दिया । इस काण्ड से प्रोज काफी नाराज हुए। विरोधियों को कुचलने का मौका मिल गया । आषाढ शुक्ला 13 सं. 1892 को संवीताराम के सहयोगी दीवान अमरचन्द यादि गिरफ्तार किए गए। एक कमीशन प्रोग्रेजों ने बिठाया ।. संघीताराम और उनके भाई संघी हुकमचन्द पर रावल जी को नीचा गिराने के लिए खूरेजी का षड्यन्त्रः करने का प्रारोप लगाया और दीवान अमरचन्द व मानकचन्द भांवसा पर फसाद का इन्तजाम करने का और बख्शी मन्नालाल को फोज 7 2-130 को मुतफिक रखने का । कमीशन ने संघी भूताराम, हुकमचन्द, अमरचन्द आदि को देने मृत्युदण्ड का तजवीज किया पर गर्वनर जनरल ने यह माना कि संघी राज्य के बदलने के अपराधी है ब्लैक की हत्या के नहीं अतः उन्हें प्राजीवन कारावास की सजा देकर चुनारगढ़ के किले में भेज दिया गया। उनके भाई पहले ही स्वर्गवासी हो चुके थे । संघी भूताराम सं. 1895 में स्वर्गवासी हो गए । अमरचन्द को फांसी की सजा सुनाई गई । इस प्रकार स्वतन्त्रता प्रेमियों को दण्ड भुग तना पड़ा, पर प्राजादी की ज्वाला बुझी नहीं सुलगती रही, बढ़ती रही । रावल श्योसिंह से राजमाता प्रसन्न नहीं थी । सन् 1838 में रामगढ़ में पलटनों ने बगावत की । ठा. मेघसिंह 5000 फौज लेकर आए तो अंग्रेजों ने लक्ष्मणसिंह को मुकाबले के लिये भेजा । 1840 से कालख के किले पर माजी के पक्षपातियों - स्वतन्त्रता प्र ेमियों का कब्जा हुआ पर फिर नाकामयाबी हुई । राजामाता के भाई को जिलावतनी की सजा हुई । अपने पक्षपातियों को जागीर देने, राजकोष खत्म करने आदि के कारण रावल को हटाया गया । उक्त बातें लिखने का श्राशय मात्र यह है कि संघी के कारण ही यदि गड़बड़ी थी तो उनके मरने के बाद भी ये घटनायें क्यों हुई । स्थिति यह थी कि अंग्रेजों का आधिपत्य राजघराने को पसन्द नहीं था । वे स्वतन्त्र रहना चाहते थे । अग्रेजों के पक्षगती रावल जी से राजघराना खुश नहीं था । संघी भूताराम एवं उनके सहयोगी स्वतन्त्रता प्रेमी थे वे जयपुर को आजाद रखना चाहते थे । अतः स्वतन्त्रता प्रेमियों को अग्रेजी शासन में फांसी की बलिवेदी पर चढ़ने या जेल के जो उपहार मिलने थे वे संधी जी आदि को मिले । उनका अपराध मात्र आाजादी था— देश भक्ति था । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ इतिहासकरों ने संघी को बदनाम किया संघी भूताराम का शासन कठोर था। वह है उसे दुराचारी कहा है। वे इतिहासकार अपराध पर किसी को बख्शता नहीं था। कहा अंग्रेजों द्वारा या विरोधियों द्वारा नियन्त्रित थे। जाता है कि स्वयं के बड़े भाई हकमचन्द के गुमाअंग्रेजी शासन में उनके खिलाफ आवाज उठाना या स्तों द्वारा मकान बनाने वाले कारीगरों का समय लिखना मौत से खेलना था । फिर भी इतिहास पर भुगतान न करने पर मकान तोड़ने के आदेश उपलब्ध है उसका निष्पक्ष दृष्टि से अध्ययन दे दिये थे। उसके समय अपराधों की कड़ी सजायें किया जाय तो संघी झूताराम एक महान देशभक्त थीं। बड़े अपराध पर गोली से उड़ा देना, चोरियां और विदेशी सत्ता का विरोधी ही माना जायगा करने पर हाथ काट देना आदि सजायें बताई जाती उसके चरित्र और प्राचारण पर जो छींटाकसी की हैं, उसके समय में चोरियां नहीं होती थीं । संघी गई है वह सत्य साबित नहीं होती। का बड़ा आतंक था। वह सफल शासक था। 1. ___ 2. जयपुर के बड़े मंदिर के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित । देखिए कर्नल ब क द्वारा लिखी गई पोलिटिकल हिस्ट्री आफ दी स्टेट ग्राफ जयपुर । बा ल क ? बालक है भगवान उसे तुम मत शैतान बनायो रे । बड़ा होय और करे देश का नाम, ढग अपनायो रे ।। वह तो होता कच्चा लोथा, ढालो ज्यू ढल जाएगा। रावण राम बनाना चाहो, वैसा ही बन जाएगा। बालक का तो निश्चित मानो नकल ही पहला धर्म है । जैसे कर्म करोगे सम्मुख, करता वैसे कर्म है। करो कर्म आदर्श उसे भी वैसा ही तुम पायो रे ॥ बालक है। ___ महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-131 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालोचना के बीच रहा बालक निन्दक बन जायेगा। दोष कहेगा पर के, खुद के अब सदा ढक जाएगा। विरोध शत्रु ता बीच रहा तो, केवल लड़ना सीखेगा। उपहास मजाकों बीच रहा तो, केवल डरना सीखेगा ॥ बातावरण उसे दो अच्छा, अच्छी बात सिखायो रे ॥बालक है।। बालक यदि रहता है लज्जा शेम या अपमान बीच । खुद को दोषी करेगा अनुभव, बन जायेगा अाखिर नीच ॥ सहनशीलता क्षमा बीच, यदि बालक रहता आया है। धैर्यवान बन ऐसा बालक, महावीर बन पाया है ।। ___ काम सराहो सदा और गुणग्राही उसे बनायो रे ॥ बालक है.... || सच्चाई, ईमान बीच, यदि बालक का रहना होगा। आगे चलकर उस बालक को न्याय प्रिय कहना होगा ॥ विवेक, चेतना, सद्बुद्धि के बीच, यदि बालक रहता। विश्वास पात्म जागेगा उसका, बात नीति की हूँ कहता ॥ मूल्य है क्या आत्मविश्वासी का, समझो-समझायो रे ।। बालक है ।। बच्चे को अनुमोदन दो, पाएगा खुद को प्यारा वह । अपनाप्रो और देप्रोमित्रता, होगा जग में न्यारा वह ॥ इतना गर कर पायो, फिर वह, प्यार जगत का पाएगा । प्रताप, शिवा और लाल जवाहर बनकर नाम कमाएगा । बच्चा बने महान बताया 'राज' इसे अपनायो रे। बालक है भगवान उसे तुम मत शैतान बनायो रे ।। * राजमल जैन 'बेगस्या', जयपुर 2-132 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघी थारामजी तथा उनके पूर्वजों का वर्णन पाठक इस ही स्मारिका में अन्यत्र पढ़ेंगे। यहां है उनके पश्चात होने वाले उनके वंशजों का वर्णन । पाठक देखोंगे कि विदेशी साम्राज्य के विरुद्ध जो मशाल संधी भू थाराम और उनके सहमियों ने प्रज्वलित की थी उसे उनके वंशधरों ने अन्त तक बुझने न दिया । लेखक ने हमारे विशेष प्राग्रह और अनुरोध पर यह परिचयात्मक और प्रेरणास्पद निबन्ध लिख कर भेजा है एतदर्थ उनका प्रामार। -पोल्याका दीवान झू'थारामजी संघी और उनके वंशज श्री प्रतापचन्द्र जैन 21/63, धूलियागंज, आगरा। जयपुर के शान्तिनाथ दिग. जैन मन्दिर में ईमानदारी की। उपलब्ध करकंडु महाराज का चरित नामक ग्रन्थ की अन्त्य प्रशस्ति में संघी उदा का कुछ विवरण दीवान भूयारामजी बड़े ही रढ़ संकल्पी के और राजदरबार तथा प्रजा जनों में वे बड़े ही मिलता है, जो आज से 350 वर्ष से भी पूर्व आदर पात्र थे। जैन समाज के तो वे एक जयपुर राज्य के महामन्त्री थे। उन्हीं संघी उदा स्तम्भ थे ही उन्होंने कितने ही मन्दिरों का क वशजा म संवत् 1800 + लगभग सभा का जीर्णोद्धार कराया और नसियां तया धर्मशाला रामजी जयपुर राज्य के दीवान हो चुके हैं। वे बनवाई। तब तक मास से व्यासर की खातिर बड़े साहसीलर और सूसास के पनी थे। उक पाये को देश में पैर जमा लिए थे के समय में राज्य के जैनियों का बड़ा दबदबा या मोर के रखवाड़ों में भी हस्तक्षेप करने लगे थे। राज्य की समृद्धि में उनका बहुत बड़ा हाथ जो जयपुर भी उनके जाल से नहीं बच पाया । परन्तु था। जैनी प्रदेशों सम्माननीय पदों पर कार्यरत थे दीवान झूबारामजी को उनका दखल पसन्द नहीं और बड़ी ख्याति थी उनकी निष्ठा और था। वे बड़ी होशियारी से उनके हस्तक्षेप को महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-133 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरस्त करते रहे । अग्रेज इस द्रोह को कब पर लाद कर वे प्रागरा चले गए। अपनी संपत्ति बर्दाश्त कर सकते थे? का बहुत बड़ा भाग उन्हें वहीं छोड़ देना पड़ा। दीवानजी के खिलाफ षड्यन्त्र और महाराजा प्रागरे में- प्रागरा पहुंच कर किनारी बाजार की हत्या-जब अंग्रेजों ने देखा कि सीधे सीधे के बीचोंबीच मस्जिद के बगल में उन्होंने एक पार नहीं पड़ने की तो उन्होंने दीवान जी के फाटकदार घेरे में पड़ाव डाला जिसे उन्होंने खिलाफ एक गन्दे षड्यन्त्र की रचना की। लोभ . खरीद लिया। यह स्थान प्रागे चलकर झू थाराम लालच देकर कुछ जागीरदारों और अधिकारियों के फाटक के नाम से नगर में विख्यात हुआ। को अपनी पोर तोड़ लिया। 23 फरवरी 1835. यहां उन्होंने एक प्रालीशान हवेली और दुकानों को राज्य द्रोहियों की मिली भगत से षडयन्त्र द्वारा का निर्माण कराया तथा धर्मध्यान के लिए एक तत्कालीन महाराज की हत्या कर दी गई और . चैत्यालय की भी स्थापना की। उस हत्या का दोष दीवान झूथाराम पर डाला गया । पोलीटिकल एजेंट मि. पाल्वस ने कलकत्त __झूथारामजी के पुत्र फतहलालजी और हुकमचन्दजी के पुत्र श्री बिरधीचन्दजी का कुछ से फरमान मंगाकर, जहां उन दिनों ईस्ट इण्डिया कम्पनी का हैड क्वार्टर था, उन्हें उनके पद से समय बाद देहान्त हो गया। तब परिवार का हटा दिया और दौसा में उन्हें नजरबन्द कर साराभार बिरधीचन्दजी के पत्र श्री हीरालालजी और श्री चिम्मनलालजी पर आ पड़ा। इन दिया। दोनों के दो दो पुत्रियां थी, पुत्र किसी के भी नहीं था। तब सेठ हीरालालजी ने कुटुम्ब का एक जयपुर ट्रायल-अग्रेजों ने जयपुर ट्रायल के नाम से दो मुकदमे चलवाए जिनमें से एक दीवान बालक गोद ले लिया । उस बालक का नाम रघुभू थारामजी संघी, उनके बडे भाई हकमचन्दजी नाथ दास रक्खा गया। उसकी गोद का उत्सव बड़े तथा पुत्र फतेहलाल पर था। विद्रोह फैलाने तथा समारोह के साथ किया गया और खूब दान दिया मि. पाल्वस पर आक्रमण कराने का झूठा जम गया। लगाकर उन्हें आजन्म कैद की सजा दी गई और चुनारगढ़ के किले में कैद कर दिया गया। इस आगरे में दीवानजी के इन वंशजों की बड़ी प्रकार इन जनप्रिय राज्यभक्तों को भूठे प्रारोपों प्रतिष्ठा थी । सराफे में उनका बसना काफी ऊंचा की बलिवेदी पर चढ़ा दिया गया जबकि मि.. गिना जाता था। उन्होंने लाखों ही कमाए और पाल्वस पर जो आक्रमण हुअा था वह 4 जन लाखों ही दान पुण्य में दिए। आगरे की जैन को दिन दहाड़े महल के सामने कुपित जनता द्वारा समाज में उनका बड़ा सम्मान था। किया गया था। बा. रघुनाथदासजी-गोद लिया रघुनाथ जयपुर से निष्कासित-संघी झूथारामजी दास एक होनहार बालक निकला। उसने हिन्दी के की नजरबन्दी के साथ ही उनके परिवार के लोगों साथ साथ अंग्रेजी भी पढ़ी और एफ. ए. तक को चौबीस घण्टे के अन्दर जयपुर छोड़ जाने का शिक्षा पाई । बड़े होकर पिता के कारोबार में हाथ हुकम दे दिया गया। इस नाम मात्र की मोहलत ...न बंटा कर स्वावलम्बी बनना ठीक समझा और में जो कुछ वे साथ ले सके उसे गाड़ियों और ऊटों. डाक तार विभाम में नौकरी कर ली। अपनी 2-134 . महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग्यता, कार्यकुशलता और ईमानदारी के कारण छुटपन में ही उन्होंने सामाजिक कार्यों में भाग लेना वे शीघ्र ही पोस्ट मास्टर बना दिए गए और शुरू कर दिया था । जैन कुमार सभा आगरा के बनारस जैसे नगर में बरसों पोस्ट मास्टर रहे। वे कर्मठ सदस्यों में से थे। प्रारम्भ में उन्होंने वे बड़े ही धर्मात्मा, दयालु और परोपकारी थे। सौदागरी की दुकान की । वह अधिक दिन नहीं रिटायर होते समय उनको हृदय स्पर्शी बिदाई दी चली तो उसे छोड़कर टोपियों का व्यापार शुरू गई। वहां के स्यावाद महाविद्यालय की स्थापना किया जो दूर दूर तक खूब चला । अपने सद् . में उनका भी हाथ था। विचार और कुशल व्यवहार से वे शनैः शनैः ख्याति और लोकप्रियता की ओर बढ़ने लगे। पेंशन लेकर वे आगरा लौट पाए और कुछ वर्ष बाद तीन पुत्र और उनकी माता को छोड़कर ___ महावीर प्रेस की स्थापना-सन् 1921-22 स्वर्गवासी हो गए। उनकी धर्मपत्नी साक्षात गृह में आपने एक बड़ी मशीन खरीद कर आगरे में लक्ष्मी थी। तीन पुत्रों में सबसे बड़े सालिगराम जी महावीर प्रेस के नाम से एक प्रेस खड़ा कर थे, मझले मक्खनलालजी और सबसे छोटे लिया । आपकी मिलनसारी मेहनत और भलमनकपूरचन्दजी। साहत से प्रेस खूब चमका । प्रान्त के सरकारी प्रेस से राजकीय छपाई के लिए भी उसे मान्यता रघुनाथदासजी के तीन पुत्र--बा. रघुनाथ मिल गई। . दासजी के सबसे बड़े श्री सालिगरामजी आगम ___ सच्चे समाज सेवी और निर्भीक देशभक्तश्रद्धानी और तत्वज्ञानी थे । संसार से विरत हो यह प्रेस प्रागरे में सभी कार्यकलापों का एक प्रमुख उन्होंने प्राचार्य 108 श्री शान्तिसागरजी महा केन्द्र था। शायद ही कोई जैन विद्वान अथवा राज से क्षुल्लक दीक्षा ले ली और अजितकीर्ति सम्पादक रहा हो जो उनके पास न आया हो और के नाम से प्रसिद्ध हुए। अन्त समय आपका उन्हें न मानता हो । श्री नाहटाजी और जयपुर में बीता। वहां वे असाध्य रोग से पीड़ित कापड़ियाजी के दर्शन मुझे वहीं हुए थे । वाणीहो गए । अन्त समय पाने पर पाप चतुर्विध भूषण पं तुलसीरामजी बड़ौत और पं० नन्दपाहार का त्याग कर मुनि पद धार पद्मासन '. किशोरजी माथुर जब भी आगरा आते वहीं ठहअवस्था में सन् 1942 में स्वर्गवासी हो गए। रते । महेन्द्रजी, डा० सत्येन्द्र, किशोरीदासजी श्री सालिगरामजी से छोटे मक्खनलालजी वाजपेयी, परिपूर्णानन्द वर्मा, केदारनाथ भट्ट का .. भी जमघट वहां रहता। जैन कुमार समा की व्यापारी बने और अधिकतर बम्बई में रहे । उनका चर्चा मैं ऊपर कर ही चुका। इसके अतिरिक्त वे भी स्वर्गवास हो चुका है। स्थानीय महावीर दिग. जैन इन्टर काल के वरिष्ठ सहायक रहे । प्रागरा दिग. जैन परिषद के भी सबसे छोटे बा. कपूरचन्दजी का जन्म प्रमुख कार्यकर्ता थे । उसकी मीटिंग प्रायः महावीर श्रावण शुक्ला 7 संवत् 1951 को हुप्रा था। प्रेस में ही हुआ करती थीं। वे खुद भी एक सजीव उन्हें दयालु पिता और धर्मपरायण माता के गुण सक्रिय संस्था थे। विरासत में मिले थे । वंश परम्परा की छाया भी पड़ी उन पर । वे पढ़े तो अधिक नहीं थे परन्तु अच्छे देशभक्ति बा. कपूरचन्दजी में कूट-कूट कर भरी , मच्छों के कान काटते थे। बुद्धि और सूझबूझ में थी। सन् 1930 के सत्याग्रह आन्दोलन में प्रापके महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-135 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेस ने बड़ी सहायता की । मासिक बुलेटिन गुप्त का। रूप से वहीं छपते । पुलिस ने भनेकों बार वहां छापे भी मारे । जब कुछ नहीं मिलता तो गवर्न कुशल सम्पादक व प्रशासक -जो जैन संदेश मेण्ट खीज कर प्रेस को सील कर दिया करती, पान दिग. जैन सव मथुरा द्वारा निकाला जा रहा और वह महीनों बन्द रहता। सन् 1942 के है उसके जन्मदाता वे ही थे । प्रेस था ही। 1929 भारत छोड़ो आन्दोलन में आपने बेजोड़ सेवा की, में अखबार शुरू कर दिया। थोड़े ही दिनों में उसने उन दिनों गुप्त प्रकाशनों में आपका बहुत बड़ा हाथ देश और समाज में अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली। था । ऐतिहासिक लाल पर्चा हाथोंहाथ वहीं छपा । निर्भीक स्वतन्त्र पर तटस्य नीति थी उसकी। राष्ट्रीय क्रान्तिकारियों की गप्त बैठके. यापक मोती। प्रश्न भी उससे अछूते नहीं रहते थे।