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कीपनिषद' में लिखा है कि उस समय श्रमण अ- अतदिलासः स्त्रयमन्ये नाभिनाः सुपीवसः सुबलाः श्रमण हो जाता है और तापस प्रतापस, अर्थात् अतषिताः तपारहिता. अतृष्णज: निस्पृहा भवथ" इसके साथ नाम की कोई बाह्य उपाधि नहीं रह इसका हिन्दी अर्थ है-पाप श्रमण-रहित, दूसरों के जाती। वह श्रमण-अश्रमण, तापस अतापस से द्वारा शिथिल न किये जा सकने वाले, बलवान, ऊपर उठ जाता है । न पाप रहते हैं और न पुण्य, तृष्णा-रहित और निर्मोह हो । यहाँ श्रमण-रहित का दोनों से छुटकारा पा लेता है । हृदय में भरे शोक अर्थ है कि आप श्रमण की उपाधि से मुक्त हो जायें, स्वयं चुक जाते हैं। वह उद्धरण है , "श्रमणोऽश्र- अर्थात् आपको तप-रूपी श्रम करने की आवश्यकता मणस्तापसीऽ तापसोऽनन्वागतं पुण्येनानन्वागतं पापेन न रह जाये, अर्थात् आपको कैवल्य प्राप्त होजाये । तीर्णो हि तदा सर्वाञ्छोकान् हृदयस्य भवति" । 'श्रमण' शब्द का अधिकाधिक महत्व रहा है । इस कथन की पुष्टि शांकरभाष्य से भी हो जाती वैय्याकरण अत्यन्त अनिवार्य स्थिति में ही किसी है, "श्रमण परिव्राट्, यत्कर्मनिमित्तो भवति, स तेन किसी शब्द-विशेष के लिए नियम बनाते हैं, अन्यथा विनिमुक्तत्त्वादश्रमणः"36 अर्थात् जिस कर्म-भार नहीं। किन्तु श्रमण शब्द के सम्बन्ध में व्याकरणको चुकाने के लिए पुरुष श्रमण परिव्राट् बनता है, ग्रन्थों में विशेष नियम उपलब्ध हैं। शाकटायन ने उसके चुक जाने पर वह प्रश्रमण हो जाता है, लिखा है-"कुमारः श्रमणादिना" (शाकटायन तात्पर्य है कि उसे फिर तप-रूपी श्रम करने की 2/1/78) 'श्रमण' के साथ कुमार और कुमारी आवश्यकता नहीं रह जाती। जैन शास्त्रों के अनु- शब्द की सिद्धि के सम्बन्ध में यह सूत्र है । उस समय सार भी क्षपणक श्रेणी प्रारोहण करने वाला श्रमण किमारश्रमणा' जैसे पद लोक-प्रचलित थे। यह मुनि पाप और पूण्य दोनों से रहित हो जाता है
उस तापसी को कहते थे, जो कुमारी अवस्था में और कषाय तथा धाति चतुष्क का नाश करके
श्रमणा बन जाती थी। श्रमणादि-गणपाठ' के कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है। ब्रह्मोपनिषद् में
अन्तर्गत 'कुमार प्रव्रजिता', 'कुमार तापसी'--जैसे भी परब्रह्म का अनुभव करने वाले की जिस दशा
निष्पन्न शब्दों से यह सिद्ध होता है कि उस समय का वर्णन किया गया है, वह हू-बहू ऐसी ही है---
कुमारियां प्रव्रज्या ग्रहण करती थीं, यह लोक"श्रमणो न श्रमणंस्तापसो न तापस: एकमेव
विश्रु त था । भगवान् ऋषभदेव की दोनों पुत्रियों तत् परं ब्रह्म विभाति निर्वाणम् ।।"37 ने कुमारी-अवस्था में ही 'श्रमणा' पद ग्रहण किया
श्रमण शब्द सर्व प्रथम ऋग्वेद के दशम मण्डल था । प्राचार्य जिनसेन ने 'हरिवंशपुराण' में लिखा में उपलब्ध होता है । इस ऋचा में भी 'वृहदारण्य- है, "ब्राह्मी च सुन्दरी चोभे कुमायौं धैर्यसंगते । कोपनिषद्' की तरह ध्यान की उत्कृष्ट स्थिति का प्रव्रज्य बहनारीभिरार्याणां प्रभुतां गते ।"39 अर्थात् वर्णन किया गया है
धैर्य से युक्त ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों कुमारियां तृदिला अतृदिलासो अद्रयोऽश्रमणा अशृथिता अमृत्यवः अनेक स्त्रियों के साथ दीक्षा ले ायिकाओं की अनातुरा अजराः स्थामविष्णव: सुपविसो अतृषिता स्वामिनी बन गई। इसी पुराण में एक दूसरे
अतृष्णज: ।। 8 स्थान पर लिखा है, 'ब्राह्मीयं' सुन्दरीयं च समस्ताइस पर सायणाचार्य ने लिखा है-"प्रश्रमणाः गिरणागणीः । कुमारीभ्यां प्रिये ताभ्यां मारभङ्गः श्रमणवजिता: अशृथिताः अन्यरशिथिलीकृता: अ- स्फुटीकृतः ।10 इसका अर्थ है-हे प्रिये ! यह मृत्यवः अमारिताः अनातुराः अरोगाः अजराः जरार- समस्त आर्यानों की अग्रणी ब्राह्मी है और यह हिताः स्थ भवथ । किञ्च प्रभविष्णवः उत्क्षेपणाव- सुन्दरी है, इन दोनों ने कुमारी अवस्था में कामदेव क्षेपणगत्युपेताः हे प्रावाणः तृदिलाः अन्येषां भेदकाः को पराजित कर दिया है । नेमिनाथ विवाह-द्वार से
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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