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प्रकाशकीय
आज से 2576 वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने अपने जन्म से इस वसुंधरा को पवित्र किया था। उनके जन्म से न केवल नर ने अपितु स्वर्ग के देवों और नरक के नारकियों ने भी सुख और शांति का अनुभव किया था । तीस वर्ष महावीर गृहस्थावस्था में रहे । जनकल्याण की भावना उन में प्रारंभ से ही थी । ज्यों-ज्यों समय बीतता गया वह और दृढ़ हो गई तथा इसी भावना से प्रेरित हो उन्होंने जंगल का रास्ता लिया । 12 वर्ष तक कठोर साधना के पश्चात् विचार-मंथन से जो नवनीत निकला साररूप में शब्दों में उसे यों व्यक्त किया जा सकता है.---
1. जिस प्रकार तुम्हें जीवित रहने का अधिकार है विश्व के अन्य प्राणियों को भी है अतः स्वयं
। जीवो और दूसरों को जीने दो।
2. मनुष्य की इच्छाएं अपरिमित हैं और उपभोग के साधन सीमित अतः आवश्यकता से अधिक
संग्रह मत करो।
3. सचाई अनन्तधर्मा है । जो बात एक दृष्टिकोण से सत्य है दूसरे दृष्टिकोण से वह गलत
भी हो सकती है । पूर्ण सत्य कहा नहीं जा सकता केवल जाना जा सकता है । अतः प्राग्रही मत बनो।
प्राग्रह झगड़े की जड़ है।
महावीर के इन सिद्धान्तों का जो महत्व उस समय था उससे कहीं अधिक अाज है। उनके बताये मार्ग पर चल कर ही जीवन में सुख शांति का अनुभव किया जा सकता है।
भगवान महावीर के लोकोपकारी उपदेशों का जन-जन में प्रचार प्रसार करने के पवित्र उद्देश्य को लेकरं स्व० पं० चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ की सत्प्रेरणा से सन् 1962 में राजस्थान जैन सभा ने भ० महावीर के पुण्य जन्मावसर पर एक स्मारिका प्रकाशन का निश्चय किया था जो अद्यावधि चालू है।
स्मारिका का 15 वाँ अंक पाठकों को प्रस्तुत है । पं० चैनसुखदासजी के स्वर्गवास के पश्चात् इसका सम्पादन पं. भंवरलालजी पोल्याका जैनदर्शनाचार्य करते आ रहे हैं। आपकी निःस्वार्थ साहित्य सेवा अनूठी एवं अनुकरणीय है सभा ने आपका गत वर्ष महावीर जयन्ती पर सार्वजनिक सभा में समारोह के अवसर पर प्रायोजित विशाल जन समुदाय के सम्मुख अभिनन्दन किया।
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