संचालन, सम्पादिसम्बर 1942 में जब प्रसिद्ध आगरा षड्यन्त्र । दन समाचार संकलन और प्रफ पठन से लेकर पत्र केस में अनेक लोग पकड़े गये तो पुलिस ने आपको व्यवहार तथा डिस्पेच तक का सारा काम वे स्वयं ही भी घेरा, डराया, और धमकाया। तब, आप, क __ करते । बला के परिश्रमी थे। तेज इतना लिखते प्रागरे से फरार हो गये । प्रेस पहले ही सील हो कि स्टेनो भी मात खा जाय । दो साल तक अखवार चुका था। दो वर्ष तक आप इधर-उधर घमते. बड़ी खूबी व शान से चलाया। तदुपरान्त बेटे के छिपते और कष्ट उठाते रहे। इस दौरान जो कठि- समान पाला पोसा होनहार पत्र को उन्होंने संघ को नाइयां और विपत्तियां आपने झेली उनकी कल्पना सौंप दिया जो अब भी अपने 50 वें वर्ष में निकल पाठक स्वयं कर लें। उनका साथी होने के कारण रहा है । सन् 1938 में उन्होंने बच्चों के लिए इन पंक्तियों के लेखक को भी राजकीय सेवा से सुन्दर मासिक पत्र सुनझुना निकाल डाला । इतना मोप्रत्तिल कर दिया गया था। लोकप्रिय बन गया था वह कि स्वयं प्राचार्य महा बीर प्रसाद द्विवेदी तक ने उमकी प्रशंसा की थी। उदारमना विशाल हृदय-आन्दोलन की उसका सारा काम भी वे स्वयं ही करते । वह दो समाप्ति पर दो वर्ष बाद सन् 1944 में बाबूजी साल ही चल पाया था कि आन्दोलन की चपेट में आगरा लोटे, प्रेस पुनः चला, और अच्छा चला। मा गया। प्रेस बन्द हो जाने पर वह भी टूट अच्छे दिन आने पर वे साथियों को नहीं भूले। ममा । संवत 1983 में वीर रस प्रधान मासिक कइयों की भरसक गुप्त मदद की। धेवतों को पाला वीर सन्देश का प्रकाशन उन्होंने और किया । पोषा और पढ़ाया । एक बार मैं जब इलाहाबाद में उसका सम्पादन किया था श्री महेन्द्रजी ने । यह भी था और बच्चे आगरे मैं; मेरे एक पुत्र को भयंकर दो साल तक ही चल पाया था । टायफाइड रोग हो गया था वे सुनते ही मेरे घर दौड़े पाये, और सब को सान्त्वना दी और डॉक्टर परिवार-बा० कपूरचन्दजी की दो शादियां लाये । स्ट्रेप्टोमाइसौन की गोलियां जो उन दिनों हुई । पहली लश्कर से और दूसरी डीग से। पहली 30--35 रु० दर्जन पाती थीं, पता नहीं कितनी पत्नी से जम्मी कञ्चनबाई जो महावीर क्षेत्र के भू. पाई, मंगाकर दीं। फल और दूध अलग । सूचना पू. मैनेजर जयपुर निवासी श्री गुलाबचन्दजी मिलने पर मैं आया तो धैर्य बंधाया और बोले शाह के सुपुत्र श्री भंवरलाल शाह के साथ व्याहीं । मैं तो यहां था ही, मेरे होते आप चिन्ता न करें। दूसरी पत्नी ने जन्म दिया पुत्री सरोज वाला, ऐसे उदारमना महापुरुष थे वे । कभी वखान नहीं. मोर पुत्र प्रशोक कुमार को । सरोज वाला काशी में किया उन्होंने अपनी देशभक्ति मौर सेवा कार्यों ब्याह दी गई और प्रशोककुमार मागरे में है । 2-136 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका भी विवाह हो चुका है। श्री सालिगरामजी कुछ दिन बाद उनकी पत्नी श्रीमती कस्तूरी बाई के एक पुत्री हुई रतनबाई जो जयपुर के ठोलिया भी चल बसीं। बाबूजी के निधन से प्रागरे का परिवार में ब्याही । अशोक सम्हाल नहीं पाया तो एक बहुत बड़ा सार्वजनिक केन्द्र उजड़ गया। इससे प्रेस भी हाथ से निकल गया। मकान बाबू कपूर आगरे की धार्मिक सामाजिक, साहित्यिक और चन्दजी के सामने ही बिक चुका था। राष्ट्रीय गतिविधियों को गहरी ठेस लगी । चराग गुल---ऐसा परिवार था दीवान झूथा- परिवार में रामजी का और ऐसे देव पुरुष थे उनके वंशज श्री अशोक कुमार जैन जरूर है परन्तुबा. कपूरचन्दजी । 3 जनवरी सन् 1954 को जिस गुल से थी उम्मीद, चढ़ायेगा लाके फूल क्रूर दुर्दैव ने उन्हें हमारे बीच से उठा लिया। गुलकर गया चराग वह उनके मजार का ।। महावीर री सीख अमर रहे। त्राहि त्राहि मचगी जग माहि जीवां ने जीव ही भाख रह्या । चौरी कपटी छीना झपटी, हिंसा रा दिन दिन दूस हुआ ।। जग-अधियारा मेटण खातर ___ इक दीप चमकतो परकट हुयौ । यौह दीप वही परमारथ रो, श्री महावीर रो जलम भयरो ।। धर्मा रा सारा गिरथा ने, दोहण कर इक ही तन्त दियो । जीवो जीवण दो सब ही ने, मानवता रो यो पंथ दियो । संयम-समता-विनय सेत, महिंसारो जग ने पाठ दियो । "महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-131 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो महावीर रा समवसरण में, सब प्राणी मिल नेह लियो । राजा पर रंक में नहीं अन्तर, ईश्वर रे घर तो एक रह्यो । कर ऊच-नीच रो उण्मूलन यो अनेकान्त रो सार गह्यो ।। काहे तन निरखे मन इरखे __ परिग्रह धन दौलत नाहि धरे। पल में तन धन की राख बणे, स्वामी री शिक्षा अमर रहे ।। मत भूलो ये तीन रतन, चरित्र ज्ञान-सम्यक् दर्शन । मोक्ष प्राप्त करबा ताई, भगवान रा बताया ये साधन ।। ये महावीर सिद्धान्त है, बेथाक अनन्त अपार है । है बे-हिंसा और अनेकान्त री, महती हुई जल धार है ।। प्राणी रा पणे रो भार लियो, जब तक या पिरथी वणी रहे । समभाव-जाति और धर्मात्नया, स्वामी री जुग जुग ऋणी रहे ।। 2-138 महावीर जयन्ती स्मारिका 1 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 800000 टोडरमलजी के कुछ अप्रकाशित पद " विद्वान् लेखक ने पने निबंध में प्रस्तुत पदों को 'मोक्ष मार्ग प्रकाशक' प्रादि ग्रन्थों के रचनाकार विख्यात प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी द्वारा रचित होने की संभावना व्यक्त की है वह तो हमारे विचार में ठीक नहीं ज्ञात होती क्योंकि रचनाकार ने अपने को एक पद (सं. 7) में टोडरू ब्रह्म कहा है । ऐसे प्रयोग भट्टारकों के नीचें काम करने वाले पंडित ही प्राय: किया करते थे। संभव है इन पदों के रचनाकार भी ऐसे ही कोई पण्डित हों जो अब तक अज्ञात हों। यह हमारा अनुमान ही है। पदों की भाषा, सरसता, लालित्य श्रादि को देखते हुए निश्चय हो रचनाकार जैन हिन्दी साहित्य में उच्च स्थान पाने योग्य है । पाठक इस श्रोर और खोज करेंगे इस पवित्र भावना के साथ - - पोल्याका प्रस्तुत आठ आध्यात्मिक पद अनुसंधित्सु पाठकों की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूं । ये सभी द टोडरमलजी द्वारा रचित हैं जैसा कि इन पदों की अंतिम पंक्तियों में उल्लिखित नामों से लीभांति विदित होता है । यह निश्चय करना वडा कठिन हो रहा है कि प्रस्तुत पद किन डरमलजी के रचे हुए हैं। क्योंकि टोडरमल नाम के कई विद्वान जैन साहित्य जगत में ल्लेखनीय हैं । श्री कुन्दनलाल जैन प्रिन्सिपल 68, कुन्ती मार्ग, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली-32 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के रचयिता टोडरमलजी तो सर्व विख्यात हैं ही । यदि ये पद उन्हीं द्वारा चित हैं तब तो निश्चय ही गीति साहित्य की ये बहुमूल्य निधियां हैं पर यदि इन पदों के रचयिता कोई और टोडरमल हैं तो निश्चय ही अनुसंधित्सु पाठकों के लिए ये खोज का विषय बन जाते हैं और ऐसे योग्य कलाप्रेमी भावप्रवीरण आध्यात्मिक गीतकार जीवन परिचय का अन्वेषण कर साहित्य गतको बहुमूल्य सामग्री से सुपरिचित कराया जावे । मेरे पास इस तरह की रचनाओं का अच्छा खासा संग्रह है । एक दिन उन्हें उलट पलट रहा तभी अचानक इन पदों पर दृष्टि पड़ गई। तभी श्री पोल्याकाजी का ' स्मारिका' के लिए लेख जने हेतु पत्र प्राप्त हुआ था । जिसमें आग्रह किया गया था कि जयपुर से संबंधित किसी प्राचार्य या बना से संबंधित लेख भिजवा सकें तो अति उपयुक्त होगा । मैं श्री पोल्याकाजी के आग्रह के प्रति वीर जयन्ती स्मारिका 78 2-139 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालनपर होना चाहता था, अतः मैंने अपने संग्रह को टटोला तो उसमें मुझे टोडरमलजी कृत विभिन्न रागों में पाठ पद प्राप्त हों गए मैंने सोचा कि ये पद जिस किसी टोडरमल के हों पर कवि तो जयपुर या उसके पास पास कहीं राजस्थान का ही होना चाहिए अतः मैंने अपने लेख के लिए इन्हीं पदों को उपयुक्त समझा और प्रस्तुत लेख में विद्वान् प्राध्यात्म प्रेमी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है । इन पदों में आध्यात्मिकता और सरसता कूट कूट कर भरी पडी है जो बडी चित्तार्षक और ममोहारी है । सांसारिक भव भोगों से निवृत्ति का बडा ही रोचक और अनोखा वर्णन विद्यमान है । पहले ही पद में आदिनाथ स्वामी की बाललीला का वर्णन तो हिन्दी के महाकवि सूरदास की बाललीला को भी फीका कर देता है। माता मरुदेवी का अपने पुत्र आदिनाथ को खिलाने का कैसा सुन्दर और रोचक वर्णन प्रस्तुत पद में विद्यमान है। यह पाठकों को सहज ही प्राकर्षित कर लेता है। पलंने की रचना, घुघराले बाल, ठमकभरी चाल, देवों गन्धवों का प्यार, माता पिता का प्रभु की छवि का निरखना आदि सभी का वर्णन बडे ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। शेष अन्य पदों में आध्यात्मिकता की पुट जैसी गहरी और सुपुष्ट है उसे कोई आध्यात्म प्रेमी ही समझ सकता है । लोगों को संसार के जंजाल से छूटने की जैसी अच्छी सलाह कवि ने दी है वह वहुत ही अनुकरणीय एवं मोक्ष मार्ग का पथ प्रशस्त करने वाले हैं। इन्द्रिय भोगों से विरक्त होने के लिए तीसरा पद बहुत ही सुन्दर और उत्तम है । संसार कैसा जंजाल है. इस का उत्तम वर्णन सातवें पद में विद्यमान है। अंतिम पद में "साढ़ी बतिया,' शब्द इस बात का द्योतक है कि कवि पर कहीं पंजाबी भाषा का प्रभाव तो नहीं पड़ रहा है क्योंकि साढ़ी शब्द पंजाबी का है पर संभव है इसका प्रचलन राजस्थानी में भी हो। सातवें पद में 'टोडर ब्रह्म' से ऐसा प्रतीत होता है कि इन पदों के रचयिता कोई ब्रह्म टोडर नाम के कवि हों ? कुछ भी हो, पद उच्चकोटि की आध्यात्मिकता से भरपूर हैं। टोडर के पद (1) राग गौरी देखो खिलावत मरुदेव्या नंदन नाभिकुमार । पलना रतन खचित हलरावति झूलउ ललन दुलार ॥ टेक ।। सोभित मुकुट जटित वैदूरज हीरा लाल सुढार ।। अति छबि तिलकु बनी केसरि को घूघर वारे बार ।।2।। राजत कनक भूमि रज अंगन मोतिन बंदनवार । ठुमका चालि चलत जग जीवनि घुगुरनि की झनकार ।।३।। वरसत मंद मंद जलकनिका कुसुम वृष्टि अधिकार । गंधर्व नृत्य करत ता थेई ता थेई सबद करत जैकार ।।4।। किन्नर करत मधुर सुर गौरी झांझि मृदंग दुतार । नभचर थकित भए धुनि सुनकर अनहद बजै धुकार ।।5।। अबलोकत चुम्बत मुख सुत को प्राउर ललन हमार । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-140 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहु मेवा पकवान मिठाई लीज प्राण अधार ॥6॥ हरषत तात मात छवि निरखत पुलकित गात अपार । सेवा करें सब कर जोरे शक्र रहत दरबार ।।7। कीजो कृपा कृपानिधि सागर सुगति मुकति दातार ।। मांगत चरन सरन जन टोडर ज्यों भव उतर पार ।।8।। (2) राग विरावर मन सिख मानत क्यों न तू हो। क्यों न अज्ञान होतहि सिखवत हो दिन मान । रचि रह्रयो तात मात सुत भ्रातनि यह रंग रहत रहत न अयान |॥1॥ रंग कर राम नाम तज स्यामै उर रंग सकल जु होत विकाम । धन यौवन वनितहिं कत भूलत यह कछु लगत न साथ निदान ।।2।। सो ए तेरा कलहतु जैसे संपति याग तै कछु न विहान । जप तप यतन विना जन टोडर अब सुन पावत क्यों निर्वान ॥3॥ (3) राग विरावर-- विषफल काहे को भखत गंवार मन तू समझायौ के वार । काल अनादि बंध्यो इन्द्रिन संग अब तू चेतत क्यों न सवार ॥1॥ नीच निगोद फिरयौ चारों गति तजत न अजहूं मनहि विकार । अपनो ग्रह विसराइ चतुर तूं घर धर भटकत द्वारनि द्वार ।।2।। भवसागर बूड़त कत नागर उपजत तरल तरंगम पार । मज्जत सेष (?) जंतु खेव (ट)? वस हो फिरफिर बूडत कारी धार ।।3।। की जै कृपादीन टोडर खों विनती सुन प्रभु जगत अधार । विन भगवंत भजन जे ऊरे ताकी छवी परत किनि छार ।।4।। (4) पद सकल देवन सिरताज साहिब नेमिनाथ मेरो। सु नियत वेद पुरान ध्यान जोगी जन जाप जपत रहत उर अंतर, तातें सरन तक्यों (देखा) तेरों ॥1॥ जानो न कुमत कुदेव कुमारग कुगुरु की सीख बहुत कर पेरो ।।2।। जानिवौ जो प्रभु अबकें तारि हो मो सो पतित अनघेरो ।।3।। भयो अधीन छीन कर्मन वस राखत क्यों न चरन हूते नेरो। वगसत गुनहू गुनहिं जन टोडर तो सो धनी मो सो चेरी ।।4।। महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-141 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) राग कानरो ठटनि ठटी विठते की तें जड़ मूरी खोयो । जप तप करि करि देह सताई करि अधिकाई सहज रूप नहि जोयो । उपसम पानि कियो नहीं कबहुं अंतरमल नहीं धोयो । होत कहा अब पछतातनि धीरज सो न दियो लख ज्यों कन चोयो । (6) राग कानरो दया करिए दीनानाथ गुसाईं तुम तजि हम कहं जाई । व्यापत कर्म भरम उर अंतर कर उपमार विकार मिटे ज्यो । तुम प्रभु मेरे हो सहाई ||1|| तेरो तो दरसन दुरित रहत छिन भोहन भयन वपुरारि पुकाई 11211 तकि प्रायो चरन सरन सरन जन टोडर अंत न कहूं वसमाई ||3|| (7) राग कान जान्यो न जनमु जंजाल । मै जा तनि काल अनादि गयो ऐसी वार्तानि | काहू सौं कहत तात काहू सौं कहत मात कबहूं कि रीझि रह्यो त्रिय वार्तानि मोह्यो तू बा जे साज गजराजन लालच लोभ फिरयो तुझ साथ हि विसरि गयो सु जगत्त को जीवन रामा के रंग रचौ दिन रातनि ||4| अजहूं चेत अज्ञान मूढमति पाछे होत कहा पछतातनि ॥5॥ टोडर ब्रह्म भगवत भजन बिनु भटकत भ्रमत छीन भयो गातनि ।। 61 ( 8 ) पद - 2-142 चेतन मानो साढ़ी बतिया । यो है देही तेरे लारेन चलसी तू पोसे दिन रतिया | चेतन० पाप प्रगासी नरक परासी श्रवस होगे ततिया चितन०| काल फिर तु मारन भाई तू सोवै दिन रतिया | चेतन० | मानस देही श्रावक कुल पाई अव आए सुभगतिया । चेतन ०१ टोडरमल भगवंत भजन कर कारन आनंद छतिया | चेतन ० महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्होंने अपने पैसे के बल पर कलाकारों को खरीद सुन्दर भवनों, मंदिरों, चित्रों और मूर्तियों आदि का निर्माण कराया उनके गुणगान करते तो हमारी जिह्वा और लेखनी नहीं थकती किन्तु जिन्होंने अपने रक्त बिन्दुओं से उस कला में प्राण कू के उनका श्राज कोई नाम भी नहीं लेता | बड़े बड़े सेमिनारों में उन पूंजीपतियों के गुणगान तो आपको सुनाई पड़ेंगे किन्तु भूखे या प्राधे भूखे पेट रह कर काम करने वाले कलाकारों के संबंध में जानने का प्रयत्न भी हमारा नहीं होता यह कैसी स्थिति है । अस्तु, मुनि सुव्रतनाथ तीर्थकर की एक कनपूर्ण श्वेताम्बर जैन मूर्ति का वर्णन यहां प्रस्तुत है । मेर का मावठा सरोवर ही गुलाब सागर है उसके निकटस्थ दलाराम के बाग स्थित संग्रहालय में कई महत्वपूर्ण जैन कलाकृतियाँ संगृहीत हैं जिनमें दो तो स्तम्भ ही हैं। इनका अध्ययनपूर्ण अधिकृत वर्णन आज तक देखने में नहीं आया । यह एक और उदाहरण है कला और संस्कृति के प्रति हमारी उदासीनता का । - पोल्याका श्राम्बेर संग्रहालय की तीर्थंकर मुनिसुव्यतनाथ की प्रतिमा राजस्थान के प्रसिद्ध गुलाबी नगर जयपुर के समीप आम्बेर का विख्यात दुर्ग है । इस दुर्ग बाह्य भाग में स्थित सुन्दर गुलाब सागर है जिसके निकट ही ग्राम्बेर का पुरातत्त्व संग्रहालय है । इस संग्रहालय में राजस्थान के विभिन्न भागों से प्राप्त एवं विभिन्न कालों की अनेक दुर्लभ कलाकृतियाँ हैं जिनको देखने देश-विदेश के अनेक पर्यटक प्रायः प्रतिदिन ही यहाँ आते हैं । इसी संग्रहालय में काले कसौटी पत्थर की बनी २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ की एक लगभग महावीर जयन्ती स्मारिका 78 डॉ० ब्रजेन्द्र नाथ शर्मा डी० लिट्० कीपर, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली श्रादमकद मूर्ति भी प्रदर्शित है । प्राचीन जैन ग्रन्थों के अनुसार हरिवंश कुल में जन्मे मुनिसुव्रतनाथ मगध नरेश सुमित्र के पुत्र थे जिनकी राजधानी राजगृह थी। इनकी माता का नाम कुछ ग्रन्थों के अनुसार सोम तथा कुछ के अनुसार पद्मावती था । उत्तर पुराण के अनुसार राजगृह में ही मुनिसुव्रत का जन्म हुआ था । जैन प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि यह प्रारम्भ से ही मुनि अथवा साधु स्वभाव के थे और साथ ही व्रतों का पूर्ण पालन करने के कारण इनका नाम भी मुनिसुव्रत पड़ गया था। इनका लछन कूर्म है । 2-143 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सुव्रत की प्रतिमायें अन्य तीर्थकरों की की मूर्ति तो राष्ट्रीय संग्रहा नग, नई दिल्ली में प्रपेक्षाकृत कम ही प्राप्त हुई हैं। आगरा के प्रागई थी और मुनि सुव्रत की प्राम्बेर संग्रहालय में समीप बटेश्वर नामक स्थान से प्राप्त एक लेख-युक्त ही सुरक्षित रही। पूर्वमध्ययुगीन प्रस्तर प्रतिमा राज्य संग्रहालय, लखनऊ में प्रदर्शित है। इस मूर्ति में उन्हें एक मुनि सुव्रत की मूर्ति में उनके घुघराले केश, सिंहासन पर ध्यान-मुद्रा में बैठे दिखाया गया लम्बे कान, वक्ष पर पद्म रूपी श्रीवत्स चिन्ह, सौम्य है। मूल-मूर्ति के दोनों प्रोर चंवरधारी सेवकों के एवं शान्त मुखड़ा, आदि, जिनका वराहमिहिर ने अतिरिक्त यक्ष वरुण एवं यक्षी नरदत्ता भी अंकित भी अपनी 'वृहत्संहिता' में भी उल्लेख किया है, किये गये हैं। इन्हीं तीर्थकर की एक अन्य ध्यानी बड़ी सुन्दरता से दिखाये गये हैं। 