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_____ संसार में मुख्य रूप से दो प्रकार के दर्शन हैं--1. आत्मवादी, और | 2. अनात्मवादी । जैन, सांख्य, योग, मीमांसा आदि दर्शन प्रथम श्रेणी में आते हैं और बौद्ध दर्शन द्वितीय श्रेणी में। फिर भी दोनों ही प्रकार के दर्शन इस बात में एक मत हैं कि अच्छे कर्म का फल अच्छा और बुरे कर्म का फल बुरा मिलता है। दोनों ही प्रकार के दर्शनों ने तीन प्रकार के कर्म माने हैं। इनके नामों में भिन्नता होने पर भी इनके स्वरूप में प्रायः भिन्नता नहीं है । पाश्चात्य दर्शन भी कर्मों का विभाजन इसी प्रकार करता है। जैन, बौद्ध और गीता दर्शनों में माने गए इन तीनों ही प्रकार के कर्मों का विशद तुलनात्मक अध्ययन विद्वान् लेखक ने परिश्रमपूर्वक अपने इस निबन्ध में प्रस्तुत किया है जो इस विषय के अध्येताओं के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा।
-पोल्याका
जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का अशुभत्व, शुभत्व और शुद्धत्व
• डा० सागरमल जैन,
अध्यक्ष दर्शन विभाग हमीदिया महाविद्यालय
भोपाल (म.प्र.)
तीन प्रकार के कर्म :--
नैतिक कहा जा सकता है । लेकिन नैतिकता के क्षेत्र
में आने वाले सभी कर्म भी एक समान नहीं होते यद्यपि जैन दृष्टि से 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' की हैं, उनमें से कुछ शुभ और कुछ अशुभ होते हैं। उक्ति ठीक है, लेकिन जैनाचार दर्शन में सभी कर्म जैन परिभाषा में इन्हें क्रमशः पुण्य कर्म और पाप अथवा क्रियायें समान रूप से बन्धनकारक नहीं हैं। कर्म कहा जाता है । इस प्रकार जैन विचारणा के उसमें दो प्रकार के कर्म माने गये हैं, एक को कर्म अनुसार कर्म तीन प्रकार होते हैं। ईयापथिक कर्म कहा गया है दूसरे को अकर्म; समस्त साम्परायिक (कर्म) 2 पुण्य कर्म और 3 पाप कर्म । बौद्ध क्रियायें कर्म की श्रेणी में और ईर्यापथिक क्रियाएं विचारणा में भी तीन प्रकार के कर्म माने गये हैं अकर्म की श्रेणी में आती हैं। यदि नैतिक दर्शन 1 अव्यक्त या अकृष्ण अशुक्ल कर्म 2 कुशल या की दृष्टि से विचार करें, तो प्रथम प्रकार के कर्म शुक्ल कर्म और 3 अकुशल या कृष्णकर्म। गीता ही नैतिकता के क्षेत्र में पाते हैं और दूसरे प्रकार भी तीन प्रकार के कर्म बताती है-1 अकर्म 2 कर्म के कर्म नैतिकता के क्षेत्र से परे हैं। उन्हें अति- (कुशल कर्म) और 3 विकर्म (अकुशल कर्म) । जैन
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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