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वैदिक सम्प्रदाय में जहां राम विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में पूज्य हैं वहां जैनों ने भी अपने ६३ महापुरुषों में उनकी नरगना की है तथा उन्हें सिद्ध माना है । एक आदर्श राजा के रूप में तो उनकी ख्याति भारत के जन-जन में है ही प्रतः प्रत्येक भारतीय धर्म के अनुयायियों द्वारा उनका जीवन चरित्र लिखा गया है। जैनों ने श्रीराम का यशोगान किया है: किन्तु जैनों के राम और वैदिक राम में मुख्य भेद यह है कि जहां वैदिकों के राम ने भगवान होकर मनुष्य रूप में अवतार ग्रहण किया वहां जैनों के राम सामान्य मानव के रूप में जन्मे और अपनी साधना के बल पर भगवान बने । दोनों द्वारा राम के चरित्र चित्रण में और भी कई दृष्टिभेद कुछ का तुलनात्मक अध्ययन विद्वान् लेखक ने किया है।
हैं जिनमें से
अपनी इस रचना में प्रस्तुत - पोल्याका
वाल्मीकि रामायण और जैन रामकथा
जैनों के त्रिपष्टिशलाका पुरुषों में चौबीस थंकरों के अलावा 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 सुदेव तथा 9 प्रतिवासुदेव होते हैं । जैन मान्यता मुताबिक राम प्रवरारिणी के 63 शलाका पुरुषों 18 वें बलदेव, लक्ष्मण अष्टम वासुदेव तथा रावण वासुदेव हैं ।
जैन धर्म भी रामकथा से श्रोतप्रोत है । जैन म्पस का श्रीगणेश विमलसूरि के प्राकृत ग्रन्थ हम चरिय' से होता है । परन्तु यह सर्वथा निश्चित कि विमलसूरि के समय हिन्दू रामकथा का रूप
विकसित तथा सम्बद्धित हो चुका था । वस्तुतः म कथा को सुविकसित तथा सुस्थापित करने का वर्ण श्रेय आदि कवि वाल्मीकि को है । डा०
(प्रान दी रामायण ) तथा दिनेशचन्द्र सेन (बंगाली रामायंस ) ने बौद्ध जातकों की राम
वीर जयन्ती स्मारिका 78
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डाक्टर लक्ष्मीनारायण दुबे
सागर वि० वि०, सागर
Far को वाल्मीकि से पूर्व माना था परन्तु अब इस अभिमत की निस्सारता प्रमाणित हो चुकी है । वाल्मीकि के आधार पर 'महाभारत' का रामोपाख्यान हुआ और तदनंतर जैन इस क्षेत्र में आये । जैन साधु-परम्परा में भी रामकथा का रूप विद्य
मान था ।
विमलसूरि (वि०स० 60 ) तथा रविषेणाचार्य (वि० सं० 733 ) जैन रामकथा के दो महान् पुरोधा थे । स्वयम्भू ( ग्राठवीं शताब्दी ईसा ) भी रविषेणाचार्य से प्रभावित हुए थे । जैन रामकथा का एक प्रवाह गुणभद्राचार्य के 'उत्तर पुराण' में भी मिलता है । इस कथा में दशरथ वाराणसी के राजा थे । सीता मंदोदरी की पुत्री थी । लक्ष्मरण एक असाध्य रोग से ग्रसित होकर स्वर्गवासी हुए थे । स्वयम्भू के 'पउम चरिउ' में देवतानों को राम-लक्ष्मण
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