'जिन' ने सुन्दर मूर्ति उडीसा स्थित खण्डगिरि की गुफाओं में भी पारदर्शक धोती पहिन रखी है, जिससे स्पष्ट है कि देखी जा सकती है। परन्तु इसमें इनके वक्ष पर श्वेताम्बर उपासकों द्वारा इस मूर्ति का पूजा हेतु श्रीवत्स चिन्ह का अभाव है यद्यपि बटेश्वर प्रतिमा निर्माण कराया गया था। तीर्थकर का लांछन कूर्म की भांति इनके दोनों ओर एक-एक सेवक तथा पद्मपीठ के नीचे बना है, जिससे मूति की पहचान पीठिका पर सूर्य का अंकन हुआ है। करने में सहायता मिलती है। तीर्थकर मूर्ति के पैरों के समीप चंवरधारी एक-एक सेवक खड़ा है ऊपर वरिणत दोनों प्रतिमाओं से भिन्न मुनि और पद्म पीठिका के दोनों ओर मूर्ति के निर्माण सुव्रत की एक मूर्ति जो आम्बेर संग्रहालय में कर्ता उपासक एवं उनकी पत्नी उपासिका की लघु प्रदर्शित है, इसमें तीर्थकर को कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियाँ हैं, जिनके हाथ अञ्जली-मुद्रा में है। कला एक पूर्ण विकसित पद्म पर खड़े दिखाया गया है। की दृष्टि से प्रस्तुत मूर्ति राजस्थान की चौहान यह मूर्ति काले पत्थर ही में बनी भगवान् नेमिनाथ कालीन कला, 12वीं शती ई० का एक अत्यन्त की पाषाण प्रतिमा के साथ कुछ वर्ष पूर्व नरहड़ कलात्मक उदाहरण है और जैन कला के अध्ययन नामक स्थान से प्राप्त हुई थी। बाद को नेमिनाथ के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। 2-144 महावीर जयन्ती स्मारिका 13 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OKOKOOK प्रथमानुयोग के ग्रन्थों का मुख्य उद्देश्य कथा व्याज से जनसाधारण में उनके पढ़ने की रुचि जागृत करना, उन्हें धर्म तत्व का बोध कराना और इतरधर्मों से जैन धर्म की श्रेष्ठता प्रमाणित करना रहा है । अपने इस उद्देश्य में वे कहाँ तक सफल हुए हैं इसकी समीक्षा विद्वान् लेखक ने कई ग्रन्थकारों के उदाहरणों द्वारा इन पंक्तियों में प्रस्तुत की है । जैन साहित्य में प्रयुक्त धर्म परीक्षा अभिप्राय पाठवीं शताब्दी के प्राकृत के सशक्त कराकार उद्योतनसूरी ने कुवलयमालाकहा में काव्य और दर्शन का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है । धार्मिक एवं दार्शनिक चिन्तन को प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने नेक दृष्टान्तों, कथानों, प्रतीकों और अभिप्रायों का प्रयोग किया है । समुद्र में नौका का भग्न होना, धार्मिक आचार्य द्वारा पूर्व जन्मों का बृतान्त सुनाना, संसार की प्रसारता देखकर वैराग्य प्राप्त करना, धार्मिक पटचित्र का प्रदर्शन, अन्य धार्मिक बिचार - धारात्रों में जैनधर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित करना श्रादि कुवलयमाला के धार्मिक अभिप्राय हैं । यद्यपि ये अभिप्राय प्रारम्भ से ही प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त होते रहे हैं, किन्तु उद्योतनसूरि ने उन्हें नये रूपों में प्रस्तुत किया है। अन्य धार्मिक मान्यताओं की तुलना में जैनधर्म ष्ठता प्रतिपादित करना, धर्मपरीक्षा के नाम महावीर जयन्ती स्मारिका 78 - पोल्याका डा० प्रेम सुमन जैन, एम. ए. पी-एच० डी० एसोसिएट प्रोफेसर एव अध्यक्ष, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर से जाना गया है । इसके मूल में दूसरे के दोषों को दिखाते हुए अपने गुणों को प्रकट करना रहा है । अन्य धार्मिक मतों में जो अन्ध-विश्वास, पाखण्ड तथा प्रतिशयोक्तिपूर्ण बातों का समावेश हो गया है। उनका खण्डन करते हुए अपने धर्म की सार्वभौमि कता तथा प्रामाणिकता का प्रतिपादन ही धर्म-परीक्षा है । इस मूल भावना को लेकर प्राचीन भारतीय साहित्य में कई रचनाएं विभिन्न भाषाओं में लिखी गयीं है। प्रो वेलेणकर एवं डा. ए. एन. उपाध्ये ने धर्मपरीक्षा सम्बन्धी साहित्य का परिचय दिया है । लोक साहित्य में भी इसके अनेक उदाहरण प्राप्त हैं । 'डिक्शनरी ग्राफ फोकलोर' में परीक्षा सम्दन्धी अनेक मोटिफ वर्णित हैं, जिसका सम्बन्ध धर्म-परीक्षा से भी है । उद्योतनसूरि ने राजा दृढ़वर्मन की दीक्षा पूर्व धर्मपरीक्षा के अभिप्राय का प्रयोग किया है । 2-145 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दढ़द मन् किसी अच्छे धर्म में दीक्षित होने के लिए विकास है तथा इसने उतरवर्ती धर्म-परीक्षा सम्बन्धी पहले अपनी कुलदेवी की आराधना करता है। साहित्य को कितना प्रभावित किया है ? कुलदेवी प्रगट होकर उसे एक पट्ट में धर्म का धर्म-परीक्षा के इस प्रसंग को इतने विस्तृत रूप स्वरूप लिखकर देती है । राजा उस धर्म के स्वरूप __ में प्रस्तुत करने वाले उद्योतनसूरि पहले प्राचार्य की जांच करने के लिए नगर के सभी धार्मिक हैं। उनके पूर्व तथा बाद में भी इतने धार्मिक मतों प्राचार्यों को आमन्त्रित करता है । 33 आचार्य का एक साथ मूल्यांकन किसी एक ग्रन्थ में नहीं वहां एकत्र होते हैं । वे अपने-अपने धर्म का स्वरूप किया गया है । यद्यपि इस दृष्टिकोण को लेकर कहते हैं । राजा प्रत्येक के धर्म को सुनकर उसकी कई कथाएं भारतीय साहित्य में उपलब्ध हैं । 'एक अच्छाई-बुराई की समीक्षा करता जाता है । अन्त की तुलना में दूसरे को श्रेष्ठ बताना' यह धर्मपरीक्षा में अर्हत् धर्म के स्वरूप को सुनकर उसे सन्तोष की मूल भावना है, जिसका अस्तित्व रचनात्मक होता है। क्योंकि कुलदेवी ने भी वही धर्म उसे लिख और लोक-साहित्य दोनों में प्राचीन युग से पाया कर दिया था तथा मुक्ति प्राप्ति का यही धर्म उसे जाता है। टोक लगता है । __ वैदिक युग के साहित्य में कथानों के स्थान पर इस धर्म-परीक्षा के प्रसंग में कई बातें विचार- देवताओं का वर्णन अधिक उपलब्ध है। उसमें हम णीय हैं । पाठवीं शताब्दी में इतने मत-मतान्तर पाते हैं कि कभी इन्द्र श्रेष्ठ होता है तो कभी धर्म और दर्शन के क्षेत्र में विद्यमान थे, जिनका विष्ण । कभी वरुण को प्रधानता मिलती है तो उल्लेख कुवलयमाला में हुआ है। इन 33 प्राचार्यों कभी रुद्र को। यह इसलिए हुआ है कि जब इन की विचारधारानों के आधार पर कहा जा सकता देवतानों की विशेषताओं को तुलना की दृष्टि से है कि उनमें से अद्वंतवादी, सहूँ तवादी, कापालिक, देखा गया तो जिसके गुण तत्कालीन मानव को प्रात्मबधिक, पर्वतपतनक, गुग्गुलधारक, पार्थिद- अधिक उपयोगी लगे उसे प्रधानता दे दी गयी। पजक, कारुणिक एवं दुष्ट-जीव संहारक ये नौ यह एक प्रकार की धर्मपरीक्षा के स्थान पर गुणशैवमत को मानने वाले थे। एकात्मवादी, पशुयज्ञ- परीक्षा थी, जिसने प्रागे चलकर विकास किया है। समर्थक, अग्निहोत्रवादी, वानप्रस्थ, वर्णवादी एवं जातक साहित्य में भी परीक्षा सम्बन्धी अनेक ध्यानवादी ये छह वैदिक धर्म के प्राचार्य थे । दान- कथाए हैं । कहीं सत् की परीक्षा की जाती है तो वादी, प्रतधार्मिक, मूर्तिपूजक, विनयवादी, पुरोहित, कहीं शुद्धता की, कहीं ईमानदारी की तो कहीं गुणों ईश्वरवादी तथा तीर्थ-वन्दना के समर्थक ये सात की। गुणों की परीक्षा ही वास्तव में धर्म-परीक्षा पौराणिक धर्म का प्रचार करने वाले थे। इनके का प्राधार है। राजोवाद जातक गूण-परीक्षा का अतिरिक्त बौद्ध, चार्वाक, सांख्य, योग-दर्शन के श्रेष्ठ उदाहरण है, जिसमें दो राजाओं के गुणों प्राचार्य थे। कुछ स्वतन्त्र विचारक थे । यथा- की परीक्षा उनके सारथी करते हैं । दोनों राजा प्राजीवक सम्प्रदाय के पंडरभिक्षुक एवं नियतवादी, बल, प्रायु सौन्दर्य एवं वैभव सम्मान हैं, किन्तु भागवत सम्प्रदाय के चित्रशिखण्डी, अज्ञानवादी एवं उनके गुणों में थोड़ा-सा अन्तर है । एक राजा मद-परम्परावादी । इन सभी प्राचार्यों के मतों की शठता को जीतता है। जैसे के साथ तैसा तुलनात्मक समीक्षा यहां अपेक्षित नहीं है । किन्तु व्यवहार । जबकि दूसरा राजा बुराई को भलाई से यह विचारणीय है कि कुव० का यह धर्म-परीक्षा जीतता है । यह कथा धर्म-परीक्षा के ठीक अनुरूप का विवरण लोक-मानस की किस मूल भावना का बैठती है । दो आचार्य धर्म की श्रेष्ठता की परीक्षा 2-146 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं। जिस धर्म में साध्य (मोक्ष) की भांति सत्य का निरूपण करते हुए, विभिमानक के उसके साधन (सदाचार) भी श्रेष्ठ हैं, वही धर्म मतों को असत्य कहा गया है ।15 यह तर्क-पद्धति उत्तम कहा जाता है । यही प्रयत्न प्राकृत-साहित्य के दार्शनिक मतों से सम्बन्धित थी। जब कभी किसी विभिन्न ग्रन्थों में हुआ है। जैन ग्रन्थ में अन्य मतों का खण्डन करना होता पर तो प्रायः इसी प्रकार की एक प्रणाली अपनायी श्रेष्ठता की पहिचान करने वाली अनेक जाती थी। और उन सभी जनेतर मतों की समीक्षा कथाए प्राकृत-साहित्य में हैं ।' प्रवृति से निवृत्ति कर दी जाती थी, जो इतिहास में प्रसिद्ध थे । भले मार्ग की, भाग्य से पुरुषार्थ की तथा लक्ष्मी से ही उनका अस्तित्व ग्रन्थकार के युग में हो अथवा सरस्वती की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करने वाली नहीं । अतः कुवलयमाला में जो प्रसिद्ध दार्शनिक कथानों की भारतीय साहित्य में कमी नहीं है . 8 मतों की परीक्षा की गयी है, वह परम्परा से अकेले जम्बुस्वामी का चरित्र असत् से सत् की प्रभावित है। किन्तु प्रत्येक धर्म के जिन अन्य श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है। अन्धविश्वासों व पाखण्डों का खण्डन उद्योतन ने ज्ञाताधर्मकथा में पांच धान्यकणोंकी कथा केवल चार किया है, वे सम्भवतः आठवीं शताब्दी में विद्यमान बहुप्रों में चौथी बहू की श्रेष्ठता को ही प्रमाणित थे। नहीं करती, अपितु प्रतीकों के अनुसार अन्य व्रतों में अहिंसा की श्रेष्ठता स्थापित करती है । कथाओं धर्मपरीक्षा अभिप्राय के विकास में तीसरा का नायक गुणों की खान एवं खलनायक दोषों का महत्वपूर्ण आधार पौराणिक एवं कल्पित बातों पर पुंज, यह मिथक इसी गुण-परीक्षा अथवा धर्म- जैनाचार्यों द्वारा व्यंग करने की प्रवृति है । परीक्षा के कारण ही विकसित हुआ है। इसका इसका प्रारम्भ सम्भवतः विमलसूरि के पउमचरियं सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है-समराइच्चकहा का सम्पूर्ण से हमा है । तत्कालीन प्रचलित रामकथा में कथानक । गुणशर्मा और अग्निशर्मा के नो जन्मी विमलसूरि को अनेक बातें विपरीत, अविश्वसनीय की कथा ।10 राम और रावण, बोधिसत्व और तथा कल्पित प्रतीत हुई । अतः उन्होंने नयी राममार, जिनेन्द्र और मदन11 प्रादि पात्रों की यह कथा लिखी 116 काव्य में दार्शनिक तथ्यों के प्रति योजना एक की अपेक्षा दूसरे को श्रेष्ठ प्रमाणित चिन्तन का यह प्रारम्भ था। बुद्धघोष ने अपने ग्रन्थों करने की मूल भावना का ही विकास है। में इसे विस्तार से स्थापित किया। गुप्तयुग के कवियों ने अपने ग्रन्थों में कहीं न कहीं दार्शनिक धर्म-परीक्षा अभिप्राय के विकसित होने में दूसरा खण्डन-मंडन को स्थान देना अनिवार्य मान लिया। महत्वपूर्ण तत्त्व तर्क पद्धति का क्रमशः विकसित आगे चलकर यह एक काव्यरूढ़ि हो गई, जिसका होना है । छठी शताब्दी ईसा पूर्व के अनेक एकान्त प्रभाव धर्मपरीक्षा के स्वरूप पर पड़ा है। वादी चिन्तकों के बीच से महावीर के चिन्तन का उभरना सत्य की श्रेष्ठतम पहिचान परिचायक अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू ने भी जैनेतर मान्यहै ।12 ब्रह्मजालसुत में अनेक मत-मतान्तरों के तानों का खण्डन किया है तथा अपना काव्य प्रचलित प्रचलित होने का उल्लेख सत्य को विभिन्न दृष्टि- रामकथा की पौराणिक व अतिशयोक्तिपूर्ण बातों कोणों से परखने का परिचायक है ।13 सूत्रकृतांग से बचाकर लिखने की प्रतिज्ञा की है ।17 किन्तु में अक्रियावाद, अज्ञानवाद, क्रियावाद आदि मतों प्राकृत-अपभ्रश के कवियों की इस प्रकार की की समीक्षा की गयी है ।14 प्रश्नव्याकरण सूत्र में प्रतिज्ञाओं और उनके काव्यों को एक साथ देखने अहिंसा प्रादि पांच व्रतों के विवेचन के प्रसंग में पर स्पष्ट है जिन अलौकिक बातों से बचना चाहते महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-147 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे, उनके काव्य उनसे अछूते नहीं हैं।18 अन्तर पद्धति थी, जिसने धर्म-परीक्षा अभिप्राय को गति केवल यह है कि जनेतर ग्रन्थों के पात्र जिन कार्यों प्रदान की। को करते थे, वे ही कार्य अब उन पात्रों के द्वारा कराये जा रहे हैं जिन्हें कवि ने जैन बना दिया जैनाचार्यों द्वारा धर्मपरीक्षा अभिप्राय को है। अतः मतान्तरों से व्याप्त पाखण्ड के प्रति जो अपनाने का प्रमुख कारण था-जैन धर्म के मौलिक थोड़ा-सा व्यंग विमलसूरि ने प्रारम्भ किया था, वह स्वरूप को सुरक्षित बनाये रखना । अहिंसा की पूर्ण अधिक तीव्र नहीं हुआ, कारण इसके कुछ भी रहे प्रतिष्ठा स्वयं के पुरुषार्थ द्वारा मुक्ति प्राप्ति का प्रयत्न, जीव और प्रजीव के बन्धन-मुक्ति की नैसगिक-प्रक्रिया तथा ध्यान और तप की साधना किन्त ईसा की सातवी-आठवीं शताब्दी में धर्म- की अनिवार्यता आदि कुछ प्रमुख सिद्धान्तों के विरोध दर्शन के क्षेत्र में पुनः परीक्षण को प्रधानता दी जाने में जो भी सम्प्रदाय व धर्म प्राता था, उसका लगी। बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थों में अनेक दार्शनिक खण्डन करना जैन आचार्यों के लिए आवश्यक था। प्राचार्यों के मतों का परिचय दिया हैं ।19 हर्षचरित इसके लिए उन्होंने कई माध्यम चुने, जिनमें धर्ममें दिवाकर मित्र के प्राश्रम के प्रसंग में उन्नीस प्रमुख था। उद्योतनसूरि ने धूर्ताख्यान के व्यंग के सम्प्रदाय के प्राचार्यों का नामोल्लेख है। उनके स्थान में एक कली चर्चा को ही प्रधानता दी। कार्यों से ज्ञात होता है कि वे अपने मतों के प्रति एक साथ सभी प्राचार्यों की उपस्थिति में उन्होंने संशय, निश्चय करते हुए व्युत्पादन भी करते थे। धर्म की श्रेष्ठता पर विचार करना उपयुक्त समझा। किसी एक सिद्धान्त को केन्द्र में रखकर अन्य के आठवीं शताब्दी में विश्वविद्यालयों के विकास के साथ उसकी तुलनाकर फिर शास्त्रार्थ के लिए कारण सम्भव है धार्मिक विद्वानों का इस प्रकार का प्रवत होते थे ।20 अतः अन्य मतों की समीक्षा कर २मेलन भी होने लगा हो। किसी एक मत को श्रेष्ठ बतलाना, इस युग के साहित्यकार के लिए एक परम्परा होने लगी थी। धार्मिक प्राचार्यों द्वारा धर्म का स्वरूप सुनकर इसी का निर्वाह जैनाचार्यों ने किया है। राजा का दीक्षित होना भारतीय साहित्य में एक काव्य रूढ़ि है । प्राचार्यों का स्थान कहीं मन्त्री ले लेते हैं हरिभद्रसूरि ने धर्म-परीक्षा को एक नया मोड़ तो कहीं पुरोहित । बौद्ध साहित्य में उल्लेख है कि दिया। उन्होंने असत्य के परिहार के लिए व्यंग को अजातशत्रु ने धर्म का सही स्वरूप जानने के लिए माध्यम चुना।। के धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थ में अपने मन्त्रियों से धर्म सुना था । बौद्ध होते के नाते पुराणों में वरिणत असम्भव और असंगत मान्यताओं उसने बौद्ध मतावलम्बी मन्त्री के कथन को प्रधानता का निराकरण पांच धूर्तो की कथाओं द्वारा किया दी थी । पुष्पदन्त के महापुराण में राजा महाबलि गया है ।