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लब्धि में सहायक स्वरूप की व्याख्या प्राचार्य 1. अन्न पुण्य : भोजनादि देकर क्षुधात की क्षुधा प्रभयदेव की स्थापना सूत्र की टीका में मिलती है।
निवृत्ति करना। प्राचार्य अभयदेव कहते हैं-पुण्य वह है जो प्रात्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले 2. पान पुण्य : तृषा (प्यास) से पीडित व्यक्ति जाता है। प्राचार्य की दृष्टि में पुण्य प्राध्यात्मिक
को पानी मिलना। साधनों में सहायक तत्व हैं । मुनि सुशीलकुमार 3. लयन पुण्य : निवास के लिये स्थान देना जैसे जैनधर्म नामक पुस्तक में लिखते हैं-पुण्य मोक्षार्थियों
धर्मशालाएँ आदि बनवाना । की नौका के लिये अनुकूल वायु है जो नौका को भवसागर से शीघ्र पार करा देती हैं। जैन कवि 4. शयन पुण्य : शय्या, बिछौना आदि देना । बनारसीदासजी कहते हैं जिससे भावों की विशुद्धि हो, जिससे आत्मा ऊर्ध्व मुखी होता है अर्थात्
5. वस्त्र पुण्य : वस्त्र का दान देना । प्राध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है और जिससे 6. मन पुण्य : मन से शभ विचार करना। इस संसार में भौतिक-समृद्धि और सुख मिलता है
जगत के मंगल की शुभ कामना वही पुण्य है।
करना। जैन तत्व ज्ञान के अनुसार पुण्य कर्म 7. वचन पण्य : प्रशस्त एवं संतोष देने वाली वे शुभ पुद्गल परमाणु हैं जो शुभवृत्तियों
वाणी का प्रयोग करना। एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर प्राकर्षित हो बन्ध करते हैं और अपने विपाक के 8. काय पुण्य : रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों अवसर पर शुभ अध्यवसायों, शुभ विचारों एवं
की सेवा करना। क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक मानसिक एवं भौतिक अनुकूलतानों के संयोग प्रस्तुत
9. नमस्कार पुण्यः गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट
करने के लिये उनका अभिवादन कर देते हैं। प्रात्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ
करना। भी जो शुभ पुद्गल परमाणु को अाकर्षित करती हैं, पुण्य कहलाती हैं। साथ ही दूसरी ओर बौद्ध प्राचार दर्शन में भी पुण्य के इस दानावे पद्गल परमाणु जो इन शुभ वृत्तियों एवं त्मक स्वरूप की चर्चा मिलती है । संयुक्त निकाय क्रियाओं को प्रेरित करते हैं और अपने प्रभाव से में कहा गया है-अन्न, पान, वस्त्र, शैय्या, प्रासन एवं प्रारोग्य सम्पत्ति एवं सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम चादर के दानी पुरुष में पुण्यकी धाराएँ प्रा गिरती के अवसर उपस्थित करते हैं पुण्य कहे जाते हैं। है। अभिधम्मत्थसंगहों में 1. श्रद्धा, 2. अप्रमत्तता शुभ मनोवृत्तियां भाव पुण्य हैं और शुभ पुद्गल (स्मृति), 3. पाप कर्म के प्रति लज्जा, 4. पाप परमाणु द्रव्य पुण्य हैं।
कर्म के प्रति भय, 5. अलोभ (त्याग), 6. अद्वेषपुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण-भगवती मैत्री, 7. समभाव, 8-9. मन और शरीर की सूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रसन्नता, 10-11. मन और शरीर का हलकापन, प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण माना है। 11-12. मन और शरीर की मृदुता, 13-14. मन स्थानांग सूत्र में नव प्रकार के पुण्य बताए गए और शरीर की सरलता प्रादि को भी कुशल
चैतसिक कहा गया है ।13 1-28
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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