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क्रियाशील व्यक्तियों का कर्म भी प्रकर्म बन सकता देखते हुए भी नहीं देखता है। प्राचार्य अमृतचंद्र है । गीता कहती है कर्म न्द्रियों की सब क्रियाओं को सूरी का कथन है--रागादिकि (भावों) से मुक्त त्याग क्रिया रहित पुरुष जो अपने को सम्पूर्ण हकर आचरण करते हुए यदि हिंसा (प्राणघात) क्रियाओं का त्यागी समझता है, उसके द्वारा प्रकट हो जाये तो वह हिंसा नहीं है अर्थात् हिंसा और रूप से कोई काम होता हुआ, न दीखने पर भी अहिंसा, पाप और पुण्य बाह्य परिणामों पर निर्भर त्याग का अभिमान या प्राग्रह रखने के कारण नहीं होते हैं वरन् उसमें कर्ता की चित्तवृत्ति ही उसमे वह त्याग रूप कर्म होता है । उसका वह प्रमुख है। उतराध्ययन सूत्र में भी स्पष्ट रूप से त्याग का अभिमान या प्राग्रह, अकम को भी कर्म कहा गया है-भावों से विरक्त जीव शोक रहित बना देता है । इसी प्रकार कश्य प्राप्त होने हो जाता है वह कमल पत्र की तरह संसार में पर भय या स्वार्थवश कर्तव्य कर्म से मुह मोड़ना, रहते हुए भी लिप्त नहीं होता। गीताकार भी विहित कर्मों का त्याग कर देना आदि में भी कर्म इसी विचार दृष्टि को प्रस्तुत करते हुए कहता है नहीं होते, परन्तु इस अकम दशा में भी भय या राग जिसने कर्म फलासक्ति का त्याग कर दिया है, जो भाव अकर्म को भी कर्म बना देता है । 60 जबकि वासना शुन्य होने के कारण सदैव ही आकांक्षा अनासक्त वृत्ति और कर्तव्य की दृष्टि से जो कर्म रहित है और आत्मतत्व में स्थिर होने के कारण किया जाता है, वह राग-द्वेष के अभाव के कारण पालम्बन रहित है वह क्रियानों को करते हुए भी प्रकर्म बन जाता है। उपयुक्त विवेचना से स्पष्ट कूछ नहीं करता है। गीता का अकर्म जैन दर्शन है कि कर्म और अकर्म का निर्णय केवल शारीरिक के संवर और निर्जरा से भी तुलनीय है। जिस क्रियाशीलता या निष्क्रियता से नहीं होता । कर्ता प्रकार जैन दर्शन में संवर एवं निर्जरा के हेतु किया के भावों के अनुसार ही कर्मों का स्वरूप बनता है। जाने वाला समस्त क्रिया व्यापार मोक्ष का हेतु इस रहस्य को सम्यकोरण जानने वाला ही होने से अकर्म ही माना गया है, उसी प्रकार गीता गीताकार को दृष्टि से मनुष्यों से बुद्धिमान योगी में भी फलाकांक्षा से रहित होकर ईश्वरीय आदेश है। सभी विवेच्य प्राचार दर्शनों में कर्म अकर्म के पालनार्थ जो नियत कर्म किया जाता है वह विचार में वासना, इच्छा, या कर्तृत्व भाव ही प्रकर्म ही माना गया है । दोनों में जो विचार प्रमुख तत्व माना गया है । यदि कर्म के सम्पादन साम्प है वह एक तुलनात्मक अध्येता के लिए काफी में वासना, इच्छा या कर्तृत्व बुद्धि का भाव नहीं महत्वपूर्ण है। गीता और जैनागम प्राचारांग में तो वह कर्म बन्धन कारक नहीं होता है । दूसरे मिलने वाला निम्न विचारसाम्य ही विशेष रूपेण शब्दों में बन्धन की दृष्टि से वह कर्न अकर्म बन द्रष्टव्य है। प्राचारांग सूत्र में कहा गया है 'अग्रजाता है, वह क्रिया प्रक्रिया हो जाती है । वस्तुतः कर्म और मूल कर्म के भेदों में विवेक रखकर ही कर्म अकर्म विचार में क्रिया प्रमुख तत्व नहीं होती कर्म कर । ऐसे कर्मों का कर्ता होने पर भी वह है प्रमुख तत्व हैं कर्त्ता का चेतन पक्ष । यदि चेतना साधक निष्कर्म ही कहा जाता है । निष्कर्मता के जाग्रत है, अप्रमत्त है, विशुद्ध है, वासना शून्य है, जीवन में उपाधियों का प्राधिक्य नहीं होता, लेकिन
षार्थ दृष्टि सम्पन्न है तो फिर किया का बाह्य प्रदर्शन नहीं होता । उसका शरीर मात्र योग क्षेत्र | स्वरूप अधिक मूल्य नहीं रख सकता । पूज्यपाद का (शारीरिक क्रियानों का वाहक) होता है। कहते हैं जो प्रात्मतत्व में स्थिर है वह बोलते हुए गीता कहती है ---आत्मविजेता, इन्द्रियजित सभी भी नहीं बोलता है, चलते हुए भी नहीं चलता है, प्राणियों के प्रति समभाव रखने वाला व्यक्ति कर्म बहावीर जयन्ती स्मारिका 78
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