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प्राणिमात्र का साध्य मुक्ति है। जिस मार्ग पर चल कर मुक्तिलाभ किया जा सकता है वह साधन कहलाता है तथा उस मार्ग का ज्ञान ही विज्ञान कहलाता है । साधारणतः भौतिक शरीर के छूटने को मुक्ति माना जाता है किन्तु वह तो भौतिक होने से एक न एक दिन छूटता ही है । वास्तविक मुक्ति है तेजस और कार्मण शरीरों से छुटकारा जिनके कारण श्रात्मा जन्ममरण के चक्कर में अनादि काल से घूम रहा है । प्राणिमात्र में सभभाव रखना साधना का केन्द्र बिन्दु है और तप वह प्रक्रिया जिससे श्रात्मा के कार्मिक बन्धन ढीले होते हैं । स्व में केन्द्रित होना ही प्रतिक्रमण है तथा मूर्च्छा टूटने पर जो प्राप्त होता है वह ही महाव्रत हैं। यह है वह विज्ञान जिसे महावीर ने स्वयं जाना तथा उसकी साधना कर साध्य को पाया तथा जिस मार्ग पर चलने के लिए जनता को उपदेश दिया । इसी का वैज्ञानिक विवेचन अपनी विशिष्ट शैली में मान्य लेखक ने इस निबन्ध में प्रस्तुत किया है । जिसे पढ़कर पाठक अपने आपको लाभान्वित प्रनुभव करेंगे ऐसी प्राशा है।
- पोल्याका
वैज्ञानिक को प्रांख से -
भगवान महावीर के दर्शन
भीतर से बाहर की श्रोर
अगर हमें भगवान महावीर को समझना है तो उन्हें बाहर से न समझें बल्कि भीतर से जानें । बाहर का परिचय हने कथ्य की ओर ले जाता है, सत्य की प्रोर नहीं। सभी चौबीस तीर्थ करों की प्रतिमायें, स्वरूप में एक जैसी होती हैं । क्या इतने लम्बे समय के अन्तराल से होने वाले तीर्थ - कर, रूप में एक जैसे होंगे ? फिर एक जैसे स्वरूप करने का क्या तात्पर्य है ? इसका एक ही अर्थ यह हो सकता है कि तीर्थ कर जैसे दिव्य पुरुषों का बाह्य विसर्जित हो जाता है । फिर उनका वाह्य
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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श्री निहालचन्द जैन
व्याख्याता शा० उ० मा० वि० नौगाँव (म प्र ० )
शरीर कोई महत्व नहीं रखता। क्योंकि उन सभी तीर्थंकरों की श्रात्मायें एक ही चिन्तमय धरातल को प्राप्त हो गयी थीं । अतः हमने बाहर का रूप भी अन्तर को उजागर करने के लिये एक जैसा बना दिया है । तो इस अन्तर्दृष्टि से ही भगवान महावीर को समझें तभी ये हमारी ज्ञानक्रान्ति में प्रेरक बन सकते हैं । अन्यथा हमारी बाह्य दृष्टि 'केवल ज्ञान' प्राप्त करने के साधनों को ही साध्य मानकर यह कहती रहेगी कि केवल ज्ञान के लिए 'दिगम्बरत्व' चाहिये । अथवा अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को महावीर
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