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का मूल्यांकन करता है एवं उसे सार्थक सिद्ध करने सहज मानी जाने वाली क्रियानों अथवा प्रवृत्तियों में के लिए अपनी सहज क्रियाओं को वैधानिक जामा सम्पूर्ण विश्व की प्रात्म-सावना का उम्मष करने पहना देता है ।
का महान प्रयास किया गया है। यह साधारण
घटना नहीं है जबकि अजुन श्रीकृष्ण से या पशु-पक्षियों की इन्हीं सहज प्रवृत्तियों को हम गणधर गौतम महावीर से साधारण सी प्रीत साधना नहीं कहते, क्योंकि उनकी इन सहज होने वाली उठने-बैठने, चलने-फिरने, खाने-पीने प्रवृत्तियों या कार्य-कलापों में कभी कोई विकास र क्रियानों के विषय में मार्ग-दर्शन चाहते हैं। नहीं हुआ । सरकस में काम करने वाले या विशिष्ट संस्थानों में प्रयोजनवश प्रशिक्षित पशुनों के व्यव- वस्तुत: देखा जाय तो सम्पूर्ण मानव जीवन हार-विशेष को साधना अवश्य कह सकते हैं। ही साधना मय है। जीवन अपने में साधना ही है । किन्तु इसकी भी एक मर्यादा है। मनुष्य की ऐसी जैसे प्रत्येक व्यक्ति का जीवन अद्वितीय होता है, मर्यादा नहीं है, सीमा नहीं है।
ममूल्य होता है, वैसे ही साधना भी अनन्तरूपिणी
है। सामान्यतः समान प्रतीत होने वाली एक छोटी मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो अपनी प्रत्येक सी दैनिक क्रिया भी प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न होती प्रवृत्ति, प्रत्येक कर्म एवं प्रत्येक भावना के साथ और एक व्यक्ति की भी वह दैनिक क्रिया प्रतिदिन विकासशील रहा है और इसी प्रकार उसने ज्ञान- एक सी नहीं रह पाती । ऐसा न हो तो मनुष्य जड़ विज्ञान का प्रतुल्य, अकूत कोष अपने में समाहित हो जायेगा, उसके ज्ञान का स्रोत सूख जायेगा, करता गया है।
उसका आत्म-दीपक बुझ जायेगा।
संसार के अनेक धर्मों ने मानवीय क्षमता के फिर भी साधना को भौतिक, नैतिक, एवं विकास को ध्यान में रखकर, अपने-अपने समय में प्राध्यात्मिक इन तीन वर्गों में विभाजित कर सकते व्यक्तित्व की सार्थकता के कई मायाम उदघाटित हैं। इन्हें हम व्यक्तिपरक, समष्टिपरक एवं आत्मकिये । खान-पान तथा चलने-फिरने से लेकर परक भी कह सकते हैं । भौतिक साधना में वे सब पात्मसिद्धि या परमात्म-प्राप्ति तक; समग्र जीवन चीजें ली जा सकती हैं, जो शरीर संरचना से को समटने वाली हजारों-हजार क्रियाओं पर धर्म- लेकर जीवन-संरक्षण तक पाती हैं। इनमें किसी प्रवर्तकों ने या अनुभवी महापुरुषों ने अपने विचार सीमा तक शरीर शुद्धि को भी जोड़ा जा सकता प्रकट किये हैं। छोटी से छोटी क्रिया को भी है। अपनी प्रावश्यकतानों की पूर्ति एवं उपभोग के उन्होंने साधना का स्वरूप दिया। प्रत्येक क्रिया लिए किया जाने वाला प्रयास इसमें पा जाता है । को धर्ममय कहकर उन्होंने क्रिया की प्राण-प्रतिष्ठा नैतिक साधना का क्षेत्र व्यक्ति से ऊपर उठकर की। इससे क्रियानों की गरिमा बढी, उनके प्रति समाज तक बढ़ जाता है। व्यक्ति को समाज में, सजगता बढ़ी और पारस्परिक व्यवहार में चेतनता सबके साथ रहना है, समाज के प्रति उसके अनेक का प्रवेश हुआ । जैसे कलाकार पाषाण के कण- कर्तव्य एवं दायित्व होते हैं, अपने सम्पर्क में आने कण में विराट सौन्दर्य की अनुभूति करते हुए मूर्ति वालों के प्रति उदारता, मृदुता, विनयशीलता का का निर्माण करके अपनी सम्पूर्ण चेतना-ऊर्जा बर्ताव करना पड़ता है । इन सब के लिए उसे उसमें उड़ेल देता है और वह मूर्ति हमारे समक्ष सामाजिक नियमों का पालना करना पड़ता जीवन्त हो उठती है, वैसे ही मनुष्य जीवन की है। सामाजिक धरातल पर व्यक्ति
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महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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