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जैन और बौद्ध विचारणा में पुण्य के स्वरूप डाक्टर तो पाप कर्म के बन्ध का ही भोगी होगा। को लेकर विशेष अन्तर यह है कि जन विचारणा इसके विपरीत वही डाक्टर करुणा से प्रेरित में संवर निर्जरा और पुण्य में अन्तर किया गया है। होकर वरण चीरता है और कदाचित् उससे रोगी जब कि बौद्ध विचारणा में ऐसा स्पष्ट अन्तर नहीं की मृत्यु हो जाती है तो भी डाक्टर अपनी शुभ हैं। जैनाचार दर्शन में सम्यक् दर्शन, (श्रद्धा) भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है । सम्यक् ज्ञान, (प्रज्ञा) और सम्यक् चारित्र (शील) प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी भी यही कहते हैं-पुण्य को संवर और निर्जरा के अन्तर्गत माना गया है। बंध और पाप बंध की सच्ची कसौटी केवल ऊपर जबकि बौद्ध प्राचार दर्शन में धर्म संघ और बुद्ध की क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी के प्रति दृढ़ श्रद्धा, शील और प्रज्ञा को भी पुण्य कर्ता का आशय ही है18 । (कुशलकर्म) के अन्तर्गत माना गया है 13 ।
इन कथनों के आधार पर तो यह स्पष्ट है, पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) की कसौटी : कि जैन विचारणा में भी कर्मों की शुभाशुभता के शुभाशुभता या पुण्य पाप के निर्णय के दो प्राधार निर्णय का अाधार मनोवृत्तियां ही हैं फिर भी हो सकते हैं । 1- कर्म का बाह्य स्वरूप तथा जैन विचारणा में कर्म का बाह्य स्वरूप उपेक्षित समाज पर उसका प्रभाव । 2- दूसरा कर्ता का नहीं है। यद्यपि निश्चय दृष्टि की अपेक्षा से अभिप्राय । इन दोनों में कौनसा प्राधार यथार्थ है, मनोवृत्तियां ही कर्मों की शुभाशुभता की निर्णायक यह विवाद का विषय रहा है। गीता और बौद्ध हैं तथापि व्यवहार दृष्टि में कर्म का बाह्य स्वरूप दर्शन में कर्ता के अभिप्राय को ही कृत्यों की शुभा- ही सामान्यतया शुभाशुभता का निश्चय करता है। शुभता का सच्चा प्राधार माना गया है। गीता स्पष्ट सूत्रकृतांग में पाक कुमार बौद्धों की एकांगी रूप से कहती है जिसमें कर्तृत्व भाव नहीं है, जिसकी धारणा का निरसन करते हए कहते हैं जो मांस बुद्धि निलिप्त है, वह इन सब लोगों को मार भी खाता हो चाहे न जानते हुए भी खाता हो तो भी डाले तथापि यह समझना चाहिए कि उसने न तो उसको पाप लगता ही है, हम जानकर नहीं खाते किसी को मारा है और न वह उस कर्म से बन्धन इसलिए हम को दोष (पाप) नहीं लगता ऐसा कहना में आता है। 4 । धम्मपद में बुद्ध वचन भी ऐसा ही एक दम असत्य नहीं तो क्या है19 | इससे यह (नैष्कर्म्यस्थिति को प्राप्त) ब्राह्मण माता-पिता को, स्पष्ट हो जाता है कि जैन दृष्टि में मनोवृत्ति के दो क्षत्रिय राजाओं को एवं प्रजा सहित राष्ट्र को साथ ही कर्मों का बाह्य स्वरूप भी शुभाशुभता की मारकर भी निष्पाप होकर जाता है15 । बौद्ध दर्शन दष्टि से महत्वपूर्ण है । वास्तव में सामाजिक दृष्टि में कर्ता के अभिप्राय को ही पुण्य पाप का प्राधार या लोक व्यवहार में तो यही प्रमुख निर्णायक माना गया है, इसका प्रमाण सूत्रकृतांग सूत्र के होता है । सामाजिक न्याय में तो कर्म का बाह्य प्रार्द्रक वौद्ध सम्वाद में भी मिलता है16 । जहां तक स्वरूप ही उसकी शुभाशुभता का निश्चय करता जैन मान्यता का प्रश्न है विद्वानों के अनुसार उस में हैं क्योंकि प्रान्तरिक वृत्ति को व्यक्ति स्वयं जान भी कर्ता के अभिप्राय को ही कर्म की शुभाशुभता सकता है, दूसरा नहीं। जैन दृष्टि एकांगी नहीं का आधार माना गया है । शुभ अशुभ कर्म के बंब है, वह समन्वयवादी और सापेक्षवादी है, वह व्यक्तिका प्राधार मनोवृत्तियां ही हैं । एक डाक्टर किसी सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की शुभाशुभता को पीड़ा पहुंचाने के लिए उसका वरण चीरतो है, का निर्णायक मानती है और समाज सापेक्ष होकर उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाए परन्तु कर्मों के बाह्य स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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