21 हरिभद्र द्वारा जैनेतर मतों पर किया के चार मन्त्रियों में क्रमशः उन्हें चार्वाक, बौद्ध, गया यह व्यग ध्वंसात्मक नहीं है, अपितु असंगत वेदान्त तथा जैनधर्म का स्वरूप कहकर सुनाया बातों के परिहार के लिए सुझाव के रूप में है। था। अतः कुवलयमाला कहा धर्म-परीक्षा सम्बन्धी सम्भवतः धूख्यिान का गह व्यंग हिन्दू पुराणों के यह प्रसंग विषयवस्तु एवं स्वरूप की दृष्टि से पूर्वसाथ-साथ जैनपुराणों की भी उन अविश्वसनीय बातों वर्ती लोक-परम्परा पर आधारित है। एक साथ के प्रति था, जिनका मेल जैनधर्म से नहीं था। इतने अधिक मतों की समीक्षा प्रस्तुत करना इसकी सत्य (धर्म) के दोषों की परीक्षा करने की यह एक अपनी विशेषता है । 2-148 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती समारोह 1977 के अवसर पर श्रायोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम के तीन दृश्य हिता निहित है। महावीर जयन्ती समारोह महावीर जय $4 महावीर जयन्ती समारोह वाजस्थान जन जयपुर Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्योतनसूरि के बाद प्राकृत, अपभ्रश एवं दार्शनिक स्तन पर ही हो सका है । सामाजिक स्तर संस्कृत में धर्मपरीक्षा नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखे पर तो जैनधर्म अन्य धर्मों की विशेषताओं के साथ जाने लगे। उद्योतन के लगभग दो सौ वर्षो बाद यहुत प्रभावित हो गया था, जिसकी प्रतिक्रिया अपभ्रंश में हरिषेण ने 988 ई० में धम्मपरीक्खा श्रावकाचार ग्रन्थों के रूप में प्रगट हुई है ।25 लिखी। इसके 26 वर्ष बाद ई० सन् 1014 में धार्मिक खण्डन मण्डन की प्रवृत्ति 8वीं-10वो प्रमतिगति ने संस्कृत में धर्मपरीक्षा नामक ग्रन्थ की शताब्दी में इतनी बढ़ी कि अपभ्रंश के मुक्तक कवि रचना की। इन दोनों ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन पाखण्डों पर सीधा प्रहार करने लगे। धर्मपरीक्षा विद्वानों ने प्रस्तुत किया है ।22 उससे ज्ञात होता है के इन कवियों ने भी पौराणिक धर्म पर तीव्र प्रहार कि ये दोनों ग्रन्थ प्राकृत में जयराम द्वारा लिखिी किया । धूर्ताख्यान का व्यंग इन रचनाओं में दूसरा धम्मपरीक्खा पर आधारित हैं ।23 यद्यपि उनपर रूप ले लेता है। उसमें कुवलयमालाकहा की वह प्राकृत की उपर्युक्त रचनामों का प्रभाव हो भी भावना नहीं है, जहां राजा सभी प्राचार्यों के मत सकता है । जयराम की धम्मपरिक्खा आज उपलब्ध की समीक्षा कर अन्त में उन्हें सम्मान पूर्वक विदा नहीं हैं । सम्भवतः यह उद्योतनसूरि के बाद और करता है तथा अपने अपने धर्म में संलग्न रहने की हरिषेण के पूर्व किसी समय में लिखी गयी होगी। स्वतन्त्रता देता है ।26 इसके बाद में 17वीं शताब्दी इससे इतना तो स्पष्ट है कि 8 वीं से 11 वीं तक विभिन्न भाषाओं में धर्मपरीक्षा ग्रन्थ लिखे जाते शताब्दी का समय धार्मिक क्षेत्र में खण्डन-मण्डन रहे हैं,27 जो प्रचार-ग्रन्थ अधिक है, काव्य-ग्रन्थ और तर्कणा का था, जिसमें जैनधर्म के मौलिक कम । किन्तु इन ग्रन्थों से सत्य को तुलनात्मक दृष्टि स्वरूप को बचाये रखने का प्रयत्न इन धर्मपरीक्षामों से परखने की पद्धति का विकास अवश्य हुआ है, ने किया है। सोमदेव के यशस्तिलकचम्प में इसका जो वर्तमान अनुसंधान के क्षेत्र में भी अपनाई विस्तृत विवरण प्राप्त होता है ।24 किन्तु यह कार्य जाती है । सन्दर्भ 1. प्रो० एच० डी० बेलणकर, जिनरत्नकोश, भूमिका, पूना 1943 2. उपाध्ये, एनल आफ द भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीटयूट, रजत-जयन्ती अंक भाग 23, 1942 कुवलयमालाकहा, पृ० 204-207 4. प्रेम सुमन जैन, कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन वैशाली 1975 5. मेक्डोलन, वैदिक माइथोलाजी। 6. भदन्त प्रानन्द कोत्सल्यायन, जातक, भाग, 2/251 7. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत जैनकथा साहित्य, 1971 8. पेन्जर, 'द अोशन आफ स्टोरी'; कथासरित्सागर 9. विमल प्रकाश जैन, जम्बूसामिचरिउ, भूमिका । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-149 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. नेमिचन्द्र शास्त्री, हरिभद्र की प्राकृत कथाओं का पालोचनात्मक परिशीलना 11. हीरालाल जैन, मदणपराजयचरिउ 12. देवेन्द्रमुनि, भगवान् महावीर : एक अनुशीलन, पृ० 98-105 13. द्रष्टव्य-सुत्तनिपात समियसुत्त 14. सूत्रकृतांगकृति 1/12 15.. मुनि हेमचन्द्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र, द्वितीय अध्ययन । 16. जैकाबी, पउमचरियं, प्रथन भाग । 17. संकटाप्रसाद उपाध्याय, कवि स्वयम्भु । देवेन्द्र कुमार जैन, अपभ्रंश भाषा और साहि प, पृ० 282-9) 19. अग्रवाल, कादम्बरी-एक सांस्कृतिक अध्ययन अग्रवाल, हर्षचरित-एक साँस्कृतिक अध्ययन पृ०197 घूर्ताख्यान- इण्ट्रोडक्शन । उपाध्ये, भ० ओ० रि० इ० जर्नल भाग 23, 1942 तथा द जैन एण्टीक्वेरी, भाग, 9 पृ 21 23. जा जयरामें पासि विरइय गाह पंबंधि । सा हम्मि धम्मपरिक्खा सा पद्धडिय बंधि ।। -ध० ५० (ह०) [01 24. हन्डिकि, यशस्तिलक एण्ड इंडियन कल्चर, पृ० 329-360 25. कैलाशचन्द्र शास्त्री, उपासकाध्ययन, भूमिका 26. 'वच्चह तुब्भे, करेह णियम-धम्म-कम्म किरया-कलावे ।' -कुव० 207-9 27. राईस. कन्तरीज लिटरेचर, पृ० 37 विन्टरनित्ज, हिस्ट्री आफ इडियन लिटरेचर, भाग 2, पृ० 561 2-150 महावीर जयन्ती स्मारिका 18 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Almost every religion attributes four features to God namely 1. infinite power, 2. infinite apprehension, 3. infinite knowledge, and 4 infinite joy. Jainism is not an atheism as generally characterized, but a theism because it holds that every soul when perfected and fully developed becomes the true God possessing the aforesaid four features. In Jainism these four features are called 'Ananta Chatustaya.' It is atheison because it depjes God to be the creator of the universe. Thus from one point of view Jajoism is an atheism 1 and from the other view angle a theism. -Polyaka THE JAINA ATHEISM Dr. Harendra Prasad Verma M.A. (Guld Medalist), Ph.D., D.Litt., Reader in Philosophy, Bhagalpur University, (Bihar). He grants unchartered providen’ss to his devotees and is the Moral Governor of the universe. Atheism rejects all these assumptions, because it does not believe in God at all. If there is no God, the question of His Creatorship, etc.. does not a ise. Jainism is generally characterized as atheistic. Atheism is the anti- thesis of theism; it is the complete denial of theism, or as Atkinson Lee points out, “Atheism is a theory con- erning God-a theory which is essen- tially negative."1 "It is rejection of belief in Gid":2 The theists maintain that whatever is in the universe owes its existence to God who is a personal being. He is the creator, maintainer and destroyer of the universe. He is omnipotent, omnipresent, omniscient, benevolen!, kind, honest, just, etc. It would be profitable here to distinguish between Atheism and Anti theism, Atheism is the complete denial of theism as it rejicts all beliefs in God, whereas anti-theism is opposed to theism in certain respects. A theory which accepts God but denies the महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-151 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ theistic notion of Him, is also anti- theistic. For example, Pantheism is anti-theism in so far as it deniss the personal nature and attributes o God, bput it is not atheism because it accepts God in one form or the other. Hence, if is debatable whether Jainism is af heistic or Anti-theistic. Atheism has four important forms, viz., Sceptical atheism, Agnostic atheism, Dogmatic atheism and Critidal atheism. Sceptical atheism is that theory which doubts the existence of God as we find in the philosophy of Hume. Agnostic atheism holds that God is unknown and unknowable. It is evident in the philosophy of Kant Dogmatic atheism is that attitude which does not accept Gid but denies His existence on blind f. ith. Carvaka, in Indian philosophy, may be regarded as an example of dogmatic atheism. Critical atheism is that which examines critically the profs for the existence of God and finding them vacuous, tends to deny the e istence of God. of many deities, accepted the notion of ore sovereign God, who is supposed to te the Creator, Maintainer and Destroye: of the universe, holding personal and moral relationship with m..nkind and granting unchartered providences to his devoties. Jainism de: ounces the notion of a personal God with all his attributes. It is evident from the following prayer of Mallisena, a noted Jaina logician, ac dressed to Lord Mahavi.a, “There is a maker of the world, and He is one, He is imnipresent, He is selfdependent, He is ete nal—these would be pretence of mere assurances on the part of those whose teacher thou art not."3 Jainism not only rejects the theistic but also the Pantheistic notion of God or the Absi lute, which will be evident from the refutation of the arguments advance for the existence of G d. All these may go to brand Jainism as a form of "Critical atheism." Refutation of the proofs for the existence of God : The Jainas denounce the different Mahavira made a break with the arguments advanced by the thcists for vedic traditicn which attributed God. the existence of God, which are as hood to the different forces of Nature Flowe like fire, sun, moon, sea, etc., and conceived the deities like Agni, surya, he Naiyayikas, advance the soma, varuna, and so on. He also c. usal argument for the existence of denounced monotheism, which instead God. They maintain that ev. ry pro 2-152 HETETT serial ifrat 78 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ also be uncreated and eternal even having parts like the sky. duct, like a pot or house, is made by some agent. As the world is a product, it must also have an intelligent creator and that is God. But according to Jainism, this argument is unscund, because the minor premise (i.e., 'The world is a product') is unproved. How can we regard the world to be a product? F.W. Thomas puts the Jaina argument in this resp.ct in the following words, “Whereas first it is said by the opponent that earth, etc., have an intelligent maker, because they are products, like a pot, etc., is unproved, because there is no apprehension of a comprehension. For it is agreed by all the disputants that ‘only in the case of comprehensicas and well established by proof will the Middle Term his Major Term.''4 Bertrand Russell has also argued in the same vein. According to him, if every event must have a cause, one may ask the cause of God also. And if God can be conceived to be without cause, the world also can very we'l be con- ceived to be without cause. What is the harm in supposing that the world itself is uncreated and without cause ? (2) The existence of a Creator God has been posed on the anology of the pot and the patmaker, but this analogy is not fe,fect because both the pot and the potter are perceptible objects, whereas God is not an object of perception. Fu ther, the potter or the agent who produces anything, has a bidy. Now, God as an agent should also have a body is perceptible or imperceptible ? The first alternative is obviously false, because there is a contradiction by perception. If we hold that He is an imperceptible being, then it is also unsound because if the reason or the ground be perceptible things, the consequent or the object of conclusion will also be perceptible. If God is supposed to be imperceptible, the analogy of pot and pot-maker does nct hold good. The potter is p.rceived to have a body and if God is without to have a body and it go a body, there is disagreement between example and exempl.fied. For forms of products, pot, etc., are seen to have makers with bodies, and, if without a body, how can he have the capacity for producing a product ? According to Hume, the causal argument based on the an: logy of house and housemaker is cbviously absurd. He asks, "C. n you pretend to show any such simila.ity between the fabric of a The Naiyayikas maintain the world is created is like a product, because it has parts. Now the Jainas answer that the Naiyayika themselves maintain that the sky is uncreated although it has parts. Similarly, the world can महावीर जयन्ती स्मारिका 78 2-153 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of a nature house, and the generation universe? Have you ever seen in any such situation as resembles the first arrangement of the elements? Have worlds ever been formed under your eye; and have you had leisure to observe the whole progress of the phenomenon, from the first appearance of order to its final consumation? If you have, then cite your experience, and deliver your theory."