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लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयत्न ही साधना है। प्रायः सभी भारतीय दार्शनिकों का लक्ष्य मुक्ति लाभ है। इस हेतु प्रत्येक दार्शनिक ने साधना पति का निरूपण किया है । महावीर दर्शन की भी अपनी साधना पद्धति है। वत, तप, ध्यान, स्वाध्याय, पूजा पाठ प्रादि सब उसी साधना के अंग हैं । इस साधना पद्धति में छिपे रहस्य का, वास्तविक साधना के स्वरूप का दिग्दर्शन पाठक चिन्तनशील रचनाकार को इस रचना में पावेंगे।
--पोल्याका
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जैन साधना का रहस्य
• श्री जमनालाल जैन, सहसम्पादक 'श्रमण' आई. टी. आई. रोड़
वाराणसी-5
साधना वह वैचारिक प्रक्रिया तथा सामाजिक बल्कि मृत्यु के क्षण तक चलता रहता है। यह नाचरण अथवा शामिक अनुशासन है जिसके एक प्रकार की साधना ही है। अभ्यास द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को सार्थक जीवन निरन्तर गतिशील है और हमारी करना चाहते हैं। व्यक्तित्व की सार्थकता का सबै मावश्यकताएं इस गतिशीलता के आधार पर प्रथम एव मूलभूत प्राधार हमारा शरीर है । हम घटती-बढ़ती रहती हैं। प्रारम्भ में यानी बाल्यकाल शास्त्रों का, मत-मतान्तरों का, परम्परामों का, में हमें इस जीवन की गतिशीलता का ज्ञान नहीं प्राध्यात्मिक जाति का अभ्यास एवं प्रयास कर रहता, इसलिए आवश्यकताएं भी सीमित होती या न करें, हमें जो शरीर प्राप्त है उसको टिकाए हैं। जैसे-जैसे मनु य अपनी गतिशीलता अथवा रखने, उसे सक्षम बनाने एवं उससे काम लेने के व्यक्तित्व को समझने लगता है वैसे-वैसे उसकी लिए नितांत आवश्यक है कि उसे साधा जाय। Tranam श्री व्यापक mi fair माडी
आवश्यकताए भी व्यापक एवं विराट रूप लेती जान अनजान हमारा शरीर जन्म के क्षण से सक्रिय है। खाने-पीने, नहाने-धोने, उठने बैम्ने, चलनेरहता है। प्रवृति इसमें सहायक होती है । माता-फिरने, सोने-जागने, पहनने-अोढ़ने जैसी सामान्य पिता का या परिवार का वातावरण इसमें सहायक प्रतीत होने वाली बातों में भी मनष्य आगे चलकर होता है। शरीर विकास क साथ-साथ ज्यों-ज्यों काफी सावधान एवं जागरूक होने लगता है और इन मानसिक विकास होता है, बौद्धिक क्षमता बढ़ती है। बातों की भी आचार संहिता उसके मानस पर छा त्यों-त्यों हमारी प्रक्रियाएं एवं प्रवृत्तियां भी नए- जाती है। परम्परा, संस्कार, सामाजिक व्यवहार 'नाग नए रूप ग्रहण करती हैं। और यह क्रम एक दो रिक शिष्ट चार एवं कानून के सन्दर्भ में विकासवर्ष तक या दस-बीस वर्ष तक ही नहीं चलता, मान् मनुष्य अपने जीवन का, उसकी गतिशीलता
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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