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पावश्यक था। अर्थात् अपरिग्रह में ब्रह्मचर्य नहीं कहलायेगा। भरत के सहस्रशः सुन्दर रानियां अन्तर्मुक्त था। किन्तु उसे समझदार ही समझ और सागर-पर्यन्त पृथ्वी का राज्य था, किन्तु पाते थे। महावीर के युग तक आते- प्राते यह उनके प्रति नितांत अनासक्त होने के कारण वे समझदारी नितांत समाप्त हो चली थी अतः घर में ही वैरागी कहलाते थे। जैन इतिहास में समय देख कर ही महावीर ने ब्रह्मचर्य का स्पष्ट ऐसे सहस्रशः दृष्टान्त हैं, जबकि कोई राजा-महाराजा
और पृथक उपदेश दिया। अर्थात् पार्श्वनाथ के अपने भरे वैभव, भरे परिवार और भरे सैन्यबल अपरिग्रह का ही एक अश आगे चलकर ब्रह्मचर्य को तृणवत् त्याग कर जंगल की राह लेता था । के नाम से प्रसिद्ध हना।
यहाँ उसके जीवन-भर के संकलन-संग्रह के प्रति
अनासक्त भाव ही था । धन-सम्पत्ति हो और किन्तु, प्रश्न तो यह है कि जिस आदमी के उसके प्रति गहरी आसक्ति तथा चिपकन हो तो, पास जितनी अधिक स्त्रियाँ, धन-दौलत और वह संघर्षों को जन्म देगी और वैषम्य तथा राज्य-साम्राज्य होता था, वह उतना ही अधिक वर्गभेद उत्पन्न करेगी ही। कोई रोक नहीं पुण्यवान माना जाता था, सम्मानास्पद होता था- सकता । यदि ऐसा न हो, अर्थात् आसक्ति न हो जैसे 'चक्रवर्ती' । दूसरी ओर जैन धर्म का कथन है तो विषमताए जन्म ही न ले पायेंगीं। फिर वर्ग: कि अपरिग्रह के बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। भेद का प्रश्न ही नहीं उठता । भेद तो रहता पाया फिर इस विरोधाभास का समाधान क्या है? है, आगे भी रहेगा, मिटाया नहीं जा सकता, वास्तविकता यह है कि संग्रह और संग्रह की भावना किन्तु सुख-दुख बराबर बांटे जा सकते हैं और दो भिन्न बातें हैं । यदि परिग्रह करते हुए भी कोई उन्हीं का बांटा जाना मुख्य है। अपरिग्रहवाद का उसके प्रति अनासक्त रहता है तो वह परिग्रही मूल रहस्य यही है।
1. देखिए त्रिलोकसार 792-793, 2. महापुराण, भगवज्जिनसेनाचार्य, 3/164. 3. शाश्वतकोष, 508. 4. मेंदिनीकोश, भ वर्ग 5. 5. देखिए श्रीमद्भागवत् 5/7/3. 6. स्कन्दपुराण, 1/2/37/55. 7. 'प्राचीन भारत का भौगोलिक स्वरूप', डा० अवधबिहारीलाल अवस्थी, कैलाश प्रकाशन,
लखनऊ, सन् 1964, पृष्ट 123, परिशिष्ट 2. 8. मार्कण्डेयपुराणः साँस्कृतिक अध्ययन, डाँ० वासुदेवशरण अग्रवाल, पाद-टिप्परग संख्या 1,
पृष्ठ 138. 9. अमरकोष 3/5/20. 10. सूरसागर, पंचम स्कंध, पृष्ठ 150-51.
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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