? Further, it is when we conceive the world an the analogy of a pot, house or machine that we require an agent, but if we change the analogy, the demand for an agent will not arise. For example, the grass, trees, rainbows, clouds, etc., are products, but they are not produced by any agent. Similar may be the case with the universe. Just as a plant evolves automatically, likewise the phenomena of the universe may also have origin and decay spontaneously (Svatah srstivada). The same argument has been used by modern analysts to disprove the Tele logical argument for the eistence of God. They hold that the notion of creator God arises from the As the "misapplication of image." universe is pictured as a machine, there arises the necessity of God as mechanic. However, there image can te changed and that will lead to an altogether different con.lusion. Accor a 2-154 ding to J.J.C. Smart, "If we press the analogy of the universe to a plant, instead of a machine, we get to a very different conclusion. And why should the one analogy be regarded any better or worse than the other?"8 (3) God, ex-hypothesie, is eternal and above all changes. If God is beyond all actions, He cannot be the creator, because creation involves activity. Without 'selective knowlege' and 'will to create', creation is not possible. But these cannot be in a timeless reality. Moreover, if God does not change, He cannot also be discovered.9 (4) The theists say that creation took place by the will of the Lord. "I should be many "(Ekoham bahusyamah) is the motive behind creation. But the Jainas argue that desire is the sign of want. God who is absolute and is in His eternal bliss, will not have any want and hence there cannot be any motive to become many (5) Further, creation and destruction involve af ection (Raga) because there cannot be without any motive. But if God has affection and some such vices, He cannot be God. And if He is without affection, He cannot create. So either God is not God or He cannot be a Creator. This is the dilemma involved in the conception of God and His creatorship. महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) Jainism also rejects the notion Jainism also denounces the metaof the Brahman or the Absolute Self, physical attributes of God like omnia which is supposed to be the common potence, unity, eternity, perfiction, ground of the self and not-self. But, etc. According to it, if God is omniaccording to Jainism, the conscious putent, He should be the absolute and self and unconscious matter (Pudgala) sole creator of everything. But we are to opposed to have any common find that there are many things created background. Samkara in order to by men and not by God. Further, defend the vedic and upanisadic con- God is held to be one on the cept of the Brahman has some how ground that if there were many gods, derived the unconscious (Acetana) there would have been disharmony, entity also from the same primal conflict and chaos, for each would cause, the Brahman. Ramanuja also work according to his own choice, holds that the Brahman is the common plan and purpose, But the Jainas argue ground of both Cit (conscious) and that this is not true. We find many Acit (unconscious) entities, and these masons constructing the same house. are integral to His being. But accor- Even lower animals like the bees and ding to Kundakunda, a noted Jaina ants, make their hives and ant-hills thinker, it is absurd. If the doctrine together harmoniously. Finally, God of the identity of the cause and effect is said to be eternally perfect. But, (Satkaryavada) is accepted these con- according to Jainism, the notion of tradictory effects the unconscious eternal perfection is absurd, because and the conscious—the Not-self and perfection consists in the removal of the self-cannct be derived from the imperfection. It is meaningless to same cause, the Brahman, which is call any one perfect, who was never taken to be conscious by the Veda and imperfect. Thus eternal perfection is the Upanishad.11 The same argument contradiction in terms. has teen employed in modern times by J. P. Sartre for the refutation of The Jainas deny God also because the existence of God. According to they like Sartre, found God to be the negator of human freedom. The notion him also, there are two fundamental of God as the dispenser of good and categories -En-soi (unconscious) and evil, is against human freedom and Pour soi (conscious). As these are endeavour. If man reaps the consecontradictory, these cannot have a quence of his own action, God becommon background, God. comes redundant, and if God ordains Arale part iftar 78 2-155 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ everything, personas endeavour be- eomes me ningless. 12 Sartre also denied God in the same vein in order to make room for human feedm. He also argues that if everything regar- ding human existence is from before in the mind of God, human life becomes completely determined. It is not what man makes by his personal effort but what has teen preordained by God. "Thus each individual man is the realization of a certain concep tion "13 But, in fact, man is the maker of himself and his own distiny. This necessarily eads to the deni) of God Feuerbach also declared, “our enemy is Go: The denial of God is the beginning of wisdom.” Comte found God to be a blemish for human dignity and an obstacle in human progress. Hence he says, “The sole effect of its (th-istic) doctrine is to doctrine is to degrade the affections by unlimited desires, and to we ken the character by servile terrors."14 vira was born in the Republic of the Licchavis, he had the republican attitude and hence he considered every individual self to be real and ind pendent. In his conception of heaven every self is God— “Aham Indra", and nobody is under the subjugation of any other being. Like Freud, he also decried the religion of self-surrender (Samarpana) which is nothing but regression to childhood den to childhood-depandence on Father. Mahavira wanted that man should come out of the dream of his infancy, te adult and educated to reality, and take charge of his own existence. Jung also found that "it is the prime task of all education (of adults) to convey the archetype of the God-image, or its emanations and effects, to the conscious mind."15 For, as Frieda Fordham observed, "If this does not happen there is split in his nature; he may be outwardly civilized, but inwardly he is a barbarian ruled by an achaic god.''16 Mahavira exhorted man to realize and perfect his own self ra!her than surrendering before a Deity presiding over the phenomena Deity n of the universe. He propounded a "religion of self-effort”, and declared that a man becomes Sramana by dint of his own labour (samayaye samano hoi).17 Religion consists in self-awakening. (Sutta amuni, munina saya jagaranti), 18 Now the question arises, where- from do we have the notion of God ? According to Freud, the notion of God is born of the infantile d pendence on Father. "God nothing but father's image.” Mahavira also believed that God is the symbol of authority. It is the legacy of Monarchy. Man imagines a world-Ru'er in the image of the Ruler of state.15 But as Maha- 2-156 i rat urat Fari 78 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती समारोह 1977 लाल भवन, जयपुर में श्रीमती पाशा गोलेछा की अध्यक्षता में आयोजित महिला सम्मेलन विशिष्ट अतिथि श्रीमती चन्द्रकान्ता डण्डिया भी दिखाई देरही हैं सांस्कृतिक कार्यक्रम विशिष्ट अतिथि : श्री हीराभाई एम. चौधरी विजेता को ट्राफी प्रदान करते हुए श्री महावीर दिगम्बर जैन उच्च माध्यमिक विद्यालय में आयोजित निबंध प्रतियोगिता में प्रतियोगीगरण Jain Education Intemational For Pile Wellbrary.org Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Does Jainism deny God altogether? mercilessly the cause of self-efile. ments (Raga & dresa) in the fire of We have seen that Jainism denies wisdom, and have imparted knowldge the existence of God but, in fact, it of the re. lity to inquisitive world, are does not co away with the notion of the gods like the eternal Brahman."21 God altogether. What Jainism denies The Tirthankaras, who have conquered is the notion of a Monotheistic God, their passions and have gone beyond which is anthropo:r or; hic. But it the process of becoming, are lice accepts the existence of God in the Gods. It is in this sense that Mahaform of Parmatma. Like Kierkegard, vira is call d “Blagran", for Bhagvan Mahavira believes that 'God is not means the person who has gone bean extemality'; He is the inmost sub yond the process of bhava (becoming), jectivity to te realized by intuitive and has attaired salvation and selfexperience. As a matter of fact, the perfection. Thus Jainism does not de.cription of Parmatma in the Aca await the descent of Cod in the human rarga sutra is similar to that of the frame, rather it beli:ves in the ascent Upanisa ls. 19 The upanisads say, “This of man to divine status. In the words self is Cod' (Ayam atma Brahma), “That of Dr. Radhakrishnan, "The Jaina Thou a t' (Tat tram asi), 'I am God' thinkers hold that man can attain (Aliam Brahma: mi), and so on. The divinity, ind Cod is only the highest, same has been said by Lord Mahavira noblest ind fullest manifestation of when he said, “Appa so Paramappa"20 all the powers that lie latent in the (The self is God). However, Jainism soul of man."22 As Jainism does not does not favour the monistic and do away with the notion of God, it absolutistic conception of the self; it is in reality, only anti-theistic and not always lays emphasis on individulism athci tic pluralism and freedom, ind, hence, it hol:'s that every individual self is Philosophies may differ but if we God, not Lecause of being a part and watch closely the psychology of man, parcel of God, but because of the we shall find that human nature is possession of four infinite powers everywhere the same. All of us have (Aranta chatustaya). Every soul is tha same hopes and despairs, wekperfect, and hence instead of accepting nesses and frailties. It makes no one Absolu:e, it accepts many perfect difference whether one is a Jaina, a souls. In the Svayambhu stotra it has Baucdha or a Hindu. Consequently, been said, “Those who have burnt the popular religion is also more or RETATT Terat faifai 78 2-157 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ less the same. If we observe the instal t'eir statues on the shrine ache.ents of differcnt religions going and bow before them almost in the to the temples, mosques or the chur- same manner and spirit as a theist ches, with thcir hearts laden with does before the image of God. God giie:, we shall find the same ho, es and thus ousted from the door, enters again fcars, and it makes no difference through the window. This is perewhether the huid which bows down in nnial story of the strength and weakpr. yer, is on ihe shrine of Lord Maha- ness of mankind which in the heart of vira, Je:us Christ or Lord Krishna. heart che:ishes the belief in God. Tagore has rightly observd, "Alas. What does this fundamental yearning for the foolish human heart? The for God, which not is individu. 1, but fund mistakes are persistent. Reason archetypal mean? Does it reveal the comes and breaks cur he.rt but we attributes that constitute the being of move ahead in search of another God or it is merely vacuous-a psychotolies ? Lord Mahavira and the Buddha logical fall..cy burn of infantalism-a may deny God but their desciples "fond mistake” which is ever persisexhalt themselves to the status of God, tint ? 1. Grouudwork of the philo ophy of Religion. 2. R Flint, Artitheistic Theories. p. 4. 3. Karta asti kascijiagatah si caikah sa sarvagih svavasa' sa rityah. Ima kuhevaka vidambana syuh teyam ni yesamanusasakasttvam (Syad:ad Manjari, 6) 14. Syadvad Manjari Commentory on verse 6, Motilal Banarsidas Delhi, p. 31, 5. Ibid--p. 31. 6. Pramana-Noya-Tattvalokalamkara, p. 32. 7. Dialogues concerning Natural Religion, in The Philosophical Works of · Humo, vol. II, Adam Black Willian. Tait and Charles Tail, 1826, p. 451. 2. Syadvada Manjari, p. 31. 8. J. J. C. Smart. "Ilie Existence of God', New Essays in Philosophical Theology. S.C.M. Press, London, 1955, p. 42. 9. Nasprstah karmabhih sasvad visvadrsvasti kascana. Tasyanupaya siddhasya sarvathanupapattitah (Apta Mimamsa, 8) Nityatvaikanta paksepi vikriya nopapadyate. Prageva karkabhavah kva praman:m kvatphalam. (Ibid, 37) 2-158 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. Svayam srjati catpramah kimiti daitya vidham sanam Sudusta jana nigraha rattniti ceda srstirvaram Krtatma karaniyaksya jagatam kritirnisphata Svabhava iti cenmrsa sahi sudusta evapyate. (Patra Kesari Stotra, 33) 11. Vide Samaya sara Bharatiya jyana Pitha, Delhi, 1944, p. 109. 12. Svayam krtah karma yadat mnapura phalam tadiyam labhate subhasubham parena dattam yadi labhyate sphutam svayam kitam karma nirarthakam tada (Bhavana Dvatransatika, 30) 13. Sartre, Existentialism and Humanism, Methuen, London, 1963, pp. 27-28. 14. Vide, Kailash Chandra Shastri, Jaina Dharma, B. D. Sangha, Mathura, p. 116. 15. C. G. Jung, Psychology of Alchemy, p. 12. 16. Frieda Fordham, An Introduction to Jung's Psychology, Penguin books, U.S.A., 1963, p. 74. 17. Uttaradhyayana sutra 25, 32. 18. Acaranga sutra 3/10. 19. Vide Acaranga sutra, 1/6, also Uttaradbyayane sutra, 14/19. 20. Prajnapana sutra. 21. Svayambhu stotra, 1/4. 22. The concept of mao, (Ed.) P. T. Raju, Preface, George Allen & Unwia, London, p. 9. PRAYER Thy shining form, the rays of which go upwards, and which is really very much lustrous and dispels the expanse of darkness, looks excellently beautiful under the Ashoka-tree like the orb of the sun by the side of clouds. -Acharya Mantunga ugtatt FTUR FEft For 78 2-159 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म, धार्मिक और धर्मालय धर्म क्या ? धार्मिक कौन है ? और धर्मालय कहाँ है ? यह सब कुछ जाने बिना आज का व्यक्ति एक दूसरे को धार्मिक होने का व्रत ओटे हुए हैं । सच है कि क्या, कौन और कहां की जानकारी व्यक्ति को केन्द्रोन्मुखी बनाती है । 