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प्रेस वाले स्वः श्री कपूरचन्दजी जैन एवं उनके पुत्र आदि हैं।
रावल श्योसिंह को रियासत का काम सुपुर्द करने के लिए अग्रेज गवर्नमेंट के प्रदेश लेकर 4 जून 1835 ( ज्येष्ठ शुक्ला 8 सं. 1892 ) को मि. श्रास प्रौर उनका सहायक मि. ब्लैक तथा दो अन्य राजमाता के महलों में गये और उक्त प्रदेश सबको बताया । वहां बहुत लोग एकत्र थे । भीड़ में से एक व्यक्ति ने मि. ग्राम्स पर तलवार से हमला कर दिया । मि. ब्लैक ने तलवार छीन ली और उसे जेल भेज दिया। दोनों अंग्रेज भी चले गए । मि. ब्लैक थोड़ी देर बाद हाथी पर चढकर वह तलवार लिए बाहर आये । उनके कपड़ों पर खून के छींटे थे। इतनी देर में शहर • में बात फैल गई कि महलों में खून खराबी हुई है । जब ब्लैक के हाथी पर तलवार और खूनदार कपड़े देखे तो यह अफवाह फैल गई कि ये बालक राजा का खून करके आए हैं । बस, जनता पीछे पड़ गई और जिसके हाथ में जो प्राया मारने लगे। हाथी पर बैठा चपरासी मारा गया, महावत जख्मी हुआ । हाथी को किशनपोल बाजार में अजबघर के सामने मन्दिर के बरामदे के सहारे लेकर ब्लैक मंदिर पर चढ़ गए पर जनता ने उन्हें पकड़ और मार कर सड़क पर फेंक दिया ।
इस काण्ड से प्रोज काफी नाराज हुए। विरोधियों को कुचलने का मौका मिल गया । आषाढ शुक्ला 13 सं. 1892 को संवीताराम के सहयोगी दीवान अमरचन्द यादि गिरफ्तार किए गए। एक कमीशन प्रोग्रेजों ने बिठाया ।. संघीताराम और उनके भाई संघी हुकमचन्द पर रावल जी को नीचा गिराने के लिए खूरेजी का षड्यन्त्रः करने का प्रारोप लगाया और दीवान अमरचन्द व मानकचन्द भांवसा पर फसाद का इन्तजाम करने का और बख्शी मन्नालाल को फोज
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को मुतफिक रखने का । कमीशन ने संघी भूताराम, हुकमचन्द, अमरचन्द आदि को देने मृत्युदण्ड का तजवीज किया पर गर्वनर जनरल ने यह माना कि संघी राज्य के बदलने के अपराधी है ब्लैक की हत्या के नहीं अतः उन्हें प्राजीवन कारावास की सजा देकर चुनारगढ़ के किले में भेज दिया गया। उनके भाई पहले ही स्वर्गवासी हो चुके थे । संघी भूताराम सं. 1895 में स्वर्गवासी हो गए । अमरचन्द को फांसी की सजा सुनाई गई ।
इस प्रकार स्वतन्त्रता प्रेमियों को दण्ड भुग तना पड़ा, पर प्राजादी की ज्वाला बुझी नहीं सुलगती रही, बढ़ती रही । रावल श्योसिंह से राजमाता प्रसन्न नहीं थी । सन् 1838 में रामगढ़ में पलटनों ने बगावत की । ठा. मेघसिंह 5000 फौज लेकर आए तो अंग्रेजों ने लक्ष्मणसिंह को मुकाबले के लिये भेजा । 1840 से कालख के किले पर माजी के पक्षपातियों - स्वतन्त्रता प्र ेमियों का कब्जा हुआ पर फिर नाकामयाबी हुई । राजामाता के भाई को जिलावतनी की सजा हुई । अपने पक्षपातियों को जागीर देने, राजकोष खत्म करने आदि के कारण रावल को हटाया गया ।
उक्त बातें लिखने का श्राशय मात्र यह है कि संघी के कारण ही यदि गड़बड़ी थी तो उनके मरने के बाद भी ये घटनायें क्यों हुई । स्थिति यह थी कि अंग्रेजों का आधिपत्य राजघराने को पसन्द नहीं था । वे स्वतन्त्र रहना चाहते थे । अग्रेजों के पक्षगती रावल जी से राजघराना
खुश नहीं था । संघी भूताराम एवं उनके सहयोगी स्वतन्त्रता प्रेमी थे वे जयपुर को आजाद रखना चाहते थे । अतः स्वतन्त्रता प्रेमियों को अग्रेजी शासन में फांसी की बलिवेदी पर चढ़ने या जेल के जो उपहार मिलने थे वे संधी जी आदि को मिले । उनका अपराध मात्र आाजादी था— देश भक्ति था ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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