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ही शायद पाप एवं पुण्य को दो स्वतंत्र तत्व के रूप में मान लिया है।
फिर भी जैन विचारणा निर्वारण मार्ग के साधक के लिए दोनों को हेय और त्याज्य मानती है क्योंकि दोनों ही बन्धन के कारण हैं । वस्तुतः नैतिक जीवन की पूर्णता शुभाशुभ या पुण्य पाप से ऊपर उठ जाने में हैं शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) का भेद जब तक बना रहता है, नैतिक पूर्णता नहीं श्राती है । अशुभ पर पूर्ण विजय के साथ ही व्यक्ति शुभ (पुण्य) से भी ऊपर उठकर शुद्ध दशा में स्थित हो जाता है ।
जैन दृष्टिकोण--ऋषिभासित सूत्र में ऋषि कहता है - पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार संतति के मूल हैं 36 प्राचार्य कुन्दकुन्द पुण्य पाप दोनों को बन्धन का कारण मानते हुए भी दोनों के बन्धकत्व का अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं । समयसार ग्रन्थ में वे कहते हैं - शुभकर्म पाप ( कुशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं । किर भी पुण्य कर्म भी संसार ( बन्धन) का कारण होता है । जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लोह बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है । उसी प्रकार जीव कृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन का कारण होते हैं" । श्राचार्य दोनों को ही श्रात्मा की स्वाधीनता में बाधक मानते हैं। उनकी दृष्टि में पुण्य स्वर्ण की बेड़ी है और पाप लोहे की बेड़ी । फिर भी प्राचार्य पुण्य को स्वर्ण बेड़ी कहकर उसकी पाप से किंचित श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं । याचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टिकोण से पुण्य और पाप दोनों में भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि ग्रन्ततोगत्वा दोनों ही बन्धन हैं । इसी प्रकार पं० जयचन्द्रजी ने भी कहा है
पुण्यपाप दोउकरम, बंधरूप दुइ मानि ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 78
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शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, बंदू चरन हित जानि ।।
अनेक जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण लक्ष्य दृष्टि से हेय मानते हुए भी उसे निर्वारण का सहायक तत्व स्वीकार किया है। यद्यपि निर्वाण की स्थिति को प्राप्त करने के लिए अन्ततोगत्वा पुण्य को छोड़ना होता है फिर भी वह निर्वाण में ठीक उसी प्रकार सहायक है, जैसे साबुन बस्त्र के मैल को साफ करने सहायक है । शुद्ध वस्त्र के लिए साबुन का लगा होना भी जिस प्रकार अनावश्यक है उसे भी अलग करना होता है, वैसे ही निर्वाण या शुद्धात्म दशा में पुण्य का होना भी अनावश्यक है उसे भी क्षय करना होता है । लेकिन जिस प्रकार साबुन मैल को साफ करता है और मैल की सफाई होने पर स्वयं अलग हो जाना है - वैसे ही पुण्य भी पाप रूप मल को अलग करने में सहायक होता है और उसके अलग हो जाने पर स्वयं भी अलग हो जाता है। जिस प्रकार एरण्ड बीज या अन्य रेचक औषधि मल के रहने तक रहती है और मल निकल जाने पर वह भी निकल जाती है वैसे ही पाप की समाप्ति पर पुण्य भी अपना फल देकर समाप्त हो जाते हैं । वे किसी भी नव कर्म संतति को जन्म नहीं देते हैं । ग्रतः वस्तुतः व्यक्ति को अशुभ कर्म से बचना है। जब वह अशुभ (पाप) कर्म से ऊपर उठ जाता है उसका कर्म शुभ बन जाता है । शेष पर पूर्ण विजय पा जाने पर राग भी नहीं रहता है अतः राग-द्वेष के अभाव में उससे जो कर्म निसृत होते हैं वे शुद्ध (ईर्यापथिक) होते हैं ।
पुण्य (शुभ) कर्म के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुण्योपार्जन की उपरोक्त क्रियाए भी जब अनासक्तभाव से की जाती हैं तो वे शुभ बन्ध का कारण न होकर कर्मक्षय ( संवर और निर्जरा) का कारण बन जाती हैं । इसी प्रकार संवर और निर्जरा के कारण संयम और तप जब श्रासक्तभाव
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