2-168 वि०, बा० डा० महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, श्रागरा रोड, अलीगढ़ ) मूल, तना, शाखाएं, वृन्त, पत्त े, फूल और फल मिल कर वृक्ष बनता है। इन सभी पदार्थों के अपने अपने स्वभाव हैं । गुण हैं । प्रत्येक पदार्थ में अनन्त गुण विद्यमान होते हैं । इन गुणों का ठीक ठीक जानना ही तो धर्म है। जो है उसे पहचानना, जानना वस्तुतः धर्म कहलाता है । इस प्रकार धर्म सर्वत्र है, व्यापक है । ध्यान इतना रखना है कि जो प्राप्त है वह ग्राज नहीं तो कल अन्ततोगत्वा एक दिन अवश्य समाप्य है । धर्म कभी प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह कभी समाप्य नहीं है । इसीलिए कहता हूं कि प्राप्य और समाप्य के झंझट से कोसों दूर हमें व्याप्त को जानना चाहिये | 'वत्थु सहावी धम्मो' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । व्याप्त को जानना ही धर्म है। और धर्ममय होना ही धार्मिक होता है। ग्राम तौर पर किसी भी सत्ता की, उपास्य की पूजा अर्चना जो कर लेता है उसे हम प्रायः धार्मिक कहने लगते हैं । इसे क्या विडम्बना नहीं कहेंगे ? जो स्वभाव है उनके प्रति विपरीत चलने वाला व्यक्ति धार्मिक कैसे हो सकता है ? प्रत्येक प्रांणी की मूल शक्ति का नाम आत्मा है | अहिंसा, सत्य, अवौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि उसके अनन्त गुण हैं; स्वभाव हैं । जो इन स्वभावों में रहता है वही तो धार्मिक है । धार्मिक होने के लिए हम किसी के प्रमाण-पत्र की प्रतीक्षा न करें । यथाशीघ्र धार्मिक होने की स्थिति में हों । धर्मालय कहां है ? जहाँ धर्म है वहीं धर्मालय है । जब धर्म सर्वत्र है फिर धर्मालय एकत्र कैसे हो सकता है ? मैं सत्ता, जानने की शक्ति तथा उस शक्ति को धारण करने वाला शरीर ही वास्तव में धर्म, धार्मिक और धर्मालय हैं। यदि नहीं हैं तो हमें जागृत होकर शीघ्र होना चाहिये ताकि सुखी और सम्पन्न जीवन जिया जा सके । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 我就知 dan, 深设 因无法识 खण्ड 改NA 法 接法混装 EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN मुक्त चिन्तन तथा अन्य Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के उद्योगमंत्री श्री त्रिलोकचंद दशलक्षण पर्व समारोह १६७७ का उद्घाटन करते हुए त क्षमापन पर्व समारोह 1977 सभा के मंत्री श्री बाबूलाल सेठी दशलक्षण पर्व समारोह के अवसर पर राजस्थान के उद्योगमंत्री श्री त्रिलोकचंद जैन का स्वागत करते हुए | Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वबन्धुत्वस्योत्प्रेरको भगवान महावीरः *ले. मनोहर पुरस्थ संस्कृत महाविद्यालय प्राध्यापक नारायण सहाय शास्त्री एम. ए. हिन्दी व्याकरणाचार्य BESERTREEKE ETEREBERRARER REEKRISESESE अहिमा मूल प्राचारः, विचारोऽनेक मूलकः, व्यवहारश्च स्यावादः समाजो ह्यपरिग्रहः ॥१॥ मरिण स्तम्भेषु चैतेषु, प्रासादो जैन धर्मकः, सर्वोदयी विशालश्च, विभति विश्वबन्धुताम् ॥२॥ तीर्थङ्कराश्च, ते सर्वे जीर्णोद्धार परायणाः । चान्तिमोऽयं महावीरः, प्राणिमात्रं समुद्धरन् ।।३।। अवतीर्णो हि लोके च, स्वाधीना मुक्तिदायकः । पंचशती समायुक्तम्, द्विसहस्र च यापितम् ।।४।। त्रिशला स्वामिनी राज्ञी, सिद्धार्थस्य गुणान्विता। ददर्श स्वप्न साकारान्, पुत्रप्राप्तेश्च सूचकान् ॥५॥ चैत्र मासे सिते पक्षे, त्रयोदश्यां शुभे दिने । त्रिशला ख्यातिमापन्ना, पुत्ररत्न मजीजनत् ॥६॥ सोऽयं समुज्ज्वलः शाम्तः, क न्त्या ध्वविघातकः । f तैषी ला मान्यश्च, मतिश्रु त्यवधिज्ञः विभुः ।।७।। वर्धमान गुणेन्दुश्च, वर्द्धमानः प्रचक्षते । युना राजकुमारण, निषिद्ध पारिणपीडनम् ।।८।। असारं परितो ज्ञात्वा, त्यक्त्वा राज्यसुखानि च । परिग्रहम नित्यं हि, , तत्याजंतं तपोनिधिः ।।६।। संसतो विजयं प्राप्य, महावीरः प्रजायते । द्वादशाब्दीय मौनान्ते, ह्यशेष जीवनं जगत् ॥१०॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ESSAREERS RESOR BENGABEBER सत्पथे गमयेन्नित्यम्, चिन्ताचक्र प्रचक्रमे । वलिप्रथाविरोधेन, जीवो जीवस्य भक्षकः ॥११॥ इति चिन्ता विषण्णोऽयं जीव्याज्जीवय जीवनम् । चिरंतनं सुखेनेह, रक्ष्यं रक्ष्यं भवेज्जगत् ॥१२॥ इति चिन्ताकुलो भूत्वा, वभ्राम भारते स्वयम् । ददर्श तत्र दुःखानि, वर्णः जातिषु लक्ष्यते ।।१३।। राष्ट्रीय संहतिः नष्टा, नष्टं चात्मगौरवम् । सर्वेषां परित्राणाय, महावीरश्च जायते ।।१४।। अहिंसा परमो धर्मः इत्वाचारः परं बभौ । पात्मनः प्रतिकूलानि, न कदापि समाचरेत् ।।१५।। त्रिंशद्वर्षात्मके काले, विधाय वन्धु भावनाम् । महावीरश्च दयौः पावां पाटलीपुत्र पोषिताम् ।।१६।। कातिके चासिते पक्षे अमावस्यां रात्रि संनिधौ।। द्विसप्ततितमे .. वर्षे, प्रायुषश्च तपोनिधेः ।।१७।। महान, निर्वाण पासाद्य, विश्ववन्द्यश्च जायते ।। सर्व जीव समो. भावः सर्व धर्मपरायणः ।।१८।। सर्व जातिः समा लोके, शुभ सदेश धारकः ।। विश्ववन्धुत्व भावं च, महावीरो जगादह ॥१६।। प्राणिनः पीड़िताः न स्युः सात्विक भोजनं कुरु. । . अभिमानं सुरापानं, न कुर्याद् दिवसं वसेत् ॥२०॥ नाधिकं संचयं कुर्याद्, सर्व धर्मान समन्वयेत् । शान्त्या क्रोधं जयेन्नित्यम्, धर्मेण ग'तमान् भवेत् ।।२१॥ लारस्वरेण वीरोऽयं, मोक्षः संकेत दायकः । । न मोक्षः सम्प्रदायत्तः, सत्य धर्मपरायणः । २२॥ धर्मेण हन्यते भेदः, आत्म भावः प्रजायते ।। इति बन्धुत्व भावेन, अद्यापि जगत्: स्थितिः ।।२३। स्मरामितं महावीरं, प्रणमामि पुनः पुनः । असार खलु संसारं, ज्ञात्वा ध्येयं तम व्ययम् ॥२४॥ वाँछित माशु मे देहि महावीर ! त्वमेव हि । विश्वबन्धुत्व भावेन भावनीयो भवाम्यहम् ॥२५॥ 178 3-2 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( महावीरत्व की खोज में महावीर ) प्रीतंकर . श्री मिश्रीलाल जैन एडवोकेट __ पृथ्वीराज मार्ग, गुना (देव लोक के अनेकों देवता उन्हें घेरे खड़े थे प्रीतंकर देव उठे । नियत देवांगना ने कहामृत्यु प्राई, निश्शब्द पदचाप से आई, किसी को अायो देव ! प्रथम मिलन को सार्थकता प्रदान उसके पाने की आहट तक नहीं हुई और वह प्रीतंकर करें। प्रीतंकर-देवि ! प्रथम मिलन ! नहीं नहीं को साथ लेकर चली गई। शेष रह गई देवताओं . के मध्य प्रीतंकर की कीर्ति जो देवलोक में भी तुम्हें भ्रम है। मिलन की समस्त उपलब्धियों से मृत्यु से अभय होने का वरदान दे रही थी। पर हृदय परिचित है, फिर प्रथम मिलन कैसा ? महावीरत्व अभी एक अनावृत रहस्य था, दुर्लभ प्राकर्षण अज्ञात सुखों के प्रति होता है और देवि ! यात्रा थी।) उपलब्ध होते ही आकर्षण टूट जाता है । भोगों की प्रक्रिया भोगों का परिणाम सभी स्मृति में हैं । तीर्थङ्करत्व की खोज में सम्राट् हरिषेण की .. लगता है हम भोगों को भोग रहे हैं, पर भोग स्वयं संज्ञा से विभूषित जीव प्रीतकर बना। स्वर्गलोग उसके लिये कोई नया लोक नहीं था। स्वर्गों की हमें भोगना प्रारम्भ कर देते हैं । वह यात्रा कर चुका था, सागरों की आयु बिता देवाङ्गना ने कहा-स्वामी ! जन्म के प्रथम चुका था। जब वह स्वर्ग लोक की शैया पर जागा दिवस में-मिलन की बेला में यदि विरक्ति का तो सब कुछ भोगा हुआ लगा। स्वर्गलोक में सब का सूत्र लिया तो सागरों की आयु कैसे कुछ पूर्ववत् था, किन्तु सौन्दर्य, कला, साज-सज्जा . बीतेगी ? पूर्व से भी अधिक मनोहर थी। प्राकृतिक दृश्य देव-देवि! तुम्हें भ्रम है, कि सागरों की आयु सरितारों के निर्मल जल से ध्वनित संगीत, पक्षियों बिताने के लिये पुरुषार्थ करना पड़ता है, बहती हुई का कलरव, संगीतमय था । पग पग पर सौन्दर्य का सरिता का जल और बीतती हुई आयु क्या कभी भ्रम-जाल, पग पग पर प्रलोभन ! ... रुकती है । गति उसका धर्म है। रन्ध्रमय पात्र में महावीर जयन्ती स्मारिका 78 3-3 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निहित जल की भाँति यह प्रायु भी रीत जाती उस मरणभीत देवता को संबोधित करने वे उसके समीप गये और बोले-देव दुःखी क्यों देवाङ्गना-देव ! मर्त्यलोक के भीरु पुरुषों । देवता-देखते नहीं मेरे गले की माला मुरझा की सी बातें करते हो। वहाँ पुरुष दिगम्बर वेष में विचरण करते हैं, तप्त शिलानों पर तपते हैं " और कहते हैं हम मुक्ति को खोज रहे हैं । आपकी प्रीतंकर–तो क्या ? मुरझाने दो ! बातें ऐसे भीरु मनुष्यों से ऋण ली हुई प्रतीत होती हैं । प्रीतंकर देव ने दिगम्बर श्रमण की चर्चा देव-मुरझाने दू? यह देवलोक, देवलोक सुनी तो उनके नयन में स्वयं की आकांक्षायें साकार हो उठीं ! नयन-क्षितिज पर दिगम्बर मति मति- का यह वैभव क्या सब स्वप्न हैं ।-वह फिर मान हो उठी। उनके हाथ श्रद्धा से उठ गये- चीत्कार करने लगा ।उन्होंने विनत स्वर में कहा-साहूसरणं पव्वज्जामि, प्रीतंकर ने कहा-देवि ! तुमने श्रमण का बहुत प्रीतंकर–सुनो, कब तक रुदन करोगे, अधिक बिकृत, अवांछनीय रूप प्रस्तुत किया है । स्वर्गलोक से अधिक 6 माह । मृत्यु मित्र है। उससे इतने का वैभव उनके चरणों की धूलि है। बिना भीत होने की आवश्यकता नहीं। दिगम्बरत्व धारण किये मुक्ति कहाँ ? धन्य हो देवि, तुम्हारे कारण उन पवित्र आत्माओं का देवता-क्या मृत्यु मित्र है ? स्मरण करने का सौभाग्य मिला। प्रीतंकर-मृत्यु मित्र भी है और शत्रु भी । सहसा समीप से करुण चीत्कारों की ध्वनि मित्र उनकी है, जो निर्भय हैं, शत्रु उनकी है जो सुनाई पड़ने लगी। एक देव चीख रहा था, जैसे __ तुम्हारे सदृश भयभीत हैं । बन्धु ! क्या तुम्हें ज्ञात है, पूर्वभव में कहां थे? तुम सदैव से देवलोक में उसे कोई पीड़ा पहुंचा रहा हो । देवाङ्गना चकित नहीं हो, कोई भी सदैव से देवलोक में नहीं है । होकर उसे देखने लगी और बोली स्वामि ! यह जब थे नहीं-तब आये, और जब आये हो तो स्वर्गलोक है, आधि-व्याधि का कोई भय नहीं। जानोगे अवश्य । प्रज्ञा को जागृत करो ! सम्यक् भूख-प्यास को यहाँ स्थान नहीं, फिर यह किस दर्शन का सूत्र पकड़ो। मृत्यु तुम्हारी मित्र बन पीड़ा से दुःखी है। जायेगी । अपनी मानसिक शांति के लिये इस मंगल सूत्र का स्मरण करो प्रीतंकर-देवि, सबसे बड़ा दुख है मृत्यु । और नमस्कार श्री अरिहंतों को यह मृत्यु के भय से दुःखित है। जीवन की समाप्ति का संकेत देने वाली इसकी माला का सुरभित सुमन सिद्धि प्रदाता सिद्धों को प्राचार्यों को आज म्लान हो गया है। प्रायु की समाप्ति में अब उपाध्यायों ... को केवल 6 माह शेष हैं। सर्व लोक के सन्तों को 3-4 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रीतंकर देव इस अनादि मंगल सूत्र को दोहराते रहे । मरणभीत देव उसका अनुसरण करता रहा । उसका कंपम बन्द हो गया। पीड़ा विलीन हो गई । देवांगना मंत्र के प्रभाव से प्रभावित थी । चकित दृष्टि को देखकर प्रीतंकर देव कहने लगेदेवि ! यह मन्त्र अद्भुत है, अनादि है, सबसे सरल और सबसे दुरूह है ! इसका महत्व समझने में बड़े बड़े विद्वान् भी चूक जाते हैं । इसके दोनों छोर दो पृथक् पृथक् संकेत देते हैं । मन्त्र के शिखर से चरण की ओर बन्दना का क्रम है और चरण से शिखर की मोर साधनाका । देवाङ्गना- स्पष्ट करे देव ! प्रीतंकर - बहुत सरल बात है देवि । जब नमस्कार करना है—–अरहन्त, सिद्ध, प्राचार्यों, उपाध्यायों और सर्वलोक के सन्तों को नमस्कार करें, किन्तु जव प्राचरण में उतारना हो तब प्रथम दिगम्बरी दीक्षा धारण कर श्रमण बनो । श्रात्मज्ञान उपलब्ध करो और भव्य जीवों को उपदेश का अमृत वितरित कर उपाध्याय बनो तत्पश्चात् ज्ञान को उपलब्धि कर प्राचार्य पद प्राप्त करो । मुक्ति के मार्ग पर स्वयं बढ़ो और संघस्थ श्रमणों को उस पथ पर बढ़ने के लिये प्रेरित करो। फिर सिद्धत्व की प्राप्ति करो। समस्त ग्रहन्त सिद्ध होते हैं किन्तु सर्व सिद्ध अर्हन्त नहीं होते । अर्हन्त आत्मा की शुद्धतम अवस्था को स्वयं तो उपलब्ध करते हैं, साथ ही धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं । इसलिये क्रम में प्रथम हैं । देवाङ्गना -- यह मन्त्र प्रदभुत | देव ! मुझे भी कंठस्थ करायें । प्रीतंकर का अधिकांश समय जिन भक्ति में, प्रात्मचिन्तन में व्यतीत हो रहा था अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना करते समय देवांगना प्राय: प्रीतंकर देव के साथ रहती पर प्रीतंकर का निर्जीव मूर्तियों के समक्ष यो श्रद्धानत होना उसे निष्प्रयोजन लगता । एक दिन जिनवन्दना करते समय उसने महावीर जयन्ती स्मारिका 78 अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुये कहाँनिश्चित ही ये वीतराग मूर्तियां मनोज्ञ, भव्य और अनुपम हैं, पर देवता का निर्जीव मूर्तियों के चरणों में नत होना क्या अन्धश्रद्धा नहीं है ? प्रीतंकर - देवि, तुमने भ्रमों के अनगिन श्रावरण पाल रखे हैं | चेतन स्व के श्रागे विनत था । शुद्ध आत्म की भक्ति में लीन था । वह निर्दोष वीतरागी दर्पण में अपने विम्ब की तुलना कर रहा धा-कि प्रभु ! तुम जैसा बनने से कितनी दूर हूँ ? आत्मा जब तक स्व-चिन्तन में लीन होने की स्थिति में न पहुंचे, तब तक मूर्ति का निमित्त अनिवार्य है देवि ! जब आत्मा स्व श्रभा से दीप्त हो उठती है तब किसी निमित्त, किसी पराये द्रव्य की आवश्यकता नहीं रहती ! उपासना भी एक कला है, कर्मों को काटने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है। प्रीतंकर की दिनचर्या देवताओं में चर्चा का विषय था । उनका जीवन-शांतिपूर्ण ढंग से धार्मिक रीति से व्यतीत हो रहा था । में प्रीतंकर एक दिन एक सघन वृक्ष की छाया कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े दिखे। उनकी देवोचित कान्ति निस्तेज पड़ने लगी किन्तु नयनाभा द्विगुरिणत हो उठी । उनकी आयु पुष्प की माला के सुमन सूखने लगे थे । -- वाणी क्षीण पड़ गई थी किन्तु उनके अधरों से प्रस्फुटित शब्द निर्भर की भांति सतत् प्रवाहित हो रहे थे केवलिपण धम्मं सरणं पव्वज्जामि, देवलोक के अनेकों देवता उन्हें घेरे खड़े थे, मृत्यु श्राई, निश्शब्द पदचाप से आई, किसी को उसके माने की भी ग्राहट नहीं हुई और वह प्रीतंकर को साथ लेकर चली गई। शेष रह गई देवतानों के मध्य प्रीतंक की कीर्ति । जो देवलोक में भी मृत्यु अभय होने का वरदान दे रही थी । पर महावीरत्व की खोज में प्रीतंकर की प्रात्मा प्रिय मित्र चक्रवर्ती के रूप में मनुष्यलोक में अवतीर्ण हुई। 03-5 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहानी गाचर्य दिखने लगा था। . . अहसान श्री सुरेश 'सरल' सरल कुढी, गढ़ाफाटक जबलपुर (म. प्र.) 