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प्रजापालन --- राजा के राज्य में चारों वर्णों और आश्रमों के लोग उत्तम धर्म के कार्यों में इच्छानुसार सुखपूर्वक प्रवृत्ति करें । वह अपने राज्य का भाइयों में विभाजन कर सुखपूर्वक राज्य का उपभोग करे 136 जिस प्रकार कुम्भकार के हाथ में लगी हुई मिट्टी उसके वश में रहती है, उसी प्रकार बड़े बड़े गुरणों से शोभायमान राजा की समस्त पृथ्वी उसके वश में रहती है । 37 प्रजा के अनुराग से राजा को अचित्य महिमा प्राप्त होती है 138
अन्य गुरण - राजा को प्रान्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्ड इन चार विद्याओं में पारङ्गत होना चाहिए। जिसकी प्रजा दण्ड के मार्ग में नहीं जाती और इस कारण जो राजा दण्ड का प्रयोग नहीं करता, वह श्रेष्ठ माना जाता है ।" राजा को दानी होना चाहिए। श्रेष्ठ राजा की दानशीलता से पहले के दरिद्र मनुष्य भी कुबेर के समान प्राच ररण करते हैं । 40 राजा सन्धिविग्रहादि छह गुणों से सुशोभित हो और छह गुण उससे सुशोभित हों 141 पुण्यवान् राजा का शरीर और राज्य विना वैद्य और मन्त्री के ही कुशल रहते हैं । 42 राजा का धन दान देने में, बुद्धि धार्मिक कार्यों में, शूरवीरता प्राणियों की रक्षा करने में, प्रायु सुख में और शरीर भोगोपभोग में वृद्धि को प्राप्त होता रहता है । 43 राजा के पुण्य की वृद्धि दूसरे के प्राधीन न हो । राजा तृष्णा रहित होकर गुणों का पोषण करता हुग्रा सुख से रहे 144 जिस राजा के वचन में सत्यता, चित्त में दया, धार्मिक कार्यों में निर्मलता हो तथा जो प्रजा की अपने गुणों के समान रक्षा करे, वह राज है । 45 सुजनता राजा का स्वाभाविक गुण हो, प्राण हरण करने वाले शत्रु पर भी वह विकार को प्राप्त न हो । 46 बुद्धिमान राजा सब लोगों को गुणों के द्वारा अपने में अनुरक्त बनाए ताकि सब लोग उसे प्रसन्न रखें 147 जिस प्रकार मुनियों में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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सदाचारी और शास्त्रज्ञान से सुशोभित राजा में अनेक गुण वृद्धि को प्राप्त होते हैं तथा जिस प्रकार संस्कार किए हुए मरिण सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार राजा में अनेक गुरण सुशोभित होते हैं 148 नीति को जानने वाले राजा को इन्द्र और यम के समान कहते हैं, किन्तु इन्द्र के समान राजा श्रेष्ठ है, क्योंकि उसकी प्रजा गुणवती होती है और राज्य में कोई दण्ड देने के योग्य नहीं होता है । 19 राजा न्यायोपार्जित धन के द्वारा याचकों के समूह को सन्तुष्ट करे 150 समीचीन मार्ग में चलने वाले राजा के अर्थ और काम भी धर्मयुक्त होते हैं, अतः वह धर्ममय होता है | 51 उत्तम राजा के वचनों में शान्ति, चित्त में दया, शरीर में तेज, बुद्धि में नीति दान में धन, जिनेन्द्र भगवान में भक्ति तथा शत्रुओं में प्रताप रहता है 1 52 जिस प्रकार संसार का हित करने वाले सब प्रकार के धान्य समा नाम की इच्छित वर्षा को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं, उसी प्रकार समस्त गुण राजा की बुद्धि को पाकर श्रेष्ठ फल देने वाले होते हैं । 53 राजा का मानभङ्ग नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार दांत का टूट जाना हाथी की महिमा को छिपा लेता है. दाढ़ का टूट जाना सिंह की महिमा को तिरोहित कर देता है, उसी प्रकार मानभङ्ग राजा की महिमा को छिपा लेता है । 54 नीतिशास्त्र सम्बन्धी अर्थ का निश्चय करने में राजा का चरित्र उदाहरण रूप होना चाहिए | 55 उत्तम राजा के राज्य में प्रजा कभी न्याय का उल्लंघन नहीं करती है, राजा प्रजा का उल्लंघन नहीं करता है, धर्म, अर्थ, काम रूप त्रिवर्ग राजा का उल्लंघन नहीं करता है और परस्पर दूसरे एक का भी त्रिवर्ग उल्लंघन नहीं करता है । 56 जिस प्रकार वर्षा से लतायें बढ़ती हैं, उसी प्रकार राजा की नीति से प्रजा सफल होकर बढ़ती है 157 जिस प्रकार आगे की संख्या पिछली संख्याओं से बढ़ी होती है, उसी प्रकार श्रेष्ठ राजा पिछले समस्त राजाओं को अपने गुणों और स्थानों से जीतकर बढ़ा होता है |58 उसक
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