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धर्म,
धार्मिक और धर्मालय
धर्म क्या ? धार्मिक कौन है ? और धर्मालय कहाँ है ? यह सब कुछ जाने बिना आज का व्यक्ति एक दूसरे को धार्मिक होने का व्रत ओटे हुए हैं । सच है कि क्या, कौन और कहां की जानकारी व्यक्ति को केन्द्रोन्मुखी बनाती है ।
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वि०, बा० डा० महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, श्रागरा रोड, अलीगढ़ )
मूल, तना, शाखाएं, वृन्त, पत्त े, फूल और फल मिल कर वृक्ष बनता है। इन सभी पदार्थों के अपने अपने स्वभाव हैं । गुण हैं । प्रत्येक पदार्थ में अनन्त गुण विद्यमान होते हैं । इन गुणों का ठीक ठीक जानना ही तो धर्म है। जो है उसे पहचानना, जानना वस्तुतः धर्म कहलाता है । इस प्रकार धर्म सर्वत्र है, व्यापक है । ध्यान इतना रखना है कि जो प्राप्त है वह ग्राज नहीं तो कल अन्ततोगत्वा एक दिन अवश्य समाप्य है । धर्म कभी प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह कभी समाप्य नहीं है । इसीलिए कहता हूं कि प्राप्य और समाप्य के झंझट से कोसों दूर हमें व्याप्त को जानना चाहिये | 'वत्थु सहावी धम्मो' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । व्याप्त को जानना ही धर्म है। और धर्ममय होना ही धार्मिक होता है। ग्राम तौर पर किसी भी सत्ता की, उपास्य की पूजा अर्चना जो कर लेता है उसे हम प्रायः धार्मिक कहने लगते हैं । इसे क्या विडम्बना नहीं कहेंगे ? जो स्वभाव है उनके प्रति विपरीत चलने वाला व्यक्ति धार्मिक कैसे हो सकता है ? प्रत्येक प्रांणी की मूल शक्ति का नाम आत्मा है | अहिंसा, सत्य, अवौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि उसके अनन्त गुण हैं; स्वभाव हैं । जो इन स्वभावों में रहता है वही तो धार्मिक है । धार्मिक होने के लिए हम किसी के प्रमाण-पत्र की प्रतीक्षा न करें । यथाशीघ्र धार्मिक होने की स्थिति में हों ।
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धर्मालय कहां है ? जहाँ धर्म है वहीं धर्मालय है । जब धर्म सर्वत्र है फिर धर्मालय एकत्र कैसे हो सकता है ? मैं सत्ता, जानने की शक्ति तथा उस शक्ति को धारण करने वाला शरीर ही वास्तव में धर्म, धार्मिक और धर्मालय हैं। यदि नहीं हैं तो हमें जागृत होकर शीघ्र होना चाहिये ताकि सुखी और सम्पन्न जीवन जिया जा सके ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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