'बर्तन मल रही हो?' . शेष थीं, अतः संध्या से फिर पूछने लगा-'ये लोग बड़ी कड़ी और परिश्रमी होती हैं, सुबह बच्चा 'जी हां, महरी के पेट में दर्द है।' होना है और शाम तक बर्तन मलती रहती हैं घरों 'दर्द?' सुधीर ने-दर्द का उच्चारण इस घर ।' तरह किया था, जैसे विश्व में पहली बार वह दर्द न होता तो वह कल सुबह तक मलती।' किसी महरी के पेट में दर्द की बात सुन रहा है। उसके चेहरे के भाव से यह स्पष्ट भी हो रहा था 'अच्छा ?' इस बार सुधीर के प्रश्न में बनाकि महरी जैसे तबके की श्रमिक पुत्रियों को घर वटी आश्चर्य दिखने लगा था। में बैठकर दर्द नहीं मनाना चाहिये । फिर बात मागे बढ़ाने की गरज से बोला- 'पेट में दर्द, बर्तनों से निवृत होकर संध्या ड्राइग रूम में गई, सुधीर उसकी प्रतीक्षा करता हुआ, मूछों की काली चमक निहार रहा था दर्पण में । संध्या ने - हा हा..... समय पूरा पूरा हो गया है।' उसके जूतों के बंध खोलते हुए कहा-'न हो तो सुधीर का मंतव्य संध्या समझ गई थी अतः बीच - डिलीवरी के बाद महरा के शिशु को कोई सस्ती में ही बोल पड़ी-'शायद कल-परसों तक डिलीवरी सी गिफ्ट अवश्य दीजिये ।' होना चाहिए।' ... क्या दे सकता हूं', कुछ सोचता सा सुधीर 'अच्छा तो आप लोग तारीख घण्टे मिनट कुर्सी पर बैठ गया, फिर, जैसे कुछ याद हो पाया सब कुछ नोट कर रखती है ?' सुधीर ने एक हो, ....... ठंड काफी - पड़ने लगी है, सोचता, शरारत उछाली थी। .. हूं, दस रुपये की गरम बनियान खरीदकर दे दी ... - इसमें नोट करने की क्या बात है। नियति जावे ।। और स्मृति के बीच की बातें हैं ये ।' 'सात आठ में नहीं मिलती ? . सुधीर ने इस टापिक को यहीं छोड़ देना संध्या का प्रश्न पूरा नहीं हो पाया था कि पाहा, मगर शायद अभी कुछ जिज्ञासायें और मांजी ने घर में प्रवेश किया, संध्या का प्रश्न जैसे क्या .......' 3-6 महावीर जयन्ती स्मारिका 28 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर से ही सुनती पा रही हो अतः दोनों की तरफ 'सुधीर भाई नमस्कार, कपड़े ले रहे हो क्या संकेत कर पूछने लनी-'क्या नहीं मिलती सात यहां से ?' पाठ रुपये में ?' 'नमस् ...........नमस्कार भाई।' इस नममां के प्रश्न, जिसमें जिज्ञासा के साथ सास- स्कार में नमस्कार कम शर्म ज्यादा थी। जैसे दूध सुलभ बहू को ताड़ने की धारणा भी सम्मिलित बादाम पीने वाला कलारी, में देख लिया गया हो। थी, पर सुधीर बोला-'मां महरी है न, उसके कुछ झेपते हुए सुधीर आगे बोला-अरे नहीं होने वाले बच्चे के लिए बनयान खरीदने की बात यार"" बस जरा या हा चल रही थी।" 'यों ही कैसे ? मैं तो भाभी को बतलाऊंगा कि 'क्या बन यान खरीदने के चक्कर में पड़े हो ?' भाईजान फुटपाथ से खरीदकर लाये हैं बनयान ।' मां ने मसले को जरूरत से ज्यादा सामान्य निरूपित करते हुए बतलाया 'यदि चौक-पर्व पर उसका -"अबे भाभी को नहीं ले रहा' कहकर सुधीर बुलावा आये तो सीधे नगद पांच रुपये पहुंचा पापोंग्राप अटपटा गया। उसका उच्चारण जाम देना ।' मां की वार्ता में घुला दम्भ संध्या के दम्भ सा हो गया, उसे क्षणभर को लगा उसका स्तर से गाढ़ा प्रतीत हो रहा था। तब तक महरी फुटपाथी है । अपने मित्र से बहुत हलका है । तब की आठ वर्षीय बच्ची ने पाकर हंसते-हंसते बताया। . तक उसे कुछ सही. उत्तर याद आया । वाणी में "माई को लड़की हुई है।" इ ना कहकर वह ठोसता और गंभीरता लाकर कहने लगा--'यार, ! चिड़िया की तरह उड़ गई । लड़की पैदा होने की हमारा र हमारी महरी को बच्ची हुई है, मैं सोचता हूं कि बात सुनकर तीनों को दुःख हया । फिर माने एकाध दस-पद्रह रुपये की बनयान दे दूँ उसे, हिसाब लगाया-प्रब उसको पांच लडकियां हो गई ताकि ठंड से निपट सके।' सुधीर पांच-छः के स्थान भगवान का भी कैसा न्याय है, लड़का पहिले हुना पर दस-पन्द्रह रुपये कहकर अपने आपको बड़ा था सो छीन लिया, अब देने का नाम नहीं लेते, न दानी और स्वाभिमानी विज्ञापित कर रहा था गरीबी में गीला आटा कर रहे हैं उसका ? . मित्र के सामने । मित्र के चले जाने के बाद सुधीर ने हाथ में ली हुई बनयान जहां की तहां रख दी लड़की के जन्म की खबर से तीनों को दया और खाली हाथ घर भाग गया । दुकान से हटने हो पाई महरी पर । अतः दया दिखाते हुए मां के बाद उसे खुशी हुई थी कि एक से अधिक परि. बोली-ठीक है सुधीर पांच-छः रुपये की बनयान ला चित नहीं देख पाये उसे, वहां । उसने मां एवं पत्नी. देना, मैं पहुंचा दूगी उसके घर ।' सुधीर ने को बतलाया कि फूटपाथ पर भी दस रुपये से कम आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा-'मां पांच-छः रुपये में की बनयान नहीं मिलती । फिर उन्हें, मित्र के कहां मिलेगी ?' मां ने फिर सहजता से समाधान मिलने की घटना और अपना रोबीला उत्तर बतप्रस्तुत किया-'अरे पगले' आज कल सड़कों के लाते हुए अपनी योग्यता पर हंसता रहा । हंसतेकिनारे कितनी दुकानें लगती हैं कोट और बनियानों हंसते ही उसने कहा-- 'मां मुझे फुटपाथ से खरीदने की ?' मां का यह प्रश्न अपने आप में विशेष उत्तर में शर्म आती है, कोई फिर देख लेगा। न हो तो की परिभाषा सार्थक कर रहा था जिससे मां और महरी को कुछ पैसे देकर बोल देना कि वह खरीद संध्या को राहत सी मिली थी। लाये एक बनयान ।' मां को यह प्रस्ताव अच्छा : जयन्ती स्मारिका 78 .. 3-7 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामने। लगा। उसे सुधीर की खोखली शान पर ग्लानि अच्छा हुमा, गरीबी में लड़कियां कैसे सम्हलती नहीं पाई मन में, बल्कि वह उसकी सूझबूझ पर महरी से। खुद के खाने-पहनने को कुछ नहीं है, काफी प्रसन्न हुई। पांच-पांच को क्या देती रहती ?' बातों का क्रम अभी समाप्त नहीं हुआ था, संध्या और सुधीर सहज ही मां का समर्थन इस बीव महरी की वही बच्ची मुंह लटकाये हए करने लगे थे। अनुभवियों का समर्थन करने वाले पाई और मौन तोड़े बगैर खड़ी हो गई उनके भी अनुभवी मान लिये जाते हैं न ? अगले सप्ताह महरी काम पर पाई तो तीनों 'क्या हुआ रधिया ? भूख लगी है क्या ?' । ने उसकी बच्ची की मृत्यु पर खेद प्रकट किया। महरी चुपचाप बर्तन मलने लगी। मां ने पूछा'नहीं।' 'कैसी थी री वह ?' महरी कुछ न बोली, उसके 'तो फिर मुंह क्यों लटका है तेरा ?' उत्तर की शायद आवश्यकता भी नहीं है मां को, सुधीर को या संध्या को। अतः मां ने अपनी ही बात राधिका सुबक-सुबक कर रोने लगी थी। फिर प्रांगे बढ़ाई-'हम लोगों ने तो उसके चौक पर्व पर बोली-'छोटी बैया मर गई ?' दस-बीस रुपये की बनियान देनी सोची थी, पर 'कौन ? जो अभी पैदा हुई थी?' क्या करें, तकदीर ही खराब थी।' ___ मां की भाषा किसी व्याकरण सिद्ध पुरुष की 'हां।' तरह थी। यह उनकी दृश्य-वीणा का घमंडवाला 'कैसे? तार था । “तकदीर ही खराब थी" का तात्पर्य उस बच्ची की तकदीर से था जो उनकी दान की 'सर्दी लग गई थी, रधिया वाक्य पूरा कर बनयान पहने बर्गर मर गई थी और दस-बीस रुपये प्रांसू पोंछ रही थी। के उच्चारण से वे उस मात्रा में जहां अपने भीतर ___ तीनों च च च करने लगी। तीनों बारी-बारी ___ की दया प्रगट कर देना चाह रही थी वहीं अपना अपनी सहयोग की भावना महरी से कह देने के . अहसान भी थोप देना चाहती थीं। मूड में जो थे। वे चाहते थे कि महरी पर उनकी महरी यह सब कुछ चुपचाप सुने जा रही एहसान-योजना का प्रारूप, मूल्य और समय जाहिर थी? शायद उसे यह भी ज्ञात नहीं था कि वह हो जाय । अनुभवशील-मां पहिले बोली-'चलो दुनिया के एहसान से दबते-दबते बच गई है। ३-8 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर प्रश्न चिन्हों के घेरे में ? डा० राजेन्द्रकुमार बंसल, कार्मिक अधिकारी, मेसर्स प्रो० पी० मिल्स लिमिटेड, शहडोल (म०प्र०) भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण समग्ररूप से महावीर का दर्शन गुण परक है महोत्सव की स्याही अभी सूख नहीं पायी थी कि न कि व्यक्ति परक । जो, जब और जिस समय उनके सिद्धान्तों, आदर्शों एवं प्राणिमात्र के कल्याण से अपने प्रात्म स्वरूप को पहिचान कर उसे परक उपदेशों पर उनके ही प्राराधकों, और प्राप्त करने का प्रयास करने लगता है वही उनका पाराधक ही नहीं किन्तु 'विद्यमानविपरमेष्ठियों' अनुयायी कहा जाता है । यही वस्तुस्थिति एवं द्वारा अनेक प्रश्न चिन्ह लगा दिये गये हैं। सम्यक् परम्परा चली आयी है जाति, लिंग, कुल यह घटना अभूतपूर्व एवं विस्मयकारी अवश्य है एवं राष्ट्रीयता आदि कोई तत्व इसमें बाधक नहीं जिसकी मिसाल श्रमण संस्कृति एवं जैन इतिहास यहां तक कि गति भी इसमें बाधक नहीं होती, में मिलना असंभव ही है। ___ अन्यथा संज्ञी पशु जैसे जैनत्व स्वीकार पाते। महावीर अद्वितीय क्रांतिकारी एवं महान प्रकारान्तर से वीतरागी, वीतद्वषी एवं आध्यात्मिक श्रमण थे । वे करुणा, समता, वीतमोही महावीर की आत्मा की ओर जो समर्पित समानता , समन्वय अशोषकवृत्ति एवं अणु अणु होता है, और उसी अनुरूप बनने का प्रयास की स्वतंत्रता के महान प्रकाश स्तंभ थे। इन आदर्शों करने लगता है, वही उनके शासन के अन्तर्गत एवं ज्ञान-पानन्द स्वभाव को प्राप्त करने के लिये प्राया माना जाता है । जो अपने निरपेक्ष सत्ता उन्होंने मानव समाज का ध्यान आत्मनिष्ठा की अर्थात् आत्म गुणों को मान्य करता है, वही प्रोर केन्द्रित किया । यदि व्यक्ति प्रात्मनिष्ठ महावीर का सच्चा भक्त है । यह प्राणी के (न कि स्वार्थी) होकर अपने प्रात्मस्वभाव को विवेक पर निर्भर करता है कि वह अपनी निज मात करते देत अनादिकालीन कमजोरियों पर मला को स्वीकारे और महावीर के शासन का प्रात्म से उत्तरोत्तर दृष्टि उठाता गया, तो वह इन वैभव पावे । गुणों को सहज प्राप्त कर लेगा और आत्म विकास के चरम बिन्दु पर पहुच कर स्वयं परमात्मास्वरूप कुछ व्यक्तियों ने अपनी संकीर्णता एवं बन जायेगा । यह था महावीर का संदेश एवं स्वार्थपरतावश दूसरों को महावीर के अनुयायी शिक्षा जिसमें व्यक्ति दूसरों की अपेक्षा स्वयं होने या नहीं होने का प्रमाण-पत्र देना शुरू कर को जीत कर प्रात्म विजेता महावीर बन दिया है । उन्हें अपनी स्वयं की स्थिति का तो जाता है। कोई ध्यान नहीं कि वे क्या हैं ? और किस भाव महावीर जयन्ती स्मारिका 78 3-9 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि पर खड़े हैं किंतु उन्होंने दूसरों के जैनत्व निर्वाह कर अपने को विष्णकुमार की श्रेणी में कानिरर्णय करना शुरू कर दिया है । स्वयं तो मान रहे हैं । वती वेष की घोषणा कर असदाचारी एवं अनैतिक जीवन यापन कर रहें हैं किन्तु व्रत विहीन सदा- एक महाश्रमरण यशोधर थे, जिन्होंने श्रेणिक चारियों पर छीटा कसी करने पर तुले हैं । द्वारा डाले गये मृत सर्प की प्रतीव वेदना के बाद इस प्रकार प्राणी मात्र के प्रात्म कल्याण की परिषह समाप्ति पर करुणा भाव से 'धर्म वद्धि' घोषणा करने वाले महावीर के वंशानवंशी कधित मंगल संदेश दिया था। दूसरी ओर वर्तमान के अनुयायी संकीर्णता, क्षुद्रता, विग्रह, मोह, लोभ, कतिपय साधु संघ हैं जो विद्धमान' तीन परमेष्ठियों असमानता, एकान्तवाद परतंत्रता एवं शोषकवृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, इन्होने अध्यात्म धारा के प्रतीक बन कर अपनी इन विराधक प्रवृत्तियों में प्रवाहित महावीर के आदर्शों को पठन, मनन, पर महावीर का लेबिल चिपका रहे हैं और एवं चिन्तन में निमग्न जैन-जनेत्तर के विशाल उन्मादी गज के समान व्यवहार कर रहे हैं। समूह को बिना प्रत्यक्ष में जाने पहिचाने 'बहिष्कार' कितना अचम्भा है । 'जल में लागी प्राग' की जैसे कलुषित पादेश बारण से मर्माहत किया है। कहावत चरितार्थ हो रही है। स्वयं तो दिगंबर-श्वेतांबर, स्थानकवासी, महावीर ने अपने सन्वयात्मक दृष्टि से । र तेरहपंथी बीसंपंथी के भेद तथा पद्मावती, क्षेत्रपाल विविध दर्शनों में खोये यात्म स्वरूप को उसकी आदि की मान्यता जैसी स्थूल क्षुद्रताओं एवं कुमान्यताओं से ऊपर नहीं उठ सके किन्तु जिन्होंने समग्रता सहित प्राप्त एवं व्यक्त किया था । अपना परम्परागत पेत्रिक धर्म एवं विश्वास छो! विश्व व्यवस्था का सम्यक् स्वरूप स्पष्ट किया और आत्मा की स्वतंत्र सत्ता एवं स्वशक्ति की कर महावीर के शासन को अपनाया और विकल्पातौर आत्मा को जानने पहिचानने में रस, सार्वभौमिकता को प्रकट कर स्वयं सार्वभौम प्रात्मस्वरूप में निमग्न हो गये । किंतु अब को अजैनत्व का प्रमाण-पत्र देने लने । आत्मस्वरूप की चर्चा सुनते ही जिनके नाक भौह सिकुड़ने महावीर के कथित अनुयायियों द्वारा उनके सर्वकालिक एवं सर्व सदुपयोगी क्रांतिकारी लगते हैं वे अध्यात्म की तत्व चर्चा में व्यस्त जन प्रादर्शों को धूमिल करने का षड्यंत्र किया जा समूह के जैनत्व पर संदेह करने लगे। मिथ्यात्व एवं ब रह कषायों के अभाव के पद का अभिमान करने वाले कथित आत्मसाधक तीव्रद्वेष की अग्नि विकल्पों के द्वद एवं लोकेषणा के जाल में में झुलस रहे हैं । स्थूल क्षुदता, आत्मा के प्रति फंसा गृहस्थ यह सब कुछ करता तब भी ठीक विरक्ति एवं तीव्र कषामों की यह नमूना ही क्या था। किंतु स्थिति तो यह कि कथित विकल्पतीत इन त्रिपरमेष्ठियों के त्याग तपस्या का प्रतिफल प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करने में निमग्न साधूगरण है ? क्या यही उनकी समग्र अजित पूजी है ? भी इस द्वंद में यौद्धा बन कर कूद गये हैं । उन्होंने और क्या यही सच्चा नमूना महावीर की वीतरागी भी जैन, अजैन, निश्चय-व्यवहार एवं पूज्यत्व श्रमण संस्कृति का है ? क्या यही श्रमण एवं अपूज्यत्व के विकल्पों की रण नीति बनाकर वाक श्रावक परम्परा रही है । यह इतिहास मौन है कलम बारण छोड़ना शुरु कर दिया है और साधु किन्तु विद्वान श्रमण ऐसे नवीन इतिहास का धेष में ही महामुनि विष्णकुमार को छन भूमिका शेष पृष्ठ = 16 पर 3-10 महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : राजस्थान जैन सभा द्वारा सन् 1977 में श्रायोजित उच्च माध्यमिक विद्यालय कक्षा तक के विद्यार्थियों की निबंध प्रतियोगिता में प्रथम व द्वितीय स्थान प्राप्त निबंधों को यहां प्रकाशित किया जा रहा है । पाठक इन्हें पढते समय यह ध्यान में रखें कि इनको यथावत मुद्रित किया गया है । प्रधान संपादक विश्व का प्रत्येक प्राणी शान्ति प्रर सुख चाहता हैं, इसके लिए वह मनन चिंतन भी करता हैं । विश्व में समय - 2 पर अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने मनन चितन द्वारा अपनी 2 विचार धाराएँ विश्व के सम्मुख रखी हैं, जिन्हें व्यक्तियों ने अपनी 2 विचार धाराओं पर मानी हैं । हमारे देश भारतवर्ष में भी समय-2 पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लेकर अलग-2 विचार धाराएं रखी हैं । भगवान महावीर ने आज से 2575 वर्ष पूर्व इस वसुन्धरा पर जन्म लेकर अपने मनन, चिंतन एवं तपोबल द्वारा 'केवल्य ज्ञान' की प्राप्ति की, और प्राणियों को जिनका उद्देश्य 'शान्ति एवं सुख प्राप्त करना' को अपनी विचारधारा दिव्य ध्वनि द्वारा दी । भगवान महावीर ने विश्व को आध्यात्मिक शक्ति का वह अमोघ मंत्र सिखलाया जिसके द्वारा महात्मा गांधी ने सशस्त्र ब्रिटिश सेना को बिना किसी क्रांति के भारत छोड़ने को मजबूर कर दिया । भगवान महावीर के सिद्धान्त धार्मिक क्षेत्र में ही नहीं अपितु व्यवहारिक क्षेत्र में भी अत्यधिक उपयोगी हुए हैं। उन्होंने बताया कि वाणी में महावीर जयन्ती स्मारिका 78 श्री जिनेद्रकुमार सेठी श्री. म. दि. जैन उच्च मा. विद्यालय स्यादवाद जीवन में अपरिगृह व्यवहार में अहिंसा तथा विचारों में अनेकान्त का प्रयोग करना चाहिए । श्रहिंसाः हिंसा के द्वारा विश्व के सम्मुख रखी सबसे बडी समस्या का हल हो सकता है। महावीर ने अहिंसा का अन्य महापुरुषों से अलग रूप दिया है । उन्होंने हिंसा के बारे में बताया कि किसी के में मन में खोटे भाव की उत्पत्ति ही हिंसा है । उदाहरण के तौर पर एक बधीर ( मछलियों को पकड़ने वाला ) दिन भर जाल को पानी में फेंककर भी मछली नहीं पकड़ पाता तो भी वह हिंसक कहलायेगा क्योंकि उसके मन में मछली पकडने की इच्छा रहती है जबकि एक डाक्टर के द्वारा अप्रेशन करते हुए एक मरीज मर भी जाये वह हिंसक कहलायेगा क्योंकि उसके मन में मरीज के प्रति कोई द्वेष का भाव नहीं होता है । हिंसा का अर्थ भय से नहीं लिया जा सकता है । भय मनुष्य को मन को ही नहीं श्रपितु