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कारण मेला लगता है और डिग्गी में श्रीकल्याणजी नहीं है। ये मेले धामिक अनुष्ठानों के कारण के कारण। अामेर में शिला देवी और काले अन्तर्देशीय ख्याति प्राप्त हैं । मैं इनमें से कुछ का महादेव के कारण, घाट में वैष्णवों के अवतारों संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहा हूं। की झाँकियां निकलने से, जिनको परिक्रमा कहा
___ जयपुर को बसे हुए 40 वर्ष भी पूरे नहीं हुए जाता है, मोहन बाड़ी में गलते के कारण और
थे सम्वत् 1821 (सन् 1764) में जैन समाज में सांगानेर में सांगा बाबा के कारण मेले लगते हैं।
एक अद्भुत मेले का आयोजन किया गया। यह शेष स्थानों पर लगने वाले मेले मात्र जैन धर्माव
मेला शहर के बाहर फोहटीबे (मोतीडूगरी के लम्बियों द्वारा ही लगाये जाते हैं । हो सकता है घाट
निकट) पर सम्पन्न हुना। जैसा यह मेला जैन खानियां मोहनबाड़ी और आमेर में इतर समाजों
समाज में उस समय प्रायोजित हुप्रा न कभी के साथ जैन भी अपना धार्मिक मेला लगा लेते हों।
भूतकाल में हुया था और न कभी भविष्य में होने किन्तु इनका वैशिष्ट्य नहीं के बराबर है । ये मेले
की संभावना ही है। प्रति वर्ष निश्चित तिथियों में लगते हैं इसकी सूचना मेले कराने वाले बहुत पहले से ही कर देते उस समय जयपुर राज्य के श्री रतनचन्द एवम् हैं और सवारी आदि आवागमन के साधन भी जुटा बालचन्द ये दो जैन दीवान ये । इनका बड़ा प्रभाव देते हैं। सरकार भी अपना सहयोग देकर सुरक्षा था । महाराजा माधोसिंह प्र० उस समय जयपुर के का प्रबन्ध करती है, स्वयं सेवक और स्काउट्स भी राजा थे। उनका सब धर्मों के प्रति आदर भाव इन मेलों में सहयोग प्रदान करते हैं।
एवं श्रद्धा भक्ति थी। उन्होंने प्राज्ञा प्रसारित कर
दी थी कि मेले के लिये तथा पूजा के लिये जो भी ये मेले जयपुर की स्थापना से ही प्रारंभ हुए सामग्री चाहिए सरकारी खजाने से ले जाओ । इस समझना चाहिए । जयपुर के राजा धामिक विचारों लिये जो भी सामग्री मेले में अनुपलब्ध थी सरकार के थे। वे सभी धर्मों का आदर करते थे। उन्होंने से ले ली गई थी। इस मेले में इन्द्र ध्वज विधान जयपुर बसाने में दूर दूर के नामी कामी व्यक्तियों
कराया गया था । यह विधान फतेहटीवा के मैदान को यहां प्रश्रय दिया था। वे लोग वर्ष में एक बार में 64 गज वर्गाकार चबतरे पर तेरह द्वीप के अपनी अपनी जन्मभूमि में जाकर आमोद प्रमोद मण्डल की रचना रचकर किया गया था। मण्डल करने और धार्मिक प्रसंगों को बनाकर इतरजनों की रचना धन रूप थी प्रतर रूप नहीं अर्थात जैसे को भी प्रभावित करते थे इसी कारण इन मेलों की मण्डल रंगों से तथा रंगों से रंगे हए चावलों से परंपरा बन गई। अब ये मेले उसी परंपरा को अथवा खड़िया से मण्डते हैं वैसा यह मण्डल नहीं कायम रखने हेतु प्रतिवर्ष निश्चित तिथियों को था धन रूप अर्थात् पहाड़ नदी जंगल भवन नगरी मनाये जाते हैं। इनमें आमेर, सांगानेर, कूकस, कोट खाई पूष्प वाटिका सरोवर आदि साक्षात् रूप खोह, साइवाड़, बगराणा, भाखरोटा आदि स्थानों के में बनाये गये थे। बनाने के लिये 150 कारीगर, मेले प्रमुख हैं।
शिलावट, चितेरे, दरजी, खरादी, खाती, सुनार जैन मेलों की अपनी स्वयं की विशेषता है। आदि दस दिन तक लगे थे । रचना पत्थर चूने के बने पे मेले किसी प्रतिमा विशेष के जमीन से निकलने चबूतरे पर बनी थी। कपड़े के कोट बीथियां के कारण नहीं और न किसी व्यक्ति विशेष की लगाई गई थीं, जो चित्र लगाये गये थे भोडल के जन्म भूमि होने के कारण ही हैं । ऋतुओं के कारण काम के लगे थे। चारों ओर चार दरवाजे लकड़ी तथा तिथियों के कारण भी इन मेलों की गणना के बनाये गये थे। चार हजार रेजे बिछायत के 2-110
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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