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पड़ेगा। इसके अतिरिक्त यदि प्रष्ट कर्म संस्कार कर्ता नहीं है। प्रकृति ही दर्पणवत् उसके प्रतिफल प्रदान करते हैं तो फिर परमात्मा के सहकार बिम्ब को प्राप्त करके सृष्टि विधान में प्रवृत्त होती की क्या आवश्यकता है ? (2) अकार्यपि तद्योगः पारवश्यात्-4 ___ सृष्टि-विधान में प्रकृति की प्रवृत्ति तर्क संगत
सूत्र के अाधार पर स्थापना की गई है कि है किन्तु पुरुषाध्यास की सिद्धि के लिए पुरुष प्रतिप्रकृति कारण रूप है, कार्य नहीं है । अनन्त, विभु बिम्ब की कल्पना व्यर्थ प्रतीत होती है । अलिप्त जीवात्मा पुरषों के अदृष्ट कर्म संस्कार सहित सर्व कर्ता की शक्ति से माया रूप प्रकृति का शक्तिमान संसार प्रकृति में लीन रहता है। चूकि प्रकृति वनकर जगत की सृष्टि करना संगत नहीं है । युद्ध जड़ है अतएव सृष्टि के लिए उसमें पुरुष के योग में राजा सेना सहित स्वयं लड़ता है अथवा युद्ध की आवश्यकता होती है।
एवं विजय के लिए समस्त उद्यम करता है । इस
स्थिति में राजा को अकर्ता नहीं कहा जा सकता। यह तर्क भी संगत नहीं है । हाइड्रोजन के दो
चेतन, सूक्ष्म, निर्विकल्प, निर्विकार, निराकार का एवं आक्सीजन के एक परमाणु के संयोग से जल
अचेतन, स्थल, पाशा-विकल्पों से व्याप्त, सविकार बन जाता है। इसमें परमात्म सहकार की अनि
एवं साकार प्रकृति जैसी पूर्ण विपरीत प्रकृति का वार्यता दृष्टिगत नहीं होती।
संयोग सम्भव नहीं है। जीवात्मा का प्रकृति से यदि सर्व चेतन पुरुषों का सर्वातीत पुरुषोत्तम सम्बन्ध बन्धन के कारण है किन्तु क्या परमात्मा में लीन होकर सृष्टि के समय उत्पन्न होना माना जैसी परिकल्पना को भी बन्धनमस्त माना जा जावे तो बीजाकुर न्याय से सर्वातीत पुरुषोतम सकता है जिससे उसका प्रशान्त एवं जड़ स्वभावी सहित समस्त जीवात्माओं की उत्पत्ति नाश की प्रकृति से सम्बन्ध सिद्ध किया जा सके । दोषापत्ति करती है।
निष्काम परमात्मा में सृष्टि की इच्छा क्यों ? (3) एक स्थापना यह है कि परमात्मा सर्व- पूर्ण से अपूर्ण की उत्पत्ति कैसी? अानन्द स्वरूप वित् एवं सर्वकर्ता है और वह प्रकृति से अयस्का- में निरानन्द की सृष्टि कैसी ? जिसकी सभी न्तवत् (चुम्बक सदृश्य) सृष्टि करता है । वह प्रेरक इच्छायें पूर्ण हैं, जो प्राप्त काम है उसमें सृष्टि मात्र है।
रचना की इच्छा कैसी ? यदि इस स्थापना को माना जावे तो परमा- इस प्रकार ईश्वरोपपादित स ष्टि की अनुपत्मा को प्रसंग, निगुण, निलिप्त, निरीह कैसे पन्नता सिद्ध होती है। माना जा सकता है ?
कर्तावादी दार्शनिकों ने विश्व स्रष्टा की परि(4) जिस प्रकार सेना की जय एवं पराजय कल्पना इस सादृश्य पर की है कि जिस प्रकार का आरोप राजा पर किया जाता है उसी प्रकार कुम्हार घड़ा बनाता है उसी प्रकार ईश्वर संसार प्रकृति के क्रियाकलापों का मिथ्या आरोप पर. का निर्माण करता है। बिना बनाने वाले के घड़ा मात्मा पर किया जाता है। तत्वतः परमात्मा नहीं बन सकता। सम्पूर्ण विश्व का भी इसी
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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