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प्रात्म शान्ति को छू न सकेंगी नभ छूती उल्काएँ
कविवर श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' रामपुर । रत्न जड़ित, चन्दन मण्डित, सिंहासन भटकाते हैं जो इनके स्वामी हैं, पात्मिक-शान्ति वही पाते हैं चिर प्रसृप्त तृष्णा के पथ पर चरण फिसल जाते हैं यही जन्म जन्मातर, भव भव में चक्कर खाते हैं
इन माया-मरीचिकाओं में गभित दुर्घटनाएं सन्मति के सन्देशों में, बहती सुख को सरिताएँ
(2) निर्धन धन की चमक देखकर, धन पर ललचाता है किन्तु न धन का कुटिल, भीतरी रूप समझ पाता है धन का चक्र-व्यूह, ईर्ष्या, तृष्णा को जन्माता है शान्ति, प्रेम, विश्वास, धनी से दूर चला जाता है
मन पर जमे कोहरों को, परते तत्काल हटाएँ सन्मति के सन्देशों में बहती सुख की सरिताएँ
(3) दर्प, श्रेष्ठता घमण्ड, संतुलन नहीं देते हैं चचित-मानवीयता को, यह बरबस हर लेते हैं जो एकाधिकार पर रीझे कभी नहीं चेते हैं वही सफल हैं जो असफल की नैया को खेते हैं
मानवता को अपनाएं भेड़ियावाद ठुकरायें सन्मति के सन्देशों में बहती सुख की सरिताएँ
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त्याग-तपस्या मय जीवन के पथ में शूल नहीं है राजनीति का ताण्डव, आत्मा के अनुकूल नहीं है काम वासनानों में मिलता, शिव का कूल नहीं है फल, वह वृक्ष नहीं देता, जिसका जड़मूल नहीं है
अात्म शान्ति छू को न सकेंगो नभ छूती उल्काएँ सन्मति के सन्देशों में बहती सुख की सरिताएं
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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