शरीर से भी कमजोर बना देता है । श्रहिंसक तो अभय होता है । और अभयदान 3-11 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अमृत वितरित करता है । ग्रहिंसा में पूर्ण विश्वास ही आत्म-विश्वास का चरम बिन्दु है । हिंसक प्रभैय होता है, उससे श्रात्म-विश्वास होता है और वह मानसिक रूप से सुखी होता है । (2) अरिग्रह - अपरिग्रह की परिभाषा यदि ध्यान, मनन व चितन के द्वारा सोचें तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते है कि माननीय दैनिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त जो भी धन शेष बचता है उसे जन कल्याण के लिये खर्च करना ही अपरिग्रह कहलाता है, अपरिग्रह की पृष्ठभूमि यही है । मानव मन में धन संचय के भाव भी उत्पन्न न होने चाहिये । व्यक्ति धन संचय को सुख की दिशा से लेता है लेकिन सुख व दुःख तो मन के प्रांतरिक अनुभव के विषय हैं यदि धन ही सब कुछ होता और इसी से सुख मिलता तो आज विश्व में अनेक धन्ना सेठ दुःखी न होते व अनेक गरीब सुखीं न होते । उदाहरणतया तीन व्यक्ति 'प्र, 'ब' एवं 'स' समान उम्र के हैं इनमें से प्र-ग्राफिसर, बक्लर्क एवं स - चपरासी (नौकर ) है । जब 'ब' (क्लर्क) 'अ' (ग्राफिसर ) को देखता है तो अपने को दुःखी अनुभव करता है परन्तु (चपरासी) को देखता है तो सुखी अनुभव करता है । जब 'स' इस प्रकार धन का सुख व दुख से कोई सम्बन्ध नहीं है है । यह जरूर है कि धन से कुछ समय के लिए बाह्य भोतिक सुख मिल सकते हैं । (3) अनेकान्त - प्रत्येक वस्तु में अलग- 2 तरह के गुण होते हैं उन गुणों को अलग - 2 दृष्टी से देखकर उसके गुणों को अध्ययन ही अनेकांन्त महावीर जयन्ती स्मारिका 78 कहलाता है । अनेकान्त शब्द बाहुब्रीही समास का है जिसका अर्थ अनेक अनेकान्त किसी वस्तु के बारे में एक संकुचित दायरे से निकल कर एक अनेक विचारों के दृष्टिकोण में परिवर्तित करता है एवं वस्तु स्थितिमूलक के मतों का समन्वय करता है । (4) स्याद्ववाद ---में दुसरो के विचारों को सुनकर अपने विचार से उसके समन्वय करने की क्षमता स्याद्ववाद कहलाती हैं । अर्थात जो मैं कह रहा हूं सही नहीं है पितु जो दूसरा कह रहा है वह भी सही हो सकता है । यह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है । एक वैज्ञानिक के लिये आवश्यक है कि वह सभी के विचार सुन अपनी परिकल्पना बनाये । (5) तत्व - ज्ञान - महावीर भगवान ने प्राज से 2500 वर्ष पूर्व ही बता दिया था कि ना तो किसी तत्व की उत्पत्ति की जा सकती है ना ही किसी तत्व को नष्ट किया जा सकता यद्यपि वह तत्व भिन्न - 2 रूपों में रह सकता है । यह सिद्धान्त विज्ञान की कसौटी से सही उतरता हैं । उन्होंने इसे 2000 वर्ष पूर्व ही बता दिया था जब कि विज्ञान के समुचित साधनों द्वारा भी इसको 100 वर्ष पूर्व ही ज्ञात कर सके इसी प्रकार जल छान कर पीना चाहिये क्योंकि उसमें सुक्ष्म - 2 जीवाणु होते हैं । इसी प्रकार पेड़ पौधों को नहीं सताना चाहिये उन्हें काटना नहीं चाहिए । यह उन्होंने 2500 पूर्व बता दी थी जबकि विज्ञान उसे अभी खोज कर पाया । महावीर स्वामी के सिद्धान्त वैज्ञानिक कसौटी पर पूर्ण रुपेण सही उतरते हैं । ( 6 ) कर्म सिद्धान्त - भगवान महावीर ने बताया कि व्यक्ति अच्छे व बुरे कार्यों के प्रति स्वयं जिम्मेदार होता हैं । कर्मों का निर्माण करने वाली कोई अन्य प्रलोकिक शक्ति नहीं होती 1-12 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर को देन आज विश्व में चारों ओर प्रशति संघर्ष, वैमनस्य का वातावरण है । ऐसे में यह प्रश्न विचारणीय है कि किस प्रकार विश्व में शाति स्थापित की जाये । इस सन्दर्भ में जब हम भगवान महावीर के सिद्धान्तों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि यदि इन सिद्धान्तों को श्राज भी मनुष्य द्वारा अपनाया जाये तो उसके जीवन में शांति श्रा सकती है तथा वह विश्व में शांति स्थापित करने की ओर अग्रसर हो सकता है । भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन कुण्डग्राम में हुआ था । इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था । महावीर बचपन से ही चिन्तन शील थे । वे सन्यास ग्रहण करना चाहते थे । किन्तु वे माता-पिता की मृत्यु के पहले सन्यास लेकर उनको नाराज नहीं करना चाहते थे । इसलिये 30 वर्ष की उम्र में माता-पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने ग्रहस्थ जीवन छोड़ दिया तथा सन्यास ग्रहण कर लिया । उन्होंने 12 वर्ष तक कठोर तपस्या की । 42 वर्ष की उम्र में उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया । इसके बाद उन्होंने 30 वर्ष तक लोगों की सेवा की क्योंकि अब उनको पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया था । महावीर के सिद्धान्त बहुत ही दिव्य उज्जवल तथा पुन्यीत हैं । वे किसी विशेष सम्प्रदाय के नही अपितु प्राणी मात्र के लिये हैं । ये सिन्द्धात महावीर जयन्ती स्मारिका 78 . श्री संजय जोरिया खंडेलवाल वैश्य केन्द्रीय उच्च माध्यमिक विद्याय जयपुर आज भी उतने हरीणा दायक हैं जितने की भूतकाल में थे और युगों युगों तक रहेंगे। भगवान महावीर ने अपने सिद्धान्तों में मनुष्य को सच्चाई ईमानदारी एवं अहिंसा से जीवन बिताने को कहा है । उनके सिद्धान्तों के सार निम्न हैं: 1. अपने मन, वचन एवं कार्य से किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुंचाओ । 2. अपनी आवश्यकता से ज्यादा संचय न करो । 3. अपने कुल एवं जाति पर अभिमान न करो । 4. सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखो । 5. त्याग पूर्वक परिमित वस्तुनों में जीवन व्यतीत करो | 6. अच्छा स्वास्थ्य एवं पवित्र मन रखो । 7. क्रोध, अभिमान माया व लोभ को काबू में रखो । 8. परिग्रह हानिकारक हैं। इससे मन, वचन तथा कर्म ख़राब हो जाता है । उपरोक्त सिद्धान्तों को अपनाकर मनुष्य जीवन में सुखी, शान्त तथा सच्चरित्र हो सकता है तथा साथ ही विश्वशांति की ओर भी अग्रसर हो सकता है। भगवान महावीर ने मनुष्य को जीवन में शारीरिक हिंसा को रोकने के उपाय, समानता के भाव, धार्मिक सहिष्णुता एवं सहअस्तित्व की भावना आदि बताये हैं । वैचारिक हिसा को रोकने के लिये उन्होंने अनेकांत का 3-13 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान सिद्धान्त विश्व के समक्ष रखा। इस प्रकार विश्व शांति के लिये उन्होंने समता भाव धार्मिक सहिष्णुता एवं सह अस्तित्व आदि प्रादर्श हमारे सामने रखे । उन्होंने ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी भूलों के कारण दुखी है और वह उनमें सुधार करके सुखी हो सकता है । महावीरजी ने बताया कि शांति की प्रतिष्ठा के लिये संघर्ष का मार्ग नहीं बल्कि शांति का मार्ग अपनाना चाहिये । संक्षेप में सभी जीवों को अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य के अनुसार महावीर के सिद्धान्तों को अपनाना चाहिये तभी विश्व में शांति स्थापित हो सकेगी । जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर भी परमात्मा की भांति पूज्य हुए हैं क्योंकि उन्होंने आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनावरण किया तथा रुढिवाद में जकडी जनता को तर्क पूर्ण भक्ति का सही मार्ग दिखाया । महावीर ने विश्व में शांति स्थापित करने के प्रयत्न के साथ 2 लोगों को ईमानदारी, सच्चाई, अहिंसा तथा बह्मचर्य का महत्व भी समझाया। महावीरजी ने जीवन भर लोगों की सेवा की । : उन्होंने अपने उपदेशों में लोगों को हमेशा, सत्य, अहिंसा, ईमानदारी व बह्मचर्य आदि का महत्व समझाया । उनके उपदेश निम्न हैं 1. सत्य 2. अहिंसा 3. ईमानदारी ब्रह्मचर्य तथा 5 अपरिग्रह अर्थात किसी भी प्रकार की धन, दौलत एवं जायदाद की इच्छा न करना । 4. जो व्यक्ति पूर्ण सत्य, पूर्ण अहिंसा, पूर्ण ईमानदारी, पूर्ण ब्रह्मचर्य तथा पूर्ण अपरिग्रह का व्रत स्वीकार करते हैं वही सच्चे साधु हैं । वे किसी भी वस्त का अपनी नहीं कहते हैं । महावीरजी ने कहा है कि ये पांच सिद्धान्त ही मनुष्य के सही जीवन के आधार हैं । जीवन 3-14 में इन गुणों को अपनाना चाहिये । महावीरजी के इन उपदेशों का सभी जगह स्वागत हुआ । कुछ राजाओं ने इन सिद्धान्तों को स्वीकार किया तथा उनका प्रचार भी करवाया । महावीर ने इन्द्रीय सुख को खराब बताया। उन्होंने कहा कि इससे मनुष्य में आलस आ जाता है तथा मनुष्य जीवन के गलत मार्ग पर चल पड़ता है । महावीर लोगों की सेवा करते करते अन्त में 72 वर्ष की उम्र में पावापुरी नामक स्थान पर निर्वाण को प्राप्त हुए । उनकी मृत्यु के बाद उनके आदर्शों सिद्धान्तों तथा उपदेशों के आधार पर जैन धर्म बना | जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म हैं जिसमें अहिंसा पर सबसे अधिक जोर दिया गया । अन्य धर्मों में अहिंसा पर इतना जोर नहीं दिया गया है तथा नही इसमें रूचि दिखाइ । जैन धर्म की एक श्रौर विशेषता अपरिमित कष्ट सहना हैं जैन धर्मादियों का कहना है कि जैन धर्म बहुत पुराना धर्म है । यह धर्म सभी धर्मों से अलग है । यह धर्म युगों युगों तक रहेगा । इस धर्म का आज भी उतना ही महत्व है जितना कि भूतकाल में था और युगों-युगों तक रहेगा । जैन धर्म सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है । इस धर्म के सिद्धान्तों के अपनाकर मनुष्य का जीवन सुखी व समान हो सकता है । आज सभी धर्मों में जन धर्म का महत्व हैं। महावीरजी ने कहा है कि मनुष्य को कभी भी क्रोध, अभिमान लालच तथा आलस नहीं करना चाहिये । ऐसा करने से मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन खराब हो जाता है और मनुष्य गलत कार्य करने लगता है । एक वैज्ञानिक ने कहा है कि संघर्ष प्रकृति का नियम है । इसी बात पर महावीर ने कहा है कि प्रत्येक कार्य में संघर्ष तथा कठिनाइयां आती हैं लेकिन मनुष्य को इससे घबराना नहीं चाहिये । बल्कि उसको धैर्य पूर्वक इन कठिनाइयों का सामना करना चाहिये । महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबसे पहले हमें दुराग्रह छोड़ना चाहिए प्रातःकाल अर्चना - वन्दना करने वाले जैनों को यह मानना चाहिए कि भगवान् महावीर के समस्त भक्त एक हैं और उनकी मान्यता सर्वत्र समान हैं । भेद-भाव करने वाले वे धर्म नेता हैं। जो धार्मिक व्यापकता से अनभिज्ञ हैं । क्षणभंगुरप्रतिष्ठा के मोह को छोड़कर इन धर्म-प्रधानों को जनता के हित की निरन्तर चिन्ता करनी चाहिए । जीव मात्र के हितैषी भगवान् महावीर का दिया हुआ प्रनेकान्त-वाद सचमुच हमें बरदान के रूप में मिला है । सैद्धान्तिक रूप से जिस ने इसके महत्व को समझ लिया है वह कभी भी जैनों के विभिन्न सम्प्रदायों को सत्य मान ही नहीं सकता । हमें आज इस सत्य को अपनाने की विशेष रूप से आवश्यकता है कि मनुष्य मात्र श्रहिंसक 3-15 है, वह सर्वप्रथम इंसान है और इसके उपरान्त वह और कुछ हो सकता है । सब जैन भगवान् महावीर के उपासक हैं, प्रो० श्री वन्द्र जैन उनके सिद्धान्तों के मानने वाले हैं एवं उनकी निष्पक्ष मान्यताओं के अविचल विश्वासी हैं । मतभेद का केवल एक कारण है, और वह दुराग्रह के प्रति मूढ़ व्यामोह | यह हमारे लिए विपत्ति का संकेत है विनाश का शंखनाद है, मानवता के विध्वंस का केतु है । सब प्रकार के दुराग्रहों को भुलाकर यदि हम सब एक न हुए तो यह निश्चित है कि हमारी परिस्थिति गिरते हो जावेगी, उस समय हमें अपने अस्तित्व का गिरते एक दिन विनाश के महासागर में विलीन भी बोध न रह सकेगा । अभी भी समय है कि हम प्रांख खोले अपने दिल को टटोलें और आत्म विश्वासी बनकर इंसानियत को अपनावे | महावीर जयन्ती स्मारिका 78 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( पृष्ठ 10 का शेष ) निर्माण कर रहे हैं, जो श्रमण को कलंकित किये बिना न रहेगा । इस प्रकार समग्र रूप से श्रात्म त्रिराधक वर्ग ने महावीर एवं उनके आदर्शों को प्रपनी लोकेषणा की कुटिल चालों में कैद कर दिया है । मौर वह भी महावीर की श्रमण संस्कृति की रक्षा के नाम पर | बाढ़ ही खेत को खाने लगी है । प्रश्न यह है कि जगत के कल्याण का आदर्श प्रस्तुत करने वाले महावीर क्या इतने निर्बल हैं कि वे इस कृत्रिम कैद के बंधन नहीं काट सकते ? कर्म जंजाल की अनंत बेड़ियां काटने वाले महावीर क्या कुछ व्यक्तियों, संस्थानों एवं बाह्याचार में निमग्न साधुत्रों की बेडियां नहीं काट सकते ? यह प्रश्न महावीर के सच्चे अनुयायी का ही नहीं किन्तु इतिहास के माध्यम से मानव जाति को कुरेद रहा है और इस कारण महावीर के दर्शन पर अनेक प्रश्न चिन्ह उभर गये हैं । ( पृष्ठ व्यक्ति जैसे करता वैसा ही पाता है । अच्छे व बुरे कर्म कोई बंधे हुये नहीं होते उनका निर्माता तो वह स्वयं होता है । (7) ऊंच-नीच - भगवान महावीर ने बताया कि सब प्राणियों की आत्मायें समान हैं वर्ण, लिंग, धर्म, समाज कर्म आदि किसी भी तरह से व्यक्ति समान हैं, क्योंकि उनकी आत्मायें समान है इसलिये भेद-भाव न करना चाहिये । उन्होंने तो यहा तक कहा कि चीटी से लेकर हाथी तक श्रात्मा की दृष्टि से समान है । महात्मा गाँधी ने भगवान महावीर के सिद्धान्तों के आधार पर छुआछूत को बंद किया । भगवान महावीर की देन अन्य महापुरुषों से अलग रही । उन्होंने विश्व को श्राध्यात्मिक प्राक्ति का अनुपम पाठ पढाया । उनके उपदेश क्या अनेक प्रश्न चिन्ह के घेरे में एवं बेड़ियों में कैद महावीर को पुनः प्रस्थापित करने उन्हें अवतार लेकर क्रांति करनी होगी, जिसमें जैन दर्शन विश्वास नहीं करता ? यदि ऐसा संभव है तो श्रम के चौराहे एवं ग्रात्म विराधक कषाय पोषक समुदाय से महावीर के शासन की रक्षा एवं विस्तार कैसे हो ? प्रश्न गंभीर एवं निर्णायक है । महावीर के ग्रात्म समर्पित अध्यात्मवादी वर्ग को संपूर्ण सच्चाई सहित प्रयास करना होगा । और स्वयं के भूमिकानुरूप मनोवेगों की भी तिलांजली देकर एक नया आदर्श प्रस्तुत करना होगा जिससे सामान्य नैतिकता एवं सदाचार बाह्याचार में रत समाज नैतिकता युक्त सदाचार एवं भावनयुक्त बाह्याचार के सूक्ष्म अन्तर को स्थूल क्षेत्रों से देख सके और महावीर की कृत्रिम बेड़ियां काट सके । 12 का शेष ) तार्किक व विज्ञान दोनों ही दृष्टि से खरे उतरते हैं । उन्होंने प्रत्येक विषय को अत्याधिक गहराई से सोचा । जो चमत्कार वैज्ञानिक आज कर रहे उन्होंने उसे 2500 वर्ष पूर्व ही कर दिये थे । उन्होंने अन्धविश्वास, रुढिवादियों, हवनों, भेद-भाव आदि का विरोध किया। यदि ग्राज समाज उनके पद चिन्हों पर चले तो उनके प्रत्येक सिद्धान्त से श्रहिंसा से मानसिक सुख व शांति स्याद्वबाद से-वैज्ञानिक दृष्टि को अनेकान्त समन्वयपरकता अपरिग्रह से समाजवाद प्राप्त कर सकता है । उपयुक्त विवेचनाओं के पश्चात यह निर्विरोध सत्य हैं कि आज भौतिकवाद व आणविक युग में उनके सिद्धान्तों को पालन करे तो हम वर्तमान चिंतानों से मुक्त हो कर मानसिक व सुख शांति प्राप्त कर सकेंगे और समाज व देश का कल्याण कर सकेंगे । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ With best compliments from: Ooi kataria COMPANY TRANSPORT O COY GO H.O. 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Maharashtra Rajkot 26231 Indore 32140 Akola 2667 Bhavanagar 5744 Ujjain 606 Ichalkaranji 2781 Surndranagar Burhanpur Sholapur 5083 Nadiad 3004 Amalner Surat 27852 Dhulia Kalol 193 Bhopal 64620 Ratlam Jain Education Internatione vez farzu, #grat qiri, 3-# fa 1 1: 75440