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सूरदास पर पुष्पदन्त से इतर कवियों का केवल सुण्ण चरेइ ॥ प्रभाव :
उड्डो वोहिन काउ जिमु । सूरदास पुष्पदन्त से इतर अपभ्रंस-कवियों से
पलुटिअ तह वि पडेइ ॥ भी प्रभावित थे, ऐसी सम्भावना सूर के कतिपय
सूरदास ने अपने काव्य में भक्ति-परवश मन पदों से दृढ होती है। सूर ने सिद्ध कवियों की
के लिए इसी उपमा का कई रूपों में प्रयोग उपमानों और अपभ्रश-कवियों के पद्यों को धार्मिक किया है : परिवेश प्रदान कर अपने भक्तिकाव्य का विषय बना लिया है । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत
1. जैसे उड़ि जहाज को पंछी । व्याकरण के अपभ्रंश-प्रकरण में 'क्त्वा' प्रत्यय के
फिरि जहाज प प्रावै ॥ 'इव' आदेश के प्रसंग में एक अपभ्रंश-पद्य का
(विनय-पद) उदाहरण उपस्थित किया है :
2. अब मन भया सिंध के खग ज्यों।
फिरि फिरि सरत जहाजन ।। बाह विछोडवि जाहि तुहुँ । हउं ते वेंइ को दोसु ।।
(भ्रमरगीत, 46) हिअय-ट्ठिय जइ नीसरहि ।
3. थकित सिंध नौका के खग ज्यों। जाणउं मुज सरोसु ।।
फिरि फिरि फेरि वहै गुन गावत ।। अर्थात्, हे मुज! तुम बाँह छुडाकर जा रहे
___ (भ्र० गीत, 60) हो, तुम्हें क्या दोष दू । यदि मेरे हृदय से निकल 4. भटकि फिर्यो वोहित के खग ज्यों। जानोगे, तो जानूगी कि तुम सरोष हो ।
पुनि फिरि हरि पै आयो ।।
(भ्र० गी०, 119) इस दोहे की शृंगार भावना को सूर ने भक्तिभावना में परिणत करते हुए इसका निबन्धन इस सूरदास के 'सूरसागर' में कतिपय दृष्ट कूट भी प्रकार किया है :
मिलते हैं सूर के इन दृष्ट कूटों का बीज सिद्धों की
अपभ्रंशबहुल सन्ध्या भाषा के अनेक पदों में भी बॉह छोड़ाये जात हो ।
उपलभ्य सम्भव है। न केवल सूर-साहित्य पर, निबल जानि के मोहि ।।
अपितु हिन्दी-साहित्य के भिन्न-भिन्न कालों पर हिरदै तें जब जाहुगे ।
अपभ्रश-साहित्य की परम्परा का प्रभाव स्पष्ट सबल जानुगो तोहि ।।
परिलक्षित होता है। इससे यह तथ्य उद्भावित सिद्धों ने बार-बार विषयों की अोर प्रभावित
होता है कि वैदिक साहित्य से हिन्दी-साहित्य तक
एक अखण्ड भावधारा प्रवाहित होती आ रही है, होने वाले मन की तुलना जहाज पर बैठे पंछी से
विशेषकर आध्यात्मिक और उपदेशात्मक भावधारा की है। सूर ने उसी उपमा का प्रयोग बार-बार
की गति तो प्रायः समानान्तर रही है । समय-समय कृष्ण की अोर दौड़ने वाले गोपियों के मन को
इस धारा के बाह्य रूप में परिवर्तन अवश्य होता लक्ष्य कर किया है। विषयरलिप्सु मन के संबंध
रहा, किन्तु मूलभावना अपनी सनातनता के साथ में सरह का एक दोहा है :
सुरक्षित है। विसप विसुद्ध णउ रमइ ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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