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भारत में नाटकों के विकास का मूल मा'तीय ही है अथवा विदेशी प्रश्न अनुसन्धित्सुत्रों के मध्य चर्चा का विषय रहा है। भारतीय मूल बताने वाले वेदों में यम यमी के संवाद में इसे खोजते हैं तो दूसरे नाटकों में प्रयुक्त 'यवनिका' शब्द के कारण विदेशों में । सचाई कुछ भी हो किन्तु भारत । नाटको का इतिहास बहुत पुराना है और संस्कृत भाषा के नाटक किसी समय पर्याप्त लोकप्रिय रहे हैं और उनका मञ्चन भी हुवा है। संस्कृत नाटकों के निर्माण में जैनों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनके लिखे नाटक किसी भी दृष्टि से कम महत्त्व के नहीं हैं। जैन नाटककार हस्तिमल्ल ऐसे ही सिद्धहस्त नाटककारों में थे जिन्होंने जैन पुराणों से कथावस्तु ग्रहण कर अपने नाटकों की रचना की। उनकी कृत्तियों का मूल्याकन विद्वान् लेखक की इन पंक्तियों में पढ़िये ।
-पोल्याका
-संस्कृत नाट्यसाहित्य में हस्तिमल्ल के नाटकों का स्थान
डॉ० कन्छेदीलाल जैन
गव० संस्कृत कालेज, कल्याणपुर शहडोल
संस्कृत साहित्य में अनेक प्रशस्त नाटककारों में संस्कृत के नाटककारों ने अपने नाटकों के लिए हस्तिमल्ल और अनेक नाटकों में उनके नाटक कथावस्तु का चुनाव रामायण, महाभारत तथा स्मरणीय रहेंगे। दसवीं शताब्दी के बाद सशक्त लौकिक कथाओं से किया है, हस्तिमल्ल ने अपने नाटककारों द्वारा नाटक रचना में ह्रास दिखाई देता नाटकों की कथावस्तु को दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के है, उसका कारण यह था कि संस्कृत का कला पक्ष पुराणों से चुना है जिनको आधार बनाकर नाटक सबल होता जा रहा था जो नाटक की अपेक्षा लिखने की अोर किसी का ध्यान नहीं था । नाटकों महाकाव्य के अनुकूल होता है। जयदेव का के लिए कथावस्तु का नवीन स्रोत जैन पुराणों को प्रसन्नराधव ते रहवीं शताब्दी का माना जाता है हस्तिमल्ल ने ही चुना है। अश्वघोष ने शारिपुत्र उसमें भी नाटकीयत्व की अपेक्षा कवित्व की ही प्रकरण लिखकर नाटक निर्माणार्थ बौद्ध धर्म की सत्ता विशेष है । इस दृष्टि से तेरहवीं शती का यह कथानों को आधार बनाने का उपक्रम कर दिया सशक्त नाटककार संस्कृत साहित्य में महत्वपूर्ण था। मेरा आशय यह नहीं है कि सम्प्रदाय विशेष स्थान रखता है।
की कथावस्तु चुनने के कारण नाटककार का
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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