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श्रात्मनिवेदन
स्मारिका प्रकाशन की जो परंपरा श्रद्धय गुरुवर्य पं. चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ ने सन् 1962 मैं प्रारंभ की थी उसका यह 15 वां अंक पाठकों के हाथों में है । गुरुवर्य द्वारा लगाया हुआ यह पौधा न केवल निर्विघ्न अपना बाल्यकाल पूरा कर चुका है, अपितु उसकी सुवास भी अब महकने लगी है । यह सब ही के सम्मिलित प्रयासों और सहयोग का फल है किसी एक को इसका श्रेय नहीं जाता ।
मेरे सम्पादन काल का यह दसवां अंक है । 60 वर्ष की आयु मैंने पूर्ण कर ली है और स्वास्थ्य ठीक न रहने से शरीर की शक्ति निरन्तर क्षीण होती हुई समाप्ति की ओर अग्रसर हो रही है शायद श्रागामी अङ्क तक इतनी शक्ति भी न रहे । यदि गार्हस्थिक समस्याओं का समाधान संभव हुआ तथा अपेक्षित सहयोग मिल सका तो खण्डेलवाल जैन श्रावक जाति के इतिहास के कुछ अनुद्घाटित पृष्ठों को प्रकाश में लाना चाहता हूँ। और भी कुछ लिखने का विचार है लेकिन इच्छाएं पूर्ण हों आवश्यक नहीं । मेरे सम्पादन काल में मुझे सभी ओर से भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ है क्या रचनाकारों का, क्या साथियों का और क्या प्रेस का; उन सबके प्रति प्राभार से मेरा मस्तक नत है ।
भविष्य में भी स्मारिका इससे भी अधिक उपयोगी बनकर पाठकों के हाथों में पहुँचती रहे, पं० साहब द्वारा प्रवाहित ज्ञान गंगा का यह प्रवाह कभी सूखे नहीं, सतत् प्रवाहित होता रहे जिसकी शीतल शांति प्रदाता लहरों में स्नान कर पाठक गरण मानसिक सुख शांति प्राप्त करते रहें ऐसी हार्दिक कामना है ।
मुझे यह स्वीकार करने में जरा भी संकोच नही कि भरपूर साधन और सहयोग मिलने पर भी मैं स्मारिका को वह रूप नहीं दे पाता जिसकी कल्पना मेरे मस्तिष्क में है । इसके बहुत से कारण हैं जिनमें मेरी अक्षमता और प्रयोग्यता भी एक कारण तो है ही ।
इस वर्ष भो बहुत सी रचनाएं स्मारिका में अपना स्थान नहीं पा सकीं। उनमें कुछ तो बहुत ही महत्वपूर्ण थी किंतु समय और साधन दोनों ही सीमित हैं । उन सबसे मैं एतद् हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ और अप्रकाशित रचनाएं लौटा रहा हूँ । भविष्य में चाहे कोई भी सम्पादन करे मेरी उन सबसे विनम्र प्रार्थना है कि वे इसी प्रकार अपना सहयोग उसे प्रदान करते रहें । मेरे सहयोगी श्री पदमचंद शाह तथा श्रीराजमलजी बेगस्या तो मेरे अनुजसम है उनका तो मैं क्या धन्यवाद करू, मेरे प्राशीर्वाद मेरी शुभ कामनाएँ उनके साथ हैं । श्री राजकुमारजी काला अध्यक्ष तथा श्री बाबूलाल सेठी मंत्री भी प्रत्येक समस्या का बड़ी तत्परता से निदान करते हैं और प्रत्येक संभव सहयोग को तत्पर रहते हैं । सभा के अन्य सारे सदस्य ही मेरे साथ बड़ा प्रेमभाव रखते हैं उनका सबका भी हृदय से मैं श्राभार मानता हूँ तथा इस सुदीर्घकाल में हुई त्रुटियों, भूलों तथा अपराधों के लिये शुद्ध हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ । मैं भविष्य में कहीं भी रहूँ या कुछ भी करू ́ इसी प्रकार स्नेह और सहयोग मुझे प्राप्त होता रहेगा इसी विश्वास के साथ :
* भंवरलाल पोल्याका
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