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मुनि सुव्रत की प्रतिमायें अन्य तीर्थकरों की की मूर्ति तो राष्ट्रीय संग्रहा नग, नई दिल्ली में प्रपेक्षाकृत कम ही प्राप्त हुई हैं। आगरा के प्रागई थी और मुनि सुव्रत की प्राम्बेर संग्रहालय में समीप बटेश्वर नामक स्थान से प्राप्त एक लेख-युक्त ही सुरक्षित रही। पूर्वमध्ययुगीन प्रस्तर प्रतिमा राज्य संग्रहालय, लखनऊ में प्रदर्शित है। इस मूर्ति में उन्हें एक मुनि सुव्रत की मूर्ति में उनके घुघराले केश, सिंहासन पर ध्यान-मुद्रा में बैठे दिखाया गया लम्बे कान, वक्ष पर पद्म रूपी श्रीवत्स चिन्ह, सौम्य है। मूल-मूर्ति के दोनों प्रोर चंवरधारी सेवकों के एवं शान्त मुखड़ा, आदि, जिनका वराहमिहिर ने अतिरिक्त यक्ष वरुण एवं यक्षी नरदत्ता भी अंकित भी अपनी 'वृहत्संहिता' में भी उल्लेख किया है, किये गये हैं। इन्हीं तीर्थकर की एक अन्य ध्यानी बड़ी सुन्दरता से दिखाये गये हैं। 'जिन' ने सुन्दर मूर्ति उडीसा स्थित खण्डगिरि की गुफाओं में भी पारदर्शक धोती पहिन रखी है, जिससे स्पष्ट है कि देखी जा सकती है। परन्तु इसमें इनके वक्ष पर श्वेताम्बर उपासकों द्वारा इस मूर्ति का पूजा हेतु श्रीवत्स चिन्ह का अभाव है यद्यपि बटेश्वर प्रतिमा निर्माण कराया गया था। तीर्थकर का लांछन कूर्म की भांति इनके दोनों ओर एक-एक सेवक तथा पद्मपीठ के नीचे बना है, जिससे मूति की पहचान पीठिका पर सूर्य का अंकन हुआ है।
करने में सहायता मिलती है। तीर्थकर मूर्ति के
पैरों के समीप चंवरधारी एक-एक सेवक खड़ा है ऊपर वरिणत दोनों प्रतिमाओं से भिन्न मुनि और पद्म पीठिका के दोनों ओर मूर्ति के निर्माण सुव्रत की एक मूर्ति जो आम्बेर संग्रहालय में कर्ता उपासक एवं उनकी पत्नी उपासिका की लघु प्रदर्शित है, इसमें तीर्थकर को कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियाँ हैं, जिनके हाथ अञ्जली-मुद्रा में है। कला एक पूर्ण विकसित पद्म पर खड़े दिखाया गया है। की दृष्टि से प्रस्तुत मूर्ति राजस्थान की चौहान यह मूर्ति काले पत्थर ही में बनी भगवान् नेमिनाथ कालीन कला, 12वीं शती ई० का एक अत्यन्त की पाषाण प्रतिमा के साथ कुछ वर्ष पूर्व नरहड़ कलात्मक उदाहरण है और जैन कला के अध्ययन नामक स्थान से प्राप्त हुई थी। बाद को नेमिनाथ के लिए भी समान रूप से महत्वपूर्ण है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 13
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